Chapter 2, Verse 51

Text

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः। जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।2.51।।

Transliteration

karma-jaṁ buddhi-yuktā hi phalaṁ tyaktvā manīṣhiṇaḥ janma-bandha-vinirmuktāḥ padaṁ gachchhanty-anāmayam

Word Meanings

karma-jam—born of fruitive actions; buddhi-yuktāḥ—endowed with equanimity of intellect; hi—as; phalam—fruits; tyaktvā—abandoning; manīṣhiṇaḥ—the wise; janma-bandha-vinirmuktāḥ—freedom from the bondage of life and death; padam—state; gachchhanti—attain; anāmayam—devoid of sufferings


Translations

In English by Swami Adidevananda

The wise, who possess evenness of mind, relinquish the fruits born of action, and are freed from the bondage of birth, going to the region beyond all ills.

In English by Swami Gambirananda

For those devoted to wisdom, they become enlightened men by giving up the fruits of their actions, and thus they reach a state beyond evil, having been freed from the bondage of birth.

In English by Swami Sivananda

The wise, possessing knowledge, having abandoned the fruits of their actions, and being freed from the bonds of birth, go to the place which is beyond all evil.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

By renouncing the fruits of their actions, the intelligent ones, endowed with the power of determination and freed from the bonds of birth, go to a place that is free from illness.

In English by Shri Purohit Swami

The sages, guided by pure intellect, renounce the fruits of their actions; and, thus freed from the shackles of rebirth, they attain the highest bliss.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।2.51।। समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।2.51।। बुद्धियोग युक्त मनीषी लोग कर्मजन्य फलों को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हुये अनामय अर्थात् निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

2.51 कर्मजम् actionborn? बुद्धियुक्ताः possessed of knowledsge? हि indeed? फलम् the fruit? त्यक्त्वा having abandoned? मनीषिणः the wise? जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः freed from the fetters of birth? पदम् the abode? गच्छन्ति go? अनामयम् beyond evil.Commentary Clinging to the fruits of actions is the cause of rirth. Man takes a body to enjoy them. If anyone performs actions for the sake of God in fulfilment of His purpose without desire for the fruits? he is released from the bonds of birth and attains to the blissful state or the immortal abode.Sages who possess evenness of mind abandon the fruits of their actions and thus escape from good and bad actions.Buddhi referred to in the three verses 49? 50 and 51 may be the wisdom of the Sankhyas? i.e.? the knowledge of the Self or AtmaJnana which dawns when the mind is purified by Karma Yoga.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 2.51।। व्याख्या-- 'कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः'-- जो समतासे युक्त हैं, वे ही वास्तवमें मनीषी अर्थात् बुद्धिमान् हैं। अठारहवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भी कहा है कि जो मनुष्य अकुशल कर्मोंसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मोंमें राग नहीं करता, वह मेधावी (बुद्धिमान्) है। कर्म तो फलके रूपमें परिणत होता ही है। उसके फलका त्याग कोई कर ही नहीं सकता। जैसे, कोई खेतीमें निष्कामभावसे बीज बोये, तो क्य खेतीमें अनाज नहीं होगा ?बोया है तो पैदा अवश्य होगा। ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है, तो उसको कर्मका फल तो मिलेगा ही। अतः यहाँ कर्मजन्य फलका त्याग करनेका अर्थ है --कर्मजन्य फलकी इच्छा, कामना, ममता, वासनाका त्याग करना। इसका त्याग करनेमें सभी समर्थ हैं।  'जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः'-- समतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। कारण कि समतामें स्थित हो जानेसे उनमें राग-द्वेष कामना, वासना, ममता आदि दोष किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहते, अतः उनके पुनर्जन्मका कारण ही नहीं रहता। वे जन्म-मरणरूप बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाते हैं।  'पदं गच्छन्त्यनामयम्'-- 'आमय' नाम रोगका है। रोग एक विकार है। जिसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकारका विकार न हो, उसको 'अनामय' अर्थात् निर्विकार कहते हैं। समतायुक्त मनीषीलोग ऐसे निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं। इसी निर्विकार पदको पन्द्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'अव्यय पद' और अठारहवें अध्यायके छप्पनवें श्लोकमें 'शाश्वत अव्यय पद' नामसे कहा गया है। यद्यपि गीतामें सत्त्वगुणको भी अनामय कहा गया है, (14। 6) पर वास्तवमें अनामय (निर्विकार) तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है; क्योंकि वह गुणातीत तत्त्व है, जिसको प्राप्त होकर फिर किसीको भी जन्म-मरणके चक्करमें नहीं आना पड़ता। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें हेतु होनेसे भगवान्ने सत्त्वगुणको भी अनामय कह दिया है। अनामय पदको प्राप्त होना क्या है? प्रकृति विकारशील है, तो उसका कार्य शरीर-संसार भी विकारशील हैं। स्वयं निर्विकार होते हुए भी जब यह विकारी शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह अपनेको भी विकारी मान लेता है। परन्तु जब यह शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग कर देता है, तब इसको अपने सहज निर्विकार स्वरूपका अनुभव हो जाता है। इस स्वाभाविक निर्विकारताका अनुभव होनेको ही यहाँ अनामय पदको प्राप्त होना कहा गया है। इस श्लोकमें  'बुद्धियुक्ताः'  और  'मनीषिणः'  पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जो भी समतामें स्थित हो जाते हैं, वे सब-के-सब अनामय पदको प्राप्त हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं। उनमेंसे कोई भी बाकी नहीं रहता। इस तरह समता अनामय पदकी प्राप्तिका अचूक उपाय है। इससे यह नियम सिद्ध होता है कि जब उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहता, तब स्वतः सिद्ध निर्विकारताका अनुभव हो जाता है। इसके लिये कुछ भी परिश्रम नहीं करना पड़ता; क्योंकि उस निर्विकारताका निर्माण नहीं करना पड़ता, वह तो स्वतः-स्वाभाविक ही है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।2.51।। योगयुक्त बनने के उपदेश को सुनकर अर्जुन के मन में प्रश्न उठा कि आखिर समभाव से उसको कर्म क्यों करने चाहिये। भगवान् इस प्रश्न का कुछ पूर्वानुमान कर इस श्लोक में उसका उत्तर देते हैं। बुद्धियुक्त मनीषी का अर्थ है वह पुरुष जो जीने की कला को जानता हुआ फल की चिन्ताओं से मुक्त होकर मन के पूर्ण सन्तुलन को बनाये हुये सभी कर्म करता है। दूसरे शब्दों में अहंकार और स्वार्थ से रहित व्यक्ति ही मनीषी कहलाता है।मन के साथ तादात्म्य से अहंकार उत्पन्न होता है और वह फलासक्ति के कारण बन्धनों में फँस जाता है। जीवन में उच्च लक्ष्य को रखने पर ही अहंकार और स्वार्थ का त्याग संभव है।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।2.51।।समत्वबुद्धियुक्तस्य सुकृतदुष्कृततत्फलपरित्यागेऽपि कथं मोक्षः स्यादित्याशङ्क्याह  यस्मादिति।  समत्वबुद्ध्या यस्मात्कर्मानुष्ठीयमानं दुरितादि त्याजयति तस्मात्परम्परयासौ मुक्तिहेतुरित्यर्थः। मनीषिणो हि ज्ञानातिशयवन्तो बुद्धियुक्ताः सन्तः स्वधर्माख्यं कर्मानुतिष्ठन्तस्ततो जातं फलं देहप्रभेदं हित्वा जन्मलक्षणाद्बन्धाद्विनिर्मुक्ता वैष्णवं पदं सर्वसंसारसंस्पर्शशून्यं प्राप्नुवन्तीति श्लोकोक्तमर्थं श्लोकयोजनया दर्शयति  कर्मजमित्यादिना।  इष्टो देहो देवादिलक्षणोऽनिष्टो देहस्तिर्यगादिलक्षणस्तत्प्राप्तिरेव कर्मणो जातं फलं तद्यथोक्तबुद्धियुक्ता ज्ञानिनो भूत्वा तद्बलादेव परित्यज्य बन्धविनिर्मोकपूर्वकं जीवन्मुक्ताः सन्तो विदेहकैवल्यभाजो भवन्तीत्यर्थः। बुद्धियोगादित्यादौ बुद्धिशब्दस्य समत्वबुद्धिरर्थो व्याख्यातः संप्रति परम्परां परिहृत्य सुकृतदुष्कृतप्रहाणहेतुत्वस्य समत्वबुद्धावसिद्धेर्बुद्धिशब्दस्य योग्यमर्थान्तरं कथयति  अथवेति।  अनवच्छिन्नवस्तुगोचरत्वेनानवच्छिन्नत्वं तस्याः सूचयन्बुद्ध्यन्तराद्विशेषं दर्शयति सर्वत इति। असाधारणं निमित्तं तस्या निर्दिशति  कर्मेति।  यथोक्तबुद्धेर्बुद्धिशब्दार्थत्वे हेतुमाह  साक्षादिति।  जन्मबन्धविनिर्मोकादिरादिशब्दार्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।2.51।।   पुण्यपापत्यागमात्रस्य फलत्वाभावमाशङ्क्याह  कर्मजमिति।  कर्मजं फलमिष्टानिष्टदेहप्राप्तिलक्षणं त्यक्त्वा हि यस्मात्समत्वबुद्धियुक्ता मनीषिणो ज्ञानिनो भूत्वा जन्मैव बन्धस्तेन विनिर्मुक्ताः सर्वोपद्रवरहितं विष्णोः परमं मोक्षाख्यं पदं गच्छन्ति। जीवन्त एव स्वस्वरुपेण जानन्तीत्यर्थः। कर्मजं फलं त्यक्त्वा सांख्यबुद्धियुक्ताः शुद्धैकाग्रमनस इति वा।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।2.51।।   तदुपायमाह कर्मजमिति। कर्मजं फलं त्यक्त्वाऽकामनयेश्वराय समर्प्य बुद्धियुक्ताः। सम्यग्ज्ञानिनो भूत्वा पदं गच्छन्ति। स योगः कर्म ज्ञानसाधनम्। तन्मोक्षसाधनमिति भावः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।2.51।।एतदेवाह  कर्मजमिति।  बुद्धियुक्ताः समत्वबुद्धियुक्ताः। क्रियमाणकर्मजं फलं त्यक्त्वा मनीषिणो मनोनिग्रहसमर्था भूत्वा जन्मरूपेण बन्धेन मुक्ताः सन्तोऽनामयं निरुपद्रवं पदं मोक्षाख्यं गच्छन्ति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।2.51।।बुद्धियोगयुक्ताः  कर्मजं फलं त्यक्त्वा  कर्म कुर्वन्तः तस्माद्  जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः अनामयं पदं गच्छन्ति।  हि प्रसिद्धम् एतत् सर्वासु उपनिषत्सु इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।2.51।।कर्मणां मोक्षसाधनत्वप्रकारमाह  कर्मेति।  कर्मजं फलं त्यक्त्वा केवलमीश्वराराधनार्थमेव कर्म कुर्वाणा मनीषिणो ज्ञानिनो भूत्वा जन्मरूपेण बन्धेन विनिर्मुक्ताः सन्तोऽनामयं सर्वोपद्रवरहितं विष्णोः पदं मोक्षाख्यं गच्छन्ति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।2.51।।दूरेण हीति। बुद्धियोगात्किल हेतोः अवरं दुष्टफलयुक्तं (K omits युक्तं) रिक्तं ( omits रिक्तं) कर्म दूरीभवति। अतस्तादृश्यां बुद्धौ शरणमन्विच्छ प्रार्थयस्व येन सा बुद्धिः लभ्यते।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।2.51।।ननु कर्मजमिति श्लोकः पूर्वोक्तान्न विशिष्यत इत्यत आह  तदि ति। तस्य ज्ञानस्य उपायं योगं तज्ज्ञानमुपायो यस्य तं मोक्षं चाह विवृणोतीत्यर्थः। व्यवहितत्वादन्वयमाह कर्मजं फलं त्यक्त्वा। अप्राप्तस्य फलस्य कथं त्याग इत्यतो व्याचष्टे  अकामनये ति। प्रकृत्यादिभ्य उपसङ्ख्यानात्तृतीया। एतत्प्रागुक्तमित्यतः प्रकारान्तरेण व्याचष्टे  ईश्वराये ति।बुद्धियुक्ता मनीषिणः इति पौनरुक्त्यपरिहारायाऽऽह  बुद्धी ति। सम्यग्ज्ञानिन इतिशास्त्रजनिततत्त्वज्ञानिनः। अनेनमनीषिणः इत्यपरोक्षज्ञानिन इति सूचितम् प्रशंसायां मत्वर्थीयविधानात्। नन्विदमेकं वाक्यं कथं वाक्यार्थद्वयस्य विवरणम् मोक्षस्वरूपविवरणेऽपि योगो न सम्यक् विवृतः अङ्गिनः कर्मण एवानभिधानात् अङ्गानां च सङ्कल्पत्यागादीनामित्यत आह  स  इति। समस्ताङ्गसङ्ग्रहाय योगग्रहणम्। तज्ज्ञानं यद्यपि योजनावशादिदमेकं वाक्यं तथाप्यर्थद्वयवशाद्द्वे वेदितव्ये। योगश्चकर्मजं फलं त्यक्त्वा इत्यनेन समग्रो लक्षित इति भावः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।2.51।।ननु दुष्कृतहानमपेक्षितं नतु सुकृतहानं पुरुषार्थभ्रंशापत्तेरित्याशङ्क्य तुच्छफलत्यागेन परमपुरुषार्थप्राप्तिं फलमाह समत्वबुद्धियुक्ता हि यस्मात्कर्मजं फलं त्यक्त्वा केवलमीश्वराराधनार्थं कर्माणि कुर्वाणाः सत्त्वशुद्धिद्वारेण मनीषिणस्तत्त्वमस्यादिवाक्यजन्यात्ममनीषावन्तो भवन्ति तादृशाश्च सन्तो जन्मात्मकेन बन्धेन विनिर्मुक्ताः विशेषेणात्यन्तिकत्वलक्षणेन निरवशेषं मुक्ताः पदं पदनीयमात्मतत्त्वमानन्दरूपं ब्रह्म अनामयमविद्यातत्कार्यात्मकरोगरहितमभयं मोक्षाख्यं पुरुषार्थं गच्छन्ति। अभेदेन प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। यस्मादेवं फलकामनां त्यक्त्वा समत्वबुद्ध्या कर्माण्यनुतिष्ठन्तस्तैः कृतान्तःकरणशुद्धयस्तत्त्वमस्यादिप्रमाणोत्पन्नात्मतत्त्वज्ञानविनष्टाज्ञानतत्कार्याः सन्तः सकलानर्थनिवृत्तिपरमानन्दप्राप्तिरूपं मोक्षाख्यं विष्णोः परमं पदं गच्छन्ति तस्मात्त्वमपियच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे इत्युक्तेः श्रेयोजिज्ञासुरेवंविधं कर्मयोगमनुतिष्ठेति भगवतोऽभिप्रायः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।2.51।।ननु कर्मणां स्वतन्त्रफलकत्वं भक्तेः कथं साधनता इत्याशङ्क्याह कर्मजमिति। मनीषिणः शास्त्रार्थज्ञातारः। बुद्धियुक्ता बुद्धिर्युक्ता येषां तादृशत्वं च भक्तिप्रयत्नवत्त्वेन ते हि निश्चयेन कर्मजं फलं त्यक्त्वा जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः सन्तोऽनामयं पदं भक्तिरूपं गच्छन्तीत्यर्थः। अन्यत्र रोगादिकं भवति न तु भक्तौ भगवच्चरणरूपायाम्। अत एव श्रीभागवते 10।3।27 मृत्युभयाभावत्वं भगवच्चरणे निरूपितम्।मर्त्यःइत्यारभ्यमृत्युरस्मादपैति इत्यन्तेन श्लोकेन देवकीस्तुतौ।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।2.51।।  कर्मजं  फलं त्यक्त्वा इति व्यवहितेन संबन्धः। इष्टानिष्टदेहप्राप्तिः कर्मजं फलं कर्मभ्यो जातं  बुद्धियुक्ताः  समत्वबुद्धियुक्ताः सन्तः  हि  यस्मात्  फलं त्यक्त्वा  परित्यज्य  मनीषिणः  ज्ञानिनो भूत्वा  जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः  जन्मैव बन्धः जन्मबन्धः तेन विनिर्मुक्ताः जीवन्त एव जन्मबन्धात् विनिर्मुक्ताः सन्तः  पदं  परमं विष्णोः मोक्षाख्यं  गच्छन्ति   अनामयं  सर्वोपद्रवरहितमित्यर्थः। अथवा बुद्धियोगाद्धनञ्जय इत्यारभ्य परमार्थदर्शनलक्षणैव सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीया कर्मयोगजसत्त्वशुद्धिजनिता बुद्धिर्दर्शिता साक्षात्सुकृतदुष्कृतप्रहाणादिहेतुत्वश्रवणात्।।योगानुष्ठानजनितसत्त्वशुद्धजा बुद्धिः कदा प्राप्स्यते इत्युच्यते

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।2.51।।एवं योगेन व्यवसायिनां सिद्धिप्रकारं सदाचारेण दर्शयति कर्मजमिति। फलं त्यक्त्वा जन्मैव बन्धरूपं तेन विनिर्मुक्ता अनामयं पदं धाम अक्षराख्यं स्वरूपं गच्छन्ति।


Chapter 2, Verse 51