आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः। आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।2.29।।
āśhcharya-vat paśhyati kaśhchid enan āśhcharya-vad vadati tathaiva chānyaḥ āśhcharya-vach chainam anyaḥ śhṛiṇoti śhrutvāpyenaṁ veda na chaiva kaśhchit
āśhcharya-vat—as amazing; paśhyati—see; kaśhchit—someone; enam—this soul; āśhcharya-vat—as amazing; vadati—speak of; tathā—thus; eva—indeed; cha—and; anyaḥ—other; āśhcharya-vat—similarly amazing; cha—also; enam—this soul; anyaḥ—others; śhṛiṇoti—hear; śhrutvā—having heard; api—even; enam—this soul; veda—understand; na—not; cha—and; eva—even; kaśhchit—some
One regards This (self) as a wonder; another speaks of It as a wonder; yet another hears of It as a wonder; and even after hearing of It, one does not know It.
Someone visualizes it as a wonder; someone else talks of it as a wonder; someone else hears of it as a wonder; and yet someone else does not even realize it after hearing about it.
One sees this (the Self) as a wonder; another speaks of it as a wonder; another hears of it as a wonder; yet, having heard, none understands it at all.
This someone observes as a wonder; similarly, another speaks of This as a wonder; another hears This as a wonder; but even after hearing, not even one understands This.
One hears of the Spirit with surprise, another thinks it marvelous, the third listens without comprehending. Thus, though many are told about it, scarcely is there one who knows it.
।।2.29।। कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता है और वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है; और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता। अर्थात यह शरीरी दुर्विज्ञेय है।
।।2.29।। कोई इसे आश्चर्य के समान देखता है; कोई इसके विषय में आश्चर्य के समान कहता है; और कोई अन्य पुरुष इसे आश्चर्य के समान सुनता है; और फिर कोई सुनकर भी नहीं जानता।।
2.29 आश्चर्यवत् as a wonder? पश्यति sees? कश्चित् sone one? एनम् this (Self)? आश्चर्यवत् as a wonder? वदति speaks of? तथा so? एव also? च and? अन्यः another? आश्चर्यवत् as a wonder? च and? एनम् this? अन्यः another? श्रृणोति hears? श्रुत्वा having heard? अपि even? एनम् this? वेद knows? न not? च and? एव also? कश्चित् any one.Commentary The verse may also be interpreted in this manner. He that sees? hears and speaks of the Self is a wonderful man. Such a man is very rare. He is one among many thousands. Thus the Self is very hard to understand.
2.29।। व्याख्या-- 'आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्'-- इस देहीको कोई आश्चर्यकी तरह जानता है। तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरी चीजें देखने सुनने पढ़ने और जाननेमें आती हैं वैसे इस देहीका जानना नहीं होता। कारण कि दूसरी वस्तुएँ इदंतासे ( यह करके) जानते हैं अर्थात् वे जाननेका विषय होती हैं पर यह देही इन्द्रिय मनबुद्धिका विषय नहीं है। इसको तो स्वयंसे अपनेआपसे ही जाना जाता है। अपनेआपसे जो जानना होता है वह जानना लौकिक ज्ञानकी तरह नहीं होता प्रत्युत बहुत विलक्षण होता है। 'पश्यति' पदके दो अर्थ होते हैं नेत्रोंसे देखना और स्वयंके द्वारा स्वयंको जानना। यहाँ 'पश्यति' पद स्वयंके द्वारा स्वयंको जाननेके विषयमें आया है (गीता 2। 55 6। 20 आदि)। जहाँ नेत्र आदि करणोंसे देखना (जानना) होता है वहाँ द्रष्टा (देखनेवाला) दृश्य (दीखनेवाली वस्तु) और दर्शन (देखनेकी शक्ति) यह त्रिपुटी होती है। इस त्रिपुटीसे ही सांसारिक देखनाजानना होता है। परन्तु स्वयंके ज्ञानमें यह त्रिपुटी नहीं होती है अर्थात् स्वयंका ज्ञान करणसापेक्ष नहीं है। स्वयंका ज्ञान तो स्वयंके द्वारा ही होता है अर्थात् वह ज्ञान करणनिरपेक्ष है। जैसे मैं हूँ ऐसा जो अपने होनेपन ज्ञान है इसमें किसी प्रमाणकी या किसी करणकी आवश्यकता नहीं है। इस अपने होनेपनको इदंता से अर्थात् दृश्यरूपसे नहीं देख सकते। इसका ज्ञान अपनेआपको ही होता है। यह ज्ञान इन्द्रियजन्य या बुद्धिजन्य नहीं है। इसलिये स्वयंको (अपनेआपको) जानना आश्चर्यकी तरह होता है। जैसे अँधेरे कमरेमें हम किसी चीजको लाने जाते हैं तो हमारे साथ प्रकाश भी चाहिये और नेत्र भी चाहिये अर्थात् उस अँधेरे कमरेमें प्रकाशकी सहायतासे हम उस चीजको नेत्रोंसे देखेंगे तब उसको लायेंगे। परन्तु कहीं दीपक जल रहा है और हम उस दीपकको देखने जायँगे तो उस दीपकको देखनेके लिये हमें दूसरे दीपककी आवश्यकता नहीं पड़ेगी क्योंकि दीपक स्वयंप्रकाश है। वह अपनेआपको स्वयं ही प्रकाशित करता है। ऐसे ही अपने स्वरूपको देखनेके लिये किसी दूसरे प्रकाशकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह देही (स्वरूप) स्वयंप्रकाश है। अतः यह अपनेआपसे ही अपनेआपको जानता है। स्थूल सूक्ष्म और कारण ये तीन शरीर हैं। अन्नजलसे बना हुआ स्थूलशरीर है। यह स्थूलशरीर इन्द्रियोंका विषय है। इस स्थूलशरीरके भीतर पाँच ज्ञानेन्द्रियों पाँच कर्मेन्द्रियाँ पाँच प्राण मन और बुद्धि इन सत्रह तत्त्वोंसे बना हुआ सूक्ष्मशरीर है। यह सूक्ष्मशरीर इन्द्रियोंका विषय नहीं है प्रत्युत बुद्धिका विषय हैं। जो बुद्धिका भी विषय नहीं है जिसमें प्रकृति स्वभाव रहता है वह कारणशरीर है। इन तीनों शरीरोंपर विचार किया जाय तो यह स्थूलशरीर मेरा स्वरूप नहीं है क्योंकि यह प्रतिक्षण बदलता है और जाननेमें आता है। सूक्ष्मशरीर भी बदलता है और जाननेमें आता है अतः यह भी मेरा स्वरूप नहीं है। कारणशरीर प्रकृतिस्वरूप है पर देही (स्वरूप) प्रकृतिसे भी अतीत है अतः कारणशरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है। यह देही जब प्रकृतिको छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है तब यह अपनेआपसे अपनेआपको जान लेता है। यह जानना सांसारिक वस्तुओंको जाननेकी अपेक्षा सर्वथा विलक्षण होता है इसलिये इसको 'आश्चर्यवत् पश्यति' कहा गया है। यहाँ भगवान्ने कहा है कि अपनेआपका अनुभव करनेवाला कोई एक ही होता है 'कश्चित्' और आगे सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भी यही बात कही है कि कोई एक मनुष्य ही मेरेको तत्त्वसे जानता है 'कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः'। इन पदोंसे ऐसा मालूम होता है कि इस अविनाशी तत्त्वको जानना बड़ा कठिन है दुर्लभ है। परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। इस तत्त्वको जानना कठिन नहीं है दुर्लभ नहीं है प्रत्युत इस तत्त्वको सच्चे हृदयसे जाननेवालेकी इस तरफ लगनेवालेकी कमी है। यह कमी जाननेकी जिज्ञासा कम होनेके कारण ही है। 'आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः'-- ऐसे ही दूसरा पुरुष इस देहीका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है क्योंकि यह तत्त्व वाणीका विषय नहीं है। जिससे वाणी भी प्रकाशित होती है वह वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है जो महापुरुष इस तत्त्वका वर्णन करता है वह तो शाखाचन्द्रन्यायकी तरह वाणीसे इसका केवल संकेत ही करता है जिससे सुननेवालेका इधर लक्ष्य हो जाय। अतः इसका वर्णन आश्चर्यकी तरह ही होता है। यहाँ जो 'अन्यः' पद आया है उसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो जाननेवाला है उससे यह कहनेवाला अन्य है क्योंकि जो स्वयं जानेगा ही नहीं वह वर्णन क्या करेगा अतः इस पदका तात्पर्य यह है कि जितने जाननेवाले हैं उनमें वर्णन करनेवाला कोई एक ही होता है। कारण कि सबकेसब अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष उस तत्त्वका विवेचन करके सुननेवालेको उस तत्त्वतक नहीं पहुँचा सकते। उसकी शंकाओंका तर्कोंका पूरी तरह समाधान करनेकी क्षमता नहीं रखते। अतः वर्णन करनेवालेकी विलक्षण क्षमताका द्योतन करनेके लिये ही यह अन्यः पद दिया गया है। 'आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति'-- दूसरा कोई इस देहीको आश्चर्यकी तरह सुनता है। तात्पर्य है कि सुननेवाला शास्त्रोंकी लोकलोकान्तरोंकी जितनी बातें सुनता आया है उन सब बातोंसे इस देहीकी बात विलक्षण मालूम देती है। कारण कि दूसरा जो कुछ सुना है वह सबकासब इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदिका विषय है परन्तु यह देही इन्द्रियों आदिका विषय नहीं है प्रत्युत यह इन्द्रियों आदिके विषयको प्रकाशित करता है। अतः इस देहीकी विलक्षण बात वह आश्चर्यकी तरह सुनता है। यहाँ 'अन्यः' पद देनेका तात्पर्य है कि जाननेवाला और कहनेवाला इन दोनोंसे सुननेवाला (तत्त्वका जिज्ञासु) अलग है। 'श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्'-- इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसने सुन लिया तो अब वह जानेगा ही नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि केवल सुन करके (सुननेमात्रसे) इसको कोई भी नहीं जान सकता। सुननेके बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा तब वह अपनेआपसे ही अपनेआपको जानेगा (टिप्पणी प0 69) । यहाँ कोई कहे कि शास्त्रोँ और गुरुजनोंसे सुनकर ज्ञान तो होता ही है फिर यहाँ सुन करके भी कोई नहीं जानता ऐसा कैसे कहा गया है इस विषयपर थोड़ी गम्भीरतासे विचार करके देखें कि शास्त्रोंपर श्रद्धा स्वयं शास्त्र नहीं कराते और गुरुजनोंपर श्रद्धा स्वयं गुरुजन नहीं कराते किन्तु साधक स्वयं ही शास्त्र और गुरुपर श्रद्धाविश्वास करता है स्वयं ही उनके सम्मुख होता है। अगर स्वयंके सम्मुख हुए बिना ही ज्ञान हो जाता तो आजतक भगवान्के बहुत अवतार हुए हैं बड़ेबड़े जीवन्मुक्त महापुरुष हुए हैं उनके सामने कोई अज्ञानी रहना ही नहीं चाहिये था। अर्थात् सबको तत्त्वज्ञान हो जाना चाहिये था पर ऐसा देखनेमें नहीं आता। श्रद्धाविश्वासपूर्वक सुननेसे स्वरूपमें स्थित होनेमें सहायता तो जरूर मिलती है पर स्वरूपमें स्थित स्वयं ही होता है। अतः उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य तत्त्वज्ञानको असम्भव बतानेमें नहीं प्रत्युत उसे करणनिरपेक्ष बतानेमें है। मनुष्य किसी भी रीतिसे तत्त्वको जाननेका प्रयत्न क्यों न करे पर अन्तमें अपनेआपसे ही अपनेआपको जानेगा। श्रवण मनन आदि साधन तत्त्वके ज्ञानमें परम्परागत साधन माने जा सकते हैं पर वास्तविक बोध करणनिरपेक्ष (अपनेआपसे) ही होता है। अपनेआपसे अपनेआपको जानना क्या होता है एक होता है करना एक होता है देखना और एक होता है जानना। करनेमें कर्मेन्द्रियोंकी देखनेमें ज्ञानेन्द्रियोंकी और जाननेमें स्वयंकी मुख्यता होती है। ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा जानना नहीं होता प्रत्युत देखना होता है जो कि व्यवहारमें उपयोगी है। स्वयंके द्वारा जो जानना होता है वह दो तरहका होता है एक तो शरीरसंसारके साथ मेरी सदा भिन्नता है और दूसरा परमात्माके साथ मेरी सदा अभिन्नता है। दूसरे शब्दोंमें परिवर्तनशील नाशवान् पदार्थोंके साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है और अपरिवर्तनशील अविनाशी परमात्माके साथ मेरा नित्य सम्बन्ध है। ऐसा जाननेके बाद फिर स्वतः अनुभव होता है। उस अनुभवका वाणीसे वर्णन नहीं हो सकता। वहाँ तो बुद्धि भी चुप हो जाती है। सम्बन्ध -- अबतक देह और देहीका जो प्रकरण चल रहा था उसका आगेके श्लोकमें उपसंहार करते हैं।
।।2.29।। परमार्थ तत्त्व का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि वह अनन्त सर्वज्ञ और आनन्दस्वरूप है जबकि हमारा अपने ही विषय में अनुभव यह है कि हम परिच्छिन्न अज्ञानी और दुखी हैं। इस प्रकार जो हमारा वास्तविक आत्मस्वरूप है उससे सर्वथा भिन्न हमारा प्रत्यक्ष अनुभव है। पारमार्थिक स्वरूप और प्रत्यक्ष अनुभव इन दोनों का अन्तर शीत और उष्ण प्रकाश और अंधकार के अन्तर के समान प्रतीत हो रहा है। क्या कारण है कि हम अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव नहीं कर पाते हैं अज्ञान अवस्था में जब हम सत्य को जानना चाहते हैं तब हमारी यह धारणा होती है कि वह सत्य एक ऐसा लक्ष्य है जो कहीं दूर स्थान में स्थित है जिसकी प्राप्ति किसी काल विशेष में ही होगी। परन्तु यदि हम भगवान के उपदेश पर विश्वास करें तो यह ज्ञात होगा कि हम उस सत्य से कभी भी दूर नहीं हैं क्योंकि वह तो हमारा स्वरूप ही है। एक र्मत्य जीव अमरत्व से उतना ही दूर है जितना कि स्वप्नद्रष्टा जाग्रत पुरुष से।जो मनुष्य अपने आत्मस्वरूप के वैभव के प्रति जागरूक है वही ईश्वर है और स्वस्वरूप के वैभव से विस्मृत ईश्वर ही मोहित जीव हैप्रथम तो इस जीव को शरीर मन और बुद्धि के परे स्थित आत्मा के अस्तित्व के विचार को ही समझना कठिन होता है और जब वह आत्मविकास की साधना का अभ्यास करके अपने आनन्दस्वरूप को पहचानता है तब वह उस इन्द्रियातीत अनन्त आनन्दस्वरूप का अनुभव कर आश्चर्यचकित रह जाता है।आश्चर्य की भावना जब मन में उठती है तब उसमें यह सार्मथ्य होती है कि क्षण भर के लिए आश्चर्यचकित व्यक्ति को और कुछ सूझता ही नहीं और वह उस क्षण उस भावना के साथ तदाकार हो जाता है। प्रयोग के तौर पर आप किसी व्यक्ति को अचानक आश्चर्यचकित कर दें और फिर उसके मुख के भावों को देखें। मुँह खुला हुआ कुछ न देखती हुई बाहर निकली हुई आँखें प्रत्येक शिरा तनाव से खिंची हुई वह व्यक्ति पुतले के समान क्षण भर के लिए अपने ही स्थान पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ खड़ा रह जाता है।इसी प्रकार आत्मानुभव का भी वह आनन्द है जब आत्मा ही आत्मा के साथ आत्मा में ही रमण कर रही होती है। और इसीलिए महान ऋषियों ने इस अनुभव को आश्चर्य शब्द से सूचित किया जब अहंकार जीव समाप्त होकर शुद्ध अनन्तस्वरूप मात्र रह जाता है।अज्ञानी पुरुष समझता है कि मैं शरीर हूँ जिसमें आत्मा का वास है परन्तु ज्ञानी पुरुष जानता है कि मैं आत्मा हूँ जिसने शरीर धारण किया है । जो साधक सम्यक् प्रकार से इस उपदेश का श्रवण करते हैं उनको आगे उसी पर मनन करने को उत्साहित किया जाता है और तत्पश्चात् जब तक यथार्थ में आत्मसाक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक उसके लिए ध्यान करने का उपदेश किया गया है। इस श्लोक से अज्ञानी पुरुष को भी श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा इस विरले प्रकार के श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करने की प्रेरणा मिल सकती है। आत्मतत्त्व को विषय के रूप में नहीं जाना जा सकता। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि इसको सुनकर कोई भी व्यक्ति इसे नहीं जानता।अगले श्लोक में इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं
।।2.29।।अर्जुनं प्रत्युपालम्भं दर्शयित्वा प्रकृतस्यात्मनो दुर्विज्ञेयत्वात्तं प्रत्युपालम्भो न संभवतीति मन्वानः सन्नाह दुर्विज्ञेय इति। तथाचात्माज्ञाननिमित्तविप्रलम्भस्य साधारणत्वादसाधारणोपलम्भस्य निरवकाशतेत्याह किं त्वामेवेति। अहंप्रत्ययवेद्यत्वादात्मनो दुर्विज्ञेयत्वमसिद्धमिति शङ्कते कथमिति। विशिष्टस्यात्मनोऽहंप्रत्ययस्य दृष्टत्वेऽपि केवलस्य तदभावादस्ति दुर्विज्ञेयतेति श्लोकमवतारयति आहेति। आश्चर्यवदित्याद्येन पादेनात्मविषयदर्शनस्य दुर्लभत्वं दर्शयता द्रष्टुर्दौर्लभ्यमुच्यते द्वितीयेन च तद्विषयवेदनस्य दुर्लभत्वोक्तेस्तदुपदेष्टुस्तथात्वं कथ्यते तृतीयेन तदीयश्रवणस्य दुर्लभत्वद्वारा श्रोतुर्विरलता विवक्षिता श्रवणदर्शनोक्तीनां भावेऽपि तद्विषयसाक्षात्कारस्यात्यन्तायासलभ्यत्वं चतुर्थेनाभिप्रेतमिति विभागः। आत्मगोचरदर्शनादिदुर्लभत्वद्वारा दुर्बोधत्वमात्मनः साधयति आश्चर्यवदिति। संप्रत्यात्मनि दृष्टुर्वक्तुः श्रोतुः साक्षात्कर्तुश्च दुर्लभत्वाभिधानेन तदीयं दुर्बोधत्वं कथयति अथवेति। व्याख्यानद्वयेऽपि फलितमाह अत इति।
।।2.29।। शुद्धात्मनो दुर्विज्ञेयत्वाद्रभान्तेश्च सर्वसाधारणत्वान्न त्वां प्रत्येवोपालम्भो युक्त इत्याह आश्चर्यवदिति। आश्चर्यमद्भुतभदृष्टपूर्वमकस्मादृष्यमानं तेन तुल्यमाश्चर्यवत्। कश्चिदेनमात्मानमाश्चर्यवत्पश्यति। तथैव चान्य एनमाश्चर्यवद्वदति। अन्यश्चैनमाश्चर्यवच्छ्रणोति। श्रुत्वोक्त्वा दृष्ट्वाप्येनं कश्चित्प्रतिबन्धवशान्न वेद साक्षान्न जानाति।ऐहिकमप्यप्रस्तुतप्रतिबन्धे तद्दर्शनात् इति व्याससूत्रात् फलोन्मुखं विद्याविरुद्धफलत्वं कर्म प्रस्तुतं तेन प्रतिबन्धः प्रस्तुतप्रतिबन्ध तदभावेऐहिकभस्मिन्नेव जन्मनि विद्या जायते सति तु तस्मिञ्जन्मान्तरेऽपि सा जायते कुतः तद्दर्शनात् प्रतिबन्धतदभावभ्यामुभयविधविद्याजन्मनः श्रुतौ दर्शनात्गर्भस्थ एव वामदेवः प्रतिपेदे ब्रह्मभावम् इति वदन्ती श्रुतिः सति प्रतिबन्धे जन्मान्तरसंचितसाधनाज्जन्मान्तरे विद्योत्पत्तिं दर्शयतीति तदर्थः। यद्वा योऽयमात्मानं पश्यति स आश्चर्यतुल्य एवमग्रेऽपि यो वदति यश्च श्रृणोति सोऽनेकशतसहस्त्रेषु कश्चिदेव यश्चोक्त्वा श्रुत्वा पश्यति परोक्षज्ञानवान् भवति स ततोऽपि दुर्लभः यस्तु साक्षात्करोति स तु ततोऽपि दर्लभ इत्याह श्रुत्वापीति। अतो दुर्बोध आत्मेत्यभिप्रायः। तथाच प्रथमपक्षे प्रथमपादेनात्मविषयकपरोक्षदर्शनस्य तथैव द्वितीयेन वदनस्य तृतीयने श्रवणस्य चच दुर्लभत्वं चतुर्थेन साक्षात्कारस्य चात्यन्तदौर्लभ्यं च दर्शयता द्रष्टुर्वक्तुः श्रोतुः साक्षात्कर्तुर्विरलतोच्यते। तद्द्वारा चात्मनो दुर्विज्ञेयत्वं कथ्यते। द्वितीयपक्षे त्वात्मनि चतुर्णां दुर्लभत्वकथनेन तदीयं दुर्बोधत्वमुच्यत इति विवेकः। इत्थं च श्रुत्यैकार्थत्वमस्याः स्मृतेः सभ्यगुपपद्यते। तथाच श्रुतिःश्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः श्रृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः। आश्चर्योऽस्य वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा आश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः इति। विवृता चेयं भगवत्पादैः प्रायेण ह्येवंविधएव लोकः यस्तु श्रेयोर्थी सोऽनेकशतसहस्त्रेषु कश्चिदेवात्मविद्भवति त्वद्विधः यस्मादित्याह। श्रवणायापि श्रवणार्थं श्रोतुमपि यो न लभ्यः आत्मा बहुभिरनेकैः शृणवन्तो बहवोऽनेकेऽन्ये यमात्मानं न विद्युर्न विन्दन्ति अभागिनोऽसंस्कृतात्मानो न विजानीयुः। किंचास्य वक्ताप्याश्चर्योऽश्रुतव देवानेकेषु कश्चिदेव भवति। तथा श्रुत्वाप्यस्यात्मनः कुशलो निपुण एवानेकेषु लब्धा कश्चिदेव भवति। तस्मादाश्चर्यो ज्ञाता कश्चिदेव कुशलानुशिष्टः कुशलेन निपुणेनाचार्येणानुशिष्टः सन्नित्यर्थ इति। तथाच श्रवणायापीत्यादेरर्थः आश्चर्यवत्कश्चिदेनं श्रृणोतीति श्रृण्वन्तोऽपीत्यादेः श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चिदिति आश्चर्यो वक्तेत्यस्य आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य इति कुशलोऽस्येत्यादेराश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमिति आश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्ट इत्येतत्तु कुशल इत्यादेर्व्याख्यानं तस्मादित्यादिभाष्यात्। यद्वा लब्धा परोक्षज्ञानवान् ज्ञाता साक्षात्कर्ता। आश्चर्यवत्पश्यतीत्यत्रापि द्विविधं दर्शनं वक्ष्यते श्रुत्येकवाक्यतार्थम्। अस्मिन्पक्षेपरोक्षेणापरोक्षेण वाऽस्य दर्शनं द्रष्टावात्यन्तदुर्लभः परोक्षेणास्य दर्शनं द्रष्टा वा कुतो दुर्लभ इत्यत आह आश्चर्यवद्वदती त्यादि। तोऽस्य कथनं वक्ता वा श्रवणं श्रोता वा दुर्लभोऽत इत्यर्थः। अपरोक्षेणास्य दर्शनस्य द्रष्टुर्वात्यन्तदौर्लभ्ये हेतुमाह श्रुत्वापीति। श्रुत्वा उक्त्वा परोक्षेण दृष्ट्वाप्येनं कश्चिदभागी असंस्कृतात्मा लोको नचैव जानातीति। अतः साक्षादस्य दर्शनं द्रष्टा वात्यन्तदुर्लभ इत्यर्थः। एतेन यदि श्रुत्वाप्येनं न चैव कश्चिदित्येवं व्याख्यायेत तदाआश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः इति श्रुत्येकवाक्यता न स्यात्।यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः इति भगवद्वचनविरोधश्चेति प्रत्युक्तम्। य आत्मानं पश्यति स आश्चर्यतुल्यो यो वदति यश्च शृणोति सोऽनेकसहस्त्रेषु कश्चिदेवेति भाष्यात्स्मृतिविरोधानवकाशाच्च। अत्र केचिद्वर्णयन्ति। एनं प्रकृतं देहिनं आश्चर्येणाद्भुतेन तुल्यतया वर्तमानं आविद्यकनानाविरुद्धधर्मवत्तया सन्तमप्यसन्तमिव स्वप्रकाशचैतन्यरुपमपि जडमिवानन्दरुपमपि दुःखितमिवेत्याद्यसंभावितविचित्रानेकाकारप्रतीतिविषयं पश्यति शास्त्राचार्योपदेशाभ्यामाविद्यकसर्वद्वैतनिषेधेन परमात्मस्वरुपाकारायां वेदान्तमहावाक्यजन्यायां सर्वसुकृतफलभूतायामन्तःकरणवृत्तौ प्रतिफलितं समाधिपरिपाकेन साक्षात्करोति। कश्चिच्छमदमादिसाधनसंपन्नचरमशरीरः कश्चिदेव मर्त्यो नतु सर्वः। तथा कश्चिदेनं यत्पश्यति तदाश्चर्यवदिति क्रियाविशेषणम्। आविद्यकमपि दर्शनमविद्यां स्वात्मानं च निवर्तयतीति। तथा यः कश्चिदेनं पश्यति स आश्चर्यवदिति कर्तृविशेषणम्। यत एकएव विद्वान् समाधिव्युत्थानयोः परस्परविरुद्धमात्मनो ब्रह्मभावं जीवभावं च यावत्प्रारबधकर्मक्षयमनुभवतीति तदेतत्र्यमप्याश्चर्यमात्मा तज्ज्ञानं ज्ञाता चेति। एवमग्रेऽपि कर्मणि क्रियायां कर्तरि चाश्चर्यवदिति योज्यम्। सर्वशब्दावाच्यस्य शुद्धस्यात्मनो यद्वदनं तदाश्चर्यवत् श्रुत्वाप्येनं वेद श्रुत्वाचैनं मनननिदिध्यासनपरिपाकाद्वेदापि साक्षात्करोत्यपि आश्चर्यवत्। तथा चाश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमित्यत्र व्याख्यातम्। ननु यः श्रवणादिकं करोति स आत्मानं वेदेति किमाश्चर्यमत आह नचैव कश्चिदिति। चकारः क्रियाकर्मपदयोरनुषङ्गार्थः। कश्चिदेनं नैव वेद श्रवणादिकं कुर्वन्नपि तदकुर्वन्न वेदेति किमु वक्तव्यम्। अथवा नचैव कश्चिदित्यस्य सर्वत्र संबन्धः। कश्चिदेनं न पश्यति न वदति न श्रृणोति श्रुत्वापि न वेदेति पञ्च प्रकारा उक्ताः। कश्चित्पश्यत्येव न वदति कश्चित्पश्यति वदति च कश्चित्तद्वचनं श्रृणोति तदर्थ जानाति च कश्चित् श्रुत्वापि न जानाति कश्चित्तु सर्वबहिर्भूत इति तत्रेदमवधेयम्। आश्चर्यमद्भुतभदृष्टमकस्माद्दृश्यमानं तेन तुल्यमाश्चर्यवत् यो वदति यश्च श्रृणोति स सहस्त्रेषु कश्चिदेवेत्यादिवदद्भिराचार्यैः कर्तृक्रिययोराश्चर्यवत्त्वं दुर्लभत्वं प्रदर्शितम्।श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यते इति श्रुत्यनुरोधात् आत्मनस्तु कर्तृक्रियाविरलत्वद्वारैव दुर्ज्ञेयत्वं नतु साक्षात् आश्चर्यवत्पदविशेष्यत्वेन श्रुतौ तथात्वासंभवात्तदेकवाक्यतानापत्तेः। तस्मादाश्चर्यवत्पदस्य विरुद्धधर्माश्चर्यपरत्वं कर्मविशेषणत्वं चावदतामाचार्याणां न्यूनता न शङ्कनीया। यदपि वेदेत्यस्य पृथक्करणादि तदपि क्लेशमात्रं तद्विनापि श्रुत्येकवाक्यतायां निरुपितत्वात् यदपि नचैव कश्चिदित्यस्य सर्वत्र संबन्ध इत्यादि तदपि न आश्चर्यवदित्याद्युक्त्या बहव एनं न पश्यन्ति इत्यादेरर्थस्य स्पष्टप्रतीतेः क्लिष्टकल्पनया पक्षान्तरप्रदर्शनस्य वैयर्थ्यात् कश्चिदेनं पश्यतीत्यादिनोपपादिते सर्वबहिर्भूते श्रुत्वापि न वेदेत्यस्योक्तत्वेन चतुर्थप्रकारानर्थक्याच्चेति दिक्। एतेन कश्चिदेनमात्मानं शास्त्राचार्योपदेशाभ्यां पश्यन्नाश्चर्यवत्पश्यति सर्वगतस्य नित्यज्ञानानन्दस्वभावस्यात्मनोऽलौकिकत्वादैन्द्रजालिकवदघटमानं पश्यन्निव विस्मयेन पश्यति असंभावनाभिभूतत्वादित्यादिभाष्यकृद्भि कुतो न व्याख्यातमिति प्रत्युक्तम्। अत्रापि मूलश्रुत्येकवाक्यत्वाभावापत्तेस्तुल्यत्वात्। अन्ये तु वज्रपञ्जरतुल्यस्य सर्वप्रमाणसिद्धस्य वियदादिप्रपञ्चस्य कथं रज्जूरगादिवदज्ञानप्रभवत्वेनात्यन्ततुच्छत्वमुच्यते कथंवा कर्मज्ञानकाण्डापेक्षितमात्मनो यज्ञादिकर्तृत्वं चापह्नूयत इत्याशङ्क्याह आश्चर्यवदिति। कश्चिज्ज्ञातात्मतत्त्व एनं अतीतानन्तरश्लोकोक्तं भूतग्राममाश्चर्यं अद्भुतं स्वप्नमायेन्द्रजालादिकं तेन तुल्यमाश्चर्यवत्तथाभूतं पश्यति। तथा कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति सत्त्वेनासत्त्वेन वा निर्वक्तुमशक्यमप्यनिर्वचनीयत्वेनैव लोकाप्रसिद्धेन रुपेणोपपादयति। तथा एनं प्रपञ्चमन्य आश्चर्यबच्छृणोति।इमे लोका इमे देवा इमे वेदा इद्ँसर्वं यदयमात्मा इति। प्रत्यक्षेणानात्मतयोपलभ्यमानस्यापि प्रपञ्चस्य यत्प्रत्यगभिन्नत्वेन श्रवणं तदत्यन्तमाश्चर्यम्। तथा कश्चिदेनं प्रपञ्चं प्रत्यगनन्यत्वेन श्रुत्वापिशब्दादुक्त्वा दृष्ट्वापि तत्त्वतो न वेदेति वर्णयन्ति तदपि सर्वमुपेक्ष्यम्।देही नित्यम् इति श्लोकस्थभूतानीत्यनुरोधेनातीतानन्तरश्लोकस्थभूतानीत्यस्य कार्यकरणसंघातपरत्वेन व्याख्यातत्वात् प्रपञ्चस्यानुक्तेरेनदादेशानुपपत्तेः एनमित्यनेन बह्वभ्यस्तस्यात्मनस्त्यागेन प्रकरणविरोधात् बह्वध्याहारग्रस्तत्वादुपलभ्यमानमूलभूतश्रुतिविरोधात् एतद्य्वाख्यातृभिरप्यरुच्या यद्वेत्यादिपक्षान्तरस्वीकाराच्च पक्षान्तरं च केषांचिद्य्वाख्यानमनूदितमिति निर्मत्सरैर्विद्वद्भिराकलनीयम्।
।।2.29।।देहयोगवियोगस्य नियतत्वादात्मनश्चेश्वरसरूपत्वात् सर्वथानाशान्न शोकः कार्य इत्युपसंहर्तुमैश्वरं सामर्थ्यं पुनर्दर्शयति आश्चर्यवदिति। दुर्लभत्वेनेत्यर्थः। तद्ध्याश्चर्यं लोके। दुर्लभोऽपीश्वरसरूपत्वात्सूक्ष्मत्वाच्चात्मनस्तद्द्रष्टा।
।।2.29।।ननु वज्रपञ्जरतुल्यस्य सर्वप्रमाणसिद्धस्य वियदादिप्रपञ्चस्य कथं रज्जूरगादिवदज्ञानप्रभवत्वेनात्यन्ततुच्छत्वमुच्यते कथं वा कर्मज्ञानकाण्डापेक्षितमात्मनो यज्ञादिकर्तृत्वं श्रवणादिकर्तृत्वं चापह्नूयत इत्याशङ्क्याह आश्चर्यवदिति। कश्चित् ज्ञातात्मतत्त्व एनमतीतानन्तरश्लोकोक्तं भूतग्राममाश्चर्यवत् आश्चर्यमद्भुतं स्वप्नमायेन्द्रजालादिकं तेन तुल्यमाश्चर्यवत् तथाभूतं पश्यति। तथा कश्चिदेनं आश्चर्यवद्वदति सत्त्वेन असत्त्वेन वा निर्वक्तुमशक्यमपि अनिर्वचनीयेनैव लोकाप्रसिद्धेन रूपेणोपपादयति। तथाहि रज्जूरगवत्प्रपञ्चः संश्चेत्नेह नानास्ति किंचन इति श्रुत्या न बाध्येत असंश्चेन्न प्रतीयेत तस्मादनिर्वचनीयोऽयमिति। तदिदं सर्वव्यवहारास्पदस्यापि प्रपञ्चस्य मिथ्यात्वोपपादनमत्याश्चर्यमित्यर्थः। तथा एनं प्रपञ्चमन्य आश्चर्यवत् शृणोति।इमे लोका इमे देवा इमे वेदा इदं सर्वं यदयमात्मा इति प्रत्यक्षेणानात्मतया उपलभ्यमानस्यापि प्रपञ्चस्य यत् प्रत्यगभिन्नत्वेन श्रवणं तदत्यन्तमाश्चर्यम्। न हीयं श्रुतिःयजमानः प्रस्तरः इत्यादिवदुपचरितार्था। प्रपञ्चस्यात्मनः पृथक्त्वेआत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितं भवति इत्येकविज्ञानात्सर्वविज्ञानप्रतिज्ञोपरोधापत्तेः। न च प्रतिज्ञाप्यौपचारिकी। प्रदेशान्तरे श्रुतस्ययथा सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्यात् इति दृष्टान्तस्योपरोधापत्तेः। तस्मात्प्रतिज्ञादृष्टान्तनिगमनानामेकवाक्यत्वात् न प्रपञ्चस्यात्मान्यत्वम्। तच्च भेदग्राहिप्रत्यक्षविरोधादाश्चर्यमिव श्रृणोति। तथा कश्चिदेनं प्रपञ्चं प्रत्यगनन्यत्वेन श्रुत्वा अपिशब्दात् उक्त्वा स्वप्नादिदृष्टान्तैरुपपाद्य दृष्ट्वा ध्यानेन च साक्षात्कृत्वापि तत्त्वतो न वेद न जानाति। तथाहि प्राप्तापि प्रज्ञा तीव्रविक्षेपवतः परिहीयत इति वक्ष्यति। तस्मादात्मैक्यात्संभवत्येव प्रपञ्चस्य रज्जूरगादितुल्यत्वेन तुच्छत्वम्। यद्वा एनं आत्मानं कर्तृत्वभोक्तृत्वदुःखित्वानित्यत्वजडत्वसङ्गित्वपरिच्छिन्नत्वादिधर्मवत्तया प्रसिद्धमपि तत्त्वमसीत्यागमोत्थया ब्रह्माकारान्तःकरणवृत्त्या ब्रह्मविद्याख्यया अकर्तारमभोक्तारमानन्दघनं सत्यचिद्रूपमसङ्गमनन्तमपरोक्षीकरोतीति महदाश्चर्यम्। यत् पश्यति तदाश्चर्यवदिति क्रियाविशेषणं वा। आविद्यकमपि दर्शनमविद्यां स्वात्मानं च कतकरजोवन्निवर्तयतीति। यद्वा यः पश्यति स आश्चर्यवदिति कर्तृविशेषणम्। यत एक एव विद्वान् समाधिव्युत्थानयोः परस्परविरुद्धमात्मनो ब्रह्मभावं जीवभावं च यावदारब्धकर्मक्षयमनुभवतीति तथा वाङ्मनसातीतमप्यात्मानं यद्वाचा वदति तदप्याश्चर्यम्। अगृहीतसंगतिकेनापिशब्देन यथा सुप्तः प्रबोध्यते तद्वत्। यथोक्तं वार्तिकेअगृहीत्वैव संबन्धमभिधानाभिधेययोः। हित्वा निद्रां प्रबुध्यन्ते सुषुप्ते बोधिताः परैः। जाग्रद्वन्न यतः शब्दं सुषुप्ते वेत्ति कश्चन। ध्वस्तेऽतो ज्ञानतोऽज्ञाने ब्रह्मास्मीति भवेत्फलम्। अविद्याघातिनः शब्दाद्याहं ब्रह्मेति धीर्भवेत्। नश्यत्यविद्यया सार्धं हत्वा रोगमिवौषधम्। इति। तथा यः शृणोति सोऽपि आश्चर्यवत् अतिदुर्लभ इत्यर्थः।श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः इति श्रुतेः।शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विदुः इति श्रुतिद्वितीयपादार्थं संगृह्णाति श्रुत्वाप्येनमिति। आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा आश्चर्यो ज्ञाता कुशलेनानुशिष्टः इति उत्तरार्धस्तु श्लोकपूर्वार्धेन संगृहीत इति ज्ञेयम्। दुर्विज्ञेयोऽयमात्मा अतस्त्वं तज्ज्ञानार्थं यतस्वेति भावः।
।।2.29।।एवम् उक्तस्वभावं स्वेतरसमस्तवस्तुविसजातीयतया आश्चर्यवद् अवस्थितम् अनन्तेषु जन्तुषु महता तपसा क्षीणपाप उपचितपुण्यः कश्चित् पश्यति तथाविधः कश्चित् परस्मै वदति एवं कश्चिद् एव श्रृणोति श्रुत्वा अपि एनं यथावद् अवस्थितं तत्त्वतो न कश्चिद् वेद। चकाराद् द्रष्टृवक्तृश्रोतृषु अपि तत्त्वतो दर्शनं तत्त्वतो वचनं तत्त्वतः श्रवणं दुर्लभम् इति उक्तं भवति।
।।2.29।।कुतस्तर्हि विद्वांसोऽपि लोके शोचन्ति आत्माज्ञानादेवेत्याशयेनात्मनो दुर्विज्ञेयतामाह आश्चर्यवदिति। कश्चिदेनमात्मानं शास्त्राचार्योपदेशाभ्यां पश्यन्नाश्चर्यवत्पश्यति। सर्वगतस्य नित्यज्ञानानन्दस्वभावस्यात्मनोऽलौकिकत्वादैन्द्रजालिकवदघटमानं पश्यन्निव विस्मयेन पश्यति असंभावनाभिभूतत्वात्। तथा आश्चर्यवदन्यो वदति च शृणोति च। अन्य कश्चित्पुनर्विपरीतभावनाभिभूतः श्रुत्वापि नैव वेद। चशब्दादुक्त्वापि न सम्यग्वेदेति द्रष्टव्यम्।
।।2.29।।एवमन्वारुह्यवादपरिसमापनेन पूर्वोक्तं स्वसिद्धान्तमेव देहात्ममोहमूलदुरितावलीमलीमसे जगति तदधिकारिदुर्लभत्वादिकथनेन प्रशंसतीत्याह एवमिति। कतिपयपदविशेषितोऽयममौपनिषद एवआश्चर्यवत् इत्यादिश्लोकः।एवमुक्तस्वभावं इतिएनम् इत्यस्यार्थः।अव्यक्तोऽयम् इत्यादिनोक्तं वैजात्यं आश्चर्यत्वहेतुत्वायाह स्वेतरेति। आश्चर्यवच्छब्दस्य पश्यत्यादिक्रियाविशेषणत्वभ्रमव्युदासायोक्तंआश्चर्यवदवस्थितमिति। आत्मनो वैलक्षण्यकथनमेवात्रोचितमिति भावः। एतेन कर्तृदृष्टान्ततयाशंकरोक्तं योजनान्तरमपि दूषितम्। कश्चिदिति निर्धारणार्थमाह अनन्तेष्विति। ज्ञानेन हीनानां नराणां पशुभिः समत्वप्रदर्शनायोक्तंजन्तुष्वति।कश्चित् इत्यस्य तात्पर्यार्थमाह महतेति। तथा चोच्यते कषाये कर्मभिः पक्वे ततो ज्ञानं प्रवर्तते म.भा.अनु.प. इति। अन्यशब्दोऽत्र पूर्वोत्तरवाक्यगतकश्चिच्छब्दसमानार्थः।परस्मै इत्यर्थलब्धोक्तिः।श्रुत्वापि न वेद इत्युक्ते व्याघातशास्त्रानारम्भादिदोषः स्यादित्याशङ्क्योक्तम् यथावदवस्थितं तत्त्वत इति। प्रामाणिकसमस्ताकारयुक्तमनारोपितेन प्रकारेणेत्यर्थः। तत्त्ववेदिनोऽत्र दुर्लभत्वमात्रे तात्पर्यं श्रुत्वाऽपीत्यादिवाक्यस्थचकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वं तत्समुच्चेतव्यानि चाह चकारादिति। देहातिरिक्तस्यात्मनो द्रष्टैव तावद्दुर्लभः किमुत यथावस्थितद्रष्टा तथाविधेषु सत्स्वपि वक्तैव दुर्लभः किमुत सकलरहस्यवक्ता। तादृशेषु सत्स्वपि श्रोतैव दुर्लभः किम्पुनर्बाह्यान्तरसकलशिष्यगुणसम्पन्नतया यथावस्थितश्रोता त्वादृशः इत्यभिप्रायः। प्रथमं श्रवणम् ततो मननाच्छ्रवणायत्तात्मनिश्चयः ततश्च वचनयोग्यता तत्रापि चिराभ्यासादिना यथावस्थितवचनयोग्यता ततश्च निदिध्यासनाद्दर्शनम् ततो रत्नतत्त्ववत् चिरनिरीक्षणसंस्कारात् सविशेषदर्शनमिति वा क्रमः। अत्र देहातिरिक्तश्चेदात्मा किं तथा नोपलभ्यते इति शङ्कापाकरणाय दुर्ज्ञानत्वकथनम्। सर्वैर्ज्ञातुमशक्ये वा वस्तुनि किं त्वामेकमुपालभे इति भावः।
।।2.29।।अपि च अव्यक्तादीनीति। नित्यः सन्तु अनित्या वा यस्तावदस्य शोचकस्तं प्रत्येष आदावव्यक्तः अन्ते चाव्यक्तः। मध्ये तस्य व्यक्तता विकारः ( N omit विकारः) इति। प्रत्युत विकारे शोचनीयं ( N शोचनीयस्वभावे) न स्वभावे। किं च यत् (N omits यत्) तन्मूलकारणं किञ्चिदभिमतं तदेव यथाक्रमं (S तथाक्रमविचित्र) विचित्रस्वभावतया स्वात्ममध्ये दर्शिततत्तदनन्तसृष्टिस्थितिसंहृतिवैचित्र्यं (S सृष्टिप्रतिसंहृति) नित्यमेव। तथास्वभावेऽपि कास्य (S स्वभावमिति कास्य) शोच्यता।
।।2.29।।आश्चर्यवदिति श्लोकस्य न प्रकृतसङ्गतिर्दृश्यते तदुत्तरश्च पुनरुक्त इत्यत आह देहयोगे ति। द्वन्द्वैकवद्भावोऽयम्। सर्वथेति बिम्बनाशाभावादिभिः सर्वैः प्रकारैरित्युपसंहर्तुमुत्तरेण श्लोकेन। ईश्वरसरूपत्वेऽपि कथमनाश इत्याशङ्कापरिहारहेतुत्वा दुपसंहर्तु मित्युक्तम्। अप्रमेयस्येस्यादिना प्रागुक्तत्वात्पुनरिति। एवं यः कश्चित्पश्यति स आश्चर्यवदित्याद्युक्त्वा चतुर्थपादेन तदुपपादनं क्रियते तं व्याचष्टे दुर्लभत्वेने ति। दुर्लभत्वमाश्चर्यशब्दप्रवृत्तौ निमित्तमित्यर्थः। तत्कथमित्यत आह तद्धी ति।आश्चर्यमनित्ये अष्टा.6।1।147 इत्यादिस्मतिं हिशब्देन सूचयति। सर्वेषामात्मद्रष्ट्वत्वात्कथमात्मद्रष्टा दुर्लभोऽपि येनाश्चर्यमुच्यते इत्यत आह दुर्लभो ऽपीति। ईश्वरसरूपत्वादिनाऽऽत्मद्रष्टा दुर्लभ इति भावः। अनेन आश्चर्य एवाश्चर्यवदित्युच्त इत्युक्तं भवति। यत्प्रतिबिम्बस्य जीवस्य द्रष्टाऽपि दुर्लभः किं तत्सामर्थ्यं वर्णनीयम् इतीश्वरसामर्थ्यदर्शनम्। देहयोगवियोगस्येत्यादिनादेही नित्यं 2।30 इति (उत्तर) श्लोको (ऽपि) व्याख्यातः।स्वधर्मं 2।3138 इत्यादयः श्लोका अतिरोहितार्थत्वान्न व्याख्याताः। एवमुत्तरत्रापि।
।।2.29।।ननु विद्वांसोऽपि बहवः शोचन्ति तत्किं मामेव पुनः पुनरेवमुपालभसे अन्यच्च इति न्यायात्त्वद्वचनार्थाप्रतिपत्तिरपि मम न दोषः। तत्रान्येषामपि तवेवात्मापरिज्ञानादेव शोकः आत्मप्रतिपादकशास्त्रार्थाप्रतिपत्तिश्च तवाप्यन्येषामिव स्वाशयदोषादिति नोक्तदोषद्वयमित्यभिप्रेत्यात्मनो दुर्विज्ञेयतामाह एनं प्रकृतं देहिनमाश्चर्येणाद्भुतेन तुल्यतया वर्तमानं आविद्यकनानाविधविरुद्धधर्मवत्तया सन्तमप्यसन्तमिव स्वप्रकाशचैतन्यरूपमपि जडमिव आनन्दघनमपि दुःखितमिव निर्विकारमपि सविकारमिव नित्यमप्यनित्यमिव प्रकाशमानमप्यप्रकाशमानमिव ब्रह्माभिन्नमपि तद्भिन्नमिव मुक्तमपि बद्धमिव अद्वितीयमपि सद्वितीयमिव संभावितविचित्रानेकाकारप्रतीतिविषयं पश्यति। शास्त्राचार्योपदेशाभ्यामाविद्यकसर्वद्वैतनिषेधेन परमात्मस्वरूपमात्राकारायां वेदान्तमहावाक्यजन्यायां सर्वसुकृतफलभूतायामन्तःकरणवृत्तौ प्रतिफलितं समाधिपरिपाकेन साक्षात्करोति कश्चिच्छमदमादिसाधनसंपन्नचरमशरीरः कश्चिदेव नतु सर्वः। तथा कश्चिदेनं यत्पश्यति तदाश्चर्यवदिति क्रियाविशेषणम्। आत्मदर्शनमप्याश्चर्यवदेव यत्स्वरूपतो मिथ्याभूतमपि सत्यस्य व्यञ्जकं आविद्यकमप्यविद्याया विघातकं अविद्यामुपघ्नतत्कार्यतया स्वात्मानमप्युपहन्तीति। यथा यः कश्चिदेनं पश्यति स आश्चर्यवदिति कर्तृविशेषणम्। यतोऽसौ निवृत्ताविद्यातत्कार्योऽपि प्रारब्धकर्मप्राबल्यात्तद्वानिव व्यवहरति सर्वदा समाधिनिष्ठोऽपि व्युत्तिष्ठति व्युत्थितोऽपि पुनः समाधिमनुभवतीति प्रारब्धकर्मवैचित्र्याद्विचित्रचरित्रः प्राप्तदुष्प्रापज्ञानत्वात्सकललोकस्पृहणीयोऽत आश्चर्यवदेव भवति। तदेतत्त्रयमाश्चर्यमात्मा तज्ज्ञानं तज्ज्ञाता चेति परमदुर्विज्ञेयमात्मानं त्वं कथमनायासेन जानीया इत्यभिप्रायः। एवमुपदेष्टुरभावादप्यात्मा दुर्विज्ञेयः। यो ह्यात्मानं जानाति स एव तमन्यस्मै ध्रुवं ब्रूयात् अज्ञस्योपदेष्टृत्वासंभवात्। जानंस्तु समाहितचित्तः प्रायेण कथं ब्रवीतु। व्युत्थितचित्तोऽपि परेण ज्ञातुमशक्यः। यथाकथंचिज्ज्ञातोऽपि लाभपूजाख्यात्यादिप्रयोजनानपेक्षत्वान्न ब्रवीत्येव कथंचित्कारुण्यमात्रेण ब्रुवंस्तु परमेश्वरवदत्यन्तदुर्लभएवेत्याह आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य इति। यथा जानाति तथैव वदति। एनमित्यनुकर्षणार्थश्चकारः। स चान्यः सर्वज्ञजनविलक्षणो नतु यः पश्यति ततोऽन्य इति व्याघातात्। तत्रापि कर्मणि क्रियायां कर्तरि चाश्चर्यवदिति योज्यम्। तत्र कर्मणः कर्तुश्च प्रागाश्चर्यत्वं व्याख्यातं क्रियायास्तु व्याख्यायते। सर्वशब्दावाच्यस्य शुद्धस्यात्मनो यद्वचनं तदाश्चर्यवत्। तथाच श्रुतिःयतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह इति। केनापि शब्देनावाच्यस्य शुद्धस्यात्मनो विशिष्टशक्तेन पदेन जहदजहत्स्वार्थलक्षणया कल्पितसंबन्धेन लक्ष्यतावच्छेदकमन्तरेणैव प्रतिपादनं तदपि निर्विकल्पकसाक्षात्काररूपमत्याश्चर्यमित्यर्थः। अथवा विना शक्तिं विना लक्षणां विना संबन्धान्तरं सुषुप्तोत्थापकवाक्यवत्तत्त्वमस्यादिवाक्येन यदात्मतत्त्वप्रतिपादनं तदाश्चर्यवत्। शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वात्। नच विना संबन्धं बोधनेऽतिप्रसङ्गः लक्षणापक्षेऽपि तुल्यत्वात् शक्यसंबन्धरूपानेकसाधारणत्वात्। तात्पर्यविशेषान्नियम इतिचेत् न। तस्यापि सर्वान्प्रत्यविशेषात्। कश्चिदेव तात्पर्यविशेषमवधारयति न सर्व इतिचेद्धन्त तर्हि पुरुषगत एव कश्चिद्विशेषो निर्दोषत्वरूपो नियामकः सचास्मिन्पक्षेऽपि न दण्डवारितः। तथाच यादृशस्य शुद्धान्तःकरणस्य तात्पर्यानुसन्धानपुरःसरं लक्षणया वाक्यार्थबोधो भवद्भिरङ्गीक्रियते तादृशस्यैव केवलः शब्दविशेषोऽखण्डसाक्षात्कारं विनापि संबन्धेन जनयतीति किमनुपपन्नम्। एतस्मिन्पक्षे शब्दवृत्त्याविषयत्वात्यतो वाचो निवर्तन्ते इति सुतरामुपपन्नम्। अयं च भगवदभिप्रायो वार्तिककारैः प्रपञ्चितःदुर्बलत्वादविद्याया आत्मत्वाद्बोधरूपिणः। शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वाद्विद्मस्तं मोहहानतः।।अगृहीत्वैव संबन्धमभिधानाभिधेययोः। हित्वा निद्रां प्रबुध्यन्ते सुषुप्तेर्बोधिताः परैः।।जाग्रद्वन्न यतः शब्दं सुषुप्तौ वेत्ति कश्चन। ध्वस्तेऽतो ज्ञानतोऽज्ञाने ब्रह्मास्मीति भवेत्फलम्।।अविद्याघातिनः शब्दाद्याहं ब्रह्मेति धीर्भवेत्। नश्यत्यविद्यया सार्धं हत्वा रोगमिवौष धम्।। इत्यादिना ग्रन्थेन। तदेवं वचनविषयस्य वक्तुर्वचनक्रियायाश्चात्याश्चर्यरूपत्वादात्मनो दुर्विज्ञानत्वमुक्त्वा श्रोतुर्दुर्मिलत्वादपि तदाह आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेदेति। अन्यो द्रष्टुर्वक्तुश्च मुक्ताद्विलक्षणो मुमुक्षुर्वक्तारं ब्रह्मविदं विधिवदुपसृत्य एनं शृणोति श्रवणाख्यविचारविषयीकरोति। वेदान्तवाक्यतात्पर्यनिश्चयेनावधारयतीति यावत्। श्रुत्वा चैनं मनननिदिध्यासनपरिपाकाद्वेदापि साक्षात्करोत्यपि आश्चर्यवत्। तथाचआश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम् इति व्याख्यातम्। अत्रापि कर्तुराश्चर्यरूपत्वमनेकजन्मानुष्ठितसुकृतक्षालितमनोमलतयादिदुर्लभत्वात्। तथाच वक्ष्यतिमनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। इति।श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युःआश्चर्योऽस्य वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा आश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः इति श्रुतेश्च। एवं श्रवणश्रोतव्ययोराश्चर्यत्वं प्राग्वद्व्याख्येयम्। ननु यः श्रवणमननादिकं करोति स आत्मानं वेदेति किमाश्चर्यमत आह नचैव कश्चिदिति। चकारः क्रियाकर्मपदयोरनुषङ्गार्थः। कश्चिदेनं नैव वेद श्रवणादिकं कुर्वन्नपि तदकुर्वंस्तु न वेदेति किमु वक्तव्यम्।ऐहिकमप्रस्तुतप्रतिबन्धे तद्दर्शनात् इति न्यायात्। उक्तंच वार्तिककारैःकुतस्तज्ज्ञानमिति चेत्तद्धि बन्धपरिक्षयात्। असावपि च भूतो वा भावी वा वर्ततेऽथवा।। इति। श्रवणादिकुर्वतामपि प्रतिबन्धपरिक्षयादेव ज्ञानं जायते अन्यथा तु न। सच प्रतिबन्धपरिक्षयः कस्यचिद्भूत एव यथा हिरण्यगर्भस्य। कस्यचिद्भावी यथा वामदेवस्य। कस्यचिद्वर्तते यथा श्वेतकेतोः। तथा च प्रतिबन्धक्षयस्यातिदुर्लभत्वात्ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः इति स्मृतेश्च दुर्विज्ञेयोऽयमात्मेति निर्गलितोऽर्थः। यदि तुश्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् इत्येव व्याख्यायेत तदाआश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः इति श्रुत्येकवाक्यता न स्यात्।यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः इति भगवद्वचनविरोधश्चेति विद्वद्भिरविनयः क्षन्तव्यः। अथवा न चैव कश्चिदित्यस्य सर्वत्र संबन्धः। कश्चिदेनं न पश्यति न वदति न शृणोति श्रुत्वापि न वेदेति पञ्चप्रकारा उक्ताः। कश्चित्पश्यत्येव न वदति कश्चित्पश्यति च वदति च कश्चित्तद्वचनं शृणोति च तदर्थं जानाति च कश्चिच्छ्रुत्वापि न जानाति च कश्चित्तु सर्वबहिर्भूत इति। अविद्वत्पक्षे त्वसंभावनाविपरीतभावनाभिभूतत्वादाश्चर्यतुल्यत्वं दर्शनवदनश्रवणेष्विति निगदव्याख्यातः श्लोकः। चतुर्थपादे तु दृष्ट्वोक्त्वा श्रुत्वापीति योजना।
।।2.29।।नन्वेवं चेत्तदा विद्वांसः पापकर्मणा नरकसम्भावनया कथं शोचन्तीत्याशङ्क्याह आश्चर्यवदिति। एनं कश्चिदाश्चर्यवत् पश्यति शास्त्रार्थज्ञानान्नित्यमव्यक्तादिरूपं जानन् जन्मादिभावदर्शनादाश्चर्यवन्मायाकृतैन्द्रजालवत्पश्यतीत्यर्थः। एतेषां जन्मादिभावास्तु मदिच्छया मत्क्रीडार्थका इति आश्चर्यवदित्युक्तम्। तथैव च मन्मायया मोहितः कश्चिदाश्चर्यवद्वदति अन्यान् बोधयतीत्यर्थः। अन्यश्च श्रोता स्वतो ज्ञानरहित आश्चर्यवत् शृणोति। श्रुत्वाऽप्येन यथार्थमिदमित्युक्त्वा न वेद। वै निश्चयेनैतत्ित्रतयेषु कोऽपि न वेद न ज्ञातवानतोऽज्ञानात्तेऽपि शोचन्तीति भावः।
।।2.29।। आश्चर्यवत् आश्चर्यम् अदृष्टपूर्वम् अद्भुतम् अकस्माद्दृश्यमानं तेन तुल्यं आश्चर्यवत् आश्चर्यमिव एनम् आत्मानं पश्यति कश्चित्। आश्चर्यवत् एनं वदति तथैव च अन्यः। आश्चर्यवच्च एनमन्यः श्रृणोति। श्रुत्वा दृष्ट्वा उक्त्वापि एनमात्मानं वेद न चैव कश्चित्। अथवा योऽयमात्मानं पश्यति स आश्चर्यतुल्यः यो वदति यश्च श्रृणोति सः अनेकसहस्रेषु कश्चिदेव भवति। अतो दुर्बोध आत्मा इत्यभिप्रायः।।अथेदानीं प्रकरणार्थमुपसंहरन्ब्रूते
।।2.29।।सोऽयमात्माऽव्यक्तो यत आश्चर्यवदित्याह आश्चर्यवदिति। अवितर्क्यमिव पश्यतीत्यादि।
Chapter 2, Verse 29