Chapter 18, Verse 69

Text

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्िचन्मे प्रियकृत्तमः।भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।18.69।।

Transliteration

na cha tasmān manuṣhyeṣhu kaśhchin me priya-kṛittamaḥ bhavitā na cha me tasmād anyaḥ priyataro bhuvi

Word Meanings

na—no; cha—and; tasmāt—than them; manuṣhyeṣhu—amongst human beings; kaśhchit—anyone; me—to me; priya-kṛit-tamaḥ—more dear; bhavitā—will be; na—never; cha—and; me—to me; tasmāt—than them; anyaḥ—another; priya-taraḥ—dearer; bhuvi—on this earth


Translations

In English by Swami Adidevananda

There is no one among men who does dearer service to Me than him. Nor shall there be anyone on earth dearer to Me than him.

In English by Swami Gambirananda

And compared to him, no other human is better at accomplishing what is dear to Me. Furthermore, there will be no one else in the world dearer to Me than him.

In English by Swami Sivananda

There is no one among men who does service dearer to Me, nor shall there be anyone on earth dearer to Me than him.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

And, except for him, there would be no one among men who is the best performer of what is dear to Me; and there shall be no one else dearer to Me on earth.

In English by Shri Purohit Swami

There is no one among men who can perform a service dearer to Me than this, nor is there any man on earth more beloved by Me than him.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.69।।उसके समान मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है और इस भूमण्डलपर उसके समान मेरा दूसरा कोई प्रियतर होगा भी नहीं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।18.69।। न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

18.69 न not? च and? तस्मात् than he? मनुष्येषु among men? कश्चित् any? मे of Me? प्रियकृत्तमः one who does dearer service? भविता shall be? न not? च and? मे of Me? तस्मात् than he? अन्यः another? प्रियतरः dearer? भुवि on the earth.Commentary He who hands down this Gita to My devotees does immense service to Me. He is very dear to Me. There is none in the present generation who des dearer service to Me? nor shall there be in future also in this world.Bhuvi On earth in this world.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.69।। व्याख्या --   न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः -- जो अपनेमें लौकिकपारलौकिक प्राकृत पदार्थोंकी महत्ता? लिप्सा? आवश्यकता रखता है और रखना चाहता है? वह पराभक्ति ( 18। 68) के अन्तर्गत नहीं आ सकता। पराभक्तिके अन्तर्गत नहीं आ सकता है? जिसका प्राकृत पदार्थोंको प्राप्त करनेका किञ्चिन्मात्र भी उद्देश्य नहीं है और जो भगवत्प्राप्ति? भगवद्दर्शन? भगवत्प्रेम आदि पारमार्थिक उद्देश्य रखकर गीताके अनुसार ही अपना जीवन बनाना चाहता है। ऐसा पुरुष ही भगवद्गीताके प्रचारका अधिकारी होता है। यदि उसमें कभी मानबड़ाई आदिकी इच्छा आ भी जाय तो वह टिकेगी नहीं क्योंकि मानबड़ाई आदि प्राप्त करना उसका उद्देश्य नहीं है।भगवान्के भक्तोंमें गीताका प्रचार करनेवाले उपर्युक्त अधिकारी मनुष्यके लिये ही तस्मात् पद देकर भगवान् कहते हैं कि मनुष्योंमें उसके समान मेरा प्रियकृत्तम अर्थात् अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला कोई भी नहीं है क्योंकि गीताप्रचारके समान दूसरा मेरा कोई प्रिय कार्य है ही नहीं।प्रियकृत्तमः पदमें जो कृत् पद आया है? उसका तात्पर्य है कि गीताका प्रचार करनेमें उसका अपना कोई स्वार्थ नहीं है? मानबड़ाई? आदरसत्कार आदिकी कोई कामना नहीं है केवल भगवत्प्रीत्यर्थ गीताके भावोंका प्रचार करता है। इसलिये वह प्रियकृत्तम -- भगवान्का अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला है।मनुष्योंमें प्रियकृत्तम कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्का अत्यन्त प्यारा बननेके लिये मनुष्योंको ही अधिकार है। संसारमें कामनाओंकी पूर्ति कर लेना कोई महत्त्वकी? बहादुरीकी बात नहीं है। देवता? पशुपक्षी? नारकीय जीव? कीटपतङ्ग? वृक्षलता आदि सभी योनियोंमें कामनाकी पूर्ति करनेका अवसर मिलता है परन्तु कामनाका त्याग करके परमात्माकी प्राप्ति करनेका अवसर तो केवल मनुष्ययोनिमें ही मिलता है। इस मनुष्ययोनिको प्राप्त करके परमात्माकी प्राप्ति करनेमें? परमात्माका अत्यन्त प्यारा बननेमें ही मनुष्यजन्मकी सफलता है।भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि -- जिसमें अपनी मानबड़ाईकी वासना है? कुछ स्वार्थभाव भी है और जिसका अपना उद्धार करनेका तथा गीताके अनुसार जीवन बनानेका उद्देश्य वैसा (प्रियकृत्तमके समान) नहीं बना है परन्तु जिसके हृदयमें गीताका विशेष आदर है और गीताका पाठ करवाना? गीता कण्ठस्थ,करवाना? गीता मुद्रित करवाकर उसकी सस्ती बिक्री करना आदि किसी तरहसे गीताका प्रचार करता है और लोगोंको गीतामें लगाता है? उसके समान पृथ्वीमण्डलपर मेरा दूसरा कोई प्रियतर नहीं होगा।अपने धर्म? सम्प्रदाय? सिद्धान्त आदिका प्रचार करनेवाला व्यक्ति भगवान्का प्रिय तो हो सकता है? पर प्रियतर नहीं होगा। प्रियतर तो किसी तरहसे गीताका प्रचार करनेवाला ही होगा।भगवद्गीतामें अपना उद्धार करनेकी ऐसीऐसी विलक्षण? सुगम और सरल युक्तियाँ बतायी गयी हैं? जिनको मनुष्यमात्र अपने आचरणोंमें ला सकता है। तात्पर्य यह है कि जो गीताका आदर करता है? ऐसा मनुष्य हिंदू? मुसलमान? ईसाई? यहूदी? पारसी? बौद्ध आदि किसी भी धर्मको माननेवाला क्यों न हो किसी भी देश? वेश? वर्ण? आश्रम? सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो अपनी रुचिके अनुसार किसी भी शैली? उपाय? सिद्धान्त? साधनको माननेवाला क्यों न हो? वह यदि अपना किसी तरहका आग्रह न रखकर? पक्षपातविषमताको छोड़कर? किसी भी प्राणीको दुःख पहुँचानेवाली चेष्टाका त्याग करके? मनमें किसी भी लौकिकपारलौकिक उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुकी कामना न रखकर? अपना सम्प्रदाय? अपनी टोनी बनानेका उद्देश्य न रखकर? केवल अपने कल्याणका उद्देश्य रखकर गीताके अनुसार चलता है (अकर्तव्यका सर्वथा त्याग करके प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्यका लोकहितार्थ? निष्कामभावपूर्वक पालन करता है)? तो वह भी जीविकासम्बन्धी और खानापीना? सोनाजागना आदि शरीरसम्बन्धी सब काम करते हुए परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है? महान् आनन्द? महान् सुखको (गीता 6। 22) प्राप्त कर सकता है।गीता वेश? आश्रम? अवस्था? क्रिया आदिका परिवर्तन करनेके लिये नहीं कहती? प्रत्युत परिमार्जन करनेके लिये कहती है अर्थात् केवल अपने भाव और उद्देश्यको शुद्ध बनानेके लिये कहती है। गीताकी ऐसी युक्तियोंको जो भगवान्की तरफ चलनेवाले भक्तोंमें कहेगा? उससे उन भक्तोंको पारमार्थिक मार्गमें बढ़नेकी युक्तियाँ मिलेंगी? शंकाओंका समाधान होगा? साधनकी उलझनें सुलझेंगी? पारमार्थिक मार्गकी बाधाएँ दूर होंगी? जिससे वे उत्साहसे सुगमतापूर्वक बहुत ही जल्दी अपने लक्ष्यको प्राप्त कर सकेंगे। इसलिये वह भगवान्को सबसे अधिक प्यारा होगा क्योंकि भगवान् जीवके उद्धारसे बड़े राजी होते हैं? प्रसन्न होते हैं। सम्बन्ध --  जिसमें गीताका प्रचार करनेकी योग्यता नहीं है? वह क्या करे इसको भगवान् आगे के श्लोकमें बताते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।18.69।। यह भी आचार्य की स्तुति है। यहाँ भगवान् बताते हैं कि किस प्रकार ऐसा श्रेष्ठ आचार्य भगवत्स्वरूप को प्राप्त होता है। गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण विशेष बल देकर कहते हैं? उसके तुल्य इस जगत् में मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला और कोई नहीं है। केवल इतना ही नहीं? अपितु भविष्य में भी? उससे अधिक मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर कोई न होगा।सम्पूर्ण गीता? में अनेक स्थानों पर इस मनोवैज्ञानिक सत्य को दोहराया गया है कि ध्येयवस्तु से भिन्न समस्त वृत्तियों का परित्याग करके यदि कोई साधक अपने मन को ध्येयवस्तु में एकाग्र या समाहित कर लेता है? तो वह स्वयं ध्येयस्वरूप बनकर अनन्त आत्मा का अनुभव कर सकता है। जो साधक गीता के अध्ययन और चिन्तनमनन में ही अपने समय का सदुपयोग करता है तथा उसी का प्रचार प्रसार करता है? तो उसके मन में उस ज्ञान के प्रति अत्यधिक आदर और सम्मान जागृत होता है। फलत? वह उसके सारतत्त्व से तादात्म्य करके परम शान्ति का अनुभव करता है? जो परमात्मा का स्वरूप ही है। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं? ऐसे पुरुष से बढ़कर मेरा कोई प्रिय नहीं है क्योंकि वह ईश्वर के स्वरूप के ज्ञान का प्रचार करता है। इससे अधिक मेरा अतिशय प्रिय कार्य कोई नहीं है।इस सन्दर्भ में? यह ध्यान रहे कि गीताज्ञान के प्रचार के लिए हमें स्वयं उसमें पूर्ण प्रवीणता प्राप्त करने की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। जो कुछ ज्ञान हम ग्रहण कर पाते हैं? उसका तत्काल ही प्रेमपूर्वक प्रचार ऐसे लोगों में करना चाहिए? जो इस विषय से सर्वथा अनभिज्ञ हैं। प्रचार के साथ ही? हमें इस ज्ञान के अनुसार ही जीवन यापन करना चाहिए ऐसा पुरुष मुझे अतिशय प्रिय है। यह भगवान् श्रीकृष्ण का आश्वासन है।न केवल उपदेशक? वरन् इस ज्ञान का निष्ठावान् जिज्ञासु विद्यार्थी भी अभिनन्दन का पात्र है। भगवान् कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।18.69।।ननु सर्वेषां मुक्तिसाधनानां ध्यानस्य श्रेष्ठत्वात्तन्निष्ठस्य मुमुक्षोर्नास्ति विद्यासंप्रदाने प्रवृत्तिरिति तत्राह -- किञ्चेति। इतश्च विद्यासंप्रदानं मुमुक्षुणा यथोक्तविशेषणवते कर्तव्यमित्यर्थः। वर्तमानेषु मध्ये त्वत्तोऽन्यो नास्त्येव प्रियकृत्तमो नाप्यतीतेषु तादृक्कश्चिदासीदिति शेषः। तस्माद्विद्यासंप्रदायकर्तुः सकाशादित्यर्थः। ध्याननिष्ठस्य श्रेष्ठत्वेऽपि स्वसंप्रदायप्रवक्तुः श्रेष्ठतमत्वादुचिता विद्यासंप्रदाने प्रवृत्तिरिति भावः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।18.69।।किंच -- नचेति। तस्मान्मद्भक्तेभ्यो गीताशास्त्रव्याख्यातुः सकाशादन्यो मनुष्येषु मध्यें कश्चिदपि मम प्रियकृत्तमोऽत्यन्तं परितोषकर्ता नास्ति। नच कालातरे भविता भविष्यति। ममापि तस्मादयः प्रियतरोऽधुनो भुवि तवान्नास्ति। नच कालान्तरेऽपि भविष्यतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।18.69।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।18.69।।ननु अश्रद्धया कृतं सर्वं व्यर्थमिति त्वयैवोक्तं कथमभक्तस्याप्येतच्छास्त्राभिधानतो भक्त्यादिलाभः संभवेदित्याशङ्क्याह -- न चेति। तस्मादेतच्छास्त्रप्रवर्तकादन्यो मनुष्येषु मे मम प्रियकृत्तमो न च कश्चिदस्ति। इयमेव मम महती वाचिकी भक्तिस्तां कृत्वा सोपानारोहक्रमेण मे मम प्रियतरो भविता भविष्यति।अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः इति। न च भुवि एतस्मादन्यत्परमार्थसाधनमस्तीति भावः। अक्षरार्थः स्पष्टः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।18.69।।सर्वेषु मनुष्येषु इतः पूर्वं तस्माद् अन्यो मनुष्यो मे न कश्चित् प्रियकृत्तमः अभूत्? इतः उत्तरं च न भविता? अयोग्यानां प्रथमम् उपादानं योग्यानाम् अकथनाद् अपि तत्कथनस्य अनिष्टतमत्वात्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।18.69।।किंच -- नचेति। तस्मान्मद्भक्तेभ्यो गीताशास्त्रव्याख्यातुः सकाशादन्यो मनुष्येषु मध्यें कश्चिदपि मम प्रियकृत्तमोऽत्यन्तं परितोषकर्ता नास्ति। नच कालातरे भविता भविष्यति। ममापि तस्मादन्यः प्रियतरोऽधुना भुवि तावन्नास्ति। नच कालान्तरेऽपि भविष्यतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।18.69।।स्वशास्त्रव्याख्यानस्य स्वप्राप्तिसाधनत्वे द्वारमुच्यते -- न च तस्मात् इति श्लोकेन। प्रियकृत्तमत्वप्रियतरत्वयोर्हेतुकार्यभावेनभविता इत्युपात्तक्रिययैवान्वये सम्भवत्यपि कालत्रयवर्तिनिषेधेऽर्थगौरवेण तात्पर्यसिद्ध्यर्थंमनुष्येष्वितः पूर्वमित्याद्युक्तम्। ननु शास्त्रस्याधिकारी अपेक्षितः? अतः स तावद्वक्तव्यः अनधिकारी तु तत एवार्थात् व्युदस्यते प्रधानतमादधिकारिणोऽनन्तरं वा व्यवच्छेद्यतयाऽनधिकारी वक्तव्यः इह तु तद्वैपरीत्ये किं निबन्धनं इत्यत्राऽऽह -- अयोग्यानामिति तत्कथनस्य -- अयोग्यान्प्रति कथनस्येत्यर्थः।अनिष्टतमत्वात् अनिष्टतमत्वज्ञापनार्थमित्यर्थः। योग्यानामकथनस्यानिष्टत्वंप्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम् [मुं.उ.1।2।13] इति ब्रह्मविद्याप्रवचनस्य वैधत्वात्। प्रोवाच प्रब्रूयादित्यर्थः।छन्दसि लुङ्लङ्लिटः [अष्टा.3।4।6] इति विधानात्। अन्यथा स गुरुमेवाभिगच्छेत् [मुं.उ.1।2।12] इति प्रथमेन वाक्येनानन्वयात्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।18.68 -- 18.72।।य इदमित्यादि धनञ्जयेत्यन्तम्। भक्तिमिति -- एतदेव मयि भक्तिकरणं यत् भक्तेष्वेतन्निरूपणम् ( ?N मद्भक्तेषु )। अभिधास्यति ( S??N मद्भक्तेष्वभि -- ) ? आभिमुख्येन शास्त्रोक्तप्रक्रियया? धास्यति वितरिष्यति [ यः ] स मन्मयतामेति इति विधिरेवैष नार्थवादः। एवमन्यत्र।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।18.69।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।18.69।।किंच -- नचेति। तस्माद्भक्तेषु शास्त्रसंप्रदायकृतः सकाशादन्यो मनुष्येषु मध्ये कश्चिदपि मे मम प्रियकृत्तमोऽतिशयेन प्रियकृत् मद्विषयप्रीत्यतिशयवान्नास्ति वर्तमाने काले? नापि प्रागासीत्तादृक्कश्चित्? नच कालान्तरे भविता भविष्यति? ममापि तस्मादन्यः प्रियतरः प्रीत्यतिशयविषयः कश्चिदप्यासीन्नाधुना च भुवि लोकेऽस्मिन्नास्ति नच कालान्तरे भवितेत्यावृत्त्या योज्यम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।18.69।।ननु कथमेतत्कथनश्रवणमात्रेण त्वां प्राप्नोति इत्यत आह -- न चेति। तस्मादेतद्वक्तुः सकाशात् मनुष्येषु अधिकारिषु मे प्रियकृत्तमः प्रियकर्तृषु मध्ये अतिशयितो नच? नास्तीत्यर्थः। मद्भक्तानां मत्सङ्गार्थयत्नप्रर्दशकत्वादिति भावः। च पुनः तस्मात् श्रोतुः सकाशात् श्रुत्वा मदाज्ञप्तसेवादिकरणात् अन्यो भुवि प्रियतरो भविता नेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।18.69।। --,न च तस्मात् शास्त्रसंप्रदायकृतः मनुष्येषु मनुष्याणां मध्ये कश्चित् मे मम प्रियकृत्तमः अतिशयेन प्रियकरः? अन्यः प्रियकृत्तमः? नास्त्येव इत्यर्थः वर्तमानेषु। न च भविता भविष्यत्यपि काले तस्मात् द्वितीयः अन्यः प्रियतरः प्रियकृत्तरः भुवि लोकेऽस्मिन् न भविता।।योऽपि --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।18.69।।किञ्च -- न च तस्मादिति। मे प्रियकृत्कश्चित्।


Chapter 18, Verse 69