Chapter 18, Verse 68

Text

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।भक्ितं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।18.68।।

Transliteration

ya idaṁ paramaṁ guhyaṁ mad-bhakteṣhv abhidhāsyati bhaktiṁ mayi parāṁ kṛitvā mām evaiṣhyaty asanśhayaḥ

Word Meanings

yaḥ—who; idam—this; paramam—most; guhyam—confidential knowledge; mat-bhakteṣhu—amongst my devotees; abhidhāsyati—teaches; bhaktim—greatest act of love; mayi—to me; parām—transcendental; kṛitvā—doing; mām—to me; eva—certainly; eṣhyati—comes; asanśhayaḥ—without doubt


Translations

In English by Swami Adidevananda

He who proclaims this supreme mystery among My devotees shall come to Me, acquiring supreme devotion towards Me. There is no doubt about this.

In English by Swami Gambirananda

He who, entertaining supreme devotion to Me, speaks of this highest secret to My devotees, will without doubt reach Me alone.

In English by Swami Sivananda

He who, with supreme devotion to Me, teaches this supreme secret to My devotees, shall undoubtedly come to Me.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Whoever declares this highest secret to My devotees, cultivating an utmost devotion towards Me and not entertaining any doubt, shall reach Me.

In English by Shri Purohit Swami

But he who teaches this great secret to My devotees, his is the highest devotion, and he shall surely come to Me.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.68।।मेरेमें पराभक्ति करके जो इस परम गोपनीय संवाद-(गीता-ग्रन्थ) को मेरे भक्तोंमें कहेगा, वह मुझे ही प्राप्त होगा -- इसमें कोई सन्देह नहीं है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।18.68।। जो पुरुष मुझसे परम प्रेम (परा भक्ति) करके इस परम गुह्य ज्ञान का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

18.68 यः who? इमम् this? परमम् supreme? गुह्यम् secret? मद्भक्तेषु in My devotees? अभिधास्यति shall declare? भक्तिम् devotion? मयि in Me? पराम् supreme? कृत्वा having done? माम् to Me? एव even? एष्यति shall come? असंशयः doubtless.Commentary This supreme secret The teachings of the Gita as taught above in the form of a dialogue between Lord Krishna and Arjuna. Why is it called a supreme secret Because it helps one to attain immortality or freedom from the whell of birth and death.He alone? who has devotion? is alified to receive the teachings of the Gita.Teach with the faith that he is thus doing service to the Lord? the Supreme Teacher.Doubtless may also mean freedom from doubts.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.68।। व्याख्या --   भक्तिं मयि परां कृत्वा -- जो मेरेमें पराभक्ति करके इस गीताको कहता है। इसका तात्पर्य है कि जो रुपये? मानबड़ाई? भेंटपूजा? आदरसत्कार आदि किसी भी वस्तुके लिये नहीं कहता? प्रत्युत भगवान्में भक्ति हो जाय? भगवद्भावोंका मनन हो जाय? इन भावोंका प्रचार हो जाय? इनकी आवृत्ति हो जाय? सुनकर लोगोंका दुःख? जलन? सन्ताप आदि दूर हो जाय? सन्ताप आदि दूर हो जाय? सबका कल्याण हो जाय -- ऐसे उद्देश्यसे कहता है। इस प्रकार भगवान्की भक्तिका उद्देश्य रखकर कहना ही परमभक्ति करते कहना है।इसी अध्यायके चौवनवें श्लोकमें कही गयी पराभक्तिमें अन्तर है। वहाँ मदभक्तिं लभते पराम् पदोंसे कहा गया है कि ब्रह्मभूत होनेके बाद सांख्ययोगी पराभक्तिको प्राप्त हो जाता है अर्थात् भगवान्से जो अनादिकालका सम्बन्ध है? उसकी स्मृति हो जाती है। परन्तु यहाँ सांसारिक मानबड़ाई आदि किसीकी भी किञ्चिन्मात्र कामना न रखकर केवल भगवद्भक्तिकी? भगवत्प्रेमकी अभिलाषा रखना पराभक्ति है? इसलिये यहाँ भक्तिं मयि परां कृत्वामेरेमें पराभक्ति करके -- ऐसा कहा गया है।य इदं परमं गुह्यम् -- इन पदोंसे पूरी गीताका परमगुह्य संवाद लेना चाहिये? जो कि गीताग्रन्थ कहलाता है। परमं गुह्यम् पदोंमें ही गुह्य? गुह्यतर? गुह्यतम और सर्वगुह्यतम -- ये सब बातें आ जाती हैं।मद्भक्तेष्वभिधास्यति -- जिसकी भगवान् और उनके वचनोंमें पूज्यबुद्धि है? आदरबुद्धि है? श्रद्धाविश्वास है और सुनना चाहता है? वह भक्त हो गया। ऐसे मेरे भक्तोंमें जो इस संवादको कहेगा? वह मेरेको प्राप्त होगा।पीछेके श्लोकमें नाभक्ताय पदमें एकवचन दिया और यहाँ भद्भक्तेषु पदमें बहुवचन दिया। इसका तात्पर्य है कि जहाँ बहुतसेश्रोता सुनते हों? वहाँ पहले बताये दोषोंवाला कोई व्यक्ति बैठा हो तो वक्ताके लिये पहले कहा निषेध लागू नहीं पड़ेगा क्योंकि वक्ता केवल उस (दोषी) व्यक्तिको गीता सुनाता ही नहीं। जैसे कोई कबूतरोंको अनाजके दाने डालता है और कबूतर दाने चुगते हैं। यदि उनमें कोई कौआ आकर दाने चुगने लग जाय तो उसको उड़ाया थोड़े ही जा सकता है क्योंकि दाना डालनेवालेका लक्ष्य कबूतरोंको दाना डालना ही रहता है? कौओंको नहीं ऐसे ही कोई गीताका प्रवचन कर रहा है और उस प्रवचनको सुननेके लिये बीचमें कोई नया व्यक्ति आ जाय अथवा कोई उठकर चल दे तो वक्ताका ध्यान उसकी तरफ नहीं रहता। वक्ताका ध्यान तो सुननेवाले लोगोंकी तरफ होता है और उन्हींको वह सुनाता है।मामेवैष्यत्यसंशयः -- अगर गीता सुनानेवालेका केवल मेरा ही उद्देश्य होगा तो वह मेरेको प्राप्त हो जायगा? इसमें कोई सन्देहकी बात नहीं है। कारण कि गीताकी यह एक विचित्र कला है कि मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्मोंसे भी परमात्माका निष्कामभावपूर्वक पूजन करता हुआ परमात्माको प्राप्त हो जाता है (18। 46)? और जो खानापीना? शौचस्नान आदि शारीरिक कार्योंको भी भगवान्के अर्पण कर देता है? वह भी शुभअशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त होकर भगवान्को प्राप्त हो जाता है (9। 2728)। तो फिर जो केवल भगवान्की भक्तिका लक्ष्य करके गीताका प्रचार करता है? वह भगवान्को प्राप्त हो जाय? इसमें कहना ही क्या है

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।18.68।। भगवान् श्रीकृष्ण इस विचाराधीन श्लोक में ज्ञान प्रदाता आचार्य की स्तुति करते हैं। जो आचार्य गीतोपदिष्ट ज्ञान की यथार्थ व्याख्या करके श्रोतृ वर्ग को श्रीकृष्ण की जीवन पद्धति में प्रवृत्त कर सकता है? वही श्रेष्ठ उपदेष्टा है। आन्तरिक हो या बाह्य? अवगुण का नाश करो। यही भगवान् श्रीकृष्ण का प्रमुख सिद्धांत है। ऐसे शक्तिशाली सिद्धांत पर निर्मित संस्कृति का प्रचार करने के लिए केवल पाण्डित्य ही पर्याप्त नहीं? वरन् उस आचार्य में श्रीकृष्ण की क्षमता भी आवश्यक है। इसलिए वे श्रेष्ठ आचार्य को गौरवान्वित करते हैं। जिन साधकों में सम्पूर्ण और शक्तिशाली जीवन जीने की आध्यात्मिक पिपासा है? उन्हें भगवद्गीता विशेष आकर्षक और अर्थवान् प्रतीत होती है। अत? यहाँ कहते हैं? इस परम गुह्य ज्ञान का उपदेश ऐसे भक्तों को देना चाहिए। भक्ति का अर्थ है आदर्श के साथ तादात्म्य। जो भक्तगण गीतोपदिष्ट जीवन पद्धति के साथ तादात्म्य स्थापित करके तदनुसार अपना जीवन निर्मित कर सकते हैं? वे इस ज्ञान के अधिकारी हैं।यदि शिष्य साधन भक्ति से युक्त होना चाहिए तो गुरु को परम भक्त अर्थात् पराभक्ति से युक्त होना आवश्यक है। ऐसा ब्रह्मनिष्ठ आचार्य जो योग्य शिष्यों को यथार्थ ज्ञान प्रदान करता है? वह? निसन्देह? मुझे प्राप्त होता है।एक सुशिक्षित पुरुष अपनी कृतज्ञता की भावना के कारण स्वयं को ज्ञान की देवी का ऋणी अनुभव करता है। वस्तुत? हमारी संस्कृति में इसे ऋषि ऋण कहा गया है। इस ऋण से मुक्त होने के लिए हमें ऋषियों के उपदेश का अध्ययन तदनुसार आचरण एवं ग्रहण किये ज्ञान का अध्यापन करना चाहिए। यह हमारा कर्तव्य है।दर्शन ही प्रत्येक संस्कृति का अधिष्ठान होता है। हिन्दू संस्कृति का पुनरुत्थान एवं गौरवमय पुनर्प्रतिष्ठान तभी संभव होगा? जब उपनिषदों से प्रतिपादित तत्त्वज्ञान के द्वारा वह पोषित की जायेगी। हमारी संस्कृति के जनक? महान् ऋषिगण इस रहस्य को जानते थे। इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों से इस ज्ञान का प्रचार करने के लिए सदैव आग्रह किया है। केवल इसी माध्यम से सामान्य जनों के हृदय को ज्ञानालोक से आलोकित किया जा सकता है। संस्कृति की उन्नति का भी यही प्रमुख साधन है।यदि कोई विद्यार्थी इस ज्ञान और संस्कृति का अल्पांश भी समझता है? परन्तु उसका प्रसार करने का प्रयत्न नहीं करता है? तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसमें न बुद्धि की गतिशीलता है और न प्रेरणा की तरलता। परन्तु जो पुरुष गीता के सिद्धांतों का उपदेश देने में समर्थ है? उसका यहाँ अभिनन्दन करते हैं और उसे सर्वोच्च पुरस्कार का आश्वासन देते है कि वह? निसन्देह? मुझे प्राप्त होगा।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।18.68।।शास्त्रसंप्रदायप्रवृत्त्यर्थमुत्तरश्लोकप्रवृत्तिं दर्शयति -- संप्रदायस्येति। य इत्यध्यापको निर्दिश्यते। परमत्वं ग्रन्थस्य निरतिशयपुरुषार्थसाधनत्वमित्याह -- परममिति। गोप्यत्वमस्य रहस्यार्थविषयत्वात्। यथोक्तसंवादस्य ग्रन्थतोऽर्थतश्च भक्तेषु स्थापने दृष्टान्तमाह -- यथेति। मयि वासुदेवे भगवति? अनन्यभक्ते त्वयि यथा मया ग्रन्थोऽर्थतः स्थापितस्तथा मद्भक्तेष्वन्येष्वपि यो ग्रन्थमिमं स्थापयिष्यति तस्येदं फलमित्युत्तरत्र संबन्धः। नाभक्तायेति भक्तेरधिकारिविशेषणत्वोक्तेर्मद्भक्तेष्विति पुनर्भक्तिग्रहणमनर्थकमित्याशङ्क्याह -- भक्तेरिति। शुश्रूषादिसहकारिराहित्यं केवलशब्दार्थः। यद्यपि मात्रशब्देन सूचितमेतत्तथापीतरेण स्फुटीकृतमित्यविरोधः। प्रश्नपूर्वकमभिधानप्रकारमभिनयति -- कथमित्यादिना। भगवति भक्तिकरणप्रकारं प्रकटयति -- भगवत इति। यच्छब्दापेक्षितं पूरयति -- तस्येति। मामेष्यत्येवेत्यन्वयं गृहीत्वा व्याचष्टे -- मुच्यत एवेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।18.68।।एवं संप्रदायस्य विधिमुक्त्वा तस्य कर्तुः फलमाह -- य इति। इमं यथोक्तं केशवार्जनयोः संवादरुपं ग्रन्थम्। इदमिति पाठस्त्वाचार्यैरव्याख्यातातत्वादनादरणीयः। य इमं निःश्रेयसार्थत्वात्परमं प्रकृष्टं गुह्यं गोप्यं रहस्यार्थविषयत्वात्। मद्भक्तेषु मयि भक्तिमत्सु योऽध्यापकोऽभिधास्यति ग्रन्थतोऽर्थताश्चाध्यापयिष्यति। यथा मयि वासुदेवे नित्यभक्ते त्वयि मया ग्रन्थतोऽर्थतश्च स्थापितस्तथा मद्भक्तेषु यो ग्रन्थमिमं स्थापयिष्यति स भक्तिं मयि परां कृत्वा भगवतः परमगुरोः शुश्रूषा मया क्रियत इत्येवं कृत्वा मामेवैष्यति नान्यम्। मुक्तो भविष्यत्येवेत्यर्थः। अत्र संशयो न कर्तव्यः। मद्भक्तेष्विति भक्तेः पुनर्ग्रहणं भक्तिमात्रेण शास्त्रसंप्रदाने पात्रं भवतीति गम्यते। भक्तिं परामद्वैतलक्षणामुपासनां कुत्वेति तु गीताशास्त्रप्रदानलक्षणभक्तेः फलं वक्तुं प्रवृत्तस्येतरभक्तिफलकथनमनुचितमित्यभिप्रेत्याचार्यैर्न व्याख्यातम्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।18.68।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।18.68।।एवं संप्रदायविधिमुक्त्वा संप्रदायकर्तुः फलमाह -- य इदमिति। इदं परमं गुह्यं यो भक्तिहीनो मानपूजाद्यर्थी सन् मद्भक्तेष्वभिधास्यति सोऽपि ततएव पुण्यान्मयि परमेश्वरे चिदेकरसे परां भक्तिमद्वैतलक्षणामुपासनां कृत्वा तत्रादरं प्राप्य तामनुष्ठाय च मामेवैष्यति मुक्तिं प्राप्स्यतीत्यर्थः। असंशयः सशयोऽत्र नास्ति। स्मर्यते हि अजामिलादीनां भक्तिगन्धहीनानामपि पुत्रसंकेतिनेन नारायणेतिनाम्ना,स्नेहवशादाह्वयतां तावन्मात्रतुष्टेन भगवता सद्गतिर्दत्ता किमु वक्तव्यं यो वाचा एतावच्छास्त्ररहस्यं प्रतिपादयति तस्य भक्तिलाभादिक्रमेण कृतकृत्यत्वं भविष्यतीति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।18.68।।इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेषु यः अभिधास्यति? व्याख्यास्यति सः मयि परमां भक्तिं कृत्वा माम् एव एष्यति न तत्र संशयः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।18.68।।एतैर्दोषैर्विरहितेभ्यो मद्भक्तेभ्योगीताशास्त्रोपदेष्टुः फलमाह -- य इति। मद्भक्तेष्वभिधास्यति मद्भक्तेभ्यो यो वक्ष्यति स मयि परां भक्तिं करोति। ततो निःसंशयः सन् मामेव प्राप्नोतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।18.68।।अथाधिकारिविशेषेष्ववश्यवक्तव्यत्वं तेषु वचनस्यापवर्गाख्यफलपर्यवसानं चोच्यतेय इदम् इति श्लोकेन।मद्भक्तेषु इत्यनेनैवातपस्कत्वादिदोषा दूरोत्सारिताः? स्थितमनसां तेषां तदसम्भवात्।श्रावयेच्चतुरो वर्णान् [म.भा.12।327।48] इत्येतावता सर्वेषु वक्तव्यम्? तेष्वेव मद्भक्ता एव श्रवणाधिकारिण इत्युक्तं भवति। अत्रअभिधास्यति इत्यर्थश्रावणपर्यन्तमित्याह -- व्याख्यास्यतीति। यद्वृत्तवशात्सः इत्यध्याहृतम्। योग्येषु व्याख्यानमपि कर्मयोगादिकोटौ? भक्तियोगाङ्कुरे वा निविष्टं परभक्तिं जनयतीतिभक्तिं मयि परां कृत्वा इत्युच्यते।मामेव इत्यवधारणेन मद्गीताव्याख्यायिनो न क्षुद्रफलेषु सङ्गं जनयामीत्यभिप्रेतम्। फलितमाह -- न तत्र संशय इति।असंशयः इति संशय एव वा निषिध्यते।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।18.68 -- 18.72।।य इदमित्यादि धनञ्जयेत्यन्तम्। भक्तिमिति -- एतदेव मयि भक्तिकरणं यत् भक्तेष्वेतन्निरूपणम् ( ?N मद्भक्तेषु )। अभिधास्यति ( S??N मद्भक्तेष्वभि -- ) ? आभिमुख्येन शास्त्रोक्तप्रक्रियया? धास्यति वितरिष्यति [ यः ] स मन्मयतामेति इति विधिरेवैष नार्थवादः। एवमन्यत्र।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।18.68।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।18.68।।एवं संप्रदायस्य विधिमुक्त्वा तस्य कर्तुः फलमाह -- य इदमिति। यः संप्रदायस्य प्रवर्तकः इममावयोः संवादरूपं ग्रन्थम्। परमं निरतिशयपुरुषार्थसाधनं गुह्यं रहस्यार्थत्वात्सर्वत्र प्रकाशयितुमन्वहं मद्भक्तेषु मां भगवन्तं वासुदेवं प्रत्यनुरक्तेष्वभिधास्यत्यभितो ग्रन्थतोऽर्थतश्च धास्यति स्थापयिष्यति। भक्तेः पुनर्ग्रहणात्पूर्वोक्तविशेषणत्रयरहितस्यापि भगवद्भक्तिमात्रेण पात्रता सूचिता भवति। कथमभिधास्यति तत्राह -- भक्तिमिति। भक्तिं मयि परां कृत्वा भगवतः परमगुरोः शुश्रूषैवेयं मया क्रियत इत्येवं कृत्वा निश्चित्य योऽभिधास्यति स मामेवैष्यति मां भगवन्तं वासुदेवमेष्यत्येवाचिरान्मोक्षत एवं संसारादत्र संशयो न कर्तव्यः। अथवा मयि परां भक्तिं कृत्वाऽसंशयो निःसंशयः सन्मामेष्यत्येवेति वा मामेवैष्यति नान्यमिति यथाश्रुतमेव वा,योज्यम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।18.68।।एवमेतद्दोषयुक्तेभ्यो न वाच्यं? एतद्दोषरहितेभ्यश्च सर्वथा वाच्यमित्येतदुपदेशनफलमाह -- य इदमिति। यः कश्चन दुर्लभः मद्भक्तिरसाविष्टं इमं पूर्वश्लोकोक्तं परमं सर्वोत्कृष्टं गुह्यं गोप्यं मद्भक्तेषु पूर्वोक्तदोषरहिततद्गुणसुसम्पन्नेषु अभिधास्यति वक्ष्यति श्रोता वक्ता चैतच्छ्रवणेन असंशयः सन्देहरहितः सन् परां सर्वोत्कृष्टां पूर्वोक्तां मयि भक्ितं कृत्वा मामेव एष्यति? प्राप्नोतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।18.68।। --,यः इमं यथोक्तं परमं परमनिःश्रेयसार्थं केशवार्जुनयोः संवादरूपं ग्रन्थं गुह्यं गोप्यतमं मद्भक्तेषु मयि भक्ितमत्सु अभिधास्यति वक्ष्यति? ग्रन्थतः अर्थतश्च स्थापयिष्यतीत्यर्थः? यथा त्वयि मया। भक्तेः पुनर्ग्रहणात् भक्ितमात्रेण केवलेन शास्त्रसंप्रदाने पात्रं भवतीति गम्यते। कथम् अभिधास्यति इति? उच्यते -- भक्तिं मयि परां कृत्वा भगवतः परमगुरोः अच्युतस्य शुश्रूषा मया क्रियते इत्येवं कृत्वेत्यर्थः। तस्य इदं फलम् -- मामेव एष्यति मुच्यते एव। असंशयः अत्र संशयः न कर्तव्यः।।किं च --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।18.68।।एतद्दोषरहितास्तु मद्भक्ता एव? नान्य इति तेभ्यो दाने फलमाह -- य इदमिति। मद्भक्तेष्वभिधास्यति स मामेवैष्यति।


Chapter 18, Verse 68