Chapter 18, Verse 61

Text

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।

Transliteration

īśhvaraḥ sarva-bhūtānāṁ hṛid-deśhe ‘rjuna tiṣhṭhati bhrāmayan sarva-bhūtāni yantrārūḍhāni māyayā

Word Meanings

īśhvaraḥ—the Supreme Lord; sarva-bhūtānām—in all living being; hṛit-deśhe—in the hearts; arjuna—Arjun; tiṣhṭhati—dwells; bhrāmayan—causing to wander; sarva-bhūtāni—all living beings; yantra ārūḍhani—seated on a machine; māyayā—made of the material energy


Translations

In English by Swami Adidevananda

The Lord, O Arjuna, abides in the heart of every being, spinning them round and round, as if mounted on a wheel, by His power.

In English by Swami Gambirananda

O Arjuna, the Lord resides in the region of the hearts of all creatures, revolving through Maya all the creatures as though mounted on a machine!

In English by Swami Sivananda

The Lord dwells in the hearts of all beings, O Arjuna, causing all beings, by His illusory power, to revolve as if mounted on a machine.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

O Arjuna! This Lord dwells in the hearts of all beings, causing, by His trick of illusion, all beings to whirl round as if they are mounted on a revolving mechanical contrivance.

In English by Shri Purohit Swami

God dwells in the hearts of all beings, O Arjuna! He causes them to revolve, as it were, on a wheel, by His mystic power.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.61।।हे अर्जुन ! ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और अपनी मायासे शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराता रहता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।18.61।। हे अर्जुन (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

18.61 ईश्वरः the Lord? सर्वभूतानाम् of all beings? हृद्देशे in the hearts? अर्जुन O Arjuna? तिष्ठति dwells? भ्रामयन् causing to revolve? सर्वभूतानि all beings? यन्त्रारूढानि mounted on a machine? मायया by illusion.Commentary Isvara The Lord the Ruler of the universe Narayana.The Lord abides in the hearts of all beings. It is He Who has given a gift of this marvellous machine to you. It is by His power that all bodies move. The Lord is the real Actor within.By Maya By causing illusion.He causes all beings to revolve like wooden dolls mounted on a machine. (Cf.X.20.XIII.18)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.61।। व्याख्या --   ईश्वरः सर्वभूतानां ৷৷. यन्त्रारूढानि मायया -- इसका तात्पर्य यह है कि जो ईश्वर सबका शासक? नियामक? सबका भरणपोषण करनेवाला और निरपेक्षरूपसे सबका संचालक है? वह अपनी,शक्तिसे उन प्राणियोंको घुमाता है? जिन्होंने शरीरको मैं औरमेरा मान रखा है।जैसे? विद्युत्शक्तिसे संचालित यन्त्र -- रेलपर कोई आरूढ़ हो जाता है? चढ़ जाता है तो उसको परवशतासे रेलके अनुसार ही जाना पड़ता है। परन्तु जब वह रेलपर आरूढ़ नहीं रहता? नीचे उतर जाता है? तब उसको रेलके अनुसार नहीं जाना पड़ता। ऐसे ही जबतक मनुष्य शरीररूपी यन्त्रके साथ मैं और मेरेपनका समबन्ध रखता है? तबतक ईश्वर उसको उसके स्वभाव (टिप्पणी प0 962) के अनुसार संचालित करता रहता है और वह मनुष्य जन्ममरणरूप संसारके चक्रमें घूमता रहता है।शरीरके साथ मैंमेरेपनका सम्बन्ध होनेसे ही रागद्वेष पैदा होते हैं? जिससे स्वभाव अशुद्ध हो जाता है। स्वभावके अशुद्ध होनेपर मनुष्य प्रकृति अर्थात् स्वभावके परवश हो जाता है। परन्तु शरीरसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर जब स्वभाव रागद्वेषसे रहित अर्थात् शुद्ध हो जाता है? तब प्रकृतिकी परवशता नहीं रहती। प्रकृति(स्वभाव)की परवशता न रहनेसे ईश्वरकी माया उसको संचालित नहीं करती।अब यहाँ यह शङ्का होती है कि जब ईश्वर ही हमारेको भ्रमण करवाता है? क्रिया करवाता है? तब यह काम करना चाहिये और यह काम नहीं करना चाहिये -- ऐसी स्वतंन्त्रता कहाँ रही क्योंकि यन्त्रारूढ़ होनेके कारण हम यन्त्रके और यन्त्रके संचालक ईश्वरके अधीन हो गये? परतन्त्र हो गये? फिर यन्त्रका संचालक (प्रेरक) जैसा करायेगा? वैसा ही होगा इसका समाधान इस प्रकार इस प्रकार है -- जैसे? बिजलीसे संचालित होनेवाले यन्त्र अनेक तरहके होते हैं। एक ही बिजलीसे संचालित होनेपर भी किसी यन्त्रमें बर्फ जम जाती है और किसी यन्त्रमें अग्नि जल जाती है अर्थात् उनमें एकदूसरेसे बिलकुल विरुद्ध काम होता है। परन्तु बिजलीका यह आग्रह नहीं रहता कि मैं तो केवल बर्फ ही जमाऊँगी अथवा केवल अग्नि ही जलाऊँगी। यन्त्रोंका भी ऐसा आग्रह नहीं रहता कि हम तो केवल बर्फ ही जमायेंगे अथवा केवल अग्नि ही जलायेंगे? प्रत्युत यन्त्र बनानेवाले कारीगरने यन्त्रोंको जैसा बना दिया है? उसके अनुसार उनमें स्वाभाविक ही बर्फ जमती है और अग्नि जलती है। ऐसे ही मनुष्य? पशु? पक्षी? देवता? यक्ष राक्षस आदि जितने भी प्राणी हैं? सब शरीररूपी यन्त्रोंपर चढ़े हुए हैं और उन सभी यन्त्रोंको ईश्वर संचालित करता है। उन अलगअलग शरीरोँमें भी जिस शरीरमें जैसा स्वभाव है? उस स्वभावके अनुसार वे ईश्वरसे प्रेरणा पाते हैं और कार्य करते हैं। तात्पर्य यह है कि उन शरीरोंसे मैंमेरेपनका सम्बन्ध माननेवालेका जैसा (अच्छा या मन्दा) स्वभाव होता है? उससे वैसी ही क्रियाएँ होती हैं। अच्छे स्वभाववाले (सज्जन) मनुष्यके द्वारा श्रेष्ठ क्रियाएँ होती हैं और मन्दे स्वभाववाले (दुष्ट) मनुष्यके द्वारा खराब क्रियाएँ होती हैं। इसलिये अच्छी या मन्दी क्रियाओंको करानेमें ईश्वरका हाथ नहीं है? प्रत्युत खुदके बनाये हुए अच्छे या मन्दे स्वभावका ही हाथ है।जैसे बिजली यन्त्रके स्वभावके अनुसार ही उसका संचालन करती है? ऐसे ही ईश्वर प्राणीके (शरीरमें स्थित) स्वभावके अनुसार उसका संचालन करते हैं। जैसा स्वभाव होगा? वैसे ही कर्म होंगे। इसमें एक बात विशेष ध्यान देनेकी है कि स्वभावको सुधारनेमें और बिगाड़नेमें सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं? कोई भी परतन्त्र नहीं है। परन्तु पशु? पक्षी? देवता आदि जितने भी मनुष्येतर प्राणी हैं? उनमें अपने स्वभावको सुधारनेका न अधिकार है और न स्वतन्त्रता ही है। मनुष्यशरीर अपना उद्धार करनेके लिये ही मिला है? इसलिये इसमें अपने स्वभावको सुधारनेका पूरा अधिकार? पूरी स्वतन्त्रता है। उस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करके स्वभाव सुधारनेमें और स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके स्वभाव बिगाड़नेमें मनुष्य स्वयं ही हेतु है। ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयदेशमें रहता है -- यह कहनेका तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वीमें सब जगह जल रहनेपर भी जहाँ कुआँ होता है? वहींसे जल प्राप्त होता है ऐसे ही परमात्मा सब जगह समान रीतिसे परिपूर्ण होते हुए भी हृदयमें प्राप्त होते हैं अर्थात् हृदय सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिका विशेष स्थान है। ऐसे ही तीसरे अध्यायमें सर्वव्यापी परमात्माको यज्ञ(निष्कामकर्म) में स्थित बताया गया है तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् (गीता 3। 15)।विशेष बातसाधककी प्रायः यह भूल होती है कि वह भजन? कीर्तन? ध्यान आदि करते हुए भी भगवान् दूर हैं वे अभी नहीं मिलेंगे यहाँ नहीं मिलेंगे अभी मैं योग्य नहीं हूँ भगवान्की कृपा नहीं है आदि भावनाएँ बनाकर भगवान्की दूरीकी मान्यता ही दृढ़ करता रहता है। इस जगह साधकको यह सावधानी रखनी चाहिये कि जब भगवान् सभी प्राणियोंमें मौजूद हैं तो मेरेमें भी हैं। वे सर्वत्र व्यापक हैं तो मैं जो जप करता हूँ उस जपमें भी भगवान् हैं मैं श्वास लेता हूँ तो उस श्वासमें भी भगवान् हैं मेरे मनमें भी भगवान् हैं? बुद्धिमें भी भगवान् हैं मैं जो मैंमैं कहता हूँ? उस मैं में भी भगवान् हैं। उस मैं का जो आधार है? वह अपना स्वरूप भगवान्से अभिन्न है अर्थात् मैंपन तो दूर है? पर भगवान् मैंपनसे भी नजदीक हैं। इस प्रकार अपनेमें भगवान्को मानते हुए ही भजन? जप? ध्यान आदि करने चाहिये।अब शङ्का यह होती है कि अपनेमें परमात्माको माननेसे मैं और परमात्मा दो (अलगअलग) हैं -- यह द्वैतापत्ति होगी। इसका समाधान यह है कि परमात्माको अपनेमें माननेसे द्वैतापत्ति नहीं होती? प्रत्युत अहंकार(मैंपन) को स्वीकार करनेसे जो अपनी अलग सत्ता प्रतीत होती है? उसीसे द्वैतापत्ति होती है। परमात्माको अपना और और अपनेमें माननेसे तो परमात्मासे अभिन्नता होती है? जिससे प्रेम प्रकट होता है।जैसे? गङ्गाजीमें बाढ़ आ जानेसे उसका जल बहुत बढ़ जाता है और फिर पीछे वर्षा न होनेसे उसका जल पुनः कम हो जाता है परन्तु उसका जो जल गड्ढेमें रह जाता है अर्थात् गङ्गाजीसे अलग हो जाता है? उसकोगङ्गोज्झ कहते हैं। उस गङ्गोज्झको मदिराके समान महान् अपवित्र माना गया है। गङ्गाजीसे अलग होनेके कारण वह गंदा हो जाता है और उसमें अनेक कीटाणु पैदा हो जाते हैं? जो कि रोगोंके कारण हैं। परन्तु फिर कभी जोरकी बाढ़ आ जाती है? तो वह गङ्गोज्झ वापस गङ्गाजीमें मिल जाता है। गङ्गाजीमें मिलते ही उसकी एकदेशीयता? अपवित्रता? अशुद्धि आदि सभी दोष जाते हैं और वह पुनः महान् पवित्र गङ्गाजल बन जाता है।ऐसे ही यह मनुष्य जब अहंकारको स्वीकार करके परमात्मासे विमुख हो जाता है? तब इसमें परिच्छिन्नता? पराधीनता? जडता? विषमता? अभाव? अशान्ति? अपवित्रता आदि सभी दोष (विकार) आ जाते हैं। परन्तु जब यह अपने अंशी परमात्माके सम्मुख हो जाता है? उन्हींकी शरणमें चला जाता है अर्थात् अपना अलग कोई व्यक्तित्व नहीं रखता? तब उसमें आये हुए भिन्नता? पराधीनता आदि सभी दोष मिट जाते हैं। कारण कि स्वयं (चेतन स्वरूप) में दोष नहीं हैं दोष तो अहंता(मैंपन) को स्वीकार करनेसे ही आते हैं। सम्बन्ध --   अब भगवान् यन्त्रारूढ़ हुए प्राणियोंकी परवशताको मिटानेका उपाय बताते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।18.61।। भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश सुस्पष्ट एवं सर्वथा सन्देह रहित है। गीताचार्य कहते हैं? मेरा स्मरण ईश्वर अर्थात् सम्पूर्ण विश्व के शासक के रूप में करो। ईश्वर ही नियामक और नियन्ता है। उसकी उपस्थिति में ही जगत् की समस्त घटनाएं घट सकती हैं? अन्यथा नहीं। जैसै कि वाष्प इंजन का ईश्वर वाष्प है? जिसके बिना इंजन में गति नहीं आ सकती।ईश्वर का स्मरण केवल सगुणसाकार अर्थात् शक्ति के मानवीय रूप में ही नहीं करना चाहिये? जैसे कैलाशपति? शिवजी? या वैकुण्ठवासी विष्णु या स्वर्ग में स्थित पिता के रूप में। ईश्वर तो भूतमात्र के हृदय में निवास कर रहा अंतरयामी है। इसकी पहचान हृदय में ही हो सकती है। जिस प्रकार विशाल महानगरी में किसी व्यक्ति से मिलने के लिये उसके निवासस्थान का पता बताया जाता है? उसी प्रकार? यहाँ? भगवान् श्रीकृष्ण अपना स्थानीय पता बता रहे हैंहृदय शब्द से तात्पर्य शारीरिक अंग रूप हृदय से नहीं है। दर्शनशास्त्र में हृदय का अर्थ लाक्षणिक है? शाब्दिक नहीं। प्रेम? करुणा? धृति? उत्साह? स्नेह? कोमलता? क्षमा? उदारता जैसे दैवी गुणों से सम्पन्न मन ही हृदय कहलाता है। परमेश्वर ही चेतनता और शक्ति का स्रोत है? जो अपनी शक्ति प्राणीमात्र को प्रदान करता है। समस्त प्राणी ईश्वर के ही चारों ओर इस प्रकार घूमते रहते हैं? जैसे कठपुतलियां किसी के हाथों में बन्धी खेल करती है। कठपुतलियों की अपनी कोई सार्मथ्य? शक्ति या भावना नहीं होती? वे जो कुछ खेल करती दिखाई देती हैं? वह सब अदृश्य हाथ की शक्ति है जो उन कठपुतलियों को धारण किये रहता है।पारमर्थिक दृष्टि से? ईश्वर का अर्थ चैतन्यस्वरूप ब्रह्म है। इस चैतन्य के सम्बन्ध से ही शरीर? मन आदि जड़ उपाधियाँ कार्य करने में सक्षम होती हैं। अन्यथा? जड़ पदार्थ में स्वयं न कर्म करने की शक्ति है और न वस्तुओं को जानने की। इस दृष्टि से इस श्लोक का अर्थ यह होगा कि चैतन्यस्वरूप आत्मा की उपस्थिति में प्राणीमात्र अपनेअपने स्वभाव के अनुसार यत्रतत्र भ्रमण करते रहते हैं। इसी तथ्य को यहाँ इस प्रकार कहा गया है कि ईश्वर अपनी माया से भूतमात्र को घुमाता है।इसी श्लोक का दूसरा अर्थ निम्न प्रकार से होगा। समष्टि माया में व्यक्त चैतन्यस्वरूप परमात्मा ही ईश्वर कहलाता है? जो सर्वज्ञसर्वशक्तिमान् है। वह ईश्वर अपनी माया से समस्त जीवों को घुमाता है इसका अर्थ यह हुआ कि वह ईश्वर समस्त जीवों को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करता है। ईश्वर के बिना व्यष्टि जीवों का अस्तित्व संभव ही नहीं है। समस्त जीवों को कर्म और ज्ञान की शक्तियां ईश्वर से ही प्राप्त होती हैं। इस प्रकार? वेदान्त के सिद्धांत को समझकर इस श्लोक के अध्ययन से यहाँ प्रयुक्त रूपक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।18.61।।इतोऽपि त्वया युद्धं कर्तव्यमेवेत्याह -- यस्मादिति। अर्जुनशब्दस्योक्तार्थत्वे श्रुतिमुदाहरति -- अहश्चेति।अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च विवर्तेते रजसी वेद्याभिः इत्यत्र किंचिदहस्तावत्कृष्णमस्वच्छं कलुषितमिव लक्ष्यते किंचित्पुनरहरर्जुनमतिस्वच्छं शुद्धस्वभावमुपलभ्यते। एवमर्जुनशब्दस्य शुक्लशब्दपर्यायतया प्रयोगदर्शनादुक्तार्थत्वमुचितमित्यर्थः। यन्त्रारूढानीवेति कथमुच्यते तत्राह -- इवशब्द इति। तदेव प्रपञ्चयति -- यथेति। दारुमयानि यन्त्राणि यथा लौकिको मायावी मायया भ्रामयन्वर्तते तथेश्वरोऽपि सर्वाणि भूतानि भ्रामयन्नेव हृदये तिष्ठतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।18.61।।स्वभावपारातन्त्र्यमुक्त्वेदानीमन्तर्यामिपारतन्त्र्यमाह। ईश्वर ईशनशीलः नारायणः सर्वभूतानां सर्वप्राणिनां हृद्देशे तिष्ठति सर्वत्र स्थितोऽपि हृदयेऽभिवक्ततया तिष्ठति।अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च इति श्रुतौ अर्जुनशब्दस्य शुक्लशब्दापर्यायताय प्रयोगदर्शनात् शुक्लान्तरात्मस्वभावो विशुद्धन्तःकरणोऽर्जुनस्तं संबोधयन्नर्जुनस्य तवाविवेकेन निबन्धनं स्वस्वातन्त्र्याध्यारोफणं नोचतम्? किंतु ईश्वरप्रेरितः सर्वं करोमीति परिज्ञानमिति सूचयति। किं कुर्वन् तिष्ठतीत्याकाङ्क्षायामाह -- भ्रामयन् भ्रमणं कारयन् सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि यन्त्राण्यारुढान्यधिष्ठितानीव यथा मायावी दारुकृतपुरुषादीनि यन्त्रारुढानि मायया छद्मना भ्रामयंस्तिष्ठति तद्वदीश्वरो यन्त्रसदृश शरीरारुढानि भूतानीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।18.61।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।18.61।।कोऽसौ परो यद्वशेऽहमस्मीत्यत आह -- ईश्वर इति। ईश्वर ईशनशीलोऽन्तर्यामी पृथिव्यादीनामस्माकं च सर्वभूतानां सर्वप्राणिनां हृद्देशे बुद्धिगुहायां सर्वप्राणिप्रवर्तकस्तिष्ठति। कीदृशः। सर्वभूतानि भ्रामयन्नूर्ध्वाधोमार्गेषु संचारयन् काष्ठपुत्तिका इव सूत्रधारः यन्त्रारूढानि यन्त्रमिव यन्त्रं उत्क्रमणादिसाधनं सर्वप्राणाद्यात्मकं लिङ्गं तदारूढानि मायया स्वशक्त्या भ्रामयन्निति संबन्धः। हे अर्जुन शुक्ल विशुद्धान्तःकरण? सेश्वरोऽसीति भावः। अत्राहंकारपूर्वकं यः कर्म करोति यश्च ईश्वरपरवशोऽहंकरोमीति बुद्ध्या करोति तयोरत्यन्तवैलक्षण्यप्रदर्शनार्थो मन्त्रो भाष्ये उदाहृतःअहश्च कृष्णमहरर्जुनं च विवर्तेते रजसी वेद्याभिः इति भारद्वाजार्षंअहश्च कृष्णमहरर्जुनं चइत्याग्निमारुतस्य प्रतिपत् इति ब्राह्मणेन आग्निमारुते शस्त्रे विनियुक्ता प्रथमेयमृक्। यस्मिन् दिवसे सोमः सूयते यागार्थं तदेव जन्मसाफल्यदिनं मुख्यमहःशब्दवाच्यम्। अन्यत्तु दिनमदिनमेव निष्फलत्वात्। तथा च स्मृतिःदशभिर्जन्मभिर्वेदा आधानं शतजन्मभिः। सहस्रैर्जन्मभिः सोमं ब्राह्मण्यं पातुमर्हति इति सोमयागस्य दौर्लभ्यं दर्शयति। तदयमहःशब्दः कालवचनोऽपि सौम्ये कर्मणि वर्तते। यथा दर्शपौर्णमासशब्दौ। तत्रैवं सति अहः यागः कृष्णं अविदुषा कृतं अप्रकाशमिव भवति। तथाऽहरर्जुनं स्वच्छं तदेव विदुषा कृतं प्रकाशरूपमिव भवति। ते एते उभे अपि विद्वदविद्वत्कृते अहनी रजसी प्रवृत्तिरूपत्वात् रजोगुणकार्ये अपि वेद्याभिर्विद्याभिः कर्माङ्गावबद्धोपासनारूपा वा परमेश्वरे सर्वकर्मार्पणरूपा वा अहंकरोमीत्यभिमानरूपा वा विद्या विज्ञानानि ताभिर्विवर्तेते वैपरीत्येन वर्तेते। सोपासनं कर्म श्वेतं परमात्मतत्त्वप्रकाशकं बन्धविच्छेदहेतुः? मूढकृतं कर्म कृष्णं स्वरूपावरकं बन्धहेतुरित्यर्थः। तदेवं भगवान् पार्थं अर्जुनेति संबोधयन् एतस्य स्वच्छान्तःकरणत्वद्योतनेन शुक्ले धर्मेऽधिकारं दर्शयति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।18.61।।ईश्वरः सर्वनियमनशीलो वासुदेवः सर्वभूतानां हृद्देशे सकलप्रवृत्तिनिवृत्तिमूलज्ञानोदये देशे तिष्ठति। कथं किं कुर्वन् तिष्ठतियन्त्रारूढानि सर्वभूतानि मायया भ्रामयन् स्वेन एव निर्मितं देहेन्द्रियावस्थप्रकृत्याख्यं यन्त्रम् आरूढानि सर्वभूतानि स्वकीयया सत्त्वादिगुणमय्या मायया गुणानुगुणं प्रवर्तयन् तिष्ठति इत्यर्थः।पूर्वम् अपि एतद् उक्तम्सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च (गीता 15।15) इतिमत्तः सर्वं प्रवर्तते (गीता 10।8) इति च। श्रुतिश्च -- य आत्मनि तिष्ठन् (शत0 ब्रा0 1।13।1) इत्यादिका।एतन्मायानिवृत्तिहेतुम् आह --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।18.61।।तदेवं श्लोकद्वयेन सांख्यादिमतेन प्रकृतिपारतन्त्र्यं स्वभावपारतन्त्र्यं कर्मपारतन्त्र्यं चोक्तम्। इदानीं स्वमतमाह -- ईश्वर इति द्वाभ्याम्। सर्वभूतानां हृदयमध्ये ईश्वरोऽन्तर्यामी तिष्ठति। किं कुर्वन् सर्वाणि भूतानि मायया निजशक्त्या भ्रामयन् तत्तत्कर्मसु प्रवर्तयन् यथा दारुयन्त्रमारूढानि कृत्रिमाणि भूतानि सूत्रधारो लोके भ्रामयति तद्वदित्यर्थः। यद्वा यन्त्राणि शरीराणि आरूढानि भूतानि देहाभिमानिनो जीवान् भ्रामयन्नित्यर्थः। तथाच श्वेताश्वतराणां मन्त्रःएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च इति। अन्तर्यामिब्राह्मणं चय आत्मनि तिष्ठन्नात्मानमन्तरो यमयति यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः इत्यादि।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।18.61।।उक्तार्थस्थापनाय त्वय्युदासीने कथमहं प्रवर्तेय तथात्वे वा कथं तव सर्वहेतुत्वं इति चोद्यम्ईश्वरः इति श्लोकेन परिह्रियत इत्याह -- सर्वं हीति। उक्तं स्वभावपारतन्त्र्यमपि मत्प्रयुक्तम् मम च साधारणकारणत्वान्न कश्चिद्विरोध इति भावः। ईश्वरशब्दस्यात्रेन्द्रादिशब्दवत् अर्वाचीनेश्वरविषयरूढिशङ्कापरिहाराय यौगिकमर्थमन्वर्थसमाख्यया स्थापयतिसर्वनियमनशीलो वासुदेव इति।सापेक्षनिरपेक्षयोर्निरपेक्षसम्प्रत्ययः इति न्यायादीश्वरत्वस्य सर्वविषयत्वं सिद्धम्। तस्य च व्याप्तिमूलत्वं वासुदेवशब्देन दर्शितम्। वक्तृविषयत्वज्ञापनाय वासुदेवशब्दः। सर्वेश्वरेणमया इति ह्यधस्ताद्दर्शितम्। सर्वव्याप्तस्य हृद्देशे विशेषस्थितिवचनं किमर्थं इत्यत आह -- सकलप्रवृत्तिनिवृत्तिमूलज्ञानोदयप्रदेश इति। एतेन हृदयस्थितेःभ्रामयन् इत्यत्रोपयोगो दर्शितः।,कथमित्युपकरणाभिप्रायम्मायया इति हि तदुत्तरम्।किं कुर्वन्निति -- ईश्वरशब्देन नियन्तृतैकनिरूपणीयतया प्रतिपन्नोऽसौ कीदृशं नियमनं कुर्वन्नित्यर्थः।यन्त्र इत्यादिभ्रामयन् इत्यन्तमेकं वाक्यं प्रश्नवाक्यादाकृष्टेन तिष्ठतिनाऽन्वेतव्यम्। प्रागुक्तसर्वपरामर्शेन यन्त्रमायादिशब्दानामर्थं विवृणोति -- स्वेनैव निर्मितमित्यादिना। भूतशब्देन? हृत्प्रदेशनिर्देशेन? पुरुषप्रवृत्तिविशेषानुगुण्यात्? अर्थस्वभावेन च यन्त्रशब्दोऽत्र देहेन्द्रियसङ्घातविशेषविषयः। महतः परमव्यक्तशब्देन निर्दिष्टम्? तत्रैव च शरीरं रथमेव च [कठो.3।3] इति रथाख्ययन्त्रत्वेन रूपितमिति ज्ञापनाय -- देहेन्द्रियावस्थं प्रकृत्याख्यमित्युक्तम्। तथा च श्रूयते -- सर्वाजीवे सर्वसंस्थे भ्रमन्ते (बृहन्ते) तस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे। पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति [श्वे.उ.1।6ना.प.9।5] इति। एतेनयन्त्रारूढानीव(शां.)इतीवशब्दलोपेन व्याकुर्वन्तो निरस्ताः।स्वकीयेति -- आदौगुणमयी मम माया [7।14] इति ह्युक्तम्। श्रुतिश्च अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः [श्वेता.4।9] मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् [श्वेता.4।10] इति। जीवस्य कर्तृत्वादिभङ्गपरिहारायगुणानुगुणमित्युक्तम्। नहि जीवमीश्वरो भूतावेशन्यायेन प्रवर्तयति? अपितु सत्त्वादिगुणमयान् भावान् पुरस्कृत्य पूर्वसिद्धवासनाविशेषजनितसङ्गद्वारेणेति न विरोधः। भ्रामयन्? भ्रमयन्नित्यर्थः। तत्र प्रवृत्तिहेतुतया मोहनमन्तर्नीतं? न तु शाब्दमित्याह -- प्रवर्तयन्निति। अत्र शब्देन परोक्षव्यपदेशेनापि वक्ता वासुदेवो निर्दिष्ट इतीममर्थं प्रागुक्तेन द्रढयितुमाह -- पूर्वमपीति। य आत्मनि तिष्ठन् [श.ब्रा.14।5।30] इत्यादिनिर्दिष्टोऽन्तर्यामी सौबालिक्यामुपनिषदि नारायण इति विशेषितः स एष सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः [सुबालो.7] इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।18.61 -- 18.62।।ईश्वर इति। तमेवेति। एष ईश्वरः परमात्मा अवश्यं शरणत्वेन ग्राह्यः। तत्र हि अधिष्ठातरि कर्तरि ( omits कर्तरि ) बोद्धरि स्वात्ममये विमृष्टे ( ?N विस्पष्टे ) ? न कर्माणि स्थतिभाञ्जि भवन्ति। न हि निशिततरनखरकोटिविदारितसमदकरिकरटगलितमुक्ताफलनिकरपरिकरप्रकाशितप्रतापमहसि ( omits -- परिकर -- ) सिंहकिशोरके गुहामधितिष्ठति चपलमनसो विद्रवणमात्रबलशालिनो हरिणपोतकाः ( K हिरण -- ) स्वैरं स्वव्यापारपरिशीलनापटुभावमवलंबन्ते इति।तमेव शरणं गच्च्छइत्युपक्रम्य मत्प्रसादात् इति निर्वाहवाक्यमभिदधत् भगवान् परमात्मानम् ईश्वरं वासुदेवं च एकतया योजयति इति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।18.61।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।18.61।।स्वभावाधीनतामुक्त्वेश्वराधीनतां विवृणोति -- ईश्वर इति। ईश्वर ईशनशीलो नारायणः सर्वान्तर्यामीयः पृथिव्यां तिष्ठन्पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयति।यच्च किंचिज्जगत्सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा। अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः इत्यादिश्रुतिसिद्धः सर्वभूतानां सर्वेषां प्राणिनां हृद्देशेऽन्तःकरणे तिष्ठति सर्वव्यापकोऽपि तत्राभिव्यज्यते सप्तद्वीपाधिपतिरिव राम उत्तरकोसलेषु। हेऽर्जुन हे शुक्ल शुद्धान्तःकरण? एतादृशमीश्वरं त्वं ज्ञातुं योग्योसीति द्योत्यते। किं कुर्वंस्तिष्ठति भ्रामयन्नितस्ततश्चालयन् सर्वभूतानि परतन्त्राणि मायया छद्मना यन्त्रारूढानीव सूत्रसंचारादियन्त्रमारूढानि दारुनिर्मितपुरुषादीन्यत्यन्तपरतन्त्राणि यथा मायावी भ्रामयति तद्वदित्यर्थशेषः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।18.61।।नन्वीश्वराज्ञाव्यतिरेकेण प्रकृतिकर्मणोः कथं तथात्वं इत्यत आह -- ईश्वर इति। हे अर्जुन वृक्षजातीयनामत्वेन ज्ञानानर्ह ईश्वरो नियामकस्तत्त्वेन सर्वभूतानां हृद्देशे हृदयमध्ये तिष्ठति मायया सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि शरीरारूढानि भ्रामयँस्तिष्ठति यथा दारुयन्त्रारूढानि कृत्रिमभूतानि सूत्रधारश्चालयति तथा मायया भ्रामयंस्तिष्ठतीति वाऽर्थः। अत ईश्वरप्रेरितानेव प्रकृतिः कर्म च साधकतया प्रेरयतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।18.61।। -- ईश्वरः ईशनशीलः नारायणः सर्वभूतानां सर्वप्राणिनां हृद्देशे हृदयदेशे अर्जुन शुक्लान्तरात्मस्वभावः विशुद्धान्तःकरणः -- अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च (ऋ. सं. 6।9।1) इति दर्शनात् -- तिष्ठति स्थितिं लभते। तेषु सः कथं तिष्ठतीति? आह -- भ्रामयन् भ्रमणं कारयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि यन्त्राणि आरूढानि अधिष्ठितानि इव -- इति इवशब्दः अत्र द्रष्टव्यः -- यथा दारुकृतपुरुषादीनि यन्त्रारूढानि। मायया च्छद्मना भ्रामयन् तिष्ठति इति संबन्धः।।

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।18.61।।इदानीं प्राकृतभूतजातनियन्तृरूपेण मया सर्वं भूतजातं प्राकृतकर्मानुगुणलीलया प्रकृत्यनुवर्त्तने नियमितं भवतीति ब्रह्मसूत्रसिद्धान्तमाह -- ईश्वर इति। ईश्वरः सर्वनियमनशीलो वासुदेवः सर्वेषां प्राकृतानां भूतानां लीलयोच्चनीचभावेन स्वात्मना सृष्टानां प्रकृत्या संसृष्टानां आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तानां हृद्देशे हृदयाकाशे तिष्ठति। तत्रान्तर्यामिस्वरूपेण स्थितोऽपि निर्लेप इत्याशयेनेश्वर इत्युक्तम्। उपाधिस्थाने स्थितस्य तदसंस्पृष्टत्वमीश्वरत्वादित्यर्थः। अतएव आकाशवत्सर्वगतः [शां.उ.2।1।3] एको देवः सर्वभूतेषु गूढः ৷৷. साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च [श्वेता.6।11ब्रह्मो.3गोपालो.3।19राधो.4।1] इति श्रूयते। स च चेताः स्वयम्प्रकाशकः स्वप्रकाशश्च प्रदीपवत् यन्त्रारूढानि यन्त्रे इवारूढानि मायया भ्रामयन् भवति। भ्रामणं हि प्रेरणं? यन्त्रं च स्वनिर्मितं देहेन्द्रियादिरूपं? तत्रारूढांश्चेतनांस्तद्गुणानुगुण्येन प्रवर्त्तयंस्तिष्ठति। इदं चसर्वस्य चाऽहं हृदि सन्निविष्टः [15।15] इत्यस्य भाष्यरूपम्।


Chapter 18, Verse 61