यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।18.59।।
yad ahankāram āśhritya na yotsya iti manyase mithyaiṣha vyavasāyas te prakṛitis tvāṁ niyokṣhyati
yat—if; ahankāram—motivated by pride; āśhritya—taking shelter; na yotsye—I shall not fight; iti—thus; manyase—you think; mithyā eṣhaḥ—this is all false; vyavasāyaḥ—determination; te—your; prakṛitiḥ—material nature; tvām—you; niyokṣhyati—will engage
If, in your self-conceit, you think, 'I will not fight,' your resolve is futile. Nature will compel you.
Though you think 'I shall not fight', relying on egotism, this determination of yours is vain. Your nature will impel you!
If, filled with egoism, thou thinkest, "I will not fight," then thy resolve is vain; nature will compel thee.
In case, holding fast to the sense of ego, you think, 'I shall not fight,' that resolve of yours will be useless. Your own natural condition will incite you to fight.
If you in your vanity think of avoiding this fight, your will shall not be fulfilled, for Nature herself will compel you.
।।18.59।।अहंकारका आश्रय लेकर तू जो ऐसा मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है; क्योंकि तेरी क्षात्र-प्रकृति तेरेको युद्धमें लगा देगी।
।।18.59।। और अहंकारवश तुम जो यह सोच रहे हो, "मैं युद्ध नहीं करूंगा", यह तुम्हारा निश्चय मिथ्या है, (क्योंकि) प्रकृति (तुम्हारा स्वभाव) ही तुम्हें (बलात् कर्म में) प्रवृत्त करेगी।।
18.59 यत् if? अहङ्कारम् egoism? आश्रित्य having taken refuge in? न not? योत्स्ये (I) will fight? इति thus? मन्यसे (thou) thinkest? मिथ्या vain? एषः this? व्यवसायः resolve? ते thy? प्रकृतिः nature? त्वाम् thee? नियोक्ष्यति will compel.Commentary This strong determination of thy mind will be rendered utterly futile by thy inner nature thy nature will constrain thee thy nature as a warrior will compel thee to fight. It is a mere illusion to say that thou art Arjuna? that these are thy relatives and that to kill them will be a sin.
।।18.59।। व्याख्या -- यदहंकारमाश्रित्य -- प्रकृतिसे ही महत्तत्त्व और महत्तत्त्वसे अहंकार पैदा हुआ है। उस अहंकारका ही एक विकृत अंश है -- मैं शरीर हूँ। इस विकृत अहंकारका आश्रय लेनेवाला पुरुष कभी भी क्रियारहित नहीं हो सकता। कारण कि प्रकृति हरदम क्रियाशील है? बदलनेवाली है? इसलिये उसके आश्रित रहनेवाला कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रह सकता (गीता 3। 5)।जब मनुष्य अहंकारपूर्वक क्रियाशील प्रकृतिके वशमें हो जाता है? तो फिर वह यह कैसे रह सकता है कि मैं अमक कर्म करूँगा और अमुक कर्म नहीं करूँगा अर्थात् प्रकृतिके परवश हुआ मनुष्य करना और न करना -- इन दोनोंसे छूटेगा नहीं। कारण कि प्रकृतिके परवश हुए मनुष्यका तो करना भी कर्म है और न करना भी कर्म है। परन्तु जब मनुष्य प्रकृतिके परवश नहीं रहता? उससे निर्लिप्त हो जाता है (जो कि इसका वास्तविक स्वरूप है)? तो फिर उसके लिये करना और न करना -- ऐसा कहना ही नहीं बनता। तात्पर्य यह है कि जो प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रखे और कर्म न करना चाहे? ऐसा उसके लिये सम्भव नहीं है। परन्तु जिसने प्रकृतिसे सम्बन्धविच्छेद कर लिया है अथवा जो सर्वथा भगवान्के शरण हो गया है? उसको कर्म करनेके लिये बाध्य नहीं होना पड़ता।न योत्स्य इति मन्यसे -- दूसरे अध्यायमें अर्जुनने भगवान्के शरण होकर शिक्षाकी प्रार्थना की -- शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् (2। 7) और उसके बाद अर्जुनने साफसाफ कह दिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगा -- न योत्स्ये (2। 9)। यह बात भगवानको अच्छी नहीं लगी। भगवान् मनमें सोचते हैं कि यह पहले तो मेरे शरण हो गया और फिर इसने मेरे कुछ कहे बिना ही अपनी तरफसे साफसाफ कह दिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगा? तो फिर यह मेरी शरणागति कहाँ रही यह तो अहंकारकी शरणागति हो गयी कारण कि वास्तविक शरणागत होनेपर मैं यह करूँगा? यह नहीं करूँगा ऐसा कहना ही नहीं बनता। भगवान्के शरणागत होनेपर तो भगवान् जैसा करायेंगे? वैसा ही करना होगा। इसी बातको लेकर भगवान्को हँसी आ गयी (2। 10)। परन्तु अर्जुनपर अत्यधिक कृपा और स्नेह होनेके कारण भगवान्ने उपदेश देना आरम्भ कर दिया? नहीं तो भगवान् वहींपर यह कह देते कि जैसा चाहता है? वैसा कर -- यथेच्छसि तथा कुरु (18। 63) परन्तु अर्जुनकी यह बात कि मैं युद्ध नहीं करूँगा भगवान्के भीतर खटक गयी। इसलिये भगवान्ने यहाँ अर्जुनके उन्हीं शब्दों -- न योत्स्ये का प्रयोग करके यह कहा है कि तू अहंकारके ही शरण है? मेरे शरण नहीं। अगर तू मेरे शरण हो गया होता तो युद्ध नहीं करूँगा ऐसा कहना बन ही नहीं सकता था। मेरे शरण होता तो मैं क्या करूँगा और क्या नहीं करूँगा इसकी जिम्मेवारी मेरेपर होती। इसके अलावा मेरे शरणागत होनेपर यह प्रकृति भी तुझे बाध्य नहीं कर पाती (गीता 7। 14)। यह त्रिगुणमयी माया अर्थात् प्रकृति उसीको बाध्य करती है? जो मेरे शरण नहीं हुआ है (गीता 7। 13) क्योंकि यह नियम है कि प्रकृतिके प्रवाहमें पड़ा हुआ प्राणी प्रकृतिके गुणोंके द्वारा सदा ही परवश होता है।यह एक बड़ी मार्मिक बात है कि मनुष्य जिन प्राकृत पदार्थोंको अपना मान लेते हैं? उन पदार्थोंके सदा ही परवश (पराधीन) हो जाते हैं। वे वहम तो यह रखते हैं कि हम इन पदार्थोंके मालिक हैं? पर हो जाते हैं उनके गुलाम परन्तु जिन पदार्थोंको अपना नहीं मानते? उन पदार्थोंके परवश नहीं होते। इसलिये मनुष्यको किसी भी प्राकृत पदार्थको अपना नहीं मानना चाहिये क्योंकि वे वास्तवमें अपने हैं ही नहीं। अपने तो वास्तवमें केवल भगवान् ही हैं। उन भगवान्को अपना माननेसे मनुष्यकी परवशता सदाके लिये समाप्त हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य पदार्थों और क्रियाओँको अपनी मान्यता है तो सर्वथा परतन्त्र हो जाता है? और भगवान्को अपना मानता है और उनके अनन्य शरण होता है तो सर्वथा स्वतन्त्र हो जाता है। प्रभुके शरणागत होनेपर परतन्त्रता लेशमात्र भी नहीं रहती -- यह शरणागतिकी महिमा है। परन्तु जो प्रभुकी शरण न लेकर अहंकारकी शरण लेते हैं? वे मौतके मार्ग(संसार)में बह जाते हैं -- निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि (9। 3)। इसी बातकी चेतावनी देते हुए भगवान् अर्जुनसे कह रहे हैं कि तू जो यह कहता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा? तो तेरा यह कहना? तेरी यह हेकड़ी चलेगी नहीं। तुझे क्षात्रप्रकृतिके परवश होकर युद्ध करना ही पड़ेगा।मिथ्यैष व्यवसायस्ते -- व्यवसाय अर्थात् निश्चय दो तरहका होता है -- वास्तविक और अवास्तविक। परमात्माके साथ अपना जो नित्य सम्बन्ध है? उसका निश्चय करना तो वास्तविक है और प्रकृतिके साथ मिलकर प्राकृत पदार्थोंका निश्चय करना अवास्तविक है। जो निश्चय परमात्माको लेकर होता है? उसमें स्वयंकी प्रधानता रहती है? और जो निश्चय प्रकृतिको लेकर होता है? उसमें अन्तःकरणकी प्रधानता रहती है। इसलिये भगवान् यहाँ अर्जुनसे कहते हैं कि अहंकारका अर्थात् प्रकृतिका आश्रय लेकर तू जो यह कह रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा? ऐसा तेरा (क्षात्रप्रकृतिके विरुद्ध) निश्चय अवास्तविक अर्थात् मिथ्या है? झूठा है। आश्रय परमात्माका ही होना चाहिये? प्रकृति और प्रकृतिके कार्य संसारका नहीं।यदि प्राणी यह निश्चय कर लेता है कि मैं परमात्माका ही हूँ और मुझे केवल परमात्माकी तरफ ही चलना है? तो उसका यह निश्चय वास्तविक अर्थात् सत्य है? नित्य है। इस निश्चयकी महिमा भगवान्ने नवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें की है कि अगर दुराचारीसेदुराचारी मनुष्य भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो उसको दुराचारी नहीं मानना चाहिये प्रत्युत साधु ही मानना चाहिये क्योंकि वह वास्तविक निश्चय कर चुका है कि,मैं भगवान्का ही हूँ और भगवान्का ही भजन करूँगा।प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति -- इन पदोंसे भगवान् कहते हैं कि तेरा क्षात्रस्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्धमें लगा देगा। क्षत्रियका स्वभाव है -- शूरवीरता? युद्धमें पीठ न दिखाना (गीता 18। 43)। अतः धर्ममय युद्धका अवसर सामने आनेपर तू युद्ध किये बिना रह नहीं सकेगा। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा कि प्रकृति तुझे कर्ममें लगा देगी? अब आगेके श्लोकमें उसीका विवेचन करते हैं।
।।18.59।। सत्य के सामान्य कथन की ओर मनुष्य विशेष ध्यान नहीं देता। इस कारण सत्य के उस ज्ञान को वह आत्मसात् नहीं कर पाता। परन्तु यदि उसी सामान्य कथन को मनुष्य को अपने जीवन से सम्बन्धित अनुभवों में प्रयुक्त कर दर्शाया जाये? तो वह उस ज्ञान को अर्जित कर आत्मसात् कर लेता है। वह ज्ञान उसका अपना नित्य अनुभव बन जाता है। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण पूर्वोक्त दार्शनिक सिद्धांत को अर्जुन की तात्कालिक समस्या के सन्दर्भ में उसे समझाना चाहते हैं।यदि अपने अभिमान के कारण अर्जुन यह सोचता है कि वह युद्ध नहीं करेगा? तो उसका यह निश्चय व्यर्थ है उसका क्षत्रिय स्वभाव व्यक्त होने के लिए सदैव अवसर की प्रतीक्षा करता रहेगा? और उपयुक्त अवसर पाकर वह अर्जुन को कर्म करने को बाध्य किये बिना नहीं रहेगा। प्रकृति तुम्हें प्रवृत्त करेगी। जिसने लवण भक्षण किया है? उसे शीघ्र ही प्यास लगेगी। युद्ध से निवृत्त होने में अर्जुन जो मिथ्या तर्क प्रस्तुत करता है? वह वस्तुत प्राप्त परिस्थितियों के साथ उसके द्वारा किये गये समझौते को ही दर्शाता है।यदि अर्जुन तत्कालीन अस्थायी वैराग्य अथवा पलायन की भावना के कारण युद्ध से विरत हो जाता है? तो भी प्राकृतिक नियमामुसार? कालान्तर में उसका स्वभाव ही उसे कर्म करने के लिए बाध्य करेगा और उस समय संभव है कि उसे अपने स्वभाव को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त क्षेत्र न मिले? जिससे वह अपनी वासनाओं का क्षय कर सके।
।।18.59।।स्वातन्त्र्ये सति भीतेरवकाशो नास्तीत्याशङ्क्याह -- इदं चेति।
।।18.59।।स्वतन्त्रोऽहं परोक्तं न करिष्यामीति त्वया न मन्तव्यं परतन्त्रत्वात्तवेत्याशयेनाह -- यदिति। यच्चैतत्त्वमहंकारं मिथ्यभिमानमाश्रित्य न योत्स्ये युद्धं न करिष्यामीति मन्यसे निश्चयं करोषि एष ते व्यवसायोऽहं स्वतन्त्रोऽनर्थहेतुभूतं युद्धं न करिष्यामीति निश्चयो मिथ्या भ्रममूलको निष्फलं। यतः प्रकृतिः क्षत्रियस्वभावस्त्वां क्षत्रियं नियोक्ष्यति बलात्कारेण युद्धे प्रेरयष्यति।
।।18.59।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
।।18.59।।स्वतन्त्रोऽहं त्वदुक्तं न करिष्यामीत्याशङ्क्याह -- यदिति। यत् यदि अहंकारं गर्वमाश्रित्य न योत्स्ये युद्धं न करिष्ये इति मन्यसे एष ते तव व्यवसायो निश्चयो मिथ्या। यतः प्रकृतिः क्षात्रस्वभावस्त्वां नियोक्ष्यति।प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति इति चोक्तम्।
।।18.59।।यद् अहंकारम् आत्मनि हिताहितज्ञाने स्वातन्त्र्याभिमानम् आश्रित्य मन्नियोगम् अनादृत्यन योत्स्ये इति मन्यसे एष ते स्वातन्त्र्यव्यवसायो मिथ्या भविष्यति। यतः प्रकृतिः त्वां युद्धे नियोक्ष्यति मत्स्वातन्त्र्योद्विग्नमनसं त्वाम् अज्ञं प्रकृतिः नियोक्ष्यति।तद् उपपादयति --
।।18.59।।कामं विनङ्क्ष्यामि नतु बन्धुभिर्युद्धं करिष्यामीति चेत्तत्राह -- यदिति। मदुक्तमनादृत्य केवलमहंकारमवलम्ब्य युद्धं न करिष्यामीति त्वं यन्मन्यसेऽध्यवस्यसि एष तेऽध्यवसायो मिथ्यैव? अस्वतन्त्रत्वात्तव। तदेवाह -- प्रकृतिस्त्वां रजोगुणरूपेण,परिणता सती नियोक्ष्यति युद्धे प्रवर्तयिष्यत्येव।
।।18.59।।एवमश्रवणफलभूतयुद्धनिवृत्तेर्विनाशहेतुत्वमुक्तम् अथ युद्धनिवृत्तेरेवाशक्यत्वमुच्यते? किञ्च भवतु कर्मयोगो मया कर्तव्यः युद्धव्यतिरिक्तं किमपि कर्मयोगान्तरमुपाददानस्य मे विनाशो न स्यादिति,शङ्कामपाकरोतियद्यहङ्कारं इति श्लोकेन। अहङ्कारं युद्धनिवृत्त्यानुगुण्येन विशिनष्टिआत्मनि हिताहितेति। अहङ्काराश्रयणफलमाहमन्नियोगमनादृत्येति।न श्रोष्यसि इत्यस्यैवायमर्थः।एषः इत्यनेन परामृष्टमाह -- स्वातन्त्र्यव्यवसाय इति। स्वातन्त्र्याभिमानगर्भस्तन्मूलो वा व्यवसायः स्वातन्त्र्यव्यवसायः। तदुभयंमन्यसे इत्यनेन अहङ्कारमाश्रित्य इत्यनेन च सूचितम्। प्रकृतिर्नियोक्ष्यतीत्ययुक्तम्? अचेतनत्वात्तस्याः? चेतनव्यापारत्वाच्च नियोगस्येति शङ्कामुपालम्भाभिप्रायेण परिहरति -- मत्स्वातन्त्र्योद्विग्नं त्वामिति। मदुक्तकरणे सर्वज्ञस्य मे सर्वं भरः स्यात् मन्नियोगातिक्रमे तु मय्युदासीने प्रकृतिपरतन्त्रस्त्वमहितेष्वेव प्रवृत्स्यसीति भावः।
।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।
।।18.59।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।18.59।।यदिति। त्वं चाहंकारं धार्मिकोऽहं क्रूरं कर्म न करिष्यामीति मिथ्याभिमानमाश्रित्य न योत्स्ये युद्धं न करिष्यामीति मन्यसे यत् स मिथ्या निष्फल एष व्यवसायो निश्चयस्ते तव। यस्मात्प्रकृतिः क्षत्रजात्यारम्भको रजोगुणस्वभावस्त्वां नियोक्ष्यति प्रेरयिष्यति युद्धे।
।।18.59।।किञ्च -- यदहङ्कारमिति। यत् पूर्वोक्तं गुर्वादिहननाद्यधर्मरूपं अहङ्कारं तदज्ञानमाश्रित्य मद्वाक्याश्रवणेन न योत्स्ये न युद्धं करिष्यामीति मन्यसे अध्यवस्यसे? एष ते व्यवसायो निश्चयो मिथ्या? असद्रूपो निष्फल इत्यर्थः। पराधीनत्वादित्याह -- प्रकृतिः मदधीना मदाज्ञाविमुखं त्वां नियोक्ष्यति युद्धे प्रवर्त्तयिष्यतीत्यर्थः।अत्रायं भावः -- मदाज्ञाविमुखस्य प्राकृतत्वेन ज्ञाते प्रकृतिनियोज्यत्वं? मदाज्ञाप्रवर्तमानस्य तदनियोज्यत्वम्।
।।18.59।। --,यदि चेत् त्वम् अहंकारम् आश्रित्य न योत्स्ये इति न युद्धं करिष्यामि इति मन्यसे चिन्तयसि निश्चयं करोषि? मिथ्या एषः व्यवसायः निश्चयः ते तव यस्मात् प्रकृतिः क्षत्रियस्वभावः त्वां नियोक्ष्यति।।यस्माच्च --,
।।18.59।।तथाहि यदिति। न योत्स्य इति मन्यसे। एष ते व्यवसायो मिथ्या व्यर्थ एव। तदा मदाज्ञाकारी प्रकृतिर्बहिरङ्गा शक्तिर्गौणस्वभावरूपा त्वां नियोक्ष्यत्येव।
Chapter 18, Verse 59