Chapter 18, Verse 55

Text

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।18.55।।

Transliteration

bhaktyā mām abhijānāti yāvān yaśh chāsmi tattvataḥ tato māṁ tattvato jñātvā viśhate tad-anantaram

Word Meanings

bhaktyā—by loving devotion; mām—me; abhijānāti—one comes to know; yāvān—as much as; yaḥ cha asmi—as I am; tattvataḥ—in truth; tataḥ—then; mām—me; tattvataḥ—in truth; jñātvā—having known; viśhate—enters; tat-anantaram—thereafter


Translations

In English by Swami Adidevananda

Through devotion, he comes to know Me fully—who and what I am in reality, who I am and how I am. Knowing Me thus in truth, he forthwith enters into Me.

In English by Swami Gambirananda

Through devotion, he knows Me in reality, as to what and who I am. Then, having known Me truly, he enters into Me immediately afterward.

In English by Swami Sivananda

By devotion, he knows Me in truth, who and what I am; then, having known Me in truth, he immediately enters into the Supreme.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Through devotion he comes to know of Me: Who I am and how, in fact, I am—having correctly known Me, he enters into Me. Then afterwards,

In English by Shri Purohit Swami

By such devotion, he sees Me, who I am and what I am; and thus realizing the truth, he enters into My kingdom.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.55।।उस पराभक्तिसे मेरेको, मैं जितना हूँ और जो हूँ -- इसको तत्त्वसे जान लेता है तथा मेरेको तत्त्वसे जानकर फिर तत्काल मेरेमें प्रविष्ट हो जाता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।18.55।। (उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

18.55 भक्त्या by devotion? माम् Me? अभिजानाति (he) knows? यावान् what? यः who? च and? अस्मि (I) am? तत्त्वतः in truth? ततः then? माम् Me? तत्त्वतः in truth? ज्ञात्वा having known? विशते (he) enters? तत् that? अनन्तरम् afterwards.Commentary My devotee? O Arjuna? who has attained to union with Me through singleminded and unflinching devotion is verily My very Self. Devotion culminates in knowledge. Devotion begins with two and ends in one. ParaBhakti (supreme devotion) and Jnana are one. Devotion is the mother. Knowledge is the son. By devotion he knows that I am allpervading pure,consciousness he knows that I am nondual? unborn? decayless? causeless? selfluminous? indivisible? unchanging he knows that I am destitute of all the differences caused by the limiting adjuncts he knows that I am the support? source? womb? basis? and substratum of everything he knows that I am the ruler of all beings he knows that I am the Supreme Purusha? the controller of Maya? and that this world is a mere appearance. Thus knowing Me in truth or in essence? he enters into Me soon after attaining Selfknowledge.The act of knowing and the act of entering are not two distinct acts. Knowing is becoming. Knowing is attaining Selfknowledge. To know That is to become That. Entering is knowing or beoming That. Entering is the attainment of Selfknowledge or Selfrealisation. These are all jugglery of words only. Knowing and entering are synonymous terms. It is very difficult to understand or comprehend transcendental spiritual matters. The teachers use various terms or expressions? analogies? similes? parables? stories? etc. to make the aspirant grasp the matter clearly and lucidly. Words are imperfect and languages are defective. They cannot fully express the inner spiritual experiences. The teacher somehow or other expresses to the students or aspirants these spiritual ideas. The aspirant himself will have to realise the Self. That is beyond the reach of words of expressions or analogies of similes. How can there be similes for that nondual Brahman These words are a sort of help or prop for the aspirants to lean upon in the beginning to understand spiritual matters. When he realises the Self? these words are of no value to him. He himself becomes an embodiment of knowledge.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.55।। व्याख्या --   भक्त्या मामभिजानाति -- जब परमात्मतत्त्वमें आकर्षण? अनुराग हो जाता है? तब साधक स्वयं उस परमात्माके सर्वथा समर्पित हो जाता है? उस तत्त्वसे अभिन्न हो जाता है। फिर उसका अलग कोई (स्वतन्त्र) अस्तित्व नहीं रहता अर्थात् उसके अहंभावका अतिसूक्ष्म अंश भी नहीं रहता। इसलिये उसको प्रेमस्वरूपा प्रेमाभक्ति प्राप्त हो जाती है। उस भक्तिसे परमात्मतत्त्वका वास्तविक बोध हो जाता है।,ब्रह्मभूतअवस्था हो जानेपर संसारके सम्बन्धका तो सर्वथा त्याग हो जाता है? पर मैं ब्रह्म हूँ? मैं शान्त हूँ? मैं निर्विकार हूँ? ऐसा सूक्ष्म अहंभाव रह जाता है। यह अहंभाव जबतक रहता है? तबतक परिच्छिन्नता और पराधीनता रहती है। कारण कि यह अहंभाव प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति पर है इसलिये पराधीनता रहती है। परमात्माकी तरफ आकृष्ट होनेसे? पराभक्ति होनेसे ही यह अहंभाव मिटता है (टिप्पणी प0 949.1)। इस अहंभावके सर्वथा मिटनेसे ही तत्त्वका वास्तविक बोध होता है।यावान् -- सातवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने अर्जुनको समग्ररूप सुननेकी आज्ञा दी कि मेरेमें जिसका मन आसक्त हो गया है? जिसको मेरा ही आश्रय है? वह अनन्यभावसे मेरे साथ दृढ़तापूर्वक सम्बन्ध रखते हुए मेरे जिस समग्ररूपको जान लेता है? उसको तुम सुनो। यही बात भगवान्ने सातवें अध्यायके अन्तमें कही कि जरामरणसे मुक्ति पानके लिये जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं? वे ब्रह्म? सम्पूर्ण अध्यात्म और सम्पूर्ण कर्मको अर्थात् सम्पूर्ण निर्गुणविषयको जान लेते हैं और अधिभूत? अधिदैव और अधियज्ञके सहित मुझको अर्थात् सम्पूर्ण सगुणविषयको जान लेते हैं।इस प्रकार निर्गुण और सगुणके सिवाय राम? कृष्ण? शिव? गणेश? शक्ति? सूर्य आदि अनेक रूपोंमें प्रकट होकर परमात्मा लीला करते हैं? उनको भी जान लेना -- यही पराभक्तिसे यावान् अर्थात् समग्ररूपको जानना है।यश्चास्मि तत्त्वतः -- वे ही परमात्मा अनेक रूपोंमें? अनेक आकृतियोंमें? अनेक शक्तियोंको साथ लेकर? अनेक कार्य करनेके लिये बारबार प्रकट होते हैं? और वे ही परमात्मा अनेक सम्प्रदायोंमें अपनीअपनी भावनाके अनुसार अनेक इष्टदेवोंके रूपमें कहे जाते हैं। वास्तवमें परमात्मा एक ही हैं। इस प्रकार मैं जो हूँ -- इसे तत्त्वसे जान लेता है।ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् -- ऐसा मुझे तत्त्वसे जानकर तत्काल (टिप्पणी प0 949.2) मेरेमें प्रविष्ट हो जाता है अर्थात् मेरे साथ भिन्नताका जो भाव था? वह सर्वथा मिट जाता है।तत्त्वसे जाननेपर उसमें जो अनजानपना था? वह सर्वथा मिट जाता है और वह उस तत्त्वमें प्रविष्ट हो जाता है। यही पूर्णता है और इसीमें मनुष्यजन्मकी सार्थकता है।विशेष बातजीवका परमात्मामें प्रेम (रति? प्रीति या आकर्षण) स्वतः है। परन्तु जब यह जीव प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है? तब वह परमात्मासे विमुख हो जाता है और उसका संसारमें आकर्षण हो जाता है। यह आकर्षण ही वासना? स्पृहा? कामना? आशा? तृष्णा आदि नामोंसे कहा जाता है।इस वासना आदिका जो विषय (प्रकृतिजन्य पदार्थ) है? वह क्षणभङ्गुर और परिवर्तनशील है तथा यह जीवात्मा स्वयं? नित्य और अपरिवर्तनशील है। परन्तु ऐसा होते हुए भी प्रकृतिके साथ तादात्म्य होनेसे यह परिवर्तनशीलमें आकृष्ट हो जाता है। इससे इसको मिलता तो कुछ नहीं? पर कुछ मिलेगा -- इस भ्रम? वासनाके कारण यह जन्ममरणके चक्करमें पड़ा हुआ महान् दुःख पाता रहता है। इससे छूटनेके लिये भगवान्ने योग बताया है। वह योग जडतासे सम्बन्धविच्छेद करके परमात्माके साथ नित्ययोगका अनुभव करा देता है।गीतामें मुख्यरूपसे तीन योग कहे हैं -- कर्मयोग? ज्ञानयोग और भक्तियोग। इन तीनोंपर विचार किया जाय तो भगवान्का प्रेम तीनों ही योगोंमें है। कर्मयोगमें उसको कर्तव्यरति कहते हैं अर्थात् वह रति कर्तव्य होती है -- स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः (18। 45)। [कर्मयोगकी यह रति अन्तमें आत्मरतिमें परिणत हो जाती है (गीता 2। 55 3। 17) और जिस कर्मयोगीमें भक्तिके संस्कार हैं? उसकी यह रति भगवद्रतिमें परिणत हो जाती है।] ज्ञानयोगमें उसी प्रेमको आत्मरति कहते हैं अर्थात् वह रति स्वरूपमें होती है -- योऽन्तःसुखोऽन्तरारामः (5। 24)। और भक्तियोगमें उसी प्रेमको भगवद्रति कहते हैं अर्थात् वह रति भगवान्में होती है (टिप्पणी प0 950.1) -- तुष्यन्ति च रमन्ति च (10। 9)। इस प्रकार इन तीनों योगोंमें रति होनेपर भी गीतामें भगवद्रति की विशेषरूपसे महिमा गायी गयी है।तपस्वी? ज्ञानी और कर्मी -- इन तीनोंसे भी योगी (समतावाला) श्रेष्ठ है (गीता 6। 46)। तात्पर्य यह है कि जडतासे सम्बन्ध रखते हुए बड़ा भारी तप करनेपर? बहुतसे शास्त्रोंका (अनेक प्रकारका) ज्ञानसम्पादन करनेपर और यज्ञ? दान? तीर्थ आदिके बड़ेबड़े अनुष्ठान करनेपर जो कुछ प्राप्त होता है? वह सब अनित्य ही होता है? पर योगीको नित्यतत्त्वकी प्राप्ति होती है। अतः तपस्वी? ज्ञानी और कर्मी -- इन तीनोंसे योगी श्रेष्ठ है। इस प्रकारके कर्मयोगी? ज्ञानयोगी? हठयोगी? लययोगी आदि सब योगियोंमें भी भगवान्ने भक्तियोगी को सर्वश्रेष्ठ बताया है (गीता 6। 47)। यही भक्तियोगी भगवान्के समग्ररूपको जान लेता है। सांख्ययोगी भी पराभक्तिके द्वारा उस समग्ररूपको जान लेता है। उसी समग्ररूपका वर्णन यहाँ यावान् पदसे हुआ है (टिप्पणी प0 950.2)।इस प्रकरणके आरम्भमें अन्तःकरणकी शुद्धिरूप सिद्धिको प्राप्त हुआ साधक जिस प्रकार ब्रह्मको प्राप्त होता है -- यह कहनेकी प्रतिज्ञा की और बताया कि ध्यानयोगके परायण होनेसे वह वैराग्यको प्राप्त होता है। वैराग्यसे अहंकार आदिका त्याग करके ममतारहित होकर शान्त होता है। तब वह ब्रह्मप्राप्तिका पात्र होता है। पात्र होते ही उसकी ब्रह्मभूतअवस्था हो जाती है। ब्रह्मभूतअवस्था होनेपर संसारके सम्बन्धसे जो रागद्वेष? हर्षशोक आदि द्वन्द्व होते थे? वे सर्वथा मिट जाते हैं तो वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम हो जाता है। सम होनेपर,पराभक्ति प्राप्त हो जाती है। वह पराभक्ति ही वास्तविक प्रीति है। उस प्रीतिसे परमात्माके समग्ररूपका बोध हो जाता है। बोध होते ही उस तत्त्वमें प्रवेश हो जाता है -- विशते तदनन्तरम्।अनन्यभक्तिसे तो मनुष्य भगवान्को तत्त्वसे जान सकता है? उनमें प्रविष्ट हो सकता है और उनके दर्शन भी कर सकता है (गीता 11। 54) परन्तु सांख्ययोगी भगवान्को तत्त्वसे जानकर उनमें प्रविष्ट तो होता है? पर भगवान् उसको दर्शन देनेमें बाध्य नहीं होते। कारण कि उसकी साधना पहलेसे ही विवेकप्रधान रही है? इसलिये उसको दर्शनकी इच्छा नहीं होती। दर्शन न होनेपर भी उसमें कोई कमी नहीं रहती अतः कमी माननी नहीं चाहिये।यहाँ उस तत्त्वमें प्रविष्ट हो जाना ही अनिर्वचनीय प्रेमकी प्राप्ति है। इसी प्रेमको नारदभक्तिसूत्रमें प्रतिक्षण वर्धमान कहा है (टिप्पणी प0 951)। इस प्रेममें सर्वथा पूर्णता हो जाती है अर्थात् उसके लिये करना? जानना और पाना कुछ भी बाकी नहीं रहता। इसलिये न करनेका राग रहता है? न जाननेकी जिज्ञासा रहती है? न जीनेकी आशा रहती है? न मरनेका भय रहता है और न पानेका लालच ही रहता है।जबतक भगवान्में पराभक्ति अर्थात् परम प्रेम नहीं होता? तबतक ब्रह्मभूतअवस्थामें भी मैं ब्रह्म हूँ यह सूक्ष्म अहंकार रहता है। जबतक लेशमात्र भी अहंकार रहता है? तबतक परिच्छिन्नताका अत्यन्त अभाव नहीं होता। परन्तु मैं ब्रह्म हूँ यह सूक्ष्म अहंभाव तबतक जन्ममरणका कारण नहीं बनता? जबतक उसमें प्रकृतिजन्य गुणोंका सङ्ग नहीं होता क्योंकि गुणोंका सङ्ग होनेसे ही बन्धन होता है -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)। उदाहरणार्थ -- गाढ़ नींदसे जगनेपर साधारण मनुष्यमात्रको सबसे पहले यह अनुभव होता है कि मैं हूँ। ऐसा अनुभव होते ही जब नाम? रूप? देश? काल जाति आदिके साथ स्वयंका सम्बन्ध जुड़ जाता है? तब मैं हूँ यह अहंभाव शुभअशुभ कर्मोंका कारण बन जाता है? जिससे जन्ममरणका चक्कर चल पड़ता है। परन्तु जो ऊँचे दर्जेका साधक होता है अर्थात् जिसकी निरन्तर ब्रह्मभूतअवस्था रहती है? उसके सात्त्विक ज्ञान (18। 20) में सब जगह ही अपने स्वरूपका बोध रहता है। परन्तु जबतक साधकका सत्त्वगुणके साथ सम्बन्ध रहता है? तबतक नींदसे जगनेपर तत्काल मैं ब्रह्म हूँ अथवा सब कुछ एक परमात्मा ही है -- ऐसी वृत्ति पकड़ी जाती है और मालूम होता है कि नींदमें यह वृत्ति छूट गयी थी? मानो उसकी भूल हो गयी थी और अब पीछे उस तत्त्वकी जागृति हो गयी है? स्मृति आ गयी है। गुणातीत हो जानेपर अर्थात् गुणोंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर विस्मृति और स्मृति -- ऐसी दो अवस्थाएँ नहीं होतीं अर्थात् नींदमें भूल हो गयी और अब स्मृति आ गयी -- ऐसा अनुभव नहीं होता? प्रत्युत नींद तो केवल अन्तःकरणमें आयी थी? अपनेमें नहीं? अपना स्वरूप तो ज्योंकात्यों रहा -- ऐसा अनुभव रहता है। तात्पर्य यह है कि निद्राका आना और उससे जगना -- ये दोनों प्रकृतिमें ही हैं? ऐसा उसका स्पष्ट अनुभव रहता है। इसी अवस्थाको चौदहवें अध्यायके बाईसवें श्लोकमें कहा है कि प्रकाश अर्थात् नींदसे जगना और मोह अर्थात् नींदका आना -- इन दोनोंमें गुणातीत पुरुषके किञ्चिन्मात्र भी रागद्वेष नहीं होते। सम्बन्ध --   पहले श्लोकमें अर्जुनने संन्यास और त्यागके तत्त्वके विषयमें पूछा तो उसके उत्तरमें भगवान्ने चौथेसे बारहवें श्लोकतक कर्मयोगका और इकतालीसवेंसे अड़तालीसवें श्लोकतक कर्मयोगका तथा संक्षेपमें भक्तियोगका वर्णन किया और तेरहवेंसे चालीसवें श्लोकतक विचारप्रधान सांख्ययोगका तथा उन्चासवेंसे पचपनवें श्लोकतक ध्यानप्रधान सांख्ययोगका एवं संक्षेपमें पराभक्तिकी प्राप्तिका वर्णन किया। अब भगवान् शरणागतिकी प्रधानतावाले भक्तियोगका वर्णन आरम्भ करते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।18.55।। परमात्मा से परम प्रेम अर्थात् पूर्ण तादात्म्य ही परा भक्ति है। उस परा भक्ति से ही साधक भक्त परमात्मा को तत्त्वत समझ सकता है। शास्त्र के श्रवण? अध्ययन आदि से प्राप्त किया गया ज्ञान प्राय परोक्ष होता है। जब वह ज्ञान? विज्ञान अर्थात् स्वानुभव बन जाता है? केवल तभी परमात्मा का यथार्थ बोध होता है।यावान् (मैं कितना हूँ) इसका अर्थ यह है कि परा भक्ति के द्वारा एक भक्त भगवान् के उपाधिकृत विस्तार को समझ लेता है। भगवान् की विभूतियों का वर्णन दसवें अध्याय में किया जा चुका है।यश्च अस्मि (मैं क्या हूँ) एक परम भक्त यह भी जान लेता है कि भगवान् का वास्तविक स्वरूप समस्त उपाधियों से वर्जित? निर्गुण? निर्विशेष है। सारांशत? भगवान् को तत्त्वत जानने का अर्थ उनके सर्वव्यापक एवं सर्वातीत इन दोनों ही स्वरूप को जानना है।हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि सम्पूर्ण गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अपने लिए जो मैं शब्द का प्रयोग करते हैं? वह अपने परमात्म स्वरूप की दृष्टि से ही कहते हैं? वसुदेव के पुत्र के रूप में नहीं। अत जब वे कहते हैं वह (साधक) मुझमें प्रवेश करता है? तब उसका अर्थ किसी गृह में प्रवेश के समान न होकर साधक की आत्मानुभूति से है। भक्त का आत्मस्वरूप भगवान् के परमात्मस्वरूप से भिन्न नहीं है। यहाँ कथित प्रवेश ऐसा ही है? जैसे स्वप्न द्रष्टा जाग्रत् पुरुष में प्रवेश करता है। इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि एक साधन सम्पन्न उत्तम अधिकारी निदिध्यासन के द्वारा परमात्मा का अनुभव आत्मरूप से ही करता है? उससे भिन्न रहकर नहीं।जगत् के प्राणियों की सेवा के बिना ईश्वर की सेवा पूर्ण नहीं होती। भगवान् कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।18.55।।ननु समाधिसाध्येन परमभक्त्यात्मकेन ज्ञानेन किमपूर्वमवाप्यते तत्राह -- तत इति। भक्त्या समाधिजन्यया मां ब्रह्माभिमुख्येन प्रत्यक्तया जानाति व्याप्नोतीत्यर्थः। तदेव ज्ञानं भक्तिपराधीनं विवृणोति -- यावानिति। आकाशकल्पत्वमनवच्छिन्नत्वमसङ्गत्वं च। चैतन्यस्य विषयसापेक्षत्वं प्रतिक्षिपति -- अद्वैतमिति। ये तु द्रव्यबोधात्मत्वमात्मनो मन्यन्ते तान्प्रत्युक्तं -- चैतन्यमात्रेति। आत्मनि तन्मात्रेऽपि धर्मान्तरमुपेत्य धर्मधर्मित्वं प्रत्याह -- एकरसमिति। सर्वविक्रियाराहित्योक्त्या कौटस्थ्यमात्मनो व्यवस्थापयति -- अजमिति। उक्तविक्रियाभावे तद्धेत्वज्ञानासंबन्धं हेतुमाह -- अभयमिति। तत्त्वज्ञानमनूद्य तत्फलं विदेहकैवल्यं लम्भयति -- तत इति। तत्त्वज्ञानस्य तस्मादनन्तरप्रवेशक्रियायाश्च भिन्नत्वं प्राप्तं प्रत्याह -- नात्रेति। भिन्नत्वाभावे का गतिर्भेदोक्तेरित्याशङ्क्यौपचारिकत्वमाह -- किं तर्हीति। प्रवेश इति शेषः। ब्रह्मप्राप्तिरेव फलान्तरमित्याशङ्क्य ब्रह्मात्मनोर्भेदाभावान्न ज्ञानातिरिक्ता तत्प्राप्तिरित्याह -- क्षेत्रज्ञं चेति। ज्ञाननिष्ठया परया भक्त्या मामभिजानातीत्युक्तमाक्षिपति -- नन्विति। विरुद्धत्वं स्फोरयितुं पृच्छति -- कथमिति। विरोधस्फुटीकरणं प्रतिजानीते -- उच्यत इति। तत्र ज्ञानस्योत्पत्तेरेव विषयाभिव्यक्तिरित्याह -- यदेति। एवकारनिरस्यं दर्शयति -- न ज्ञानेति। इत्यावयोः सिद्धमिति शेषः। ज्ञानस्योत्पत्तेरेव विषयाभिव्यक्तत्वेऽपि कथं प्रकृते विरोधधीत्याशङ्क्याह -- ततश्चेति। विरुद्धमिति शेषः। शङ्कितं विरोधं निरस्यति -- नैष दोष इति। उक्तमेव हेतुं प्रपञ्चयति -- शास्त्रेति। यो हि शास्त्रानुसार्याचार्योपदेशस्तेन ज्ञानोत्पत्तिःआचार्यवान्पुरुषो वेद इति श्रुतेः। तस्याश्च परिपाकः संशयादिप्रतिबन्धध्वंसस्तत्र हेतुभूतमुपदेशस्यैव सहकारिकारणं यद्बुद्धिशुद्ध्यादि तदपेक्ष्य तस्मादेवोपदेशाज्जनितं यदैक्यज्ञानं तस्य कारकभेदबुद्धिनिबन्धनानि यानि सर्वाणि कर्माणि तेषां संन्यासेन सहितस्य फलरूपेण स्वात्मन्येव सर्वप्रकल्पनारहिते यदवस्थानं सा ज्ञानस्य परा निष्ठेति व्यवह्रियते प्रामाणिकैरित्यर्थः। यदि यथोक्ता परा ज्ञाननिष्ठा कथं तर्हि सा चतुर्थी भक्तिरित्युक्तेति तत्राह -- सेयमिति। यथोक्तया भक्त्या भगवत्तत्त्वज्ञानं सिध्यतीत्याह -- तयेति। तत्त्वज्ञानस्य फलमाह -- यदनन्तरमिति। ज्ञाननिष्ठारूपाया भगवद्भक्तेस्तत्त्वज्ञानानतिरेकात्तत्फलस्य चाज्ञाननिवृत्तेस्तन्मात्रत्वाद्भेदोक्तेश्चौपचारिकत्वात्प्रकृतं वाक्यमविरुद्धमित्युपसंहरति -- अत इति। औपदेशिकैक्यज्ञानस्य सर्वकर्मसंन्याससहितस्य स्वरूपावस्थानात्मकस्य परमपुरुषार्थौपयिकत्वमित्यस्मिन्नर्थे मानमाह -- अत्र चेति। तदेव शास्त्रमुदाहरति -- विदित्वेत्यादिना। दर्शितानि वाक्यानि सर्वकर्माणि मनसेत्यादीनि। नन्वेषां वाक्यानामविवक्षितार्थत्वान्नास्ति स्वार्थे प्रामाण्यमित्याशङ्क्याध्ययनविध्युपात्तत्वाद्वेदवाक्यानां तदनुरोधित्वाच्चेतरेषां नैवमित्याह -- नचेति। तथापि सोऽरोदीदित्यादिवन्न स्वार्थे मानतेत्याशङ्क्याह -- नचार्थवादत्वमिति। इतश्च मुमुक्षोरपेक्षितमोक्षौपयिकज्ञाननिष्ठस्य संन्यासेऽधिकारो न कर्मनिष्ठायामित्याह -- प्रत्यगिति। ज्ञाननिष्ठस्य कर्मनिष्ठाविरुद्धेत्यत्र दृष्टान्तमाह -- नहीति। ज्ञाननिष्ठास्वरूपानुवादपूर्वकं कर्मनिष्ठया तस्याः सहभावित्वं विरुद्धमिति दार्ष्टान्तिकमाह -- प्रत्यगात्मेति। कथं ज्ञानकर्मणोर्विरोधधीरित्याशङ्क्य कर्मणां ज्ञाननिवर्त्यत्वस्य श्रुतिस्मृतिसिद्धत्वादित्याह -- पर्वतेति। अन्तरवानुभयोरेकधर्मिनिष्ठत्वेन साङ्कर्याभावसंपादकभेदवानित्यर्थः। ज्ञानकर्मणोरसमुच्चये फलितमुपसंहरति -- तस्मादिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।18.55।।ततश्च ज्ञानलक्षणया भक्त्या मामभिजनाति यावानहमुपाधिकृतवस्थारभेदो यश्चास्मि विध्वस्तसर्वोपाधिभेद उत्तमः पुरुष आकाशवदसङ्गो निर्विकारस्तं मामद्वैतचैतन्यमात्रैकरसमजरममरमभयमनिधनं भक्त्या तत्त्वतोऽभिजानाति ततो मामेवं तत्त्वतो ज्ञात्वा तदनन्तरं मामेव विशते प्राप्नोति। अत्र ज्ञानप्रवेशक्रिये भिन्ने न विवक्षिते। भेदोक्तिस्त्वौपचारिकी ततो मामेवं तत्त्वतो ज्ञात्वा तदनन्तरं मामेव विशते प्राप्नोति। अत्र ज्ञानप्रवेशक्रिये भिन्ने न विवक्षिते। भेदोक्तित्वौपचारिकी बोध्या। ब्रह्मप्राप्तिस्तु ज्ञानान्नातिरिच्यते। क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धीति ब्रह्मात्मनोरभेदस्योक्तत्वात्। भक्त्या निदिध्यासनात्मिकया मामद्वितीयमात्मानमभिजानाति साक्षात्करोति तदनन्तरं बलवत्प्रारब्धकर्मभोगेन देहपातानन्तरं नतु ज्ञानान्तरमेव। क्त्वाप्रत्येनैव तल्लाभे तदनन्तरमित्यस्य वैयर्थ्यापातादिति केचित्। इतरे तु विशत्यात्मनि स्वसिद्धयेऽनिर्वचनीयसंबन्धेनेति विशत् सर्वानर्थमूलमज्ञानं तस्मै तत्सविलासमुन्मूलयितुं ज्ञात्वाऽपरोक्षीकृत्य तदनन्तरं अनतरं भेदस्तच्छून्यं शाश्वतं पदमव्ययमाप्राप्नोतीत्युत्तर श्लोकस्थानुषङ्गेण व्याख्येयमिति वदन्ति। तत्तवतो याथात्म्येन ज्ञात्वा साक्षात्कृत्य ततो व्याप्तः ब्रह्मभावं गतो भवतीत्यर्थः।ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इति श्रुतेः। यद्वा तत इति कारणब्रह्मभावापत्तिः सार्वात्भ्यरुपा प्रथममुक्ता। अनन्तरं कारणभावापत्तेरनुपदमेव तद्ब्रह्म तत्पदाभिधेयं शुद्धं ब्रह्म विशते। दर्पणाद्यपाये प्रतिबिम्बो विम्बमिव प्रविशतीत्यर्थ इत्यन्ये। तदेतद्य्वाख्यानत्रयमपि सर्वज्ञैराचार्यैः ध्यानयोगपरो नित्यमित्यत्र निदिध्यासनस्योक्तत्वाद्भक्तिं इत्यस्य परामिति विशेषणस्य च वैयर्थ्यं तच्छब्देनाप्रस्तुतपरामर्शस्यानुषङ्गाध्याहारादिक्लेशव्याप्तायाः कुकल्पनायाश्चानौचित्यमभिप्रेत्य त्यक्त्वादुपेक्ष्यम्। तथाचायमर्थःआचार्यावान्पुरुषो वेद इति श्रुत्या शास्त्रानुसार्याचार्योपदेशेन ज्ञानोत्पत्तिः। तस्य च परिपाके असंभावनादिप्रध्वंसे हेतुभूतमुपदेशस्यैव महकारिकारणं बुद्धिविशुद्धत्वादि अमानित्वादिगणं चापेक्ष्य तस्मादेवोपदेशाज्जनितस्य क्षेत्रज्ञपरात्मैकत्वज्ञानस्य कारकभेदबुद्धिनिबन्धनसर्वकर्मसंन्याससहितस्य स्वात्मानुभवरुपेण स्वात्मन्येव सर्वकल्पनारहितस्य यदवस्थानं सा ज्ञानस्य परा निष्ठेत्युच्यते? सेयं ज्ञाननिष्ठा आर्तदिभक्तित्रयापेक्षया परा चतुर्थी भक्तिरित्युक्त्वा तया परया भक्त्या भगवन्तं तत्त्वतोऽभिजानाति यदनन्तमेवेश्वरक्षेत्रज्ञभेदबुद्धिरशेषं ततो निवर्तते। क्त्वाप्रत्ययेनोक्तमानन्तर्यमव्यवहितं नतु किंचिद्य्ववधानयुक्तमिति बोधनायानन्तरमित्युक्तमिति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।18.55।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।18.55।।अस्या अद्वैतात्मतत्त्वज्ञानलक्षणाया भक्तेः फलमाह -- भक्त्येति। मां उक्तविधया भक्त्या ज्ञानी अभितः साकल्येन जानाति। साकल्यमेवाह -- यावानिति। किमहमणुपरिमाणो वा देहसंमितो वा तार्किकाणामिवाकाशवत्सकलमूर्तद्रव्यसंयोगित्वलक्षणविभुत्वाश्रयो वा सप्रपञ्चाद्वैतवादिनामिव स्वगतभेदवान्वाऽखण्डैकरसो वेति परिमाणतस्तत्त्वतो मां तत्पदार्थं जानाति तथा यश्चास्मीति। देहेन्द्रियप्राणमनसामन्यतमः कियत्कालस्थायी वा क्षणिकविज्ञानरूपो वा शून्यं वा कर्ता भोक्ता वा जडो वा जडाजडरूपो वा चिद्रूपो वा कर्तृत्वभोक्तृत्ववर्जित आनन्दघनो वेति तत्त्वतः सर्वसंशयराहित्येन मामजरममरमभयमशोकं जानाति। तथा च श्रुतिःभिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे इति आत्मदर्शने सति सर्वसंशयोच्छेदं दर्शयति। एवंक्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत इत्युक्तेः सर्वक्षेत्रेष्वेकं मां विभुं सच्चिदानन्दघनं तत्त्वतो ज्ञात्वा सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं याथात्म्येन ज्ञात्वा साक्षात्कृत्य ततो व्याप्तो ब्रह्मभावं गतो भवतीत्यर्थः।ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इति श्रुतेः। यद्वा तत इति कारणब्रह्मभावापत्तिः सार्वात्म्यरूपा प्रथममुक्ता।य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवतिस एतमेव पुरुषं ब्रह्म ततममपश्यत् इत्यादिश्रुतिभ्यो मुक्तानां सार्वात्म्यावगमात्। ततमं तततमम्। एकस्तकारश्छान्दस्यां प्रक्रियायां लुप्तो द्रष्टव्य इति श्रुतिभाष्यम्। अनन्तरं कारणभावापत्तेरनुपदमेव तत् ब्रह्म तच्छब्दाभिधेयम्तदिति वा एतस्य महतो भूतस्य नाम भवति इति श्रुतेः। शुद्धं ब्रह्म विशते दर्पणापाये प्रतिबिम्बो बिम्बमिव प्रविशति। कार्योपाधिनीं जीवानां कारणोपाधीश्वरप्राप्तिद्वारैव निष्कलब्रह्मप्राप्तिरित्यावेदितं प्रागेव। यद्वा मां ज्ञात्वा तद्विशत इत्येतावतैव ज्ञानप्रवेशयोः पौर्वापर्ये सिद्धे तदनन्तरमिति पदेन तच्छब्देन बुद्धिस्थं देहं परामृश्य तत्पातानन्तरमिति व्याख्येयम्। यतो जातेऽपि तत्त्वज्ञाने यावद्देहपातं प्रारब्धकर्मणां प्रतिबन्धाद्विदेहकैवल्यं न प्राप्यते। अन्यथा ज्ञानसमकालमेव देहपातापत्तिः स्यात्।विमुक्तश्च विमुच्यतेभूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः इति मुक्तस्य मुक्तिं निवृत्तायाश्च मायायाः पुनर्निवृत्तिं वदज्जीवन्मुक्तिशास्त्रं बाधितं स्यात्। यथा तार्किकाणां नष्टेऽपि समवायिकारणे पटादिकं क्षणमात्रमवतिष्ठते एवमस्माकमप्यनादिकालाया देहाद्युपादानभूताया अविद्याया विनाशेऽपि किंचित्कालं देहादिप्रतिभानं युज्यते। ईदृशमेव जीवन्मुक्तमपेक्ष्य भगवतोक्तंउपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः इति। स्थितप्रज्ञलक्षणस्मृतिरपि तल्लक्षणाभिधित्सयैव प्रववृते इति दिक्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।18.55।।स्वरूपतः स्वभावतः च यः अहं गुणतो विभूतितो यावान् च अहं तं माम् एवंरूपया भक्त्या तत्त्वतो विजानाति। मां तत्त्वतो ज्ञात्वा तदनन्तरं तत्त्वज्ञानानन्तरं ततो भक्तितो मां विशते प्रविशति। तत्त्वतः स्वरूपस्वभावगुणविभूतिदर्शनोत्तरकालभाविन्या अनवधिकातिशयभक्त्या मां प्राप्नोति इत्यर्थः। अत्र तत इति प्राप्तिहेतुतया निर्दिष्टा भक्तिः एव अभिधीयते।भक्त्या त्वनन्यया शक्यः (गीता 11।54) इति तस्या एव तत्त्वतः प्रवेशहेतुताभिधानात्।एवं वर्णाश्रमोचितनित्यनैमित्तिककर्मणां परित्यक्तफलादिकानां परमपुरुषाराधनरूपेण अनुष्ठितानां विपाक उक्तः। इदानीं काम्यानाम् अपि कर्मणाम् उक्तेन एव प्रकारेण अनुष्ठीयमानानां स एव विपाक इत्याह --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।18.55।।ततश्च -- भक्त्या मामिति। तया च परया भक्त्या तत्त्वतो मामभिजानाति। कथंभूतम्? यावान् सर्वव्यापी यश्चास्मि सच्चिदानन्दघनस्तथाभूतम्। ततश्च मामेवं तत्त्वतो ज्ञात्वा तदनन्तरं तस्य ज्ञानस्याप्युपरमे सति मां विशते। परमानन्दरूपो भवतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।18.55।।तत्फलमाहेति -- अव्यवहितं व्यवहितं चेति शेषः। पूर्वग्रन्थोक्तजगत्कारणत्वलक्षितसर्वेश्वराख्यधर्म्यभिप्रायेणयः इत्यस्यार्थमाह -- स्वरूपत इति। विधिनिषेधरूपशोधकवाक्यावसितसर्वविद्यानुसन्धेयस्वरूपनिरूपकधर्मयोगःस्वभावत इति निर्दिष्टः। स्वरूपनिरूपकधर्माभावे अनिरूपितस्वरूपतया निस्स्वभावमेव वस्तु स्यात्। स्वरूपशब्दः स्वरूपनिरूपकधर्मपरः? स्वभावशब्दस्तु सौलभ्यपर इति केचित्। यावच्छब्दो हि प्रकर्षनिकर्षपरामर्शयोग्याकारविषयो युक्त इत्यभिप्रायेणाऽऽहगुणतो विभूतितोऽपीति।यावांश्चाहमिति गुणशब्दोऽत्र निरूपितस्वरूपविशेषकज्ञानशक्त्यादिसमस्तधर्मविषयः।यावान्यश्च इत्यनयोर्व्युत्क्रमेण व्याख्यानं बुद्ध्यारोहक्रमप्रदर्शनार्थम्।तत्त्वतः इत्यस्ययावान्यश्च इत्यत्रानपेक्षणात्अभिजानाति इत्यत्र संशयादिव्युदासाय तदपेक्षणाच्चतत्त्वतोऽभिजानातीति योजितम्।मां तत्त्वतोऽभिजानाति इत्युक्तस्यैवमां तत्त्वतो ज्ञात्वा इत्यनुभाषणमुपायभूतस्यापि स्वादुतमतया सुदुर्लभत्वेनादरातिशयार्थम्।तत्त्वतो ज्ञात्वा इत्यनेनैव आनन्तर्यसिद्ध्यर्थहेतुपौष्कल्यज्ञापकानुवादस्य सिद्धत्वात्?तदनन्तरम् इत्यनेनैव प्रवेशस्यानन्तर्यकण्ठोक्तेः?भक्त्या त्वनन्यया [11।54] इत्यादौ प्रवेशेऽपि हेतुतया भक्तेरेव प्रागुक्तत्वाच्चततो भक्तितो मां विशते इत्येवान्वयो दर्शितः।प्रवेष्टुम् इति प्रागुक्तैकार्थ्यज्ञापनाय पदसिद्धये चप्रविशतीत्युक्तम्। यथावज्ज्ञानमपि काष्ठाप्राप्तभक्तेः। अन्योन्याश्रयणं च भक्तेः पूर्वभेदात्परिहृतम्। सैव तु तथाविधावस्था साक्षान्मोक्षसाधनमित्याहतत्त्वत इत्यादिना।,दर्शनशब्देनानुभाषणात्तत्त्वतोऽभिजानाति इत्यस्य साक्षात्कारपरत्वं व्यञ्जितम्।परभक्त्याऽपि तत्त्वज्ञानमेव साध्यं? तदेव तु साक्षान्मोक्षसाधनमिति कुदृष्टिमतमपाकरोतिअत्रेति। एवकारेण दर्शनव्यवच्छेदः। यद्यप्यत्र भक्तिशब्दो व्यवहितः? तत्त्वज्ञानं त्वव्यवहितं? तथापि व्यवहितपरामर्श एव युक्तः अन्यथातत्त्वतो ज्ञात्वा इत्यादिना पुनरुक्तिप्रसङ्गात्। अत्र दर्शनजनकभक्त्यनुवादे प्रयोजनाभावात्सैव तदुत्तरावस्था परामृश्यत इति भावः। प्रागुक्तं हेतुमाहभक्त्या त्वनन्ययेति।अयमभिप्रायः -- उपक्रमन्यायात्पूर्वं प्रबलं? स्पष्टास्पष्टयोश्च स्पष्टानुसारेणान्यद्गमयितव्यम् -- इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।18.55।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।18.55।।भक्त्येति। ततश्च भक्त्या निदिध्यासनात्मिकया ज्ञाननिष्ठया मामद्वितीयमात्मानमभिजानाति साक्षात्करोति। यावान् विभुर्नित्यश्च यश्च परिपूर्णसत्यज्ञानानन्दघनः सदा विध्वस्तसर्वोपाधिरखण्डैकरस एकस्तावन्तं चाभिजानाति। ततो मामेवं तत्त्वतो ज्ञात्वाहमस्म्यखण्डानन्दाद्वितीयं ब्रह्मेति साक्षात्कृत्य विशते अज्ञानतत्कार्यनिवृत्तौ सर्वोपाधिशून्यतया सद्रूप एव भवति। तदनन्तरं बलवत्प्रारब्धकर्मभोगेन देहत्यागानन्तरं नतु ज्ञानानन्तरमेव। क्त्वाप्रत्ययेनैव तल्लाभे तदनन्तरमित्यस्य वैयर्थ्यापातात् तस्मात्तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्येऽथ संपत्स्ये इति श्रुत्यर्थ एवात्र दर्शितो भगवता। यद्यपि ज्ञानेनाज्ञानं निवर्तितमेव दीपेनेव तमस्तस्य तद्विरोधिस्वभावत्वात्तथापि तदुपादेयमहंकारदेहादि निरुपादानमेव यावत्प्रारब्धकर्मभोगमनुवर्तते दृष्टत्वादेव। नहि दृष्टेनुपपन्नं नाम। तार्किकैरपि हि समवायिकारणनाशाद्द्रव्यनाशमङ्गीकुर्वद्भिर्निरुपादानं द्रव्यं क्षणमात्रं तिष्ठतीत्यङ्गीकृतम्। नित्यपरमाणुसमवेतद्व्यणुकनाशे त्वसमवायिकारणनाशादेव द्रव्यनाशः समवायनिरूपितकारणनाशत्वमुभयोरनुगतमिति नानुगमः। येत्वसमवायिकारणनाशमेव सर्वत्र कार्यद्रव्यनाशकमिच्छन्ति तेषामाश्रयनाशस्थले क्षणद्वयमनुपादानं कार्यं तिष्ठति। एवंच तत्रैव प्रतिबन्धसन्निपते बहुकालावस्थितिः केन वार्येत। प्रारब्धकर्मणश्च प्रतिबन्धकत्वं श्रुतिसिद्धमन्तःकरणदेहाद्यवस्थित्यन्यथानुपपत्तिसिद्धं च। एवं शिष्यसेवकाद्यदृष्टमपि तत्प्रतिबन्धकं तदभावमपेक्ष्य च पूर्वसिद्ध एवाज्ञाननाशस्तत्कार्यमन्तःकरणादिकं नाशयतीति न पुनर्ज्ञानापेक्षा। तदुक्तंतीर्थे श्वपचगृहे वा नष्टस्मृतिरपि परित्यजन्देहम्। ज्ञानसमकालमुक्तः कैवल्यं याति हतशोकः। इति। न जानामीत्यादिप्रत्ययस्तु तस्य निवृत्ताज्ञानस्याप्यज्ञाननाशजनितात्तदनुपादानात्साक्षादात्माश्रयादेवाज्ञानसंस्कारात्तत्त्वज्ञानसंस्कारनिर्वर्त्यादन्तःकरणस्थित्यवधेरिति विवरणकृतः अहं ब्रह्मास्मीति चरमसाक्षात्कारानन्तरमहं ब्रह्म न भवामि न जानामीत्यादिप्रत्ययो नास्त्येव। यदि परं घटं न जानामीत्यादिप्रत्ययः स्यात्तदुपपादनाय चेयं संस्कारकल्पनेति नानुपपन्नम्। अज्ञानलेशपदेनाप्ययमेव संस्कारो विवक्षितः। नहि सावयवमज्ञानं येन कियन्नश्यति कियत्तिष्ठतीति वाच्यम्। अनिर्वचनीयत्वात्। एकदेशाभ्युपगमे तु तन्निवृत्त्यर्थं पुनश्चरमं ज्ञानमपेक्षितमेव। तच्च मृतिकाले दुर्घटमिति तत्त्वज्ञानसंस्कारनाश्यता तस्याभ्युपेया। ततश्च संस्कारपक्षान्न कोऽपि विशेष इति पूर्वोक्तैव कल्पना श्रेयसी। ईदृशजीवन्मुक्त्यपेक्षया च प्राग्भगवतोक्तंउपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः इति स्थितप्रज्ञलक्षणानि च व्याख्यातानि। तस्मात्साधूक्तं विशते तदनन्तरमिति।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।18.55।।भक्तिलाभफलमाह -- भक्त्येति। ततस्तदनन्तरं भक्त्या भजनेन वा अगणितानन्दलीलारूपो यश्च केवलमानन्दरसरूपोऽस्मि तादृशं मां तत्त्वतः कारणात्मकधर्मैः अभिजानाति सर्वथा जानाति। तदनन्तरं तत्त्वतो ज्ञात्वा मां लीलाकर्त्तारं विशते? आनन्दरूपो भवतीत्यर्थः। यद्वा मां ज्ञात्वा विशते लीलास्विति शेषः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।18.55।। -- भक्त्या माम् अभिजानाति यावान् अहम् उपाधिकृतविस्तरभेदः? यश्च अहम् अस्मि विध्वस्तसर्वोपाधिभेदः उत्तमः पुरुषः आकाशकल्पः? तं माम् अद्वैतं चैतन्यमात्रैकरसम् अजरम् अभयम् अनिधनं तत्त्वतः अभिजानाति। ततः माम् एवं तत्त्वतः ज्ञात्वा विशते तदनन्तरं मामेव ज्ञानानन्तरम्। नात्र ज्ञानप्रवेशक्रिये भिन्ने विवक्षिते ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् इति। किं तर्हि फलान्तराभावात् ज्ञानमात्रमेव? क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि (गीता 13।2) इति उक्तत्वात्।।ननु विरुद्धम् इदम् उक्तम् ज्ञानस्य या परा निष्ठा तया माम् अभिजानाति (गीता 18।50) इति। कथं विरुद्धम् इति चेत्? उच्यते -- यदैव यस्मिन् विषये ज्ञानम् उत्पद्यते ज्ञातुः? तदैव तं विषयम् अभिजानाति ज्ञाता इति न ज्ञाननिष्ठां ज्ञानावृत्तिलक्षणाम् अपेक्षते इति अतश्च ज्ञानेन न अभिजानाति? ज्ञानावृत्त्या तु ज्ञाननिष्ठया अभिजानातीति। नैष दोषः ज्ञानस्य स्वात्मोत्पत्तिपरिपाकहेतुयुक्तस्य प्रतिपक्षविहीनस्य यत् आत्मानुभवनिश्चयावसानत्वं तस्य निष्ठाशब्दाभिलापात्। शास्त्राचार्योपदेशेन ज्ञानोत्पत्तिहेतुं सहकारिकारणं बुद्धिविशुद्धत्वादि अमानित्वादिगुणं च अपेक्ष्य जनितस्य क्षेत्रज्ञपरमात्मैकत्वज्ञानस्य कर्तृत्वादिकारकभेदबुद्धिनिबन्धनसर्वकर्मसंन्याससहितस्य स्वात्मानुभवनिश्चयरूपेण यत् अवस्थानम्? सा परा ज्ञाननिष्ठा इति उच्यते। सा इयं ज्ञाननिष्ठा आर्तादिभक्तित्रयापेक्षया परा चतुर्थी भक्तिरिति उक्ता। तया परया भक्त्या भगवन्तं तत्त्वतः अभिजानाति? यदनन्तरमेव ईश्वरक्षेत्रज्ञभेदबुद्धिः अशेषतः निवर्तते। अतः ज्ञाननिष्ठालक्षणतया भक्त्या माम् अभिजानातीति वचनं न विरुध्यते। अत्र च सर्वं निवृत्तिविधायि शास्त्रं वेदान्तेतिहासपुराणस्मृतिलक्षणं न्यायप्रसिद्धम् अर्थवत् भवति -- विदित्वा৷৷৷৷ व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति (बृह0 उ0 3।5।1) तस्मान्न्यासमेषां तपसामतिरिक्तमाहुः (ना0 उ0 2।79) न्यास एवात्यरेचयत् (ना0 उ0 2।78) इति। संन्यासः कर्मणां न्यासः वेदानिमं च लोकममुं च परित्यज्य (आप0 ध0 1।23।13) त्यज धर्ममधर्मं च ( महा0 शा0 329।40) इत्यादि। इह च प्रदर्शितानि वाक्यानि। न च तेषां वाक्यानाम् आनर्थक्यं युक्तम् न च अर्थवादत्वम् स्वप्रकरणस्थत्वात्? प्रत्यगात्माविक्रियस्वरूपनिष्ठत्वाच्च मोक्षस्य। न हि पूर्वसमुद्रं जिगिमिषोः प्रातिलोम्येन प्रत्यक्समुद्रजिगमिषुणा समानमार्गत्वं संभवति। प्रत्यगात्मविषयप्रत्ययसंतानकरणाभिनिवेशश्च ज्ञाननिष्ठा सा च प्रत्यक्समुद्रगमनवत् कर्मणा सहभावित्वेन विरुध्यते। पर्वतसर्षपयोरिव अन्तरवान् विरोधः प्रमाणविदां निश्चितः। तस्मात् सर्वकर्मसंन्यासेनैव ज्ञाननिष्ठा कार्या इति सिद्धम्।।स्वकर्मणा भगवतः अभ्यर्चनभक्तियोगस्य सिद्धिप्राप्तिः फलं ज्ञाननिष्ठायोग्यता? यन्निमित्ता ज्ञाननिष्ठा मोक्षफलावसाना सः भगवद्भक्तियोगः अधुना स्तूयते शास्त्रार्थोपसंहारप्रकरणे शास्त्रार्थनिश्चयदार्ढ्याय --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।18.55।।भक्त्येति। स मदीयया भक्त्या निर्गुणया निर्गुणविषयकत्वात्परया मामेकं निर्गुणं पुरुषोत्तममभिजानाति तत्त्वतः यावान्यश्चास्मीति। यादृशैश्वर्याद्यनन्तालौकिकगुणविशिष्टो यादृशलीलापरिकरसहितः प्राकृतगुणसृष्टिरहितो ब्रह्मपरमात्मा भगवानिति भेदेन ततो नामविस्तृतोऽस्मि यथातथा मामभिजानाति? एवं अभिज्ञानमुक्तं भागवतचतुश्श्लोक्यांयावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः [भाग.2।9।31] इत्यादि। तदनन्तरं तत्त्वतो मां पुरुषोत्तमं ज्ञात्वेत्यनुवादः तत्त्वतो वा पुरुषोत्तमं मां विशते प्रवेश एव फलंनिर्गुणा मुक्तिरस्माद्धि सगुणा साऽन्यसेवया इति निबन्धेअलौकिकसामर्थ्यं सायुज्यं सेवोपयोगिदेहो वा वैकुण्ठादिषु इति सेवाफले च निरूपितम्। अथवाऽऽविशते पुरुषोत्तमाविष्टो भवति। अतएवोक्तमाचार्यैः सुबोधिन्यांशुको भावनया गोकुले स्थित्वाऽऽह य एतदिति स भगवान् इति च। तेन ब्रह्मभूतोऽपि शुकः श्रीपुरुषोत्तमभक्तितत्त्वज्ञानतः श्रीपुरुषोत्तमाविष्ट एव तल्लीलामध्यपाती भवतीत्यवसीयते। तदनन्तरं तेन नान्तरं भेदो यथा भवति तथेति वा। तथा च श्रुतिः -- ब्रह्मविदाप्नोति परं [तैत्ति.2।1।1] य(त)दक्षरे परमे व्योमन् [महाना.1।2] यो वेद निहितं गुहायां [तै.उ.2।1।1] सोऽश्नुते सर्वान्कामान्सह ब्रह्मणा विपश्चिता [तैत्ति.2।1।1] इति। एतेनाक्षरमार्गात् भगवन्मार्गे वैलक्षण्यं यत्र भगवानेव प्रमाणं प्रमेयं चेति दर्शितम्।


Chapter 18, Verse 55