Chapter 18, Verse 53

Text

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।18.53।।

Transliteration

ahankāraṁ balaṁ darpaṁ kāmaṁ krodhaṁ parigraham vimuchya nirmamaḥ śhānto brahma-bhūyāya kalpate

Word Meanings

ahankāram—egotism; balam—violence; darpam—arrogance; kāmam—desire; krodham—anger; parigraham—selfishness; vimuchya—being freed from; nirmamaḥ—without possessiveness of property; śhāntaḥ—peaceful; brahma-bhūyāya—union with Brahman; kalpate—is fit


Translations

In English by Swami Adidevananda

Forsaking egoism, power, pride, desire, wrath, and possessions, with no feeling of 'mine' and tranquil, he becomes worthy of the state of Brahman.

In English by Swami Gambirananda

Having discarded egotism, force, pride, desire, anger, and superfluous possessions, and being free from the idea of possession and serene, that person is fit for becoming Brahman.

In English by Swami Sivananda

Having abandoned egoism, strength, arrogance, desire, anger, and covetousness, and being free from the notion of 'mine' and peaceful, he is fit for becoming Brahman.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Relinquishing egotism, violence, pride, desire, wrath, and the sense of possession - he, the unselfish and calm one, is capable of becoming the Brahman.

In English by Shri Purohit Swami

Having abandoned selfishness, power, arrogance, anger, and desire, possessing nothing of his own, and having attained peace, he is fit to join the Eternal Spirit.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.53।।जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धिसे युक्त, वैराग्यके आश्रित, एकान्तका सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके, शरीर-वाणी-मनको वशमें करके, शब्दादि विषयोंका त्याग करके और राग-द्वेषको छोड़कर निरन्तर ध्यानयोगके परायण हो जाता है, वह अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।18.53।। अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

18.53 अहङ्कारम् egoism? बलम् strength? दर्पम् arrogance? कामम् desire? क्रोधम् anger? परिग्रहम् covetousness? विमुच्य having abandoned? निर्ममः without mineness? शान्तः peaceful? ब्रह्मभूयाय for becoming Brahman? कल्पते (he) is fit.Commentary Egoism Identifying the Self with the body? etc. This is the error of mistaking the physical body for the pure immortal Self.Balam That strength which is combined or united with passion? desire and attachment? and not the physical or other strength. Physical strength is natural. It is not possible to abandon this physical strength.Darpam Arrogance? insolence? selfassertive Rajasic vehemence this follows the state of exaltion.,Man becomes arrogant when he possesses wealth or much learning. When he becomes arrogant he violates Dharma and does wicked deeds.The aspirant even abandons the things which are necessary for the bare maintenance of the body. He becomes a ParamahamsaParivrajaka? a wandering or itinerant ascetic. He has no attachment to his body. He knows that even the body does not belong to him.Santa Peaceful? tranil? serene.Such an aspirant who has devotion to Selfknowledge? and who is endowed with the above virtues is fit to become Brahman.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.53।। व्याख्या --   बुद्ध्या विशुद्धया युक्तः -- जो सांख्ययोगी साधक परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना चाहता है? उसकी बुद्धि विशुद्ध अर्थात् सात्त्विकी (गीता 18। 30) हो। उसकी बुद्धिका विवेक साफसाफ हो? उसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह न हो।इस सांख्ययोगके प्रकरणमें सबसे पहले बुद्धिका नाम आया है। इसका तात्पर्य है कि सांख्ययोगीके लिये जिस विवेककी आवश्यकता है? वह विवेक बुद्धिमें ही प्रकट होता है। उस विवेकसे वह जडताका त्याग करता है।वैराग्यं समुपाश्रितः -- जैसे संसारी लोग रागपूर्वक वस्तु? व्यक्ति आदिके आश्रित रहते हैं? उनको अपना आश्रय? सहारा मानते हैं? ऐसे ही सांख्ययोगका साधक वैराग्यके आश्रित रहता है अर्थात् जनसमुदाय? स्थान आदिसे उसकी स्वाभाविक ही निर्लिप्तता बनी रहती है। लौकिक और पारलौकिक सम्पूर्ण भोगोंसे उसका दृढ़ वैराग्य होता है।विविक्तसेवी -- सांख्ययोगके साधकका स्वभाव? उसकी रुचि स्वतःस्वाभाविक एकान्तमें रहनेकी होती है। एकान्तसेवनकी रुचि होनी तो बढ़िया है? पर उसका आग्रह नहीं होना चाहिये अर्थात् एकान्त न मिलनेपर मनमें विक्षेप? हलचल नहीं होनी चाहिये। आग्रह न होनेसे रुचि होनेपर भी एकान्त न मिले? प्रत्युत समुदाय मिले? खूब हल्लागुल्ला हो? तो भी साधक उकतायेगा नहीं अर्थात् सिद्धिअसिद्धिमें सम रहेगा। परन्तु आग्रह होगा तो वह उकता जायगा? उससे समुदाय सहा नहीं जायगा। अतः साधकका स्वभाव तो एकान्तमें रहनेका ही होना चाहिये? पर एकान्त न मिले तो उसके अन्तःकरणमें हलचल नहीं होनी चाहिये। कारण कि हलचल होनेसे अन्तःकरणमें संसारकी महत्ता आती है और संसारकी महत्ता आनेपर हलचल होती है? जो कि ध्यानयोगमें बाधक है।एकान्तमें रहनेसे साधन अधिक होगा? मन भगवान्में अच्छी तरह लगेगा अन्तःकरण निर्मल बनेगा -- इन बातोंको लेकर मनमें जो प्रसन्नता होती है? वह साधनमें सहायक होती है। परन्तु एकान्तमें हल्लागुल्ला करनेवाला कोई नहीं होगा अतः वहाँ नींद अच्छी आयेगी? वहाँ किसी भी प्रकारसे बैठ जायँ तो कोई देखनेवाला नहीं होगा? वहाँ सब प्रकारसे आराम रहेगा? एकान्तमें रहनेसे लोग भी ज्यादा मानबड़ाई? आदर करेंगे -- इन बातोंको लेकर मनमें जो प्रसन्नता होती है? वह साधनमें बाधक होती है क्योंकि यह सब भोग है। साधकको इन सुखसुविधाओंमें फँसना नहीं चाहिये? प्रत्युत इनसे सदा सावधान रहना चाहिये।लघ्वाशी -- साधकका स्वभाव स्वल्प अर्थात् नियमित और सात्त्विक भोजन करनेका हो। भोजनके विषयमें हित? मित और मेध्य -- ये तीन बातें बतायी गयी हैं। हित का तात्पर्य है -- भोजन शरीरके अनुकूल हो। मितका तात्पर्य है -- भोजन न तो अधिक करे और न कम करे? प्रत्युत जितने भोजनसे शरीरनिर्वाह की जाय? उतना भोजन करे (गीता 6। 16)। भोजनसे शरीर पुष्ट हो जायगा -- ऐसे भावसे भोजन न करे? प्रत्युत केवल औषधकी तरह क्षुधानिवृत्तिके लिये ही भोजन करे? जिससे साधनमें विघ्न न पड़े। मेध्यका तात्पर्य है -- भोजन पवित्र हो।धृत्यात्मानं नियम्य च -- सांसारिक कितने ही प्रलोभन सामने आनेपर भी बुद्धिको अपने ध्येय परमात्मतत्त्वसे विचलित न होने देना -- ऐसी दृढ़ सात्त्विकी धृति (गीता 18। 33) के द्वारा इन्द्रियोंका नियमन करे अर्थात् उनको मर्यादामें रखे। आठों पहर यह जागृति रहे कि इन्द्रियोंके द्वारा साधनके विरुद्ध कोई भी चेष्टा न हो।यतवाक्कायमानसः -- शरीर? वाणी और मनको संयत (वशमें) करना भी साधकके लिये बहुत जरूरी है (गीता 17। 14 -- 16)। अतः वह शरीरसे वृथा न घूमे? देखनेसुननेके शौकसे कोई यात्रा न करे। वाणीसे वृथा बातचीत न करे? आवश्यक होनेपर ही बोले? असत्य न बोले? निन्दाचुगली न करे। मनसे रागपूर्वक संसारका चिन्तन न करे? प्रत्युत परमात्माका चिन्तन करे।शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा -- ध्यानके समय बाहरके जितने सम्बन्ध हैं? जो कि विषयरूपसे आते हैं और जिनसे संयोगजन्य सुख होता है? उन शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध -- पाँचों विषयोंका स्वरूपसे ही त्याग कर देना चाहिये। कारण कि विषयोंका रागपूर्वक सेवन करनेवाला ध्यानयोगका साधन नहीं कर सकता। अगर विषयोंका रागपूर्वक सेवन करेगा तो ध्यानमें वृत्तियाँ (बहिर्मुख होनेसे) नहीं लगेंगी और विषयोंका चिन्तन होगा।रागद्वेषौ व्युदस्य च -- सांसारिक वस्तु महत्त्वशाली है? अपने काममें आनेवाली है? उपयोगी है -- ऐसा जो भाव है? उसका नाम राग है। तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें असत् वस्तुका जो रंग चढ़ा हुआ है? वह राग है। असत् वस्तु आदिमें राग रहते हुए कोई उनकी प्राप्तिमें बाधा डालता है? उसके प्रति द्वेष हो जाता है।असत् संसारके किसी अंशमें राग हो जाय तो दूसरे अंशमें द्वेष हो जाता है -- यह नियम है। जैसे? शरीरमें राग हो जाय तो शरीरके अनुकूल वस्तुमात्रमें राग हो जाता है और प्रतिकूल वस्तुमात्रमें द्वेष हो जाता है।संसारके साथ रागसे भी सम्बन्ध जुड़ता है और द्वेषसे भी सम्बन्ध जुड़ता है। रागवाली बातका भी चिन्तन होता है और द्वेषवाली बातका भी चिन्तन होता है। इसलिये साधक न राग करे और न द्वेष करे।ध्यानयोगपरो नित्यम् -- साधक नित्य ही ध्यानयोगके परायण रहे अर्थात् ध्यानके सिवाय दूसरा कोई साधन न करे। ध्यानके समय तो ध्यान करे ही? व्यवहारके समय अर्थात् चलतेफिरते? खातेपीते? कामधंधा करते समय भी यह ध्यान (भाव) सदा बना रहे कि वास्तवमें एक परमात्माके सिवाय संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं (गीता 18। 20)।अहंकारं बलं दर्पं ৷৷. विमुच्य -- गुणोंको लेकर अपनेमें जो एक विशेषता दीखती है? उसे अहंकार कहते हैं। जबर्दस्ती करके? विशेषतासे मनमानी करनेका जो आग्रह (हठ) होता है? उसे बल कहते हैं। जमीनजायदाद आदि बाह्य चीजोंकी विशेषताको लेकर जो घमंड होता है? उसे दर्प कहते हैं। भोग? पदार्थ तथा अनुकूल परिस्थिति मिल जाय? इस इच्छाका नाम काम है। अपने स्वार्थ और अभिमानमें ठेस लगनेपर दूसरोंका अनिष्ट करनेके लिये जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है? उसको क्रोध कहते हैं। भोगबुद्धिसे? सुखआरामबुद्धिसे चीजोंका जो संग्रह किया जाता है? उसे परिग्रह (टिप्पणी प0 947.1) कहते हैं।साधक उपर्युक्त अहंकार? बल? दर्प? काम? क्रोध और परिग्रह -- इन सबका त्याग कर देता है।निर्ममः -- अपने पास निर्वाहमात्रकी जो वस्तुएँ हैं और कर्म करनेके शरीर? इन्द्रियाँ आदि जो साधन हैं? उनमें ममता अर्थात् अपनापन न हो (टिप्पणी प0 947.2)। अपना शरीर? वस्तु आदि जो हमें प्रिय लगते हैं? उनके बने रहनेकी इच्छा न होना निर्मम होना है।जिन व्यक्तियों और वस्तुओंको हम अपनी मानते हैं? वे आजसे सौ वर्ष पहले भी अपनी नहीं थीं और सौ वर्षके बाद भी अपनी नहीं रहेंगी। अतः जो अपनी नहीं रहेंगी? उनका उपयोग या सेवा तो कर सकते हैं? पर उनको,अपनी मानकर अपने पास नहीं रख सकते। अगर उनको अपने पास नहीं रख सकते तो वे अपने नहीं हैं ऐसा माननेमें क्या बाधा है उनको अपनी न माननेसे अधिक निर्मम हो जाता है।शान्तः -- असत् संसारके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही अन्तःकरणमें अशान्ति? हलचल आदि पैदा होते हैं। जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर अशान्ति कभी पासमें आती ही नहीं। फिर रागद्वेष न रहनेसे साधक हरदम शान्त रहता है।ब्रह्मभूयाय कल्पते -- ममतारहित और शान्त मनुष्य (सांख्ययोगका साधक) परमात्मप्राप्तिका अधिकारी बन जाता है अर्थात् असत्का सर्वथा सम्बन्ध छूटते ही उसमें ब्रह्मप्राप्तिकी योग्यता? सामर्थ्य आ जाती है। कारण कि जबतक असत् पदार्थोंके साथ सम्बन्ध रहता है? तबतक परमात्मप्राप्तिकी सामर्थ्य नहीं आती। सम्बन्ध --   उपर्युक्त साधनसामग्रीसे निष्ठा प्राप्त हो जानेपर क्या होता है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।18.53।। पूर्व श्लोक में उपादेय (ग्रहण करने योग्य) गुणों का उल्लेख किया गया था। इस श्लोक में हेय? अर्थात् त्याज्य दुर्गुणों की सूची प्रस्तुत की गयी है। ध्यान की सफलता के लिए इन दुर्गुणों का परित्याग आवश्यक है।अहंकार देहेन्द्रियादि अनात्म उपाधियों को ही अपना स्वरूप समझकर उनके कर्मों में कर्तृत्वाभिमान अहंकार कहलाता है।बल कामना और आसक्ति से अभिभूत पुरुष का बल यहाँ अभिप्रेत है? स्वधर्मानुष्ठान की सार्मथ्य नहीं।दर्प अर्थात् गर्व। यह गर्व ही मनुष्य को धर्म मार्ग से भ्रष्ट कर देता है। धर्म के अतिक्रमण का यह कारण है।काम और क्रोध विषय भोग की इच्छा काम है तथा प्रतिबन्धित काम ही क्रोध का रूप धारण करता है।परिग्रहम् विषयासक्त पुरुष की प्रवृत्ति अधिकाधिक धन और भोग्यवस्तुओं का संग्रह करने में होती है। उचित या अनुचित साधनों के द्वारा आवश्यकता से अधिक केवल भोग के लिए वस्तुएं एकत्र करना परिग्रह कहलाता है।वस्तुत? ये समस्त अवगुण परस्पर सर्वथा भिन्न नहीं हैं। एक अहंकार ही इन विभिन्न वृत्तियों में व्यक्त होता है। अहंकार के साथ ही ममत्व भाव भी जुड़ा रहता है। भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश है कि साधक को अहंकार और ममत्व का परित्याग कर देना चाहिए। इनके परित्याग से साधक का मन शान्त और शुद्ध बन जाता है। यह शान्ति शवागर्त की अथवा मरुस्थल की उदास शान्ति नहीं? वरन् ज्ञान द्वारा अपने स्वरूप की पहचान होने से प्राप्त हुई शान्ति है।इस प्रकार? यहाँ वर्णित ध्यान के अनुकूल गुणों से सम्पन्न साधक उत्तम अधिकारी कहलाता है। ऐसा साधक ही ब्रह्मप्राप्ति के योग्य होता है। इस श्लोक में यह नहीं कहा गया है कि ऐसा साधक ब्रह्म ही बन जाता है? वरन् वह ब्रह्मज्ञान का अधिकारी बन जाता है। आत्म साक्षात्कार की यह पूर्व तैयारी है।इस प्रकार क्रम से

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।18.53।।ज्ञाननिष्ठस्य यतेर्विशेषणान्तरं समुच्चिनोति -- किञ्चेति। नित्यं ध्यानयोगपरत्वे समुच्चितं कारणान्तरं विवृणोति -- अहंकरणमिति। सामर्थ्यमात्रे बलशब्दादुपलभ्यमाने किमिति विशेषवचनमित्याशङ्क्याह -- स्वाभाविकत्वेनेति। उक्तेर्थे मानमाह -- हृष्ट इति। वैराग्यशब्देन लब्धस्यापि कामत्यागस्य पुनर्वचनं प्रकृष्टत्वख्यापनार्थम्। अहंकारादित्यागे परिग्रहप्राप्त्यभावात्तत्त्यागोक्तिरयुक्तेत्याशङ्क्याह -- इन्द्रियेति। परिग्रहाभावे ममत्वविषयाभावान्निर्ममत्वं कथमित्याशङ्क्याह -- देहेति। अहंकारममकारयोरभावेन प्राप्तामन्तःकरणोपरतिमनुवदति -- अतएवेति। उक्तमनूद्य जीवन्नेवासौ ब्रह्मीभवतीति फलितमाह -- यः संहृतेति। ज्ञाननिष्ठपदादूर्ध्वं स शब्दो द्रष्टव्यः। ब्रह्मणो भवनमनुसन्धानपरिपाकपर्यन्तं साक्षात्करणं तदर्थमिति यावत्।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।18.53।।किंच देहादिष्वहंकरणमहंकारस्ते देहे आत्मत्वाभिमानं बलं कामरागादिप्रयुक्तं सामर्थ्यं नेतरच्छरीरादिसामर्थ्यं स्वाभाविकत्वेन तत्त्यागस्याशक्यत्वात्? दर्पो हर्षान्तरभावी धर्मातिक्रमहेतुः।हृष्टो दृप्यति दृप्तो धर्ममतिक्रामति इति स्मरणात्। तंच काममिच्छां वैराक्यशब्देन लब्धस्यापि कामत्यागस्य पुनर्वचनं तस्मिन्नधिकयन्त्रः कर्तव्य इति बोधनाय प्रकृष्टत्वख्यापनार्थं इच्छितपदार्थालाभप्रयुक्तं क्रोधं परिग्रहमिन्द्रियमनोगतदोषत्यागेऽपि शरीरधारणप्रसङ्गेन धर्मानुष्ठाननिमित्तेन वा प्राप्तं बाह्यपरिग्रहं च विमुच्य परित्यज्य परमहंसपरिव्राजको भूत्वा देहजीवनमात्रेऽपि विगतममभावो निर्ममोऽतएव शान्तः उपरतः संहृतायासो यतिर्ज्ञानानिष्ठो ब्रह्मभूयाय ब्रह्मभवनाय ब्रह्मणोऽनुसंधानपरिपाकपर्यन्तजाय साक्षात्काराय कल्पते समर्थो भवति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।18.53।।ब्रह्मभूयाय कल्पते। ब्रह्मणि भावो ब्रह्मभूयम्? ब्रह्मणि स्थितिः। सर्वदा तन्मनस्कतेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।18.53।।एवं यतवाक्कायमानसस्य योगिनो योगजाः सिद्धय उपतिष्ठन्ति। ताश्च श्रुतौ दर्शिताःपृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते। न तत्र रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् इति। तथायं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्। तं तं लोकं जयते तांश्च कामांस्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद्भूतिकामः इति च। संविभाति संकल्पयति। लोकं लोचनीयमतीतानागतमर्थजातम्। कामान् काम्यमानान्विषयान्। जयते उपलभते इति श्रुतिपदानामर्थः। तथानाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः। नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् इति। प्रज्ञानेन शास्त्राचार्योपदेशजेन ज्ञानेन दुश्चरितादिसेवनाद्विरक्तः शान्तो जितचित्तः समाहितो निरुद्धचित्तवृत्तिरप्यशान्तमानसो योगैश्वर्यासक्तचित्तः एनमात्मानं न प्राप्नुयादिति श्रुत्यर्थः। तदिदमाह -- अहंकारमिति। यदा तु योगी यतमानसोऽस्मितामात्रप्रत्ययो भवति तदा सैवास्मितावस्थितिर्विषयाभिमुखाहंकार इत्युच्यते? विषयविमुखा त्वस्मितेति ततस्तमहंकारं निगृह्णीयात्। तदनिग्रहे योगी बलं सत्यसंकल्पत्वादिसामर्थ्यमात्मनः पश्यन् दर्पं करोति न मत्तुल्योऽन्योऽस्तीति मन्यते। ततश्च दृप्तो धर्ममतिक्रामतीत्यापस्तम्बवचनाद्दिव्यान्कामानिच्छति। तत्र केनचिन्निमित्तेन कामप्रतिबन्धे सति क्रोधवान्भवति। ततः परोत्सादनाय भूयांसं शिष्यादिपरिग्रहं संपादयति ततो नश्यतीति। तस्मात्सर्वानर्थमूलभूतमहंकारमेव विमुच्य तत इतरान्सर्वान् विमुञ्चति। अहंकारविमोकेऽपि निर्ममत्वं तत्प्रदर्शितेषु विषयेषु ममताशून्यत्वे सत्यहंकारः शिथिलीभूतो विषयवैमुख्यं प्राप्य स्वकारणेऽस्मितायां विलीयते। ततः शान्तोऽस्मिताया अपि प्रलयान्निरिन्धनाग्निवदुपरतो योगी ब्रह्मभूयाय कल्पते।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।18.53।।बुद्ध्या विशुद्धया यथावस्थितात्मतत्त्वविषयया युक्तः? धृत्या आत्मानं नियम्य च,विषयविमुखीकरणेन योगयोग्यं मनः कृत्वा? शब्दादीन् विषयान् त्यक्त्वा असन्निहितान् कृत्वा? तन्निमित्तौ च रागद्वेषौ व्युदस्य? विविक्तसेवी सर्वैः ध्यानविरोधिभिः विविक्ते देशे वर्तमानः लघ्वाशी अत्यशनानशनरहितः? यतवाक्कायमानसः ध्यानाभिमुखीकृतकायवाङ्मनोवृत्तिः? ध्यानयोगपरो नित्यम् एवं भूतः सन् आप्रयाणाद् अहरहः ध्यानयोगपरः? वैराग्यं समुपाश्रितः ध्येयतत्त्वव्यतिरिक्तविषयदोषावमर्शेन तत्र विरागतां वर्धयन् अहंकारम्? अनात्मनी आत्माभिमानं बलं तद्विवृद्धिहेतुभूतं वासनाबलं तन्निमित्तं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहं विमुच्य? निर्ममः सर्वेषु अनात्मीयेषु आत्मीयबुद्धिरहितः शान्तः आत्मानुभवैकसुखः? एवंभूतो ध्यानयोगं कुर्वन् ब्रह्मभूयाय कल्पते ब्रह्मभावाय कल्पते सर्वबन्धविनिर्मुक्तो यथावस्थितम् आत्मानम् अनुभवति इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।18.53।।किंच -- अहंकारमिति। ततश्च विरक्तोऽहमित्याद्यहंकारं बलं दुराग्रहं दर्पं योगबलादुन्मार्गप्रवृत्तिलक्षणं प्रारब्धवशात्प्राप्यमाणेष्वपि विषयेषु कामं क्रोधं परिग्रहं च विमुच्य विशेषेण त्यक्त्वा बलादापन्नेषु निर्ममः सन् शान्तः परामुपशान्तिं प्राप्तो ब्रह्मभूयाय ब्रह्माहमिति नैश्चल्येनावस्थानाय कल्पते योग्यो भवति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 18.53 बुद्धिशब्दोऽत्र प्रस्तुतब्रह्मशब्दाभिप्रेतविषयबुद्धिगोचरः? तस्याः शुद्धिश्चासमग्रविषयत्वसंशयविपर्ययरूपदोषराहित्यमित्याहयथावस्थितात्मतत्त्वविषययेति।धृत्या इति पूर्वोक्तसप्रकारसात्त्विकधृतिपरामर्शमाहविषयविमुखीकरणेनेति। अत्र धृत्या मनोनियमनं कर्मोक्तम् अपि च पूर्वमेव त्यक्तविषयस्य कोऽसौ तदानीन्तनस्त्यागः इत्यत्राऽऽहअसन्निहितान् कृत्वेति। विषयसन्निधिर्हि विजितेन्द्रियमपि क्षोभयेदिति भावः।रागद्वेषौ व्युदस्य इति वैषयिकरागद्वेषयोर्व्युदासस्यापि तादात्विकविषयत्वायवैराग्यं समुपाश्रितः इत्यनेन पुनरुक्तिपरिहाराय चाऽऽहतन्निमित्ताविति। एतेन विषयासन्निधानफलप्रदर्शनम्। यद्वा विप्रकृष्टेष्वपि सूक्ष्मसङ्गो निरोद्धव्य इति भावः। विविक्तत्वं रहितत्वम् तत्प्रकृतोपयोगेन विशिनष्टि -- सर्वैर्ध्यानविरोधिभिर्विविक्ते देश इति।लघ्वाशी इत्यनेन पूर्वोक्तंनात्यश्नतः [6।16] इत्यादिकं स्मार्यत इत्यत्राऽऽहअत्यशनानशनरहित इति।धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च इत्यादिनायतवाक्कायमानसः इत्यस्य पुनरुक्तिपरिहारायाहध्यानाभिमुखीकृतकायवाङ्मनोवृत्तिरिति। कायस्याभिमुखीकरणं स्थिरासनादिपरिग्रहः वाचस्तु प्रणवादिव्यतिरिक्तवर्जनम् मनसस्तु शुभाश्रयालम्बनम्। उक्तानां ध्यानयोगशेषत्वमाहएवम्भूतः सन्निति। नित्यशब्दविवक्षितमाहआप्रयाणादहरहरितिरागद्वेषौ व्युदस्य इति वैषयिकरागद्वेषयोर्व्युदासोक्तेःवैराग्यं समुपाश्रितः इत्येतदाभिमानिकविषयम्? तत्र सम्यगुपाश्रयणं पूर्वसिद्धस्यापि सम्यगवस्थापनमित्यभिप्रायेणविरागतां वर्धयन्नित्युक्तम्। एवमहङ्कारादिविमोचनेऽपि द्रष्टव्यम्।शरीरमनःप्राणादिबलानां योगविरोधित्वाभावात्वासनाबलमिति विशेषितम्। दर्पोऽत्राहङ्कारबलहेतुकोऽङ्गीकर्तव्यानङ्गीकारः। योगित्वशान्तत्वादिनिमित्तोऽपि दर्पस्त्याज्यःहृष्टो दृप्यति दृप्तो धर्ममतिक्रामति [आ.ध.सू.1।13।4] इति स्मरणात्। मनोवाक्कायव्यापारनिवृत्त्यादेरुक्तत्वाच्छान्तशब्दोऽत्र शमहेतुविशेषपर इत्यत्राऽऽहआत्मानुभवैकसुख इति। इन्द्रियव्यापारोपरतिः क्रोधादिनिवृत्तिश्च बाह्यसुखनिस्स्पृहत्वात्? तच्च प्रभूतात्मस्वसुखलाभादिति भावः। उक्तेषु सर्वेषु ध्यानयोगस्याङ्गित्वमाहएवम्भूतो ध्यानयोगं कुर्वन्निति। ध्यानमेवात्र योगः? ध्यानेन वा योगः। अनन्तरश्लोकार्थपरामर्शेन ब्रह्मशब्दस्यात्र शुद्धात्मविषयतामाहसर्वबन्धेति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।18.53।।ब्रह्मभूयाय ब्रह्मत्वायेति प्रतीतिनिरासार्थं व्याचष्टे -- ब्रह्मेति। इत्यर्थ इति शेषः। भावो न जन्मादीत्याशयेन विवृणोति -- ब्रह्मणीति। इयमपि न मुक्तिर्ब्रह्मभूत इति पुनर्भक्त्यादिलाभश्रवणादिति भावेनाऽऽह -- सर्वदेति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।18.53।।अहंकारमिति। अहंकारं महाकुलप्रसूतोऽहं महतां शिष्योऽतिविरक्तोऽस्मि नास्ति द्वितीयो मत्सम इत्यभिमानं? बलमसदाग्रहं न शारीरं? तस्य स्वाभाविकत्वेन त्यक्तुमशक्यत्वात्। दर्पं हर्षजन्यं मदं धर्मातिक्रमकरणंहृष्टो दृप्यति दृप्तो धर्ममतिक्रामतीति स्मृतेः। कामं विषयाभिलाषम्। वैराग्यं समुपाश्रित इत्यनेनोक्तस्यापि कामत्यागस्य पुनर्वचनं यत्नाधिक्यार्थम्। क्रोधं द्वेषम्। परिग्रहं शरीरधारणार्थकमस्पृहत्वेऽपि परोपनीतं बाह्योपकारणं विमुच्य त्यक्त्वा शिखायज्ञोपवीतादिकमपि दण्डमेकं कमण्डलुं कौपीनाच्छादनं च शास्त्राभ्यनुज्ञातं स्वशरीरयात्रार्थमादाय परमहंसपरिव्राजको भूत्वा निर्ममो देहजीवनमात्रेऽपि ममकाररहितः? अतएवाहंकारममकाराभावादपगतहर्षविषादत्वात् शान्तश्चित्तविक्षेपरहितो यतिर्ज्ञानसाधनपरिपाकक्रमेण ब्रह्मभूयाय ब्रह्मसाक्षात्काराय कल्पते समर्थो भवति।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।18.53।।किञ्च -- अहङ्कारमिति। स्वज्ञानादिरूपं बलं सामर्थ्यं? दर्पं गर्वं? कामं विषयभोगरूपं? क्रोधं निष्ठुरवाक्यरूपं? परिग्रहं गृहस्त्र्यपत्यादिकं? निर्ममो ममतारहितः सन् विमुच्य त्यक्त्वा शान्तो भगवदनुभवाश्लिष्टो ब्रह्मभूयाय ब्रह्मात्मकस्वरूपावस्थानाय ब्राह्मेण ৷৷. [ब्र.सू.4।4।5] इत्यादिसूत्रोक्तरीत्या कल्पते समर्थो भवतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।18.53।। --,अहंकारम् अहंकरणम् अहंकारः देहादिषु तम्? बलं सामर्थ्यं कामरागसंयुक्तम् -- न इतरत् शरीरादिसामर्थ्यं स्वाभाविकत्वेन तत्त्यागस्य अशक्यत्वात् -- दर्पं दर्पो नाम हर्षानन्तरभावी धर्मातिक्रमहेतुः हृष्टो दृप्यति दृप्तो धर्ममतिक्रामति इति स्मरणात् तं च? कामम् इच्छां क्रोधं द्वेषं परिग्रहम् इन्द्रियमनोगतदोषपरित्यागेऽपि शरीरधारणप्रसङ्गेन धर्मानुष्ठाननिमित्तेन वा बाह्यः परिग्रहः? प्राप्तः तं च विमुच्य परित्यज्य? परमहंसपरिव्राजको भूत्वा? देहजीवनमात्रेऽपि निर्गतममभावः निर्ममः? अत एव शान्तः उपरतः? यः संहृतहर्षायासः यतिः ज्ञाननिष्ठः ब्रह्मभूयाय ब्रह्मभवनाय कल्पते समर्थो भवति।।अनेन क्रमेण --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।18.51 -- 18.53।।तथा हि बुद्ध्येति त्रिभिः। बुद्ध्या यथोक्तकर्मफलादित्यागाद्विशुद्धया साङ्ख्यमार्गीयया युक्तः योगेनाव्यभिचारिण्या धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च स्वान्तर्यामिध्यानैकनिष्ठः सर्वत्रानात्मत्वदृष्ट्या वैराग्यं समुपाश्रितः कर्मस्वहम्ममत्वरहितः शान्त इति पूर्वसूत्रितस्य भाष्यं फलितं तथाभूत आनन्दांशाविर्भूतो ब्रह्मभूयाय अक्षरब्रह्मात्मभावाय कल्पते? स्वात्मानंब्रह्माहमस्मि इति यथावदनुभवतीत्यर्थः। इतीयं स्वज्ञानस्य परा निष्ठा भगवद्गुणसाराविर्भावात्तद्व्यपदेशः प्राज्ञवदिति।


Chapter 18, Verse 53