Chapter 18, Verse 52

Text

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।18.52।।

Transliteration

vivikta-sevī laghv-āśhī yata-vāk-kāya-mānasaḥ dhyāna-yoga-paro nityaṁ vairāgyaṁ samupāśhritaḥ

Word Meanings

vivikta-sevī—relishing solitude; laghu-āśhī—eating light; yata—controls; vāk—speech; kāya—body; mānasaḥ—and mind; dhyāna-yoga-paraḥ—engaged in meditation; nityam—always; vairāgyam—dispassion; samupāśhritaḥ—having taken shelter of;


Translations

In English by Swami Adidevananda

Resorting to solitude, eating sparingly, restraining speech, body, and mind, ever engaged in the yoga of meditation and taking refuge in dispassion;

In English by Swami Gambirananda

One who resorts to solitude, eats sparingly, has control over their speech, body, and mind, for whom meditation and concentration are ever the highest duty, and who is possessed of dispassion;

In English by Swami Sivananda

Dwelling in solitude, eating sparingly, with speech, body, and mind subdued, always engaged in meditation and concentration, and resorting to dispassion.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Who enjoys solitude, eats sparingly, has controlled their speech, body, and mind; who is devoted to the practice of meditation and yoga; and who has taken refuge in perpetual desirelessness;

In English by Shri Purohit Swami

Enjoying solitude, being abstemious, having his body, mind, and speech under perfect control, and being absorbed in meditation, he becomes free—always filled with the spirit of renunciation.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.52।।जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धिसे युक्त, वैराग्यके आश्रित, एकान्तका सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके, शरीर-वाणी-मनको वशमें करके, शब्दादि विषयोंका त्याग करके और राग-द्वेषको छोड़कर निरन्तर ध्यानयोगके परायण हो जाता है, वह अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।18.52।। विविक्त सेवी, लघ्वाशी (मिताहारी) जिसने अपने शरीर, वाणी और मन को संयत किया है, ध्यानयोग के अभ्यास में सदैव तत्पर तथा वैराग्य पर समाश्रित।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

18.52 विविक्तसेवी dwelling in solitude? लघ्वाशी eating but little? यतवाक्कायमानसः speech? body and mind subdued? ध्यानयोगपरः engaged in meditation and concentration? नित्यम् always? वैराग्यम् dispassion? समुपाश्रितः resorting to.Commentary Solitude has its own charms. The spiritual vibrations in solitude are wonderfully elevating. Meditation will come by itself without exertion. All saints and sages who have attained Selfrealisation have remained in solitude for a number of years. You will have good meditation if you sit on the bank of a river? in a cave or on the seashore or in a jungle. During the Christmas and Easter holidays you can all enjoy the peace of solitude. It is very necessary to live in solitude at least for a month or a fortnight in a year for the householders. Instead of wasting time? energy and money in Calcutta or any other city? during the holidays? live in holy places like Rishikesh? Uttarakasi or Naimisaranya drink the nectar of peace in such places by doing Anushthana (intense and systematic spiritual practice) or Japa of a Mantra and attain immortality. If you once taste the bliss of solitude you will never forget it. Every year you will attempt to taste it again. He who takes too much food (a glutton) is ite unfit for meditation or the spiritual path. Too much food will produce laziness? a halfsleepy state and deep sleep also. Eat to live. Eat in moderation. You will have a light body and light? cheerful and serene mind. This will help you in your practice of meditation. Observe Mauna or the vow of silelnce for a week or a month. Observe the vow for two hours daily. Control the body. Practise Ahimsa and Brahmacharya. Meditate on the Self or on the Lord Hari with four hands? or on Lord Krishna? Rama or Siva. Be regular in your meditation and gradually increase the period of meditation from 15 minutes to 3 or 6 hours at a sitting. If you are a wholetimed aspirant? spend the whole time in meditation. If you are not able to do this? do Likhita Japa (writing the Mantra) and Kirtan (singing the Names and glories of the Lord). Study religious books in the interval. Only advanced aspirants can meditate for a long time. Watch the mind and cultivate dispassion. Energy will leak out through the senses if you are careless and nonvigilant. If energy leaks out? you cannot have good meditation. Dispassion is indifference to sensual enjoyments herein and hereafter? absence of desire for visible and invisible objects. You must have steady? lasting and sustained dispassion. It should not wane. It should be a constant attitude of the mind. You must be fully established in dispassion.In doing the Anushthana for 40 days live on milk and fruits or light diet. Take only 3 or 4 articles of food. Take one meal only. Sleep on the floor. Observe celibacy and the vow of silence. Do not come out of the room. Speak little if you do not observe perfect silence. Do the Anushthana on the banks of the Ganga or any sacred river. Try to do one or several Purascharanas of your Ishta Mantra. If there are five letters (syllables in English) in the Mantra? 500?000 repetitions of the Mantra will constitute one Purascharana.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.52।। व्याख्या --   बुद्ध्या विशुद्धया युक्तः -- जो सांख्ययोगी साधक परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना चाहता है? उसकी बुद्धि विशुद्ध अर्थात् सात्त्विकी (गीता 18। 30) हो। उसकी बुद्धिका विवेक साफसाफ हो? उसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह न हो।इस सांख्ययोगके प्रकरणमें सबसे पहले बुद्धिका नाम आया है। इसका तात्पर्य है कि सांख्ययोगीके लिये जिस विवेककी आवश्यकता है? वह विवेक बुद्धिमें ही प्रकट होता है। उस विवेकसे वह जडताका त्याग करता है।वैराग्यं समुपाश्रितः -- जैसे संसारी लोग रागपूर्वक वस्तु? व्यक्ति आदिके आश्रित रहते हैं? उनको अपना आश्रय? सहारा मानते हैं? ऐसे ही सांख्ययोगका साधक वैराग्यके आश्रित रहता है अर्थात् जनसमुदाय? स्थान आदिसे उसकी स्वाभाविक ही निर्लिप्तता बनी रहती है। लौकिक और पारलौकिक सम्पूर्ण भोगोंसे उसका दृढ़ वैराग्य होता है।विविक्तसेवी -- सांख्ययोगके साधकका स्वभाव? उसकी रुचि स्वतःस्वाभाविक एकान्तमें रहनेकी होती है। एकान्तसेवनकी रुचि होनी तो बढ़िया है? पर उसका आग्रह नहीं होना चाहिये अर्थात् एकान्त न मिलनेपर मनमें विक्षेप? हलचल नहीं होनी चाहिये। आग्रह न होनेसे रुचि होनेपर भी एकान्त न मिले? प्रत्युत समुदाय मिले? खूब हल्लागुल्ला हो? तो भी साधक उकतायेगा नहीं अर्थात् सिद्धिअसिद्धिमें सम रहेगा। परन्तु आग्रह होगा तो वह उकता जायगा? उससे समुदाय सहा नहीं जायगा। अतः साधकका स्वभाव तो एकान्तमें रहनेका ही होना चाहिये? पर एकान्त न मिले तो उसके अन्तःकरणमें हलचल नहीं होनी चाहिये। कारण कि हलचल होनेसे अन्तःकरणमें संसारकी महत्ता आती है और संसारकी महत्ता आनेपर हलचल होती है? जो कि ध्यानयोगमें बाधक है।एकान्तमें रहनेसे साधन अधिक होगा? मन भगवान्में अच्छी तरह लगेगा अन्तःकरण निर्मल बनेगा -- इन बातोंको लेकर मनमें जो प्रसन्नता होती है? वह साधनमें सहायक होती है। परन्तु एकान्तमें हल्लागुल्ला करनेवाला कोई नहीं होगा अतः वहाँ नींद अच्छी आयेगी? वहाँ किसी भी प्रकारसे बैठ जायँ तो कोई देखनेवाला नहीं होगा? वहाँ सब प्रकारसे आराम रहेगा? एकान्तमें रहनेसे लोग भी ज्यादा मानबड़ाई? आदर करेंगे -- इन बातोंको लेकर मनमें जो प्रसन्नता होती है? वह साधनमें बाधक होती है क्योंकि यह सब भोग है। साधकको इन सुखसुविधाओंमें फँसना नहीं चाहिये? प्रत्युत इनसे सदा सावधान रहना चाहिये।लघ्वाशी -- साधकका स्वभाव स्वल्प अर्थात् नियमित और सात्त्विक भोजन करनेका हो। भोजनके विषयमें हित? मित और मेध्य -- ये तीन बातें बतायी गयी हैं। हित का तात्पर्य है -- भोजन शरीरके अनुकूल हो। मितका तात्पर्य है -- भोजन न तो अधिक करे और न कम करे? प्रत्युत जितने भोजनसे शरीरनिर्वाह की जाय? उतना भोजन करे (गीता 6। 16)। भोजनसे शरीर पुष्ट हो जायगा -- ऐसे भावसे भोजन न करे? प्रत्युत केवल औषधकी तरह क्षुधानिवृत्तिके लिये ही भोजन करे? जिससे साधनमें विघ्न न पड़े। मेध्यका तात्पर्य है -- भोजन पवित्र हो।धृत्यात्मानं नियम्य च -- सांसारिक कितने ही प्रलोभन सामने आनेपर भी बुद्धिको अपने ध्येय परमात्मतत्त्वसे विचलित न होने देना -- ऐसी दृढ़ सात्त्विकी धृति (गीता 18। 33) के द्वारा इन्द्रियोंका नियमन करे अर्थात् उनको मर्यादामें रखे। आठों पहर यह जागृति रहे कि इन्द्रियोंके द्वारा साधनके विरुद्ध कोई भी चेष्टा न हो।यतवाक्कायमानसः -- शरीर? वाणी और मनको संयत (वशमें) करना भी साधकके लिये बहुत जरूरी है (गीता 17। 14 -- 16)। अतः वह शरीरसे वृथा न घूमे? देखनेसुननेके शौकसे कोई यात्रा न करे। वाणीसे वृथा बातचीत न करे? आवश्यक होनेपर ही बोले? असत्य न बोले? निन्दाचुगली न करे। मनसे रागपूर्वक संसारका चिन्तन न करे? प्रत्युत परमात्माका चिन्तन करे।शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा -- ध्यानके समय बाहरके जितने सम्बन्ध हैं? जो कि विषयरूपसे आते हैं और जिनसे संयोगजन्य सुख होता है? उन शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध -- पाँचों विषयोंका स्वरूपसे ही त्याग कर देना चाहिये। कारण कि विषयोंका रागपूर्वक सेवन करनेवाला ध्यानयोगका साधन नहीं कर सकता। अगर विषयोंका रागपूर्वक सेवन करेगा तो ध्यानमें वृत्तियाँ (बहिर्मुख होनेसे) नहीं लगेंगी और विषयोंका चिन्तन होगा।रागद्वेषौ व्युदस्य च -- सांसारिक वस्तु महत्त्वशाली है? अपने काममें आनेवाली है? उपयोगी है -- ऐसा जो भाव है? उसका नाम राग है। तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें असत् वस्तुका जो रंग चढ़ा हुआ है? वह राग है। असत् वस्तु आदिमें राग रहते हुए कोई उनकी प्राप्तिमें बाधा डालता है? उसके प्रति द्वेष हो जाता है।असत् संसारके किसी अंशमें राग हो जाय तो दूसरे अंशमें द्वेष हो जाता है -- यह नियम है। जैसे? शरीरमें राग हो जाय तो शरीरके अनुकूल वस्तुमात्रमें राग हो जाता है और प्रतिकूल वस्तुमात्रमें द्वेष हो जाता है।संसारके साथ रागसे भी सम्बन्ध जुड़ता है और द्वेषसे भी सम्बन्ध जुड़ता है। रागवाली बातका भी चिन्तन होता है और द्वेषवाली बातका भी चिन्तन होता है। इसलिये साधक न राग करे और न द्वेष करे।ध्यानयोगपरो नित्यम् -- साधक नित्य ही ध्यानयोगके परायण रहे अर्थात् ध्यानके सिवाय दूसरा कोई साधन न करे। ध्यानके समय तो ध्यान करे ही? व्यवहारके समय अर्थात् चलतेफिरते? खातेपीते? कामधंधा करते समय भी यह ध्यान (भाव) सदा बना रहे कि वास्तवमें एक परमात्माके सिवाय संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं (गीता 18। 20)।अहंकारं बलं दर्पं ৷৷. विमुच्य -- गुणोंको लेकर अपनेमें जो एक विशेषता दीखती है? उसे अहंकार कहते हैं। जबर्दस्ती करके? विशेषतासे मनमानी करनेका जो आग्रह (हठ) होता है? उसे बल कहते हैं। जमीनजायदाद आदि बाह्य चीजोंकी विशेषताको लेकर जो घमंड होता है? उसे दर्प कहते हैं। भोग? पदार्थ तथा अनुकूल परिस्थिति मिल जाय? इस इच्छाका नाम काम है। अपने स्वार्थ और अभिमानमें ठेस लगनेपर दूसरोंका अनिष्ट करनेके लिये जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है? उसको क्रोध कहते हैं। भोगबुद्धिसे? सुखआरामबुद्धिसे चीजोंका जो संग्रह किया जाता है? उसे परिग्रह (टिप्पणी प0 947.1) कहते हैं।साधक उपर्युक्त अहंकार? बल? दर्प? काम? क्रोध और परिग्रह -- इन सबका त्याग कर देता है।निर्ममः -- अपने पास निर्वाहमात्रकी जो वस्तुएँ हैं और कर्म करनेके शरीर? इन्द्रियाँ आदि जो साधन हैं? उनमें ममता अर्थात् अपनापन न हो (टिप्पणी प0 947.2)। अपना शरीर? वस्तु आदि जो हमें प्रिय लगते हैं? उनके बने रहनेकी इच्छा न होना निर्मम होना है।जिन व्यक्तियों और वस्तुओंको हम अपनी मानते हैं? वे आजसे सौ वर्ष पहले भी अपनी नहीं थीं और सौ वर्षके बाद भी अपनी नहीं रहेंगी। अतः जो अपनी नहीं रहेंगी? उनका उपयोग या सेवा तो कर सकते हैं? पर उनको,अपनी मानकर अपने पास नहीं रख सकते। अगर उनको अपने पास नहीं रख सकते तो वे अपने नहीं हैं ऐसा माननेमें क्या बाधा है उनको अपनी न माननेसे अधिक निर्मम हो जाता है।शान्तः -- असत् संसारके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही अन्तःकरणमें अशान्ति? हलचल आदि पैदा होते हैं। जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर अशान्ति कभी पासमें आती ही नहीं। फिर रागद्वेष न रहनेसे साधक हरदम शान्त रहता है।ब्रह्मभूयाय कल्पते -- ममतारहित और शान्त मनुष्य (सांख्ययोगका साधक) परमात्मप्राप्तिका अधिकारी बन जाता है अर्थात् असत्का सर्वथा सम्बन्ध छूटते ही उसमें ब्रह्मप्राप्तिकी योग्यता? सामर्थ्य आ जाती है। कारण कि जबतक असत् पदार्थोंके साथ सम्बन्ध रहता है? तबतक परमात्मप्राप्तिकी सामर्थ्य नहीं आती। सम्बन्ध --   उपर्युक्त साधनसामग्रीसे निष्ठा प्राप्त हो जानेपर क्या होता है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।18.52।। विविक्तसेवी पूर्व श्लोक में वर्णित गुणों से युक्त साधक को एकान्त में जाना चाहिए। एकान्तवासीस्वभाव के साधक को विवक्तसेवी कहते हैं। एकान्त के लिए किसी वनउपवन में ही जाने की आवश्यकता नहीं है। इससे तात्पर्य ऐसे स्थान से है? जहाँ बाह्य विक्षेपों की संख्या न्यूनतम हो। कोई व्यक्ति अपने घर में भी ऐसे समय का चयन कर सकता है? जब वहाँ विक्षेपों के कारण नहीं होते हैं।लघ्वाशी इस शब्द का अर्थ है मिताहारी। अत्यधिक भोजन करने से शरीर स्थूल और बुद्धि मन्द हो जाती है। समस्त साधकों के लिए परिमितता तो एक नियम ही है।यतवाक्कायमानस वाणी और शरीर से तात्पर्य कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से है। इन दोनों के वश में होने पर मन का संयम भी सरल हो जाता है। विषयग्रहण? तत्पश्चात् होने वाली प्रतिक्रियायें तथा मन को संयत करने का अर्थ इन सब कर्मों में अहंकार भाव का त्याग करना है।ध्यानयोगपर मन वृत्तिरूपी है। अत मन कभी निरालम्ब नहीं रह सकता। उसकी विषयाभिमुखी प्रवृत्ति को अवरुद्ध करने का एकमात्र उपाय यह है कि उसे चिन्तन के लिए कोई श्रेष्ठ ध्येय उपलब्ध कराया जाये। जिस मात्रा में वह उस ध्येय में समाहित होता जायेगा? उसी मात्रा में उसकी बहिर्मुखी प्रवृत्ति भी शान्त होती जायेगी। विषयों से निवृत्त करके मन को परमात्मा के स्वरूप में स्थित या समाहित करने का प्रयत्न ही ध्यानयोग कहा जाता है। साधक को इसकी साधना में सदैव तत्पर रहना चाहिए? क्योंकि मन के उपशमन का यही सर्वश्रेष्ठ साधन है।वैराग्य से युक्त वैराग्य राग का विरोधी नहीं है। राग का विरोधी तो द्वेष है। राग और द्वेष इन दोनों से ही मुक्त होना वैराग्य है। जब मनुष्य यह समझ लेता है कि विषयों में सुख नहीं है? तब उसका मन स्वत ही विषयों से विरत हो जाता है। वैराग्यशाली पुरुष विषयों से दूर नहीं भागता? वरन् वे विषय ही ऐसे पुरुष से निराश होकर भाग जाते हैं जैसेजैसे मनुष्य का विकास होता जाता है? वैसेवैसे उसकी अभिरुचियों में भी परिवर्तन आता है और उन परिवर्तनों के साथ ही अपनी पूर्व रुचियों की वस्तुओं में उसका कोई आकर्षण नहीं रह जाता। उदाहरणार्थ? जब तक कोई मनुष्य भोगी और विलासी प्रवृत्ति का होता है? उसका मित्र परिवार भी समान गुणों वाला रहता है। परन्तु जब वह राजनीतिक और सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगता है? तब उसका घर राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं से भरा रहने लगता है। कुछ समय बाद विचारों में और अधिक पक्वता आने पर वह पुरुष आध्यात्मिक स्वभाव का बन जाता है। उस स्थिति में सत्तावार्ता में रमने वाले राजनीतिज्ञ और ईर्ष्या तथा प्रतिस्प्ार्धा के भाव से पूर्ण सामाजिक कार्यकर्ता भी वहाँ से निवृत्त हो जाते हैं। अब उनका स्थान तत्त्वचिन्तक और आध्यात्मिक पुरुष ले लेते हैं। इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार मन के विकसित होने पर निम्न स्तर की वस्तुएं स्वत निवृत्त हो जाती हैं। यह वास्तविक वैराग्य है। इस वैराग्य में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।18.52।।देहस्थितिहेत्वतिरिक्तविषयत्यागो देहस्थित्यर्थेष्वपि तेषु रागद्वेषवर्जनमित्युपायभेदे सिद्धे सन्त्युपायान्तराण्यपि यत्नसाध्यानीत्याह -- तत इति। चित्तैकाग्र्यप्रसादार्थं विविक्तसेवित्वं व्याकरोति -- अरण्येति। निद्रादिदोषनिवृत्त्यर्थं लघ्वाशित्वं विशदयति -- लघ्विति। लघु परिमितं हितं मेध्यं चाशितुं शीलमस्येति तथोच्यते। विशेषणयोस्तात्पर्यं विवृणोति -- विविक्तेति। निद्रादीत्यादिशब्दादालस्यप्रमादादयो बुद्धिविक्षेपका विवक्षिताः। वक्ष्यमाणध्यानयोगयोरुपायत्वेन विशेषणान्तरं विभजते -- वाक्चेति। वागादिसंयमस्यावश्यकत्वद्योतनार्थं स्यादित्युक्तम्। संयतवागादिकरणग्रामस्यानायासेन कर्तव्यमुपदिशति -- एवमिति। मन्त्रजपादीत्यादिपदेन प्रदक्षिणप्रणामादयो ध्यानयोगप्रतिबन्धका गृहीताः। उक्तयोरेव ध्यानयोगयोरुपायत्वेनोक्तं विरागभावं विभजते -- दृष्टेति। सम्यक्त्वमेव व्यनक्ति -- नित्यमिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।18.52।।ततः विविक्तदेशसेवी वनगिरिगुहानदीपुलिनादीन्विविक्तान् जनसमुदायशून्यान् देशान्सेवितुं शीलमस्येति विविक्तदेशसेवी एतादृशस्य चित्तं विक्षेपाभावादेकाग्रं सत्प्रसन्नं भवति। निद्रादिदोषनिबन्धचित्ताप्रसादनिवृत्त्यार्थमाह -- लघ्वाशी हितमितमेध्याशनशीलः। यतानि वशीकृतानि वाक्कायमानसानि यस्य स ज्ञाननिष्ठाः यतवाक्कायमानसः। एवमुपरतसर्वकरणः सन् ध्यानयोगपरो ध्यानमात्मस्वरुपचिन्तनं? मनस आत्मस्वरुपविषय एकाग्रीकरणं योगः ध्यानयोगौ परत्वेन कर्तव्यौ यस्य स नित्यं सदैव ध्यायोगपरः। मन्त्रजपप्रदक्षिणप्रणामद्यन्यकर्तव्याभावप्रदर्शनार्थं नित्यग्रहणम्। ध्यानयोग्यपरत्वसिद्य्धर्थमाह। वैराग्यं विरागभावं दृष्टादृष्टेष्टविषयेषु वैतृष्णयं समुपाश्रितः सम्यङ् निश्चलत्वेन नित्यमेवाश्रितः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।18.52।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।18.52।।केन साधनजातेनैवंभूतो भवतीत्यत आह -- विविक्तेति। यत्तच्छब्दाध्याहारेण योज्यम्। नित्यमिति सर्वत्र संबन्धनीयम्। यो नित्यं विविक्तसेवी एकान्तशीली। लघ्वाशी मिताशनशीलश्च। तथा नित्यं वैराग्यं रागाभावं समुपाश्रितश्च। तथा नित्यं ध्यानयोगः षष्ठाध्यायोक्तस्तत्परश्च यो नित्यं भवति स यतवाक्कायमानसो भवति। यतकाय आसनदार्ढ्येन। यतवाग् विषयेभ्य इन्द्रियाणां प्रत्याहरणेन। यतमानसः सर्वसंकल्पत्यागेन। अत्र चतुर्भिः साधनैर्यतवाक्कायमानसत्वं साध्यम्। नित्यं विविक्तसेवादिशीलः सन् यतवाक्कायमानसो भूत्वा ब्रह्मभूयाय कल्पत इत्युत्तरेणान्वयः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।18.52।।बुद्ध्या विशुद्धया यथावस्थितात्मतत्त्वविषयया युक्तः? धृत्या आत्मानं नियम्य च,विषयविमुखीकरणेन योगयोग्यं मनः कृत्वा? शब्दादीन् विषयान् त्यक्त्वा असन्निहितान् कृत्वा? तन्निमित्तौ च रागद्वेषौ व्युदस्य? विविक्तसेवी सर्वैः ध्यानविरोधिभिः विविक्ते देशे वर्तमानः लघ्वाशी अत्यशनानशनरहितः? यतवाक्कायमानसः ध्यानाभिमुखीकृतकायवाङ्मनोवृत्तिः? ध्यानयोगपरो नित्यम् एवं भूतः सन् आप्रयाणाद् अहरहः ध्यानयोगपरः? वैराग्यं समुपाश्रितः ध्येयतत्त्वव्यतिरिक्तविषयदोषावमर्शेन तत्र विरागतां वर्धयन् अहंकारम्? अनात्मनी आत्माभिमानं बलं तद्विवृद्धिहेतुभूतं वासनाबलं तन्निमित्तं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहं विमुच्य? निर्ममः सर्वेषु अनात्मीयेषु आत्मीयबुद्धिरहितः शान्तः आत्मानुभवैकसुखः? एवंभूतो ध्यानयोगं कुर्वन् ब्रह्मभूयाय कल्पते ब्रह्मभावाय कल्पते सर्वबन्धविनिर्मुक्तो यथावस्थितम् आत्मानम् अनुभवति इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।18.52।।किंच -- विविक्तेति। विविक्तसेवी शुद्धदेशावस्थायी लध्वाशी मितभोजी एतैरुपायैर्यतवाक्कायमानसः संयतवाग्देहचित्तो भूत्वा नित्यं सर्वदा ध्यानेन यो योगो ब्रह्मसंस्पर्शस्तत्परः सन् ध्यानाविच्छेदार्थं पुनः पुनर्दृढं वैराग्यं सम्यगुपाश्रितो भूत्वा।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 18.52 बुद्धिशब्दोऽत्र प्रस्तुतब्रह्मशब्दाभिप्रेतविषयबुद्धिगोचरः? तस्याः शुद्धिश्चासमग्रविषयत्वसंशयविपर्ययरूपदोषराहित्यमित्याहयथावस्थितात्मतत्त्वविषययेति।धृत्या इति पूर्वोक्तसप्रकारसात्त्विकधृतिपरामर्शमाहविषयविमुखीकरणेनेति। अत्र धृत्या मनोनियमनं कर्मोक्तम् अपि च पूर्वमेव त्यक्तविषयस्य कोऽसौ तदानीन्तनस्त्यागः इत्यत्राऽऽहअसन्निहितान् कृत्वेति। विषयसन्निधिर्हि विजितेन्द्रियमपि क्षोभयेदिति भावः।रागद्वेषौ व्युदस्य इति वैषयिकरागद्वेषयोर्व्युदासस्यापि तादात्विकविषयत्वायवैराग्यं समुपाश्रितः इत्यनेन पुनरुक्तिपरिहाराय चाऽऽहतन्निमित्ताविति। एतेन विषयासन्निधानफलप्रदर्शनम्। यद्वा विप्रकृष्टेष्वपि सूक्ष्मसङ्गो निरोद्धव्य इति भावः। विविक्तत्वं रहितत्वम् तत्प्रकृतोपयोगेन विशिनष्टि -- सर्वैर्ध्यानविरोधिभिर्विविक्ते देश इति।लघ्वाशी इत्यनेन पूर्वोक्तंनात्यश्नतः [6।16] इत्यादिकं स्मार्यत इत्यत्राऽऽहअत्यशनानशनरहित इति।धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च इत्यादिनायतवाक्कायमानसः इत्यस्य पुनरुक्तिपरिहारायाहध्यानाभिमुखीकृतकायवाङ्मनोवृत्तिरिति। कायस्याभिमुखीकरणं स्थिरासनादिपरिग्रहः वाचस्तु प्रणवादिव्यतिरिक्तवर्जनम् मनसस्तु शुभाश्रयालम्बनम्। उक्तानां ध्यानयोगशेषत्वमाहएवम्भूतः सन्निति। नित्यशब्दविवक्षितमाहआप्रयाणादहरहरितिरागद्वेषौ व्युदस्य इति वैषयिकरागद्वेषयोर्व्युदासोक्तेःवैराग्यं समुपाश्रितः इत्येतदाभिमानिकविषयम्? तत्र सम्यगुपाश्रयणं पूर्वसिद्धस्यापि सम्यगवस्थापनमित्यभिप्रायेणविरागतां वर्धयन्नित्युक्तम्। एवमहङ्कारादिविमोचनेऽपि द्रष्टव्यम्।शरीरमनःप्राणादिबलानां योगविरोधित्वाभावात्वासनाबलमिति विशेषितम्। दर्पोऽत्राहङ्कारबलहेतुकोऽङ्गीकर्तव्यानङ्गीकारः। योगित्वशान्तत्वादिनिमित्तोऽपि दर्पस्त्याज्यःहृष्टो दृप्यति दृप्तो धर्ममतिक्रामति [आ.ध.सू.1।13।4] इति स्मरणात्। मनोवाक्कायव्यापारनिवृत्त्यादेरुक्तत्वाच्छान्तशब्दोऽत्र शमहेतुविशेषपर इत्यत्राऽऽहआत्मानुभवैकसुख इति। इन्द्रियव्यापारोपरतिः क्रोधादिनिवृत्तिश्च बाह्यसुखनिस्स्पृहत्वात्? तच्च प्रभूतात्मस्वसुखलाभादिति भावः। उक्तेषु सर्वेषु ध्यानयोगस्याङ्गित्वमाहएवम्भूतो ध्यानयोगं कुर्वन्निति। ध्यानमेवात्र योगः? ध्यानेन वा योगः। अनन्तरश्लोकार्थपरामर्शेन ब्रह्मशब्दस्यात्र शुद्धात्मविषयतामाहसर्वबन्धेति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च,न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।18.52।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।18.52।।विविक्तसेवीति। विविक्तं जनसंमर्दरहितं पवित्रं च यदरण्यगिरिगुहादि तत्सेवितुं शीलं यस्य स चित्तैकाग्र्यसम्पत्त्यर्थं तद्विक्षेपकारिरहित इत्यर्थः। लघ्वाशी लघु परिमितं हितं मेध्यं चाशितुं शीलं यस्य सः। निद्रालस्यादि चित्तलयकारिरहित इत्यर्थः। यतानि संयतानि वाक्कायमानसानि येन सः। यमनियमासनादिसाधनसंपन्न इत्यर्थः। ध्यानयोगपरो नित्यं चित्तस्यात्माकारप्रत्ययावृत्तिर्ध्यानम्? आत्माकारप्रत्ययेन निर्वृत्तिकतापादनं योगः? नित्यं सदैव तत्परस्तयोरनुष्ठानपरो नतु मन्त्रजपतीर्थयात्रादिपरः कदाचिदित्यर्थः। वैराग्यं दृष्टादृष्टविषयेषु स्पृहाविरोधि चित्तपरिणामं समुपाश्रितः सम्यङ्निश्चलत्वेन नित्यमाश्रितः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।18.52।।किञ्च। विविक्तसेवी एकान्ते मत्सेवनपरः? लब्धाशी लब्धः प्राप्तो यो मत्प्रसादो लाभरूपस्तद्भोजनकृत्। यतवाक्कायमानसः यतानि वशीकृतानि कायवाङ्मनांसि येन सः। तथा हि -- वचनेन मन्नामकथाद्यतिरिक्तं न वदति? कायश्च मत्सेवातिरिक्तकार्ये नोपयाति? मनोऽपि मदन्यन्न स्मरति। नित्यं ध्यानयोगपरः। ध्यानेन यो योगो मत्संयोगस्तस्मिन् परस्तत्परः वैराग्यं सर्ववस्तुदोषालोचनात्मकं समुपाश्रितः सम्यक् उप समीपे आश्रितः। अनेन विकारसत्त्वेऽपि तद्राहित्यं निरूपितम्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।18.52।। --,विविक्तसेवी अरण्यनदीपुलिनगिरिगुहादीन् विविक्तान् देशान् सेवितुं शीलम् अस्य इति विविक्तसेवी? लघ्वाशी लघ्वशनशीलः -- विविक्तसेवालघ्वशनयोः निद्रादिदोषनिवर्तकत्वेन चित्तप्रसादहेतुत्वात् ग्रहणम् यतवाक्कायमानसः वाक् च कायश्च मानसं च यतानि संयतानि यस्य ज्ञाननिष्ठस्य सः ज्ञाननिष्ठः यतिः यतवाक्कायमानसः स्यात्। एवम् उपरतसर्वकरणः सन् ध्यानयोगपरः ध्यानम् आत्मस्वरूपचिन्तनम्? योगः आत्मविषये एकाग्रीकरणम् तौ परत्वेन कर्तव्यौ यस्य सः ध्यानयोगपरः नित्यं नित्यग्रहणं मन्त्रजपाद्यन्यकर्तव्याभावप्रदर्शनार्थम्? वैराग्यं विरागस्य भावः दृष्टादृष्टेषु विषयेषु वैतृष्ण्यं समुपाश्रितः सम्यक् उपाश्रितः नित्यमेव इत्यर्थः।।किं च --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।18.51 -- 18.53।।तथा हि बुद्ध्येति त्रिभिः। बुद्ध्या यथोक्तकर्मफलादित्यागाद्विशुद्धया साङ्ख्यमार्गीयया युक्तः योगेनाव्यभिचारिण्या धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च स्वान्तर्यामिध्यानैकनिष्ठः सर्वत्रानात्मत्वदृष्ट्या वैराग्यं समुपाश्रितः कर्मस्वहम्ममत्वरहितः शान्त इति पूर्वसूत्रितस्य भाष्यं फलितं तथाभूत आनन्दांशाविर्भूतो ब्रह्मभूयाय अक्षरब्रह्मात्मभावाय कल्पते? स्वात्मानंब्रह्माहमस्मि इति यथावदनुभवतीत्यर्थः। इतीयं स्वज्ञानस्य परा निष्ठा भगवद्गुणसाराविर्भावात्तद्व्यपदेशः प्राज्ञवदिति।


Chapter 18, Verse 52