Chapter 18, Verse 49

Text

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।18.49।।

Transliteration

asakta-buddhiḥ sarvatra jitātmā vigata-spṛihaḥ naiṣhkarmya-siddhiṁ paramāṁ sannyāsenādhigachchhati

Word Meanings

asakta-buddhiḥ—those whose intellect is unattached; sarvatra—everywhere; jita-ātmā—who have mastered their mind; vigata-spṛihaḥ—free from desires; naiṣhkarmya-siddhim—state of actionlessness; paramām—highest; sanyāsena—by the practice of renunciation; adhigachchhati—attain


Translations

In English by Swami Adidevananda

He whose understanding is unattached on all sides, whose self is controlled, who is free from desires—he attains the supreme perfection transcending all activity through renunciation.

In English by Swami Gambirananda

He whose intellect remains unattached to everything, who has conquered his internal organs and is desireless, attains through monasticism the supreme perfection consisting of the state of one free from duties.

In English by Swami Sivananda

He whose intellect is unattached everywhere, who has subdued his self, from whom desire has fled, he attains the supreme state of freedom from action through renunciation.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

He, whose mind entertains no attachment to anything, who is self-controlled and is free from craving—he attains, by means of renunciation, the supreme success of actionlessness.

In English by Shri Purohit Swami

He whose mind is entirely detached, who has conquered himself, and whose desires have vanished, reaches that stage of perfect freedom through his renunciation, where action completes itself and leaves no seed.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.49।।जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्तिरहित है, जिसने शरीरको वशमें कर रखा है, जो स्पृहारहित है, वह मनुष्य सांख्ययोगके द्वारा नैष्कर्म्य-सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।18.49।। सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धि वाला वह पुरुष जो स्पृहारहित तथा जितात्मा है, संन्यास के द्वारा परम नैर्ष्कम्य सिद्धि को प्राप्त होता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

18.49 असक्तबुद्धिः whose intellect is unattached? सर्वत्र eveywhere? जितात्मा who has subdued his self? विगतस्पृहः whose desire has fled? नैष्कर्म्यसिद्धिम् the perfection consisting in freedom from action? परमाम् the supreme? संन्यासेन by renunciaion? अधिगच्छति (he) attains.Commentary The mind of one who is free from attachment to wife? son? body and property? who has controlled his senses and the mind? who has no desire for the body? for life and for sensual pleasure? turns inwards towards God or the immortal Self. It is not attracted by the sensual objects of the world. It is filled with dispassion and discrimination.He gradually gets himself established in his own Self which is of the nature of ExistenceKnowledgeBliss. Such a person who has knowledge of the Self attains to the highest perfection? to pefect freedom from action by renunciation.Ignorance is destroyed by the attainment of the knowledge of the Self. There is cessation of activity. One may perform actions for the solidarity of the world and yet he will not be bound by actions as he has attained absolute freedom from action through the knowledge of the Self. The fire of knowledge has burnt the fruitbearing effects of Karmas or actions. He has no idea of agency as he is absolutely free from egoism? as he has identified himself with the Supreme Being.Naishkarmya siddhi may also mean the attainment of the state of Naishkarmya. In this exalted? magnanimous? ineffable state of divine splendour and glory? one remains as the actionless Self. This is the state of immediate liberation of the Vedantins (Kaivalya Moksha or Sadyomukti). This marvellous state is attained by renunciation or right knowledge or by the renunciation of all actions brought about by the attainment of the knowledge of the Self. Mentally renouncing all actions and selfcontrolled? the embodied one rests happily in the ninegated? city? neither acting nor causing others to act. (Cf.V.13)Now the Lord teaches in the next verse how a man who? having attained perfection as described above in verse 46? by doing his duty in the service of the Lord can attain perfect freedom from action. He gets discrimination? practises constant meditation and rests in the knowledge of the immutable Self.,(Cf.III.4and19)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.49।। व्याख्या --   संन्यास(सांख्य) योगका अधिकारी होनेसे ही सिद्धि होती है। अतः उसका अधिकारी कैसा होना चाहिये -- यह बतानेके लिये श्लोकके पूर्वार्द्धमें तीन बातें बतायी हैं --,(1) असक्तबुद्धिः सर्वत्र -- जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्तिरहित है अर्थात् देश? काल? घटना? परिस्थिति? वस्तु? व्यक्ति? क्रिया? पदार्थ आदि किसीमें भी जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती।(2) जितात्मा -- जिसने शरीरपर अधिकार कर लिया है अर्थात् जो आलस्य? प्रमाद आदिसे शरीरके वशीभूत नहीं होता? प्रत्युत इसको अपने वशीभूत रखता है। तात्पर्य है कि वह किसी कार्यको अपने सिद्धान्तपूर्वक करना चाहता है तो उस कार्यमें शरीर तत्परतासे लग जाता है और किसी क्रिया? घटना? आदिसे हटना,चाहता है तो वह वहाँसे हट जाता है। इस प्रकार जिसने शरीरपर विजय कर ली है? वह जितात्मा कहलाता है।(3) विगतस्पृहः -- जीवनधारणमात्रके लिये जिनकी विशेष जरूरत होती है? उन चीजोंकी सूक्ष्म इच्छाका नाम स्पृहा है जैसे -- सागपत्ती कुछ मिल जाय? रूखीसूखी रोटी ही मिल जाय? कुछनकुछ खाये बिना हम कैसे जी सकते हैं जल पीये बिना हम कैसे रह सकते हैं ठण्डीके दिनोंमें कपड़े बिलकुल न हों तो हम कैसे जी सकते हैं सांख्ययोगका साधक इन जीवननिर्वाहसम्बन्धी आवश्यकताओंकी भी परवाह नहीं करता।तात्पर्य यह हुआ कि सांख्ययोगमें चलनेवालेको जडताका त्याग करना पड़ता है। उस जडताका त्याग करनेमें उपर्युक्त तीन बातें आयी हैं। असक्तबुद्धि होनेसे वह जितात्मा हो जाता है? और जितात्मा होनेसे वह विगतस्पृह हो जाता है? तब वह सांख्ययोगका अधिकारी हो जाता है।नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति -- ऐसा असक्तबुद्धि? जितात्मा और विगतस्पृह पुरुष सांख्ययोगके द्वारा परम नैष्कर्म्यसिद्धिको अर्थात् नैष्कर्म्यरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है। कारण कि क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है और जब स्वयंका उस क्रियाके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता? तब कोई भी क्रिया और उसका फल उसपर किञ्चिन्मात्र भी लागू नहीं होता। अतः उसमें जो स्वाभाविक? स्वतःसिद्ध निष्कर्मता -- निर्लिप्तता है? वह प्रकट हो जाती है। सम्बन्ध --   अब उस परम सिद्धिको प्राप्त करनेकी विधि बतानेकी प्रतिज्ञा करते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।18.49।। हमको यह स्मरण रखना चाहिए कि सम्पूर्ण गीतोपदेश उस अर्जुन के लिए दिया गया था? जो युद्ध भूमि पर कर्तव्य की विशालता को देखकर संभ्रमित हो गया था। वह युद्ध से पलायन कर? जंगलों में स्वकल्पित धारणा के अनुसार संन्यास का जीवन जीना चाहता था। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि सांसारिक जीवन तथा उसके कर्तव्यों से दूर भागना संन्यास नहीं है। इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण नैर्ष्कम्य सिद्धि की परिभाषा देते हैं? जिसका साधन संन्यास है। संन्यास का अर्थ है शरीर? मन और बुद्धि उपाधियों के साथ हुए अपने तादात्म्य का त्याग करना। अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में निष्ठा प्राप्त करना ही नैर्ष्कम्य सिद्धि है।जब हम अपने आत्मस्वरूप को विस्मृत कर देते हैं? तब कर्तृत्व भोक्तृत्व अभिमानी जीव की उत्पत्ति होती है। तत्पश्चात् हमारा समस्त व्यवहार जीव के रूप में ही होता है। लौकिक जगत् में भी? मद्यपान से उन्मत्त पुरुष में इस प्रकार की आत्मविस्मृति देखी जाती है। वह अपने व्यक्तित्व और पद को विस्मृत कर किसी अन्य रूप में ही व्यवहार करने लगता है। इस मादक उन्मत्तता में वह अपनी शिक्षादीक्षा? सभ्यता और संस्कृति को अपमानित करता हुआ निन्दनीय व्यवहार करता है। जब तक उस मादक पेय का प्रभाव बना रहता है? तब तक वह इसी प्रकार निन्द्य व्यवहार करता रहता है।आत्म अज्ञान के कारण अभिमानी जीव की उत्पत्ति होती है। आत्मज्ञान से इस अज्ञान का नाश हो जाने पर जीव को अपने परिपूर्ण सच्चिदानन्द स्वरूप का अनुभव होता है। उस पूर्ण के पूर्ण अनुभव में अपूर्णता का भान कहाँ और अपूर्णता न हो? तो कामना की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती। कामना के अभाव में विचारों का संचलन ही अवरुद्ध हो जाता है? और इस प्रकार सुख की प्राप्ति के लिए कर्म करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। यह स्थिति परम नैर्ष्कम्य सिद्धि कही जा सकती है।वेदान्त दर्शन में वर्णित नैर्ष्कम्य सिद्धि परमानन्द के अनुभव की वह स्थिति है? जिसमें अज्ञान? काम? विचार और कर्म का सर्वथा अभाव है। वेदान्तरूपी अध्यात्मिकमनोविज्ञान में हम कह सकते हैं कि अज्ञान कर्म का प्रपितामह है अत यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वस्वरूप में संस्थिति ही नैर्ष्कम्य सिद्धि है। इसे ही निर्विकल्प अथवा निष्कामत्व की स्थिति भी कहते हैं।इस श्लोक में गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण यह स्पष्ट घोषणा करते हैं कि नैर्ष्कम्य की परम सिद्धि को प्राप्त होने का साधन ज्ञानलक्षण संन्यास है। जीवन संघर्षों से तुच्छ प्रकार के अशोभनीय पलायन के द्वारा इस पूर्णत्व की स्थिति को प्राप्त नहीं किया जा सकता। स्वधर्म के पालन द्वारा हमको चित्तशुद्धि प्राप्त करनी चाहिए और तदुपरान्त ही संन्यास अर्थात् आत्मबोध के द्वारा स्वस्वरूप में दृढ़स्थिति प्राप्त की जा सकती है। क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का युद्ध से विरत होना उपयुक्त नहीं था। अत भगवान् श्रीकृष्ण उसे उसके स्वधर्म में प्रवृत्त करते हैं।सर्वत्र असक्त बुद्धि यह सुविदित तथ्य है कि विषयों में आसक्त पुरुष को कभी मनशान्ति नहीं प्राप्त होती। आसक्ति के कारण मन क्षुब्ध रहता है और दुर्बल शरीर मन की इच्छा के अनुसार काम करते हुए थक जाता है। मुण्डन किया हुआ मस्तक अर्थात् वह बुद्धि जो समस्त प्रकार की आसक्तियों से मुक्त है? वही उस परमात्मा को प्रकट कर सकती है? जो समस्त उपाधियों को चेतना प्रदान करता है। यह वास्तविक नैर्ष्कम्य सिद्धि है और एक साधन सम्पन्न उत्तम अधिकारी ही इसे प्राप्त कर सकता है।अर्जुन की संन्यास की इच्छा बन्धुमित्र परिवार के प्रति आसक्ति के कारण उत्पन्न हुई थी? अनासक्ति से नहीं। इसलिए? वह इच्छा मिथ्या ही थी।जितात्मा और विगतस्पृह जिस पुरुष के मन में विषयभोग की किंचिन्मात्र भी लालसा नहीं रह गयी है (विगतस्पृह)? केवल वही पुरुष जितात्मा अर्थात् पूर्ण आत्मसंयमी बन सकता है।मन और बुद्धि में ही क्रमश कर्तृत्व और भोकतृत्व के अभिमान निवास करते हैं। इन दोनों अभिमानों का संयुक्त रूप ही जीव कहलाता है। संसार में इस जीव का अस्तित्व बने रहने के कारण विषयों में उसकी स्पृहा है। सम्यक् विवेचन द्वारा यह जानकर कि विषयों में सुख नहीं होता? यह स्पृहा नष्ट की जा सकती है। उसी प्रकार? आत्मा और अनात्मा के विवेक के द्वारा आत्मबोध होने पर जीवभाव का भी अन्त हो जाता है। गीता इस बात को बारम्बार दोहराते हुए कभी नहीं थकती कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए आत्मसंयम एवं स्पृहा समाप्ति अपरिहार्य गुण हैं। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि नैर्ष्कम्य सिद्धि कोई अप्राप्त और नवीन स्थिति की प्राप्ति नहीं है? वरन् अज्ञान जनित आसक्तियों के त्याग से अपने स्वरूप की पहचान मात्र है। यह स्वत सिद्ध साध्य की सिद्धि है।भगवान् श्रीकृष्ण आगे कहते हैं।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।18.49।।विदुषः सर्वकर्मत्यागेऽपि नाविदुषस्तथेत्युक्तम्? इदानीमुक्तमनूद्यानन्तरश्लोकतात्पर्यमाह -- या च कर्मजेति। चोऽवधारणार्थो भिन्नक्रमो वक्तव्य इत्यत्र संबध्यते। साधनान्युपदिशन्नैष्कर्म्यसिद्धिं व्यपदिशति -- असक्तेति। पुत्रादिविषये चेतसः सङ्गाभावेऽपि तस्यास्वाधीनत्वमाशङ्क्याह -- जितात्मेति। असक्तिमुक्त्वा स्पृहाभावं वदता पुनरुक्तिरिष्टेत्याशङ्क्याह -- देहेति। उक्तमनूद्य तत्फलं लम्भयति -- य एवमिति। कर्मणां निर्गतौ हेतुमाह -- निष्क्रियेति। सम्यग्ज्ञानार्थत्वेन नैष्कर्म्यसिद्धिशब्दं व्याख्यायार्थान्तरमाह -- नैष्कर्म्यस्येति। प्रकर्षमेव प्रकटयति -- कर्मजेति। संन्यासस्य श्रुतिस्मृत्योः सम्यग्दर्शनत्वाप्रसिद्धेरयुक्तं तादात्म्यमित्याशङ्क्य पक्षान्तरमाह -- तत्पूर्वकेणेति। संन्यासान्नैष्कर्म्यप्राप्तिरित्यत्र वाक्योपक्रमानुकूल्यमाह -- तथाचेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।18.49।।ज्ञाननिष्ठायोग्यतालक्षणायाः कर्मजायाः सिद्धेः फलभूतां ज्ञाननिष्ठालक्षणां नैष्कर्म्यसिद्धिमाह -- असक्तेति। सर्वत्र सक्तिनिमित्तेषु पुत्रदारादिष्वसक्तबुद्धिरसक्ता सङ्गरहिता बुद्धिरन्तःकरणं यस्य स यतो जितो वशीकृत आत्मान्तःकरणं यस्य स जितात्मा। अतएव विगता स्पृहा देहजीवभोगेषु तृष्णा यस्मात्स य एवंभूत आत्मज्ञः स नैष्कर्म्यसिद्धिं निर्गतानि कर्माणि यस्मात् निष्क्रयात्मसंबोधात् स निष्कर्मा तस्य भावो नैष्कर्म्यं तच्च तत्सिद्धिश्च सा नैष्कर्म्यस्य निष्क्रियात्मस्वरुपावस्थानलक्षणस्य सिद्धिर्निवृत्तिरिति वा तां परमां कर्मजायाः सिद्धेः प्रकृष्टां सद्योमुक्त्यवस्थानरुपां संन्यासंन सभ्यग्दर्शनेन तत्पूर्वकेण वा सर्वकर्मसंन्यासंनाधिगच्छति प्राप्नोति। तदुक्तंसर्वकर्माणि मनसा सन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् इति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।18.49।।नैष्कर्म्यसिद्धिं? नैष्कर्म्यफलां योगसिद्धिम्।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।18.49।।स्वकर्मणामीश्वरे समर्पणं कर्तव्यमित्युक्त्वानन्तरश्लोकद्वयेन स्वकर्मणामावश्यकत्वमुक्त्वा तेषां परमेश्वरेऽर्पणेन किं फलं स्यादित्यत आह -- असक्तेति। संन्यासेनकार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।,सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः इति पूर्वोक्तेनामुख्यसात्त्विकत्यागेन। असक्तबुद्धिः पुत्रदारादिषु सक्तिपदेषु आसक्तिवर्जिता बुद्धिर्यस्य सोऽसक्तबुद्धिः विरक्त इत्यर्थः। अतएव जितात्मा शान्तचित्तः। विगतस्पृहः विशेषेण गता स्पृहा तृष्णा यस्य तादृशो भूत्वा नैष्कर्म्यसिद्धिं कात्स्न्र्येन स्वरूपतः कर्मत्यागलक्षणां पारिव्राज्यसिद्धिं परमां पूर्वोक्तामुख्यत्यागापेक्षयातिश्रेष्ठां न द्वेष्ट्यकुशलं कर्मेति श्लोके व्याख्यातां अधिगच्छति प्राप्नोति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।18.49।।सर्वत्र फलादिषु असक्तबुद्धिः जितात्मा जितमनाः परमपुरुषकर्तृत्वानुसन्धानेन आत्मकर्तृत्वे विगतस्पृहः एवं त्यागाद् अनन्यत्वेन निर्णीतेन संन्यासेन युक्तः कर्म कुर्वन् परमां नैष्कर्म्यसिद्धिम् अधिगच्छति। परमां ध्याननिष्ठां ज्ञानयोगस्य अपि फलभूताम् अधिगच्छति इत्यर्थः। वक्ष्यमाणध्यानयोगावाप्तिं सर्वेन्द्रियकर्मोपरतिरूपाम् अधिगच्छति।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।18.49।।ननु कथं कर्मणि क्रियमाणे दोषांशप्रहाणेन गुणांश एव संपत्स्यत इत्यपेक्षायामाह -- असक्तेति। असक्ता सङ्गशून्या बुद्धिर्यस्य? जितात्मा निरहंकारः? विगतस्पृहो विगता स्पृहा फलविषयेच्छा यस्मात्स एवंभूतेनस त्यागः सात्त्विको मत इत्येवं पूर्वोक्तेन कर्मासक्तितत्फलयोस्त्यागलक्षणेन संन्यासेन नैष्कर्म्यसिद्धिं सर्वकर्मनिवृत्तिलक्षणां सत्त्वशुद्धिमधिगच्छति। यद्यपि सङ्गफलयोस्त्यागेन कर्मानुष्ठानमपि नैष्कर्म्यमेव? कर्तृत्वाभिनिवेशाभावात्। तदुक्तम् -- नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्वित् इत्यादिश्लोकचतुष्टयेन? तथाप्यनेनोक्तलक्षणेन संन्यासेन परमां नैष्कर्म्यसिद्धिम्सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी इत्येवंलक्षणां पारमहंस्यापरपर्यायां प्राप्नोति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।18.49।।सर्वत्रासक्तबुद्धिः इत्युक्तेऽपि पुनःविगतस्पृहः इत्येतत्फलसङ्गनिवृत्तिरूपत्यागसहपठितकर्तृत्वत्यागविषयत्वौचित्यात् स्वप्नादिष्वपि स्वात्मनि कर्तृत्वानुसन्धानप्रसङ्गनिवृत्तिरूपत्यागकाष्ठाविवक्षयेत्याहआत्मकर्तृत्वे विगतस्पृह इति।सन्न्यासेनाधिगच्छति इति न ज्ञानयोगादिपरं?कर्म न त्यजेत् इति प्रकृतानन्वयात्? अध्यायारम्भोक्तसन्न्यासविषयत्वौचित्याच्चेत्यभिप्रायेणाऽऽहएवं त्यागादनन्यत्वेन निर्णीतेनेति। अत्र नैष्कर्म्यसिद्धिशब्दो न मोक्षविषयःसिद्धिं प्राप्तः इत्यादिना पुनः कर्तव्यविधानात्? नापि ज्ञानयोगमात्रविषयः?परमाम् इति विशेषणान्नैष्कर्म्यशब्दमात्रेण च तद्विवक्षोपपत्तेः। अतोऽत्र ज्ञाननिष्ठाफलप्रारम्भो विवक्षित इत्यभिप्रायेणाऽऽहपरमां ध्याननिष्ठामिति।नैष्कर्म्यसिद्धिम् इति समासवशात्परमत्वविशेषणशक्त्या वा सिद्धिं,विवृणोति -- ज्ञानयोगस्यापि फलभूतामिति। उक्तार्थपरत्वमुत्तरग्रन्थानुगुण्येनाऽऽह -- वक्ष्यमाणध्यानयोगावाप्तिमित्यादिना। निर्गतकर्मा निष्कर्मा? तस्य भावो नैष्कर्म्यमिति व्युत्पत्तिं व्यनक्तिसर्वेन्द्रियकर्मोपरतिरूपामिति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।18.49।।नैष्कर्म्यसिद्धिं मोक्षमिति केचित्? तदसत् तदनन्तरं मां विशते इति वाक्यशेषविरोधादिति भावेनान्यथा व्याचष्टे -- नैष्कर्म्येति। नैष्कर्म्यार्था सिद्धिर्नैष्कर्म्यसिद्धिः। सा च योगस्येत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।18.49।।कः पुनः सर्वकर्मत्यागासमर्थो यो नित्यानित्यवस्तुविवेकजेनेहामुत्रार्थभोगवैराग्येण शमदमादिसंपन्नः कर्मजां सिद्धिमशुद्धिपरिक्षयद्वारा मुमुक्षुः शुद्धब्रह्मात्मैक्यजिज्ञासां प्राप्तः स स्वेष्टमोक्षहेतुब्रह्मात्मैक्यज्ञानसाधनवेदान्तवाक्यश्रवणादि कर्तुं सर्वविक्षेपनिवृत्त्या तच्छेषभूतं सर्वकर्मसंन्यासं श्रुतिस्मृतिविहितं कुर्यादेव।तस्मादेवंविच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत् इति श्रुतेःसत्यानृते सुखदुःखे वेदानिमं लोकममुं च परित्यज्यात्मानमन्विच्छेत् इति स्मृतेश्च उपरतस्त्यक्तसर्वकर्मा भूत्वात्मानं पश्येत्। आत्मदर्शनाय वेदान्तवाक्यानि विचारयेदिति श्रुत्यर्थः। एतादृश एवब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति इति श्रुत्या धर्मस्कन्धत्रयविलक्षणत्वेन प्रतिपादितः परमहंसपरिव्राजकः परमहंसपरिव्राजकं कृतकृत्यं गुरुमुपसृत्य वेदान्तवाक्यविचारसमर्थो यमुद्दिश्यअथातो ब्रह्मजिज्ञासा इत्यादिचतुर्लक्षणमीमांसा भगवता बादरायणेन समारम्भि। कीदृशोऽसावित्याह -- असक्तेति। सर्वत्र पुत्रदारादिषु सक्तिनिमित्तेष्वप्यसक्तबुद्धिरहमेषां ममैत इत्यभिष्वङ्गरहिता बुद्धिर्यस्य सः। यतो जितात्मा विषयेभ्यः प्रत्याहृत्य वशीकृतान्तःकरणः। विषयरागे सति कथं,प्रत्याहरणं तत्राह। विगतस्पृहो देहजीवितभोगेष्वपि वाञ्छारहितः सर्वदृश्येषु दोषदर्शनेन नित्यबोधपरमानन्दरूपमोक्षगुणदर्शनेन च सर्वतो विरक्त इत्यर्थः। य एवं शुद्धान्तःकरणःस्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः इति वचनप्रतिपादितां कर्मजामपरमां सिद्धिं ज्ञानसाधनवेदान्तवाक्यविचाराधिकारलक्षणां ज्ञाननिष्ठायोग्यतां प्राप्तः स संन्यासेन शिखायज्ञोपवीतादिसहितसर्वकर्मत्यागेन हेतुना तत्पूर्वकेण विचारेणेत्यर्थः। नैष्कर्म्यसिद्धिं निष्कर्म ब्रह्म तद्विषयं विचारपरिनिष्पन्नं ज्ञानं नैष्कर्म्यं तद्रूपां सिद्धिं परमां कर्मजाया अपरमसिद्धेः फलभूतामधिगच्छति साधनपरिपाकेण प्राप्नोति। अथवा संन्यासेनेतीत्थंभूतलक्षणे तृतीया। सर्वकर्मसंन्यासरूपां नैष्कर्म्यसिद्धिं ब्रह्मसाक्षात्कारयोग्यतां नैर्गुण्यलक्षणां सिद्धिं परमां पूर्वस्याः सिद्धेः सात्त्विक्याः फलभूतामधिगच्छतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।18.49।।यतो मत्कर्म सदोषमपि न त्यजेत्? अन्यानि च स्वफलभोगं कारयित्वा त्यजन्ति ततः स्वयमेव तत्त्यागः कर्त्तव्यस्तेन च सिद्धिं प्राप्नुयादित्याह -- असक्तेति। सर्वत्र सर्वकर्मादिषु असक्तबुद्धिः असक्ता न संसक्ता बुद्धिर्यस्य तादृशः? जितात्मा वशीकृतान्तःकरणः? विगतस्पृहः फलाभिलाषरहितः सन्न्यासेन परमामुत्कृष्टां नैष्कर्म्यसिद्धिं कर्मनिवृत्तिफलरूपां सिद्धिं अधिगच्छति प्राप्नोतीत्यर्थः। आसक्त्याद्यभिलाषान्ताभावकथनेनैतद्युक्तस्त्यागेनाऽपि सिद्धिं न प्राप्नोति तत्कर्मनिष्ठयैव भवतीति व्यञ्जितम्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।18.49।। -- असक्तबुद्धिः असक्ता सङ्गरहिता बुद्धिः अन्तःकरणं यस्य सः असक्तबुद्धिः सर्वत्र पुत्रदारादिषु आसक्तिनिमित्तेषु? जितात्मा जितः वशीकृतः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः जितात्मा? विगतस्पृहः विगता स्पृहा तृष्णा देहजीवितभोगेषु यस्मात् सः विगतस्पृहः? यः एवंभूतः आत्मज्ञः सः नैष्कर्म्यसिद्धिं निर्गतानि कर्माणि यस्मात् निष्क्रियब्रह्मात्मसंबोधात् सः निष्कर्मा तस्य भावः नैष्कर्म्यम्? नैष्कर्म्यं च तत् सिद्धिश्च सा नैष्कर्म्यसिद्धिः? निष्कर्मत्वस्य वा निष्क्रियात्मरूपावस्थानलक्षणस्य सिद्धिः निष्पत्तिः? तां नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां प्रकृष्टां कर्मजसिद्धिविलक्षणां सद्योमुक्त्यवस्थानरूपां संन्यासेन सम्यग्दर्शनेन तत्पूर्वकेण वा सर्वकर्मसंन्यासेन अधिगच्छति प्राप्नोति। तथा च उक्तम् -- सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्य नैव कुर्वन्न कारयन्नास्ते (गीता 5।13) इति।।पूर्वोक्तेन स्वकर्मानुष्ठानेन ईश्वराभ्यर्चनरूपेण जनितां प्रागुक्तलक्षणां सिद्धिं प्राप्तस्य उत्पन्नात्मविवेकज्ञानस्य केवलात्मज्ञाननिष्ठारूपा नैष्कर्म्यलक्षणा सिद्धिः येन क्रमेण भवति? तत् वक्तव्यमिति आह --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।18.49।।पूर्वोक्तप्रकारमेव पुनरनुस्मारयति -- असक्तबुद्धिरिति। सर्वकर्मणां फलादिषु सक्तिरहितं चित्तं यस्येत्यर्थें साङ्ख्यमुपादेयम्। जितात्मा विगतस्पृह इति योगसारं? भगवद्व्यतिरिक्ते स्पृहारहित इति वा भक्तिरुपादेयतयोक्ता। एवं सन्न्यासेन परमां सिद्धिं नैष्कर्म्यरूपां पूर्वसूत्रितामधिगच्छति।


Chapter 18, Verse 49