Chapter 18, Verse 36

Text

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।18.36।।

Transliteration

sukhaṁ tv idānīṁ tri-vidhaṁ śhṛiṇu me bharatarṣhabha abhyāsād ramate yatra duḥkhāntaṁ cha nigachchhati yat tad agre viṣham iva pariṇāme ‘mṛitopamam tat sukhaṁ sāttvikaṁ proktam ātma-buddhi-prasāda-jam

Word Meanings

sukham—happiness; tu—but; idānīm—now; tri-vidham—of three kinds; śhṛiṇu—hear; me—from me; bharata-ṛiṣhabha—Arjun, the best of the Bharatas; abhyāsāt—by practice; ramate—rejoices; yatra—in which; duḥkha-antam—end of all suffering; cha—and; nigachchhati—reaches yat—which; tat—that; agre—at first; viṣham iva—like poison; pariṇāme—in the end; amṛita-upamam—like nectar; tat—that; sukham—happiness; sāttvikam—in the mode of goodness; proktam—is said to be; ātma-buddhi—situated in self-knowledge; prasāda-jam—generated by the pure intellect


Translations

In English by Swami Adidevananda

Now hear from Me, O Arjuna, the threefold division of pleasure৷৷ that in which one rejoices through long practice and in which one comes to the end of pain.

In English by Swami Gambirananda

Now hear from Me, O scion of the Bharata dynasty, as regards the three kinds of joy: That in which one delights due to habit, and certainly attains the cessation of sorrows; [S. and S.S. take the second line of this verse along with the next verse referring to sattvika happiness.-Tr.]

In English by Swami Sivananda

And now, O Arjuna, hear from Me of the threefold pleasure, in which one rejoices through practice and surely comes to the end of pain.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

O best among the Bharatas! Now, you must also listen to Me about the three-fold happiness, wherein one delights in practice and attains the end of suffering.

In English by Shri Purohit Swami

Hear further the three kinds of pleasure. That which increases day by day delivers one from misery.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.36।।हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! अब तीन प्रकारके सुखको भी तुम मेरेसे सुनो। जिसमें अभ्याससे रमण होता है और जिससे दुःखोंका अन्त हो जाता है, ऐसा वह परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे पैदा होनेवाला जो सुख (सांसारिक आसक्तिके कारण) आरम्भमें विषकी तरह और परिणाममें अमृतकी तरह होता है, वह सुख सात्त्विक कहा गया है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।18.36।। हे भरतश्रेष्ठ ! अब तुम त्रिविध सुख को मुझसे सुनो, जिसमें (साधक पुरुष) अभ्यास से रमता है और दु:खों के अन्त को प्राप्त होता है (जहाँ उसके दु:खों का अन्त हो जाता है।)।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

18.36 सुखम् pleasure? तु indeed? इदानीम् now? त्रिविधम् threefold? श्रृणु hear? मे of Me? भरतर्षभ O lord of the Bharatas? अभ्यासात् from practice? रमते rejoices? यत्र in which? दुःखान्तम् the end of pain? च and? निगच्छति (he) attains to.Commentary A little of this pleasure experienced by the Self must result in the cessation of pain. This pleasure is threefold in its nature and I will describe its aspects in turn? O Arjuna. (Cf.VI.20?30).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.36।। व्याख्या --   भरतर्षभ -- इस सम्बोधनको देनेमें भगवान्का भाव यह है कि भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन तुम राजसतामस सुखोंमें लुब्ध? मोहित होनेवाले नहीं हो क्योंकि तुम्हारे लिये राजस और तामस सुखपर विजय करना कोई बड़ी बात नहीं है। तुमने राजस सुखपर विजय भी कर ली है क्योंकि स्वर्गकी उर्वशीजैसी सुन्दरी अप्सराको भी तुमने ठुकरा दिया है। इसी प्रकार तुमने तामस सुखपर भी विजय कर ली है क्योंकि प्राणिमात्रके लिये आवश्यक जो निद्राका तामस सुख है? उसको तुमने जीत लिया है। इसीसे तुम्हारा नाम गुडाकेश हुआ है।सुखं तु इदानीम् -- ज्ञान? कर्म? कर्ता? बुद्धि और धृतिके तीनतीन भेद बतानेके बाद यहाँ तु पदका प्रयोग,करके भगवान् कहते हैं कि सुख भी तीन तरहका होता है। इसमें एक विशेष ध्यान देनेकी बात है कि आज पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले जितने भी साधक हैं? उन साधकोंकी ऊँची स्थिति न होनेमें अथवा उनको परमात्मतत्त्वका अनुभव न होनेमें अगर कोई विघ्नबाधा है? तो वह है -- सुखकी इच्छा।सात्त्विक सुख भी आसक्तिके कारण बन्धनकारक हो जाता है। तात्पर्य है कि अगर साधनजन्य -- ध्यान और एकाग्रताका सुख भी लिया जाय? तो वह भी बन्धनकारक हो जाता है। इतना ही नहीं? अगर समाधिका सुख भी लिया जाय? तो वह भी परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें बाधक हो जाता है -- सुखसङ्गेन बध्नाति (गीता 14। 6)। इस विषयमें कोई कहे कि परमात्मतत्त्वका सुख आ जाय तो क्या उस सुखको भी हम न लें वास्तवमें परमात्मतत्त्वका सुख लिया नहीं जाता? प्रत्युत उस अक्षय सुखका स्वतः अनुभव होता है (गीता 5। 21 6। 21? 28)। साधनजन्य सुखका भोग न करनेसे वह अक्षय स्वतःस्वाभाविक प्राप्त हो जाता है। उस अक्षय सुखकी तरफ विशेष खयाल करानेके लिये भगवान् यहाँ तु पदका प्रयोग करते हैं।यहाँ इदानीम् कहनेका का तात्पर्य है कि अर्जुन संन्यास और त्यागके तत्त्वको जानना चाहते है अतः उनकी जिज्ञासाके उत्तरमें भगवान्ने त्याग? ज्ञान? कर्म? कर्ता? बुद्धि और धृतिके तीनतीन भेद बताये। परन्तु इन सबमें ध्येय तो सुखका ही होता है। अतः भगवान् कहते हैं कि तुम उसी ध्येयकी सिद्धिके लिये सुखके भेद सुनो।त्रिविधं श्रृणु मे -- लोग रातदिन राजस और तामस सुखमें लगे रहते हैं और उसीको वास्तविक सुख मानते हैं। इस कारण सांसारिक भोगोंसे ऊँचा उठकर भी कोई सुख मिल सकता है प्राणोंके मोहसे ऊँचा उठकर भी कोई सुख मिल सकता है राजस और तामस सुखसे आगे भी कोई सात्त्विक सुख है वे इन बातोंको समझ ही नहीं सकते। इसलिये भगवान् कहते हैं कि भैया वह सुख तीन प्रकारका होता है? उनको तुम सुनो और उनमेंसे सात्त्विक सुखको ग्रहण करो और राजसतामस सुखोंका त्याग करो। कारण कि सात्त्विक सुख परमात्माकी तरफ चलनेमें सहायता करनेवाला है और राजसतामस सुख संसारमें फँसाकर पतन करनेवाले हैं।अभ्यासाद्रमते यत्र -- सात्त्विक सुखमें अभ्याससे रमण होता है। साधारण मनुष्योंको अभ्यासके बिना इस सुखका अनुभव नहीं होता। राजस और तामस सुखमें अभ्यास नहीं करना पड़ता। उसमें तो प्राणिमात्रका स्वतःस्वाभाविक ही आकर्षण होता है।राजसतामस सुखमें इन्द्रियोंका विषयोंकी ओर? मनबुद्धिका भोगसंग्रहकी ओर तथा थकावट होनेपर निद्रा आदिकी ओर स्वतः आकर्षण होता है। विषयजन्य? अभिमानजन्य? प्रशंसाजन्य और निद्राजन्य सुख सभी प्राणियोंको स्वतः ही अच्छे लगते हैं। कुत्ते आदि जो नीच प्राणी हैं? उनका भी आदर करते हैं तो वे राजी होते हैं और निरादर करते हैं तो नाराज हो जाते हैं? दुःखी हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि राजस और तामस सुखमें अभ्यासकी जरूरत नहीं है क्योंकि इस सुखको सभी प्राणी अन्य योनियोंमें भी लेते आये हैं।इस सात्त्विक सुखमें अभ्यास क्या है श्रवणमनन भी अभ्यास है? शास्त्रोंको समझना भी अभ्यास है? और राजसीतामसी वृत्तियोंको हटाना भी अभ्यास है। जिस राजस और तामस सुखमें प्राणिमात्रकी स्वतःस्वाभाविक प्रवृत्ति हो रही है? उससे भिन्न नयी प्रवृत्ति करनेका नाम अभ्यास है। सात्त्विक सुखमें अभ्यास करना तो आवश्यक है? पर रमण करना बाधक है।यहाँ अभ्यासाद्रमते पदका यह भाव नहीं है कि सात्त्विक सुखका भोग किया जाय? प्रत्युत सात्त्विक सुखमें अभ्याससे ही रुचि? प्रियता? प्रवृत्ति आदिके होनेको ही यहाँ रमण करना कहा गया है।दुःखान्तं च निगच्छति -- उस सात्त्विक सुखमें अभ्याससे ज्योंज्यों रुचि? प्रियता बढ़ती जाती है? त्योंत्यों परिणाममें दुःखोंका नाश होता जाता है और प्रसन्नता? सुख तथा आनन्द बढ़ते जाते हैं (गीता 2। 65)।च अव्यय देनेका तात्पर्य है कि जबतक सात्त्विक सुखमें रमण होगा अर्थात् साधक सात्त्विक सुख लेता रहेगा? तबतक दुःखोंका अत्यन्त अभाव नहीं होगा। कारण कि सात्त्विक सुख भी परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे पैदा हुआ है -- आत्मबुद्धिप्रसादजम्। जो उत्पन्न होनेवाला होता है? वह जरूर नष्ट होता है। ऐसे सुखसे दुःखोंका अन्त कैसे होगा इसलिये सात्त्विक सुखमें भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठनेसे मनुष्य दुःखोंके अन्तको प्राप्त हो जाता है? गुणातीत हो जाता है।आत्मबुद्धिप्रसादजम् -- जिस बुद्धिमें सांसारिक मान? बड़ाई? आदर? धनसंग्रह? विषयजन्य सुख आदिका महत्त्व नहीं रहता? केवल परमात्मविषय विचार ही रहता है? उस बुद्धिकी प्रसन्नता (गीता 2। 64) अर्थात् स्वच्छतासे यह सात्त्विक सुख पैदा होता है। तात्पर्य है कि सांसारिक संयोगजन्य सुखसे सर्वथा उपरत होकर परमात्मामें बुद्धिके विलीन होनेपर जो सुख होता है? वह सुख सात्त्विक है।यत्तदग्रे विषमिव -- यहाँ यत्तत् कहनेका भाव यह है कि यत् -- जो सात्त्विक सुख है तत् -- वह परोक्ष है अर्थात् उसका अभी अनुभव नहीं हुआ है। अभी तो उस सुखका केवल उद्देश्य बनाया है? जबकि राजस और तामस सुखका अभी अनुभव होता है। इसलिये अनुभवजन्य राजस और तामस सुखका त्याग करनेमें कठिनता आती है और लक्ष्यरूपमें जो सात्त्विक सुख है? उसकी प्राप्तिके लिये किया हुआ रसहीन परिश्रम (अभ्यास) आरम्भमें जहरकी तरह लगता है -- अग्ने विषमिव। तात्पर्य यह है कि अनुभवजन्य राजस और तामस सुखका तो त्याग कर दिया और लक्ष्यवाला सात्त्विक सुख मिला नहीं -- उसका रस अभी मिला नहीं इसलिये वह सात्त्विक सुख आरम्भमें जहरकी तरह प्रतीत होता है।राजस और तामस सुखको अनेक योनियोंमें भोगते आये हैं और उसे इस जन्ममें भी भोगा है। उस भोगे हुए सुखकी स्मृति आनेसे राजस और तामस सुखमें स्वाभाविक ही मन लग जाता है। परन्तु सात्त्विक सुख उतना भोगा हुआ नहीं है इसलिये इसमें जल्दी मन नहीं लगता। इस कारण सात्त्विक सुख आरम्भमें विषकी तरह लगता है।वास्तवमें सात्त्विक सुख विषकी तरह नहीं है? प्रत्युत राजस और तामस सुखका त्याग विषकी तरह होता है। जैसे? बालकको खेलकूद छोड़कर पढ़ाईमें लगाया जाय तो उसको पढ़ाईमें कैदीकी तरह होकर अभ्यास करना पड़ता है। पढ़ाईमें मन नहीं लगता तथा इधर उच्छृङ्खलता? खेलकूद छूट जाता है? तो उसको पढ़ाई विषकी तरह मालूम देती है। परन्तु वही बालक पढ़ता रहे और एकदो परीक्षाओंमें पास हो जाय तो उसका पढ़ाईमें मन लग जाता है अर्थात् उसको पढ़ाई अच्छी लगने लग जाती है। तब उसकी पढ़ाईके अभ्याससे रुचि? प्रियता होने लगती है।वास्तवमें देखा जाय तो सात्त्विक सुख आरम्भमें विषकी तरह उन्हीं लोगोंके लिये होता है? जिनका राजस और तामस सुखमें राग है। परन्तु जिनको सांसारिक भोगोंसे स्वाभाविक वैराग्य है? जिनकी पारमार्थिक शास्त्राध्ययन? सत्सङ्ग? कथाकीर्तन? साधनभजन आदिमें स्वाभाविक रुचि है और जिनके ज्ञान? कर्म? बुद्धि और धृति सात्त्विक हैं? उन साधकोंको यह सात्त्विक सुख आरम्भसे ही अमृतकी तरह आनन्द देनेवाला होता है। उनको इसमें कष्ट? परिश्रम? कठिनता आदि मालूम ही नहीं देते।परिणामेऽमृतोपमम् -- साधन करनेसे साधकमें सत्त्वगुण आता है। सत्त्वगुणके आनेपर इन्द्रियों और अन्तःकरणमें स्वच्छता? निर्मलता? ज्ञानकी दीप्ति? शान्ति? निर्विकारता आदि सद्भावसद्गुण प्रकट हो जाते हैं (टिप्पणी प0 919)। इन सद्गुणोंका प्रकट होना ही सात्त्विक सुखका परिणाममें अमृतकी तरह होना है। इसका उपभोग न करनेसे अर्थात् इसमें रस न लेनेसे वास्तविक अक्षय सुखकी प्राप्ति हो जाती है (गीता 5। 21)।परिणाममें सात्त्विक सुख राजस और तामस सुखसे ऊँचा उठाकर जडतासे सम्बन्धविच्छेद करा देता है और इसमें आसक्ति न होनेसे अन्तमें परमात्माकी प्राप्ति करा देता है। इसलिये यह परिणाममें अमृतकी तरह है।तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तम् -- सत्सङ्ग? स्वाध्याय? संकीर्तन? जप? ध्यान? चिन्तन आदिसे जो सुख होता है? वह मान? बड़ाई? आराम? रुपये? भोग आदि विषयेन्द्रियसम्बन्धका नहीं है और प्रमाद? आलस्य? निद्राका भी नहीं है। वह तो परमात्माके सम्बन्धका है। इसलिये वह सुख सात्त्विक कहा गया है। सम्बन्ध --   अब राजस सुखका वर्णन करते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।18.36।। इस अध्याय में प्रतिपादित विचारों के विकास क्रम में सर्वप्रथम कार्य सम्पादन के तीन तत्त्वों ज्ञान? कर्ता और कर्म का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् कर्म के प्रेरक? नियामक और मार्गनिर्देशक दो तत्त्वों? बुद्धि और धृति का विस्तृत विवेचन किया गया है। भगवान् श्रीकृष्ण ने इन सब के त्रिविध भेदों को पृथक्पृथक् रूप से दर्शाया है।प्रत्येक कर्ता अपने कर्मक्षेत्र में? अपने ज्ञान से निर्देशित बुद्धि से शासित और धृति से लक्ष्य को धारण करके कर्म करता है। इस प्रकार कार्य की शारीरिक एवं प्राणिक संरचना का विश्लेषण एवं निरीक्षण पूर्ण होता है। अब? विचार्य विषय है कार्य का मनोविज्ञान। मनुष्य किस लिए कर्म करता है प्राणियों की प्रवृत्तियों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि प्रत्येक प्राणी केवल सुख प्राप्ति के लिए ही कर्म में प्रवृत होता है। गर्भ से लेकर शवागर्त तक? प्राणियों के समस्त प्रयत्न सतत सुख प्राप्त करने के लिए ही होते हैं।इस प्रकार? यद्यपि सबका एक लक्ष्य सुख ही है? तथापि ज्ञान? कर्ता? कर्म बुद्धि और धृति में भेद होने से विभिन्न लोगों के द्वारा अपनाये गये सुख प्राप्ति के मार्ग भी भिन्नभिन्न होते हैं। सात्त्विक? राजसिक और तामसिक लोग विविध कर्मों के द्वारा अपनेअपने सुख की खोज करते हैं।कर्म के संघटकों में भेद होने के कारण उन विभिन्न प्रकार के कर्मों से प्राप्त सुखों में भेद होना अनिवार्य है। प्रस्तुत प्रकरण में सुख के तीन प्रकारों का वर्गीकरण किया गया है।अभ्यासात् इस अध्याय में वर्णित वर्गीकरण को समझकर एक सच्चे साधक को आत्मनिरीक्षण की सार्मथ्य प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार? अपने दुखों के कारण को समझने से उनका परित्याग कर वह अपने जीवन को पुर्नव्यवस्थित कर सकता है। ऐसे अभ्यास से उसके दुखों का सर्वथा अन्त हो जाना संभव है।सात्त्विक सुख क्या है भगवान् कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।18.36।।वृत्तमनूद्यानन्तरश्लोकतात्पर्यमाह -- गुणेत्यादिना। क्रियाकारकाणां गुणतस्त्रैविध्योक्त्यनन्तरं फलस्य सुखस्य त्रैविध्योक्त्यवसरे सतीत्याह -- इदानीमिति। हेयोपादेयभेदार्थं त्रैविध्यं समाधानमैकाग्र्यं मम वचनादिति शेषः। यत्रेत्युभयत्र संबध्यते तत्ित्रविधं सुखमिति पूर्वेण संबन्धः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।18.36।।एवं क्रियाणां कारकाणां च गुणतस्त्रिविधो भेद उक्तोऽथेदानीं फलस्य च सुखस्य त्रिविधं भेदं वक्तुमारभते। सुखं तु इदानीं त्रिविधं मे मम वचनाच्छृणु अवधारय। त्रिविधस्यापि सुखस्य सामान्यलक्षणमाह -- अभ्यासादावृत्तेर्यन्न सात्त्विकादिसुखे रमते यत्र रममाणश्च दुःखस्यान्तमवसानं च निगच्छति निश्चयेन प्राप्नेति। भरतर्षमेतिसंबोधयन् सुखस्य त्रैविध्यं मम वचनाच्छ्रुत्वा सात्त्विकं सुखमनुभवितुं योग्योऽसीति सूचयति। तत्र सात्त्विकं सुखमाह सार्धेन। यत्र यस्मिन्सुखेऽभ्यासादतिपरिचयाद्रमते नतु विषयसुखइव सहसा रतिं प्राप्नोतीत्यपरे। भाष्यस्य समानतया न तद्विरोधः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।18.36।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।18.36।।गुणभेदेन क्रियाणां कारकाणां च त्रैविध्यमुक्तं तत्फलस्य सुखस्य त्रैविध्यमाह -- सुखं त्वित्यादिना। अभ्यासात्पौनःपुन्येन सेवनात्। यत्र सात्त्विके राजसे तामसे वा सुखे रमते रतिं प्राप्नोति। यया रत्या दुःखस्य पुत्रशोकादेरप्यन्तमवसानं निगच्छति निश्चयेन प्राप्नोति तत्सुखं त्रिविधं श्रृणु। यदा त्वयमप्यर्थः सात्त्विकसुखस्यैव लक्षणार्थस्तदा यत्र समाधिसुखे अभ्यासाद्रमते न तु विषयसुख इव रागात् दुःखान्तं मोक्षं च निगच्छतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।18.36।।पूर्वोक्ताः सर्वे ज्ञानकर्मकर्त्रादयो यच्छेषभूताः? तत् च सुखं गुणतः त्रिविधम् इदानीं श्रृणु। यस्मिन् सुखे चिरकालाभ्यासात् क्रमेण निरतिशयां रतिं प्राप्नोति दुःखान्तं च निगच्छति? निखिलस्य सांसारिकस्य दुःखस्य अन्तं निगच्छति।तद् एव विशिनष्टि --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।18.36।।सुखस्य त्रैविध्यं प्रतिजानीते अर्धेन -- सुखमिति। स्पष्टार्थः। तत्र सात्त्विकं सुखमाह -- अभ्यासादिति सार्धेन। यत्र यस्मिन्सुखे अभ्यासादतिपरिचयाद्रमते नतु विषयसुख इव सहसा रतिं प्राप्नोति। यस्मिन् रममाणश्च दुःखस्यान्तमवसानं नितरां गच्छति प्राप्नोति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।18.36।।अनन्तरग्रन्थसङ्गत्यर्थं तुशब्दद्योतितं व्यनक्ति -- पूर्वोक्ता इति। भरतर्षभशब्दोऽत्र प्रकृष्टसात्त्विकसुखसङ्गयोग्यताज्ञापनार्थः।इदानीमिति -- साधनभेदस्योक्तस्य साध्यभेदाकाङ्क्षावसर इत्यर्थः। आपातमधुरत्वाभावात्सात्त्विकस्याभ्याससापेक्षत्वं लोकेऽप्याभ्यासिकी क्षुद्रा प्रीतिरस्ति तद्व्युदासायक्रमेण निरतिशयामित्युक्तम्। रतिम् -- अत्यन्तादरमित्यर्थः। दुःखशब्दस्याऽत्र सङ्कोचकाभावात्कृत्स्नविषयत्वोक्तिः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।18.36 -- 18.39।।सुखमित्यादि तामसमुदाहृतमित्यन्तम्। तदात्वे? अभ्यासकाले। विषमिव? जन्मशताभ्यस्तविषयसङ्गस्य दुष्परिहारत्वात्। उक्तं च श्रुतौ -- क्षुरस्य धारा विषमा दुरत्यया इत्यादि।आत्मप्रसादात् बुद्धिप्रसादो जायते? अन्यस्यापेक्ष्यमाणस्याभावात्। विषयेन्द्रियाणां परस्परसंयोगज़ं,( S? -- संप्रयोगजम् ) सुखम्? चक्षुष इव रूपसंबन्धात्। निद्रातः आलस्येन प्रमादेन ( S? ? N आलस्येन शठतया प्रमादेन ) पूर्वं व्याख्यातेन यत् सुखं तत्तामसम्।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।18.36।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।18.36।।एवं क्रियाणां कारणानां च गुणतस्त्रैविध्यमुक्त्वा तत्फलस्य सुखस्य त्रैविध्यं प्रतिजानीते श्लोकार्धेन -- सुखं त्विति। मे मम वचनात् शृणु हेयोपादेयविवेकार्थं व्यासङ्गान्तरनिवारणेन मनः स्थिरीकुरु। हे भरतर्षभेति योग्यता दर्शिता। सात्त्विकं सुखमाह सार्धेन -- अभ्यासादिति। यत्र समाधिसुखेऽभ्यासादतिपरिचयाद्रमते परितृप्तो भवति नतु विषयसुख इव सद्यएव यस्मिन् रममाणश्च दुःखस्य सर्वस्याप्यन्तमवसानं नितरां गच्छति नतु विषयसुख इवान्ते महद्दुःखम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।18.36।।एवं धृतित्रैविध्यमुक्त्वा तस्याः सुखफलात्मकत्वात् मुखत्रैविध्यकथनं प्रतिजानीते -- सुखमिति। इदानीं धृतिज्ञानानन्तरं सुखं पुनस्त्रिविधं? हे भरतर्षभ सुखश्रवणयोग्य मे मत्तः शृणु। एवं प्रतिज्ञाय तत्त्रैविध्यमाह -- अभ्यासादिति। अभ्यासात् निरन्तरानुशीलनात् यत्र यस्मिन् रमते आनन्दानुभवं प्राप्नोति? नत्वाऽऽपाततो विषयसुख इव क्षणमात्रानुभवमाप्नोति? च पुनः यदनुशीलने दुःखान्तं संसारान्तं नितरां गच्छति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।18.36।। --,सुखं तु इदानीं त्रिविधं शृणु? समाधानं कुरु इत्येतत्? मे मम भरतर्षभ। अभ्यासात् परिचयात् आवृत्तेः रमते रतिं प्रतिपद्यते यत्र यस्मिन् सुखानुभवे दुःखान्तं च दुःखावसानं दुःखोपशमं च निगच्छति निश्चयेन प्राप्नोति।।

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।18.36।।सुखस्य त्रैविध्यं प्रतिजानन्नाह -- सुखमिति। यत्र सुखे चिरकालाभ्यासात्क्रमेण निरतिशयां रतिं मन्यते सांसर्गिकदुःखस्य चान्तं च नितरां गच्छति।


Chapter 18, Verse 36