Chapter 18, Verse 14

Text

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।18.14।।

Transliteration

adhiṣhṭhānaṁ tathā kartā karaṇaṁ cha pṛithag-vidham vividhāśh cha pṛithak cheṣhṭā daivaṁ chaivātra pañchamam

Word Meanings

adhiṣhṭhānam—the body; tathā—also; kartā—the doer (soul); karaṇam—senses; cha—and; pṛithak-vidham—various kinds; vividhāḥ—many; cha—and; pṛithak—distinct; cheṣhṭāḥ—efforts; daivam—Divine Providence; cha eva atra—these certainly are (causes); pañchamam—the fifth


Translations

In English by Swami Adidevananda

The seat of action, the agent, the various kinds of organs, the different and distinctive functions of vital air, and the fifth among these—Divinity—all these.

In English by Swami Gambirananda

The locus, the agent, the different kinds of organs, the many and varied activities, and the divine are the fifth here.

In English by Swami Sivananda

The body, the doer, the various senses, the different functions of various kinds, and the presiding deity—the fifth.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

The basis, the agent, the various instruments, the distinct activities of various kinds, and Destiny, which is the fifth factor, are all present.

In English by Shri Purohit Swami

They have a body, a personality, physical organs, and manifold activities and destinies.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.14।।इसमें (कर्मोंकी सिद्धिमें) अधिष्ठान तथा कर्ता और अनेक प्रकारके करण एवं विविध प्रकारकी अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ कारण दैव (संस्कार) है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।18.14।। अधिष्ठान (शरीर), कर्ता ,विविध करण (इन्द्रियादि) ,विविध और पृथक्-पृथक् चेष्टाएं तथा पाँचवा हेतु दैव है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

18.14 अधिष्ठानम् the seat or body? तथा also? कर्ता the doer? करणम् the senses? च and? पृथग्विधम् of different? विविधाः various? च and? पृथक् different? चेष्टाः functions? दैवम् the presiding deity? च and? एव even? अत्र here? पञ्चमम् the fifth.Commentary Now listen to the characteristics of these five? of which the body is the first. It is termed the support or the seat. The body is the seat of desire? hatred? happiness? misery? knowledge and the like. The individual soul experiences through the body the pleasure and pain that arise through contact with matter. Egoism is the agent or the doer or the enjoyer. Nature does actions but through delusion the individual soul takes to himself the credit of their execution and? therefore? he is called the agent.Karta The enjoyer putting on the nature or properties of the limiting adjuncts with which he comes into contact.Karanam prithagvidham Various organs such as the organ of hearing? by which the individual soul hears the sound? etc. organs of knowledge and action and the mind.Daivam The presiding deity such as the Sun and the other gods by whose help the eye and the other organs perform their respective functions destiny.Cheshta Play of energy in the organs or the senses during the action.Absence of any of these factors will make action impossible.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.14।। व्याख्या --   अधिष्ठानम् -- शरीर और जिस देशमें यह शरीर स्थित है? वह देश -- ये दोनों अधिष्ठान हैं।कर्ता -- सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृति और प्रकृतिके कार्योंके द्वारा ही होती हैं। वे क्रियाएँ चाहे समष्टि हों? चाहे व्यष्टि हों परन्तु उन क्रियाओँका कर्ता स्वयं नहीं है। केवल अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अर्थात् जिसको चेतन और जडका ज्ञान नहीं है -- ऐसा अविवेककी पुरुष ही जब प्रकृतिसे होनेवाली क्रियाओंको अपनी मान लेता है? तब वह कर्ता बन जाता है (टिप्पणी प0 896)। ऐसा कर्ता ही कर्मोंकी सिद्धिमें हेतु बनता है।करणं च पृथग्विधम् -- कुल तेरह करण हैं। पाणि? पाद? वाक्? उपस्थ और पायु -- ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ और श्रोत्र? चक्षु? त्वक्? रसना और घ्राण -- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ -- ये दस बहिःकरण हैं तथा मन? बुद्धि और अहंकार -- ये तीन अन्तःकरण हैं।विविधाश्च पृथक्चेष्टाः -- उपर्युक्त तेरह करणोंकी अलगअलग चेष्टाएँ होती हैं जैसे -- पाणि (हाथ) -- आदानप्रदान करना? पाद (पैर) -- आनाजाना? चलनाफिरना? वाक् -- बोलना? उपस्थ -- मूत्रका त्याग करना? पायु (गुदा) -- मलका त्याग करना? श्रोत्र -- सुनना? चक्षु -- देखना? त्वक् -- स्पर्श करना? रसना -- चखना? घ्राण -- सूँघना? मन -- मनन करना? बुद्धि -- निश्चय करना और अहंकार -- मैं ऐसा हूँआदि अभिमान करना।दैवं चैवात्र पञ्चमम् -- कर्मोंकी सिद्धिमें पाँचवें हेतुका नाम दैव है। यहाँ दैव नाम संस्कारोंका है। मनुष्य जैसा कर्म करता है? वैसा ही संस्कार उसके अन्तःकरणपर पड़ता है। शुभकर्मका शुभ संस्कार पड़ता है और अशुभकर्मका अशुभ संस्कार पड़ता है। वे ही संस्कार आगे कर्म करनेकी स्फुरणा पैदा करते हैं। जिसमें जिस कर्मका संस्कार जितना अधिक होता है? उस कर्ममें वह उतनी ही सुगमतासे लग सकता है और जिस कर्मका विशेष संस्कार नहीं है? उसको करनेमें उसे कुछ परिश्रम पड़ सकता है। इसी प्रकार मनुष्य सुनता है? पुस्तकें पढ़ता है और विचार भी करता है तो वे भी अपनेअपने संस्कारोंके अनुसार ही करता है। तात्पर्य है कि मनुष्यके अन्तःकरणमें शुभ और अशुभ -- जैसे संस्कार होते हैं? उन्हींके अनुसार कर्म करनेकी स्फुरणा होती है।इस श्लोकमें कर्मोंकी सिद्धिमें पाँच हेतु बताये गये हैं -- अधिष्ठान? कर्ता? करण? चेष्टा और दैव। इसका कारण यह है कि आधारके बिना कोई भी काम कहाँ किया जायगा इसलिये अधिष्ठान पद आया है। कर्ताके बिना क्रिया कौन करेगा इसलिये कर्ता पद आया है। क्रिया करनेके साधन (करण) होनेसे ही तो कर्ता क्रिया करेगा? इसलिये करण पद आया है। करनेके साधन होनेपर भी क्रिया नहीं की जायगी तो कर्मसिद्धि कैसे होगी इसलिये चेष्टा पद आया है। कर्ता अपनेअपने संस्कारोंके अनुसार ही क्रिया करेगा? संस्कारोंके विरुद्ध अथवा संस्कारोंके बिना क्रिया नहीं कर सकेगा? इसलिये दैव पद आया है। इस प्रकार इन पाँचोंके होनेसे ही कर्मसिद्धि होती है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।18.14।। भगवान् श्रीकृष्ण अपने दिये हुए वचन को पूर्ण करते हुए इस श्लोक में कर्मसिद्धि के पाँच कारणों का नामोल्लेख करते हैं। यहाँ प्रस्तुत शब्दों के अर्थ बताने में गीता के व्याख्याकारों में थोड़ा अन्तर मिलता है। तथापि यह अन्तर विशेष महत्त्व का नहीं है।प्रत्येक कर्म स्थूल शरीर (अधिष्ठान) की सहायता से ही करना पड़ता है? क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का यही निवास स्थान है। यह शरीर स्वत कुछ भी कर्म नहीं कर सकता। इस शरीर को धारण करने वाला जीव (कर्ता) ही विषयों की इच्छाएं करता है और फिर उनकी पूर्ति के लिए कर्म करता है। विषय ग्रहण के लिए उसे ज्ञानेन्द्रियों की आवश्यकता होती है? जिन्हें यहाँ करण शब्द से इंगित किया गया है। इन करणों के बिना कर्ता जीव इस जगत् का न ज्ञान प्राप्त कर सकता है और न ही भोग।श्री शंकराचार्य अपने भाष्य में पृथक् चेष्टा का अर्थ प्राणापानादि बताते हैं। वेदान्त सिद्धांत से परिचित विद्यार्थियों को इतना स्पष्टीकरण पर्याप्त है। परन्तु सामान्य लोगों को उसका अर्थ समझने में कठिनाई होती है। प्राणिक क्रियाओं के फलस्वरूप ही शरीर का स्वास्थ्य बना रहता है? जिससे कि मनुष्य कर्म करने में समर्थ होता है। अत? इस श्लोक को समझने की दृष्टि से हम चेष्टा शब्द का अर्थ कर्मेन्द्रिय ले सकते हैं। जैसा कि गीता में ही अनेक स्थानों पर कहा जा चुका है? हमारी इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता हैं जिनके अनुग्रह से श्रोत्र नेत्रादि इन्द्रियाँ स्वविषय ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। इन देवताओं को यहाँ दैव शब्द से इंगित किया ग्ाया है।सारांश में? कर्म सम्पादन के पाँच कारण हैं (1) शरीर? (2) कर्ता जीव?(3) ज्ञानेन्द्रियाँ? (4) कर्मेन्द्रियाँ? तथा (5) दैव अर्थात् अधिष्ठातृ देवता।भगवान् आगे कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।18.14।।कर्मार्थान्यधिष्ठानादीनि मानमूलत्वाज्ज्ञेयानीत्युक्तमिदानीं प्रश्नपूर्वकं विशेषतस्तानि निर्दिशति -- कानीत्यादिना। प्रतीकमादाय -- व्याकरोति -- अधिष्ठानमिति। उपाधिलक्षणो बुद्ध्यादिरुपाधिस्तल्लक्षणस्तत्स्वभावो बुद्ध्याद्यनुविधायी तद्धर्मानात्मनि पश्यन्नुपहितस्तत्प्रधान इत्यर्थः। तत्र कार्यलिङ्गकमनुमानं सूचयति -- शब्दादीति। ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्च? पञ्च कर्मेन्द्रियाणि मनोबुद्धिश्चेति द्वादशसंख्यत्वम्। चेष्टाया विविधत्वान्नानाप्रकारत्वं तदेव स्पष्टयति -- वायवीया इति। पृथक्त्वमसंकीर्णत्वम्। नहि प्राणापानादिचेष्टानां मिथः संकरोस्ति। दैवमेवेति विशदयति -- आदित्यादीति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।18.14।।कानि तानीत्यपेक्षायामाह -- अधिष्ठानं इच्छोद्वेषसुखदुःखज्ञानादीनामभिव्यक्तेराश्रयो देहः। तथा कर्ता उपाधिलक्षणो बुद्य्धाद्युपाध्यनुविधायी तद्धर्मानात्मनि पश्यन्नुपहित उपाधिप्रधानो भोक्ता। करकणं च श्रोत्रादिशब्दाद्युपलब्धये पृथग्विधं नानाप्रकारं ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि पञ्च मनोबुद्धिश्चेति द्वादशसंख्यं। विविधाश्च पृथक् चेष्टाः वायवीयाः प्राणपानाद्याः। अत्र चतुर्षु दैवमेव पञ्चमं चक्षुराद्यनुग्राहकमादित्यादिदैवं सर्वप्रेरकोऽन्तर्यामीति त्वात्मनः कर्तृत्वव्यावृत्तये परमात्मनः कर्तृत्वप्रतिपादनमयुक्तमित्यभिफ्रेत्याचार्यैर्न प्रदर्शितम्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।18.14 -- 18.15।।अधिष्ठानं देहादिः। कर्ता विष्णुः स हि सर्वकर्तेत्युक्तम् जीवस्य चाकर्तृत्वे प्रमाणमुक्तम्। करणमिन्द्रियादि च। चेष्टाः क्रियाः हस्तादिक्रियाभिर्होमादिकर्माणि जायन्ते। ध्यानादेरपि मानसी चेष्टा कारणम्। पूर्वतनी चेष्टाऽपि संस्कारकारणत्वेन भवति। दैवमदृष्टम्। तथा चायास्यश्रुतिः -- देहो ब्रह्मार्थेन्द्रियाद्याः क्रियाश्च तथाऽदृष्टं पञ्चमं कर्महेतुः इति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।18.14।।तान्येव पञ्च गणयति -- अधिष्ठानमिति। अधिष्ठानमिच्छाद्वेषसुखदुःखज्ञानादीनामभिव्यक्तेराश्रयो देहः तस्यानात्मत्वं चार्वाकव्यतिरिक्तसमस्तवादिसिद्धम्। तथा कर्ता बुद्धिविशिष्टश्चिदाभासः प्रमाता नामाहंप्रत्ययविषयोऽहंकारस्तथेत्यनेन तद्वदेवानात्मत्वेन ज्ञेय इत्युक्तम्। देहस्यैव सृष्टौ प्रलये च तस्याप्युत्पत्तिविनाशयोर्दर्शनात्। एतच्च विशेषणनाशाद्विशिष्टनाशं विशेषणोत्पत्त्या च विशिष्टोत्पत्तिमभिप्रेत्य श्रूयतेविज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति इति।यथाग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिङ्गा व्युच्चरन्त्येवमेतस्मादात्मनः सर्व एत आत्मानो व्युच्चरन्ति इति च। विशिष्टस्य चानतिरेकादर्शनादनात्मत्वं सिद्धम्। करणं च शब्दाद्युपलब्धिसाधनं पृथग्विधं द्वादशविधं पञ्च कर्मेन्द्रियाणि पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्च। तथा विविधाश्च पृथक् चेष्टा वायवीयाः प्राणनादिरूपाः। दैवं पुण्यपापरूपं तत्तत्करणानुग्राहकसूर्यादिदेवतारूपम् पञ्चमं पञ्चानां पूरणम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।18.14।।न्याय्ये शास्त्रसिद्धे विपरीते प्रतिषिद्धे वा सर्वस्मिन् कर्मणि शारीरे वाचिके मानसे च पञ्च एते हेतवः। अधिष्ठानं शरीरम्? अधिष्ठीयते जीवात्मना इति महाभूतसंघातरूपं शरीरम् अधिष्ठानम्। तथा कर्ता जीवात्मा अस्य जीवात्मनः ज्ञातृत्वं कर्तृत्वं च -- ज्ञोऽत एव (ब्र0 सू0 2।3।18)कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् (ब्र0 सू0 2।3।33) इति च सूत्रोपपादितम्। करणं च पृथग्विधम् वाक्पाणिपादादिपञ्चकं समनस्कं कर्मेन्द्रियम्? पृथग्विधं कर्मनिष्पत्तौ पृथग्व्यापारम्। विविधाः च पृथक् चेष्टाः -- चेष्टाशब्देन पञ्चात्मा वायुः अभिधीयते? तद्वृत्तिवाचिना? शरीरेन्द्रियधारकस्य प्राणापानादिभेदभिन्नस्य वायोः पञ्चात्मनो विविधा च चेष्टा विविधा वृत्तिः। दैवं च एव अत्र पञ्चमम्? अत्र कर्म हेतुकलापे दैवं पञ्चमम् परमात्मा अन्तर्यामी कर्मनिष्पत्तौ प्रधानहेतुः इति अर्थः उक्तं हिसर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्विज्ञानमपोहनं च। (गीता 15।15) इति। वक्ष्यति च -- ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18।61) इति।परमात्मायत्तं च जीवात्मनः कर्तृत्वम् -- परात्तु तच्छ्रुतेः (ब्र0 सू0 2।3।41) इति उपपादितम्।ननु एवं परमात्मायत्ते जीवात्मनः कर्तृत्वे जीवात्मा कर्मणि अनियोज्यो भवति इति विधिनिषेधशास्त्राणि अनर्थकानि स्युः।इदम् अपि चोद्यं सूत्रकारेण एव परिहृतम्।कृतप्रयत्नापेक्षस्तु विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिभ्यः (ब्र0 सू0 2।3।42) इति।एतद् उक्तं भवति -- परमात्मना दत्तैः तदाधारैः च करणकलेवरादिभिः तदाहितशक्तिभिः स्वयं च जीवात्मा तदाधारः तदाहितशक्तिः सन् कर्मनिष्पत्तये स्वेच्छया करणाद्यधिष्ठानाकारं प्रयत्नं च आरभते तदन्तः अवस्थितः परमात्मा स्वानुमतिदानेन तं प्रवर्तयति इति जीवस्य अपि स्वबुद्ध्या एव प्रवृत्तिहेतुत्वम् अस्ति। यथा गुरुतरशिलामहीरुहादिचलनादिफलप्रवृत्तिषु बहुपुरुषसाध्यासु बहूनां हेतुत्वं विधिनिषेधभाक्त्वं च इति।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।18.14।।तान्येवाह -- अधिष्ठानमिति। अधिष्ठानं शरीरं? कर्ता चिज्जडग्रन्थिरहंकारः? पृथग्विधमनेकप्रकारं करणं,चक्षुःश्रोत्रादि? विविधाश्च कार्यतः स्वरूपतश्च पृथग्भूताश्चेष्टाः प्राणापानादीनां व्यापाराः। अत्र चैतेष्वेव पञ्चमं दैवं च कारणं चक्षुराद्यनुग्राहकमादित्यादिसर्वप्रेरकोऽन्तर्यामी वा।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।18.14।।उक्तविवरणतया श्लोकद्वयस्यापुनरुक्तिं परमते विरोधं चाभिप्रेत्याऽऽह -- तदिदमाहेति। तत् श्रुतिसिद्धम्? इदं विवक्षितमित्यर्थः। न्याय्यं न्यायादानपेतंधर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते [अष्टा.4।4।92] इत्यनुशासनात्। न्यायशब्दश्चात्र अर्थान्तरानौचित्याद्व्युत्पत्त्यनुरोधाच्च शास्त्रमेवानुसन्धत्त,इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- शास्त्रसिद्ध इति। शास्त्रसिद्धेन सह लौकिकविवक्षायां तदन्यद्वेति वक्तव्यम्। विहिते निर्दिष्टे विपरीतशब्दश्च निषिद्धे स्वरसः कैमुत्येन च लौकिकं लभ्यमित्यभिप्रायेणाऽऽह -- प्रतिषिद्धे वेति।सर्वस्मिन् कर्मणीति फलितोक्तिः। यथा शारीरमानसवाचिकेषु कर्मसु शरीरादीनां प्राधान्येन प्रतिनियतता न तथाऽमी पञ्च हेतवः अपितु प्रतिकर्म पञ्चाप्यपेक्षिता इत्यभिप्रायेण शारीरत्वाद्युक्तिः। पञ्चहेतुकेषु सर्वेषु कर्मसु प्राधान्यादेव हि शारीरत्वादिविभागः। यद्यपि जगत्सृष्ट्यादिषु परमात्मैव कारणं? तथापि क्षेत्रज्ञकर्तृकेषु परमात्मना स्वेच्छयैवमुपकरणीकृतान्येतानीत्यभिप्रायेण हेत्वन्तरोक्तिः।अधिष्ठानं क्षेत्रमाहुः [म.भा.12।307।14] इति करालायाऽऽह वसिष्ठः तदनुसारेणाऽऽह -- अधिष्ठानं शरीरमिति। श्रुतिश्च -- मघवन्मर्त्यं वा इदं शरीरमात्तं मृत्युना तदेत(तदस्या)दमृतस्याशरीरस्यात्मनोऽधिष्ठानम् [छां.उ.8।12।1] इति शरीरेऽधिष्ठानशब्दं प्रयुङ्क्ते।कृत्यल्युटो बहुलम् [अष्टा.3।3।113] इति कर्मार्थतया शरीरेऽधिष्ठानशब्दं व्युत्पादयति -- अधिष्ठीयत इति। अधिष्ठातुर्जीवस्यापि परमात्माधिष्ठेयत्वात्तद्व्यवच्छेदायजीवात्मनेति विशेषितम्। जीवाधिष्ठेयस्यापि करणादेः पृथङ्निर्देशात्तत्सङ्कोचायाऽऽहमहाभूतसङ्घातरूपमिति।विश्वकर्तुरिह दैवशब्देन पृथग्ग्रहणात् कर्तृशब्दस्य चात्रशास्त्रफलं प्रयोक्तरि [पू.मी.3।7।18] इति न्यायसूचनार्थत्वाच्चकर्ता जीवात्मेत्युक्तम्। ननु कर्तृत्वं हि ज्ञानचिकीर्षापूर्वकप्रयत्नयोगित्वं ज्ञानमात्रस्यात्मनो ज्ञातृत्वासम्भवात्तन्मूलं कर्तृत्वमपि न स्यादेवेत्यत आह -- अस्य जीवात्मनो ज्ञातृत्वं कर्तृत्वं चेति।ज्ञोऽत एव [ब्र.सू.2।3।18] इत्यादिसूत्रग्रहणं? श्रुत्यादेरपि तत एवाकर्षणात्।कर्मोत्पत्तिहेतूपन्यासात्करणशब्दोऽत्र कर्मेन्द्रियमात्रपर इत्यभिप्रायेणाऽऽहवागिति। यद्यपि ज्ञानेन्द्रियाणां तत्तद्विषयज्ञानोत्पादनद्वारा परम्परया कर्मणि हेतुत्वमस्ति? तथापि वस्तुमात्रेष्वालोचितेषु मनसा सङ्कल्प्यैव कर्मकरणान्मनसश्चान्यव्यापारव्यवधानाभावात् -- समनस्कमित्युक्तम्। ज्ञानेन्द्रियस्यापि मनसः कर्मेन्द्रियप्रवृत्तिष्वपि साधारण्यात्कर्मेन्द्रियत्वोक्तिः।शरीरवाङ्मनोभिः इत्यत्रैवोक्तेः मनसः सङ्कल्पादिकर्मापेक्षया वा कर्मेन्द्रियत्ववादः। साङ्ख्यैरप्येवमेवोक्तं -- बुद्धीन्द्रियाणि चक्षुश्श्रोत्रघ्राणरसनत्वगाख्यानि (स्पर्शनकानि)। वाक्पाणिपादपायूपस्थान्कर्मेन्द्रियाण्याहुः। उभयात्मकमत्र मनः सङ्कल्पकमिन्द्रियं च साधर्म्यात् [सां.का.2627] इति।कर्महेतुषूपादीयमानेषुपृथग्विधम् इति विशेषणं तदुपयुक्तव्यापाराख्यविधापरमित्याहकर्मनिष्पत्तौ पृथग्व्यापारमिति। वागादिष्वेकैकस्य वचनादानविहरणोत्सर्गानन्दसङ्कल्पादिक्रियाव्यापारो हि मिथो विलक्षणः। प्रयत्नमूला शरीरादिक्रियैव हि चेष्टेत्युच्यते अतोऽत्र कर्मणस्तदेव कारणमित्यात्माश्रयः स्यात् तत्राऽऽह -- चेष्टाशब्देन पञ्चात्मा वायुरिति।अभिधीयत इति शब्देन प्रतिपादनमात्रं विवक्षितम्। अत्र तद्धेतावन्यस्मिन् लक्षयितव्ये वागादीनां करणादिशब्दैरुपात्तत्वात्प्राणसंवादादिषु करणानां शरीरस्य च स्थितिप्रवृत्तेः प्राणायत्तत्वश्रुतेः प्राणप्रवृत्तिनिमित्तचेष्टावाचिना शब्देन प्राणलक्षणाऽत्र युक्तेत्यभिप्रायेणाऽऽह -- तद्वृत्तिवाचिनेति। चेष्टाशब्देनेति पूर्वेणान्वयः।प्राणसंवादादिस्मारणेन प्राणलक्षणाया औचित्यं वृत्तेर्वैविध्यं च विवृणोति -- शरीरेन्द्रियेति। पृथक्छब्दविविधशब्दयोः पौनरुक्त्यपरिहारायाऽऽहशरीरेन्द्रियधारकस्य प्राणापानादिभेदभिन्नस्येति। अधिष्ठानकर्तृकरणव्यापारापेक्षया शरीरेन्द्रियवर्गरूपविषयभेदेन च पृथक्त्वं प्राणादिवृत्तिभेदप्रतिनियतोच्छ्वासनिमेषोन्मेषादिव्यापारैर्वैविध्यं चेति भावः। पञ्चात्मशब्दोऽत्र पञ्चवृत्तित्वपरः तथा च सूत्रं -- पञ्चवृत्तिर्मनोवद्व्यपदिश्यते [ब्र.सू.2।4।12] इति। पञ्चवृत्तित्वोक्तिश्च नागकूर्मकृकरदेवदत्तधनञ्जयरूपवृत्त्यन्तरपञ्चकस्यापि प्रदर्शिका। दैवं चैवात्र पञ्चमम् इत्यत्र दैवाख्यप्रधाननिर्धारणार्थमत्रेत्यनुवाद इत्याह -- अत्र कर्महेतुकलाप इति। परमात्मनः पञ्चमतया परिगणने श्रुत्यर्थपाठादिक्रमासम्भवाद्वाचः क्रमवर्तित्वेन यथासम्भवं परिगणनेऽपिपञ्चमम् इति पूरणे निर्देशे प्रयोजनाभावात् यथा कठवल्ल्याम् -- इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्थाः इत्युपक्रम्य महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः [1।3।1011] इतीन्द्रियादिसमस्तप्रवृत्तौ प्रधानहेतुः परमपुरुषो वशीकरणीयकाष्ठात्वेन निर्दिष्टः? तद्वदिहापीत्यभिप्रायेणाऽऽह -- परमात्मान्तर्यामीति। ननुदैवं पुराकृतं कर्मदैवं दिष्टं भागधेयम् [अमरः1।4।28] इत्यादिषु प्राचीनकर्मरूपभोग्यपर्यायतया दैवशब्दं पठन्ति तस्य च हेतुत्वमुपपन्नम् अतः कथमत्र परमात्मेत्युच्यते इत्थं न हि प्रागेव विनष्टानां कर्मणां स्वरूपेण हेतुत्वं सम्भवति अतः कर्मजन्यादृष्टरूपपरमपुरुषसङ्कल्पस्यैव हेतुत्वं वक्तव्यं ततो वरं तस्यैव दैवशब्देन प्रतिपादनम् अस्ति च दैवशब्दस्य दैवतपर्यायतयाऽपि लोकवेदयोः प्रसिद्धिः यथा -- सत्यं सत्यं पुनः सत्यमुद्धृत्य भुजमुच्यते। वेदशास्त्रात्परं नास्ति न दैवं केशवात्परम् [नृ.पु.18।33] इति। नह्यत्रार्थान्तरं सम्भवति। एवं श्रीमद्रामायणेऽपि -- स्वाधीनं समतिक्रम्य मातरं पितरं गुरुम्। अस्वाधीनं कथं दैवं प्रकारैरभिराध्यते [वा.रा.2] इति। तथा सभापर्वणि -- श्रूयतां परमं दैवं दुर्विज्ञेयं मयाऽपि च। नारायणस्तु पुरुषो विश्वरूपो महाद्युतिः इति। तथा याज्ञवल्क्यप्रणीते योगशास्त्रे -- आर्षं छन्दश्च मन्त्राणां दैवतं ब्राह्मणं तथा इति। उक्त एवार्थः पुनःआर्षं छन्दश्च दैवं च इत्यादिनाऽपि निर्दिश्यते। तत्रैव दैत्यमोहनार्थे प्रजापत्युपदेशानुवादेआत्मानं पूजयेन्नित्यं भूषणाच्छादनादिभिः। स्वदेह एव दैवं स्यादन्यद्दैवं न विद्यते [यो.या.] इति। तथा -- दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनं च दैवतम्। तन्मन्त्रं ब्राह्मणाधीनं तस्माद्विप्रा हि दैवतम्। [वि.सं.22] इति। अस्मिन्नपि शास्त्रेसाधिभूताधिदेवं माम् [7।30] इति प्रस्ताव्यअधिदैवं किमुच्यते [8।1] इति पृष्टमर्थंपुरुषश्चाधिदैवतम् [8।4] इति प्रतिवक्ति। छान्दोग्ये () च आदित्याख्यदैवतवर्तिनः पुरुषस्याधिदैवतमिति नामोच्यते -- तस्योपनिषदहः [बृ.उ.5।5।3] इत्यधिदैवतं तस्योपनिषदहं [बृ.उ.5।5।4] इत्यध्यात्मम्। इति। एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम्। अन्यैरपि चात्र दैवशब्दश्चक्षुराद्यनुग्राहकादित्यादिविषयतया व्याख्यातः। वयं त्वादित्यादीनामप्यनुग्राहकं परमात्मानमिह दैवं ब्रूम इति विशेषः। प्रयुक्तं च स्तोत्रेप्रख्यातदैवपरमार्थविदां मतैश्च [स्तो.र.15] इति। लक्ष्मीकल्याणे च -- धर्मे प्रमाणं समयस्तदीयो वेदाश्च तत्त्वं च तदिष्टदैवम् इति। तस्माद्देवशब्दोऽत्र देवतापर्यायः। स चात्र सर्वप्रवर्तकहेतुपरत्वाद्विशेषकाभावाच्च परदेवताविषय उचित इतिपरमात्मान्तर्यामी कर्मनिष्पत्तौ प्रधानहेतुरित्युक्तम्। यथाऽसौ सर्वेषामात्मा? न तथाऽस्य कश्चिदित्यतः परमात्मा। तथा शरीरादेः प्रवृत्तौ जीवः प्रधानहेतुः? तथा तस्याप्यसावित्यभिप्रायेणान्तर्यामित्वोक्तिः। तद्विवक्षामत्र पूर्वापराभ्यां स्थापयति -- उक्तं हीत्यादिना। ननुस्वतन्त्रः कर्ता [अष्टा.1।3।5] इति कर्तृलक्षणमनुशिष्टम् इह च कर्तेति क्षेत्रज्ञ एव निर्दिष्टः अतः कारकान्तरप्रयोक्तृत्वं कारकान्तराप्रयोज्यत्वं च तस्याङ्गीकर्तव्यम्। तस्माद्दैवमप्यत्राधिष्ठानादिवत्तदपेक्षया गुणीभूतं वक्तव्यमित्यत्राऽऽह -- परमात्मायत्तं चेति। उत्पन्नज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नस्य हि पुरुषस्य कारकान्तरप्रयोक्तृत्वादिकम् ज्ञानाद्युत्पत्तिरेव तु परमात्मायत्तेति श्रुतिसिद्धत्वात्? जीवस्य परायत्तकर्तृत्वं स्वातन्त्र्यं चाविरुद्धमिति शारीरके स्थापितमिति भावः।इममभिप्रायमजानन्वायूदकादिवत्परमात्मनः प्रेरकत्वाच्चोदयति -- नन्वेवमिति। ज्योतिष्टोमादिषु यदि परमात्मा प्रेरयति? तदा न जीवस्य किञ्चिद्विधेयं न हि प्रबलेन ह्रियमाणस्य गमनविधिः अथ निरुन्धे? तथापि न विधेयं न हि दुर्बलस्य प्रबलेन निरुद्धस्य गमनविधिः एवं यत्र परमात्मा प्रवर्तयति? तत्र निवृत्तेरशक्यत्वान्निषेधो निष्फलः यत्र तु न प्रवर्तयेत्? तत्र तु प्रवृत्तेरेवाशक्यत्वान्न निषेधापेक्षेति भावः। इयमत्र चार्वाकेतरसमस्तसिद्धान्तावलम्बिनी चोद्यकाष्ठा -- निग्रहानुग्रहाम्नातपूर्वादृष्टप्रचोदितः। निग्रहानुग्रहाद्यर्ह इतीदं घटते कथम् इति। जीवस्य ज्ञातृत्वकर्तृत्वपारतन्त्र्याभावचोद्यवत् पारतन्त्र्येऽपि विधिनिषेधवैयर्थ्यप्रसङ्गचोद्यमपि पञ्चमवेदतदुपन्षिदोर्द्रष्टा भगवान्बादरायणः स्वयमेव परिजहारेत्याह -- इदमपीति। विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिहेतुभ्य एव चेतनेन कृतं प्रयत्नमपेक्ष्य परमात्मा उत्तरोत्तरेषु प्रवर्तयतीति सूत्रार्थः। तत्र सर्वप्रवृत्तिषु परमात्माधीनासु कथं कृतप्रयत्नापेक्षत्वमुच्यते वैयर्थ्यचोद्यस्य चावैयर्थ्यासिद्ध्यर्थतया परिहारे साध्याविशेषश्च स्यादिति शङ्कायां सूत्रस्याभिप्रायिकमर्थमाह -- एतदुक्तमिति।अयमभिप्रायः -- यत्तावदीश्वरस्य यन्त्रादिवत्त्वसङ्कल्पकल्पितप्रवृक्तिशक्तीनां करणकलेवराणां समर्पणं? यच्च भूतलादिवत्सर्वप्रवृत्तिनिवृत्त्यानुगुण्येन स्वरूपतः सङ्कल्पतश्च सर्वाधारतयाऽवस्थानं? यदपि करणकलेवराद्यधिष्ठानशक्तिप्रदानं? यच्च प्रवृत्त्यालम्बनबाह्यविषयपुरस्करणं? तत्सर्वं जीवस्य कर्तृत्वानुगुणं सर्वप्रवृत्तिनिवृत्तिसाधारणं चेति न तत्र चोद्यावकाशः। एतावतैव सर्वप्रवृत्तिनिवृत्तिसाधारणमुदासीनत्वं भगवत उच्यते। एवं लब्धशक्तेः पुरुषस्य प्रवृत्तिकाले यत्कार्यनिष्पत्त्यर्थमीश्वरस्यानुमन्तृत्वं? तदपि न जीवस्य कर्तृतां वारयति अपितूत्तम्नातीति न ततोऽपि विधिनिषेधवैयर्थ्यम्। नचैकस्मिन्नेव कर्मणि परमात्माख्यकर्त्रन्तरसाहचर्यं जीवस्यानियोज्यताकारणं? प्रत्येकमशक्येषु सम्भूय बहुभिरनुष्ठीयमानेष्वपि लोके विधिनिषेधतत्फलादिदर्शनात्प्रवृत्तिशक्तस्येच्छायामन्यैरनिवार्यत्वेन स्वातन्त्र्यादिसिद्धेः। एवंकार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः [3।5] इत्यादिष्वपि ज्ञानेच्छापुरस्कारेण प्रवर्तनादिच्छाविशेषादेश्च स्ववासनादिविशेषमूलत्वाज्जीवस्य कर्तृत्वं सुस्थितम्। अत एव ह्यत्र हेतुपञ्चके कर्तेति समाख्यासमाधिना कर्तृत्वेनैव जीवो निरूप्यते यत्तु करणकलेवरशक्तिज्ञानवाञ्छादिषु विषमप्रदानमहितप्रवृत्तावनिवारणमनुमननं प्रत्यवायजननं च? तदप्यनादिपूर्वकर्मवैषम्योपाधिकतया नेश्वरस्य वैषम्यनैर्घृण्यापादकम्। प्रवृत्तिवैषम्यस्यादृष्टवैषम्यमूलत्वेऽपि तदेवादृष्टं शास्त्रपुरस्कारेणास्य दृष्टादिकमारभते। तदप्येवमिति विधिनिषेधावकाशलाभः। न हि पूर्वं यज्ञादिकारणमदृष्टं कृतमिति तेनैवेदानीं यज्ञादिकं निष्पद्यते? शास्त्रजन्यबुद्ध्यादिसापेक्षत्वात्तस्य। एवं पापहेतुभूतमप्यदृष्टं स्वबुद्ध्यैव निवृत्तियोग्यतया शासनानर्हदशामापाद्य पापे प्रवर्तयति तदपि तथेति? अन्यथादृष्टमूलत्वाद्धिताहितप्रवृत्त्योर्न शास्त्रापेक्षेति वादिनः पूर्वादृष्टेऽपि तथा प्रसङ्गात्स्ववचनविरोधः। अथादृष्टमूलत्वे शास्त्रवैयर्थ्यप्रसङ्गः सार्थकं च शास्त्रं परैरभ्युपगम्यत इत्यदृष्टमूलत्वमेव नोपपद्येतेति मन्यसे तदपि न? लौकिकविधिनिषेधयोरपि तथा प्रसङ्गात्। तत्रापि हि सामग्रीवैचित्र्यमूलत्वे प्रवृत्तिनिवृत्त्यादिवैचित्र्यस्य किंगामानय इत्यादिनियोगेन अथ सोऽपि नियोगः स्वसामग्र्योपनीतः प्रवृत्तिनिवृत्तिसामग्रीमध्यमध्यास्त इति पश्यसि? एवं वैदिकनियोगोऽपीति सम्पश्येथाः। तर्हि लौकिकमपि नियोगं परित्यजाम इति चेत् -- हन्त परस्परसंव्यवहारव्युत्त्पत्त्याद्यसम्भवाद्विलीनं लोकायतेनापीति मूकीभव। एवं सामान्यतः सर्वेषु अदृष्टवैषम्यमूलेष्वपि कर्मसु शास्त्रे सावकाशे तदेव शास्त्रमीश्वरबुद्धिविशेषं चेददृष्टमुपदिशति? तथाविधोऽयमीश्वरः प्रमाणबलादगवत इति न तत्र परिचोदनावकाशः। न चैष दोषः -- यथोक्तमाचार्यैर्वादिहंसाम्बुवाहैः -- वैषम्ये सति कर्मणामविषमः किं नाम कुर्यात्कृती किंवोदारतया ददीत वरदो वाञ्छन्ति चेद्दुर्गतिम् इति।तदयं चार्वाकेतरसमस्तसिद्धान्तनिष्ठानां साधारणपरिहारसारः -- तत्तदिष्टादृष्टमूलशास्त्रवश्यदशान्वयात्। पुनस्तथातथा दृष्टसम्पत्तिरुपपद्यते।।पुमर्थसाधनत्वेन प्रतीतेः स्वेच्छया पुमान्। प्रवर्तेतेति तादर्थ्यात्सावकाशाऽत्र चोदना।। इति। अत्र करणकलेवरप्रदानादिसाधारणोपकारसापेक्षतया जीवकर्तृत्वस्य परापेक्षत्वंसन्नित्यन्तेनोक्तम्।कर्मनिष्पत्तये इत्यादिना तु प्रवृत्तिविशेषे जीवस्य स्वातन्त्र्यं दर्शितम्। तत्रापि परस्य किञ्चित्कारःतदन्तरवस्थित इत्यादिनोक्तः।तं -- कृतप्रयत्नमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।18.13 -- 18.17।।अधुना व्यवहारदशायामपि पञ्चस्वपि कर्महेतुषु स्थितेषु बलादेवामी ( बलादमी ) अविद्यान्धाः पुमांसः स्वात्मन्येव सकलकर्तृभावभारमारोपयन्ति ( आरोपयन्त्येते )। अतो निजयैव धिया आत्मानं बध्नन्ति? न तु वस्तुस्थित्या अस्य बन्धः इत्युपदिश्यते -- पञ्चेत्यादि न निबद्ध्यते इत्यन्तम्। कृतः अन्तः? निश्चयः यत्रेति कृतान्तः? सिद्धान्तः। अधिष्ठानं? विषयः। दैवम्? प्रागर्जितं शुभाशुभम्। पञ्चैते अधिष्ठानादयः सामग्रीरूपतां प्राप्ताः सर्वकर्मसु हेतवः।अन्ये तु? अधिष्ठीयते अनेन सर्वं कर्म इति बुद्धिगतं रजोलब्धवृत्तिकं धृतिश्रद्धासुखविविदिषाविविदिषारूपपञ्चकपरिणामिकर्मयोगशब्दवाच्यमधिष्ठानं क्वचित् प्रयत्नशब्देन उक्तम्। कर्ता? अनुसन्धाता बुद्धिलक्षणः। करणं मनश्चक्षुरादि? बाह्यमपि च खड्गादि। चेष्टा प्राणापानादिका। ,दैवशब्देन धर्माधर्मौ ताभ्यां च बुद्धिगताः सर्वेऽपि भावा उपलक्षिताः [ इति ]। अन्ये तु अधिष्ठानम् ईश्वरं मन्यन्ते।अकृतबुद्धित्वात्? अनिश्चितप्रज्ञतया। यः पुनरहंकारवियोगदार्ढ्येन प्रागुक्तयुक्तिशतशोधितेन कर्माणि करोति न स बन्धभाक् ( ? N न संबन्धभाक् )? कृतबुद्धित्वात् इत्याशयः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।18.14 -- 18.15।।अधिष्ठानादि करण एवान्तर्भूतमिति वक्ष्यति? तत्प्रबोधनायाधिष्ठानं निर्दिशति -- अधिष्ठानमिति। आदिपदेन भूम्यादि। कर्ता जीव इति व्याख्यानमसदिति भावेनाऽऽह -- कर्तेति। शंरीरवाङ्मनोभिः क्रियमाणानां कर्मणां कर्ता कथं विष्णुः इत्यत आह -- स हीति। उक्तमुपपादितम्। तथापि जीवोऽत्र कर्ता किं न स्यात् इत्यत आह -- जीवस्य चेति। अपराधीनत्वाभिप्रायेणेदं निराकरणं? पराधीनं कर्तृत्वमङ्गीकृत्यान्यत्र जीवो व्याख्यात इत्यविरोधः। भावसाधनताप्रतीतिनिरासार्थमाह -- करणमिति। आदिपदेन स्रुवादि। भावसाधनार्थस्य साध्यत्वाच्चेष्टाग्रहणेन च गृहीतत्वाच्च। वायवीयाः प्राणापानाद्याश्चेष्टाः (शां.) इत्यसत्। द्रव्याभिधाने चेष्टात्वानुपपत्तेः। प्राणनाद्यभिधाने साध्यत्वात्कारकत्वानुपपत्तेरित्याशयवानाह -- चेष्टा इति। क्रियाणां साधकत्वात्कथं कारकत्वं इत्यत आह -- हस्तादीति। सावान्तरव्यापारं हि करणं कारकमुच्यते। तत्राधिष्ठानादिपदैर्व्यापारिणो निर्दिश्यन्ते। क्रियाशब्देन त्ववान्तरा व्यापाराः। कारकाश्रिताभिरवान्तरक्रियाभिः प्रधानक्रियाजननं च प्रसिद्धमेवेत्यर्थः।नन्वत्र कारकाभिधानप्रसङ्गेऽधिष्ठानाद्येवोक्तं कर्मसम्प्रदानापादानानि कुतो नोक्तानि अधिष्ठानादीनां सर्वक्रियानुगमात् कर्मादीनां तदभावादिति ब्रूमः। तथा च वक्ष्यति -- शरीरवाङ्मनोभिर्यत् [18।15] इति। एवं तर्हि चेष्टाऽपि न वक्तव्या। ध्यानादिजनने करणस्य मनसश्चेष्टाभावेनानुगमादित्यत आह -- ध्यानादेरपीति। आदिपदेन स्मरणं गृह्यते? ज्ञात एवार्थे ध्यानं भवति? ज्ञानं चात्मेन्द्रियसन्निकृष्टेनैव मनसा जायते? सन्निकर्षश्च मानसचेष्टाजन्यः? अतो ध्यानादेरपि मनस्सम्बन्धिनी चेष्टा कारणं भवतीति भावः। ननु नियतपूर्वक्षणे सत्कारणं न च ध्यानादिपूर्वक्षणे मनसि क्रियाऽस्ति चिरातीतत्वात्। मनोनैश्चल्यसाध्यत्वाद्ध्यानादेः। न च सन्निकर्षज्ञानद्वारा करणं तस्यापि चिरातीतत्वादित्यत आह -- पूर्वतनीति। पूर्वतनी चिरातीताऽपि मानसी क्रिया सन्निकर्षद्वारा ध्यानादिहेतुसंस्कारकारणत्वेन भवति? ध्यानादेः कारणसंस्कारस्य स्थायित्वादित्यर्थः। दैवमन्तर्यामिव्यापार इति कश्चित्? तदसत् कर्तेत्यनेनैवोक्तत्वात्। चक्षुराद्यनुग्राहकाः सूर्यादय इत्यपरः [वें.ब्र.] तदप्यसत् करणादिशब्दैरेव गृहीतत्वादिति भावेनाऽऽह -- दैवमदृष्टमिति। उक्तमर्थं श्रुतिसम्मत्याऽपि समर्थयते -- तथा चेति। देह इत्युपलक्षणम्। हेतुः कारणम्। कर्म हेत्विति क्वचित्पाठः? तत्र छान्दसो लिङ्गव्यत्ययः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।18.14।।प्रमाणमूलानि कर्मकारणानि पञ्चात्मनोऽकर्तृसिद्ध्यर्थं हेयत्वेन ज्ञातव्यानीत्युक्ते कानि तानीत्यपेक्षायां तत्स्वरूपमाह द्वितीयेन -- अधिष्ठानमिति। इच्छाद्वेषसुखदुःखचेतनाभिव्यक्तेराश्रयोऽधिष्ठानं शरीरं तथा कर्ता यथाधिष्ठानमनात्मा भौतिकं मायाकल्पितं स्वाप्नगृहरथादिवत् तथा कर्ताऽहं करोमीत्याद्यभिमानवान् ज्ञानशक्तिप्रधानापञ्चीकृतपञ्चमहाभूतकार्योऽहंकारोऽन्तःकरणं बुद्धिर्विज्ञानमित्यादिपर्यायशब्दवाच्यस्तादात्म्याध्यासेनात्मनि कर्तृत्वादिधर्माध्यारोपहेतुरनात्मा भौतिको मायाकल्पितश्चेति तथाशब्दार्थः। स्थूलशरीरस्य लोकायतिकैरात्मत्वेन परिगृहीतस्याप्यन्यैः परीक्षकैरनात्मत्वेन निश्चयात्तद्दृष्टान्तेन तार्किकादिभिरात्मत्वेन परिगृहीतस्य कर्तुरप्यनात्मत्वनिश्चयः सुकर इत्यर्थः। करणं च श्रोत्रादिशब्दाद्युपलब्धिसाधनम्। चशब्दस्तथेत्यनुकर्षार्थः। पृथग्विधं नानाप्रकारं पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्चेति द्वादशसंख्यं कारणवर्गं मनो बुद्धिश्चेति वृत्तिविशेषौ वृत्तिमांस्त्वहंकारः कर्तैव। चिदाभासस्तु सर्वत्रैवाविशिष्टो विविधा नानाप्रकाराः पञ्चधा पञ्चधा वा प्रसिद्धाः। चशब्दस्तथेत्यनुकर्षार्थः।,पृथक् असंकीर्णाश्चेष्टाः क्रियारूपाः क्रियाशक्तिप्रधानाः पञ्चीकृतपञ्चमहाभूतकार्याः क्रियाप्राधान्येन वायवीयत्वेन व्यपदिश्यमानाः प्राणापानव्यानोदानसमानाः नागकूर्मकृकलदेवदत्तधनंजयाख्याश्च तदन्तर्भूता एव। अत्र च सुषुप्तावन्तःकरणस्य कर्तुर्लयेऽपि प्राणव्यापारदर्शनाद्भेदव्यपदेशाच्चान्तःकरणादत्यन्तभिन्न इव प्राण इति केचित्। क्रियाशक्तिज्ञानशक्तिमदेकमेव जीवत्वोपाधिभूतमपञ्चीकृतपञ्चमहाभूतकार्यं क्रियाशक्तिप्राधान्येन प्राण इति? ज्ञानशक्तिप्राधान्येन चान्तःकरणमिति व्यपदिश्यत इत्यभियुक्ताः।स ईक्षांचक्रे कस्मिन्नहमुत्क्रान्त उत्क्रान्तो भविष्यामि कस्मिन्वा प्रतिष्ठिते प्रतिष्ठास्यामीति स प्राणमसृजत इति श्रुतावुत्क्रान्त्याद्युपाधित्वं प्राणस्योक्तं? तथासधीः स्वप्नो भूत्वेमं लोकमतिक्रामति मृत्यो रूपाणि ध्यायतीव लेलायतीव इत्यादिश्रुतावुत्क्रान्त्याद्युपाधित्वं बुद्धेरुक्तं? स्वतन्त्रोपाधिभेदे च जीवभेदप्रसङ्गस्तस्माद्बुद्धिप्राणयोरेकत्वेनैवोत्क्रान्त्याद्युपाधित्वं युक्तं? भेदव्यपदेशश्च शक्तिभेदात् सुषुप्तौ च ज्ञानशक्तिभागलयेऽपि क्रियाशक्तिभागदर्शनमेकत्वेऽपि न विरुद्धमनुभवसिद्धत्वात् दृष्टिसृष्टिलयेन सर्वलयेऽपि प्राणव्यापारवच्छरीरस्य सुषुप्तोऽयमित्येवंरूपेण परैः कल्पितत्वाच्च। तस्मादुभयथापि व्यपदेशभेद उपपन्नः। दैवं चानुग्राहकदेवताजातम्। चशब्दस्तथेत्यनुकर्षणार्थः। अत्र कारणवर्गे पञ्चमं पञ्चसंख्यापूरणम्। एवशब्दस्तथाशब्देन संबध्यमानोऽनात्मत्वभौक्तिकत्वकल्पितत्वाद्यवधारणार्थः पञ्चानामपि। तत्र शरीरस्य कर्तृकरणक्रियाधिष्ठानस्य देवता पृथिवीयत्रास्य पुरुषस्य मृतस्याग्निं वागप्येति वातं प्राणश्चक्षुरादित्यं दिशः श्रोत्रं मनश्चन्द्रं पृथिवीं शरीरम् इति श्रुतौ वागाद्यधिष्ठात्र्यग्न्यादिभिः सह शरीराधिष्ठातृत्वेन पृथिवीपाठात्कर्तुरहंकारस्याधिष्ठात्री देवता रुद्रः पुराणादिप्रसिद्धः। करणानां चाधिष्ठात्र्यो देवताः सुप्रसिद्धाः। श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणानां दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्िवनः। वाक्पाणिपादपायूपस्थानां वह्नीन्द्रोपेन्द्रमित्रप्रजापतयो मनोबुद्ध्योश्चन्द्रबृहस्पती इति। पञ्चप्राणानां क्रियारूपाणां सद्योजातवामदेवाघोरतत्पुरुषेशानाः पुराणप्रसिद्धाः। भाष्ये दैवमादित्यादिचक्षुराद्यनुग्राहकमित्यधिष्ठानादिदेवतानामप्युपलक्षणम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।18.14।।एवं प्रतिज्ञाय तान्येवाह -- अधिष्ठानमिति। अधिष्ठानं लिङ्गशरीरं? कर्ता कर्तृत्वात्मकाभिमानरूपोऽहङ्कारः? करणं चेन्द्रियाणि? पृथग्विधं अनेकप्रकारकम्। चकारेण स्वाधिदैविकसहितम्। विविधाः कार्यकारणफलादिभिरनेकप्रकारकाः। पृथग्भूताः भिन्नरूपेण जाताः प्राणादीनां चेष्टा व्यापाराः। अत्र एतन्मध्य एव सर्वप्रेरकोऽन्तर्यामी दैवं पञ्चमं मुख्यं कारणमित्यर्थः। एवकारेण,तदविरोधेनान्येषां कारणत्वमुक्तम्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।18.14।। --,अधिष्ठानम् इच्छाद्वेषसुखदुःखज्ञानादीनाम् अभिव्यक्तेराश्रयः अधिष्ठानं शरीरम्? तथा कर्ता उपाधिलक्षणः भोक्ता? करणं च श्रोत्रादिशब्दाद्युपलब्धये पृथग्विधं नानाप्रकारं तत् द्वादशसंख्यं विविधाश्च पृथक्चेष्टाः वायवीयाः प्राणापानाद्याः दैवं चैव दैवमेव च अत्र एतेषु चतुर्षु पञ्चमं पञ्चानां पूरणम् आदित्यादि चक्षुराद्यनुग्राहकम्।।

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।18.14 -- 18.15।।तथाहि अधिष्ठानमिति। शरीरवाङ्मनोभिरिति न्याय्यं शास्त्रीयं? विपरीतं निषिद्धं वा? अन्यत्सर्वं कर्म शारीरं वाचिकं मानसं च तस्य पञ्चते हेतवो भवन्ति। तान्याह -- अधिष्ठानं प्रथमं शरीरं कारणं? कर्ता जीवात्मा सांहकारो ज्ञाता संज्ञात एवकर्ता शास्त्रार्यवत्त्वात् [ब्र.सू.2।3।33] इति सूत्रात् करणं च समनस्कं चक्षुश्श्रोत्रादिज्ञानकर्मभेदात् पृथग्विधं गृहीतं कार्यस्वरूपतो विविधःश्चेष्टः प्राणादीनां वृत्तयोऽत्र कर्मणि हेतवः। दैवं च पञ्चमं अदृष्टमिति केचित् (माध्वाः)। वस्तुतस्तु पञ्चसङ्ख्यापूरणमुत्तममन्तर्यामिरूपं कर्ममात्रनिष्पत्तौ प्रधानं? हेतुरित्यर्थः। उक्तं हि पाक् भगवता पुरुषोत्तमेन स्वान्तरे स्वरूपमाहात्म्यंहृदि सर्वस्य धिष्ठितं [13।18] इति। श्रीमदाचार्यैरप्युक्तं -- कृष्णात्परं नास्ति दैवं वस्तुतो दोषवर्जितम् इति। तथा च सूत्रेष्वपि तदन्तरात्मायत्तजीवात्मदेहेन्द्रियादेः कर्त्तृत्वंपरानुवृत्तेः इत्युपपादितंयथा च तक्षोभयथा [ब्र.सू.2।3।40] इति।अत्र भाष्यकारः -- ननु कर्मकारिणां कर्त्तृत्वभोक्तृत्वभेदो दृश्यते तथा च कर्तृत्वभोक्तृत्वयोर्भेदो भविष्यतीति चेत्? न यथा तक्षा रथं निर्माय तत्रारूढो विहरति पीठं वा स्वतो न व्याप्रियते वास्यादिद्वारेण वा? चकारादन्ये स्वार्थकर्त्तारः। अन्यार्थमपि करोतीति चेत्प्रकृतेऽपि सर्वहितार्थं प्रयतमानत्वात्। न च कर्तृत्वमात्रं दुःखरूपं पयःपानादेः सुखरूपत्वात्। तथा च स्वार्थं परार्थं कर्त्तृत्त्वं कारयितृत्वं च सिद्धम्। अन्यच्च -- परात्तु तच्छ्रुतेः [ब्र.सू.2।3।41] इति। कर्तृत्वं ब्रह्मगतमेव तत्सम्बन्धादेव जीवं कर्तृत्वं? तदंशत्वात् ऐश्वर्यादिवत् न तु जडैकगतं इति। अतः नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा [बृ.उ.3।7।23] इति सर्वकर्त्तृत्वं घटते। कुत एतत् श्रुतेः तस्यैव कर्तृकारयितृत्वश्रवणात् यमुन्निनीषति तं साधु कर्म कारयति यमधोनिनीषति तमसाधु कारयति इतिसर्वकर्ता? सर्वभोक्ता? सर्वनियन्ता इति सर्वरूपत्वान्न भगवति दोषः। तथाच सूत्रं -- कृतप्रयत्नापेक्षस्तु विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिभ्यः [ब्र.सू.2।3।42] ननु वैषम्यनैर्घृण्ययोर्न परिहारः? अनादित्वेन स्वस्यैव कारयितृत्वादिति पक्षं तुशब्दो निवारयति प्रयत्नपर्यन्तं जीवकृत्यं अग्रे तस्याऽशक्यत्वात् स्वयमेव कारयति। यथा पुत्रं यतमानं बालं वा पदार्थगुणदोषौ वर्णयन्नपि तत्प्रयत्नाभिनिवेशं दृष्ट्वा तथैव कारयति सर्वत्र तत्कारणत्वाय तदानीं फलदातृत्वे या इच्छा तामेवानुवदतिउन्निनीषति अधोनिनीषति इति। अन्यथा विहितप्रतिषिद्धयोर्वैयर्थ्यापत्तिः? अप्रामाणिकत्वं च। फलदाने कर्मापेक्षः कर्मकारणे प्रयत्नापेक्षः कामे प्रवाहापेक्ष इति मर्यादारक्षार्थं वेदांश्चकार? ततो न ब्रह्मणि दोषगन्धोऽपि? न चानीश्वरत्वं मर्यादामार्गस्य तथैव निर्णयात् यत्रान्यथा स पुष्टिमध्ये इति।


Chapter 18, Verse 14