पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।18.13।।
pañchaitāni mahā-bāho kāraṇāni nibodha me sānkhye kṛitānte proktāni siddhaye sarva-karmaṇām
pañcha—five; etāni—these; mahā-bāho—mighty-armed one; kāraṇāni—causes; nibodha—listen; me—from me; sānkhye—of Sānkya; kṛita-ante—stop reactions of karmas; proktāni—explains; siddhaye—for the accomplishment; sarva—all; karmaṇām—of karmas
Learn from Me, O Arjuna, these five causes for the accomplishment of all acts, as described in Sankhya-krtanta—the science of exact understanding of things—for the accomplishment of works.
O mighty-armed one, learn from Me these five factors for the accomplishment of all actions, which have been spoken of in the Vedanta, in which actions terminate.
Learn from Me, O mighty-armed Arjuna, these five causes, as declared in the Sankhya system, for the accomplishment of all actions.
O mighty-armed one! Learn from Me these five causes, declared in the conclusion of deliberations on proper knowledge, for the accomplishment of all actions.
I will now tell you, O Mighty Man, the five causes that must come together, according to the final decision of philosophy, for an action to be accomplished.
।।18.13।।हे महाबाहो ! कर्मोंका अन्त करनेवाले सांख्यसिद्धान्तमें सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिके लिये ये पाँच कारण बताये गये हैं, इनको तू मेरेसे समझ।
।।18.13।। हे महाबाहो ! समस्त कर्मों की सिद्धि के लिए ये पांच कारण सांख्य सिद्धांत में कहे गये हैं, जिनको तुम मुझसे भलीभांति जानो।।
18.13 पञ्च five? एतानि these? महाबाहो O mightyarmed? कारणानि causes? निबोध learn? मे from Me? सांख्ये in the Sankhya? कृतान्ते which is the end of all actions? प्रोक्तानि as declared? सिद्धये for the accomplishment? सर्वकर्मणाम् of all actions.Commentary The Self has no connection whatevr with activity. Nature does everything. The Self is the silent witness. He remains indifferent. The whole superstructure of human activity is the result of the five welldefined causes which are enumerated in the following verse.Etani These Which are going to be mentioned.Sankhya Vedanta Knowledge of the Self as taught in the Vedanta (the Upanishads) puts an end to all actions. This is the reason why the term Kritante (the end of actions) is used here. When the knowledge of the Self arises? all actions terminate. This is taught in chapter II? verse 46 To the Brahman who has known the Self al the Vedas are of so much use as is a reservoir of water in a place where there is a flood everywhere. Again? in verse 33 of chapter IV? it is said All actions in their entirety? O Arjuna? culminate in knowledge. Vedanta? therefore? which imparts knowledge of the Self? is the end of action. A liberated sage who has attained the knowledge of the Self in accordance with the instructions laid down in the Vedanta becomes a Kritakritya (one who has done everything and has nothing more to do).
।।18.13।। व्याख्या -- पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि -- हे महाबाहो जिसमें सम्पूर्ण कर्मोंका अन्त हो जाता है? ऐसे सांख्यसिद्धान्तमें सम्पूर्ण विहित और निषिद्ध कर्मोंके होनेमें पाँच हेतु बताये गये हैं। स्वयं (स्वरूप) उन कर्मोंमें हेतु नहीं है।निबोध मे -- इस अध्यायमें भगवान्ने जहाँ सांख्यसिद्धान्तका वर्णन आरम्भ किया है? वहाँ निबोध क्रियाका प्रयोग किया है (18। 13? 50)? जब कि दूसरी जगह श्रृणु क्रियाका प्रयोग किया है (18। 4? 19? 29? 36? 45? 64)। तात्पर्य यह है कि सांख्यसिद्धान्तमें तो निबोध पदसे अच्छी तरह समझनेकी बात कही है और दूसरी जगह श्रृणु पदसे सुननेकी बात कही है। अतः सांख्यसिद्धान्तको गहरी रीतिसे समझना चाहिये। अगर उसे अपनेआप (स्वयं) से गहरी रीतिसे समझा जाय? तो तत्काल तत्त्वका अनुभव हो जाता है।सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् -- कर्म चाहे शास्त्रविहित हों? चाहे शास्त्रनिषिद्ध हों? चाहे शारीरिक हों? चाहे मानसिक हों? चाहे वाचिक हों? चाहे स्थूल हों और चाहे सूक्ष्म हों -- इन सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिके लिये पाँच हेतु कहे गये हैं। जब पुरुषका इन कर्मोंमें कर्तृत्व रहता है? तब कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह दोनों होते हैं? और जब पुरुषका इन कर्मोंके होनेमें कर्तृत्व नहीं रहता? तब कर्मसिद्धि तो होती है? पर कर्मसंग्रह नहीं होता? प्रत्युत क्रियामात्र होती है। जैसे? संसारमात्रमें परिवर्तन होता है अर्थात् नदियाँ बहती हैं? वायु चलती है? वृक्ष बढ़ते हैं? आदिआदि क्रियाएँ होती रहती है? परन्तु इन क्रियाओँसे कर्मसंग्रह नहीं होता अर्थात् ये क्रियाएँ पापपुण्यजनक अथवा बन्धनकारक नहीं होतीं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्तृत्वाभिमानसे ही कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह होता है। कर्तृत्वाभिमान मिटनेपर क्रियामात्रमें अधिष्ठान? करण? चेष्टा और दैव -- ये चार हेतु ही होते हैं (गीता 18। 14)।यहाँ सांख्यसिद्धान्तका वर्णन हो रहा है। सांख्यसिद्धान्तमें विवेकविचारकी प्रधानता होती है? फिर भगवान्ने सर्वकर्मणां सिद्धये वाली कर्मोंकी बात यहाँ क्यों छेड़ी कारण कि अर्जुनके सामने युद्धका प्रसङ्ग है। क्षत्रिय होनेके नाते युद्ध उनका कर्तव्यकर्म है। इसलिये कर्मयोगसे अथवा सांख्ययोगसे ऐसे कर्म करने चाहिये? जिससे कर्म करते हुए भी कर्मोंसे सर्वथा निर्लिप्त रहे -- यह बात भगवान्को कहनी है। अर्जुनने सांख्यका तत्त्व पूछा है? इसलिये भगवान् सांख्यसिद्धान्तसे कर्म करनेकी बात कहना आरम्भ करते हैं।अर्जुन स्वरूपसे कर्मोंका त्याग करना चाहते थे अतः उनको यह समझाना था कि कर्मोंका ग्रहण और त्याग -- दोनों ही कल्याणमें हेतु नहीं हैं। कल्याणमें हेतु तो परिवर्तनशील नाशवान् प्रकृतिसे अपरिवर्तनशील अविनाशी अपने स्वरूपका सम्बन्धविच्छेद ही है। उस सम्बन्धविच्छेदकी दो प्रक्रियाएँ हैं -- कर्मयोग और सांख्ययोग। कर्मयोगमें तो फलका अर्थात् ममताका त्याग मुख्य है और सांख्ययोगमें अहंताका त्याग मुख्य है। परन्तु ममताके त्यागसे अहंताका और अहंताके त्यागसे ममताका त्याग स्वतः हो जाता है। कारण कि अहंतामें भी ममता होती है जैसे -- मेरी बात रहे? मेरी बात कट न जाय -- यह मैंपनके साथ भी मेरापन है। इसलिये ममता(मेरापन)को छोड़नेसे अहंता(मैंपन) छूट जाती है (टिप्पणी प0 895)। ऐसे ही पहले अहंता होती है? तब ममता होती है अर्थात् पहले मैं होता है? तब मेरापन होता है। परन्तु जहाँ अहंता(मैंपन)का ही त्याग कर दिया जायगा? वहाँ ममता (मेरापन) कैसे रहेगी वह भी छूट ही जायगी। सम्बन्ध -- सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिमें पाँच हेतु कौनसे हैं अब यह बताते हैं।
।।18.13।। त्रिविध त्याग के सन्दर्भ में भगवान् श्रीकृष्ण ने निरहंकार और निसंग भाव से कर्म करने वाले पुरुष को सात्विक त्यागी कहा था। अत स्वाभाविक ही है कि अर्जुन के मन में कर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण प्रस्तुत खण्ड में? कर्म के स्थूल रूप तथा प्रेरणा? उद्देश्य आदि सूक्ष्म स्वरूप का भी वर्णन करते हैं।किसी भी लौकिक अथवा आध्यात्मिक कर्म को सम्पादित करने के लिए पाँच कारणों की अपेक्षा होती है। ये मानों कर्म के अंग हैं? जिनके बिना कर्म की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि मनुष्य अपने कर्मों को अनुशासित और सुनियोजित कर आन्तरिक सांस्कृतिक विकास को सम्पादित करना चाहता हो? तो उसे अत्याधिक साहस? प्रयोजन का सातत्य? आत्मविश्वास तथा बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता होती है। इसलिए भगवान् यहाँ अर्जुन को महाबाहो के नाम से सम्बोधित कर उसकी शूरवीरता का आह्वान करते हैं।कर्मसम्पादन के लिए आवश्यक पाँच कारणों का वर्णन सांख्य दर्शन में किया गया है। यहाँ सांख्य शब्द से तात्पर्य वेदान्त से है कपिल मुनि जी के सांख्य दर्शन से नहीं? क्योंकि उसमें इनका वर्णन नहीं किया गया है। इस श्लोक में प्रयुक्त कृतान्त शब्द सांख्य का विशेषण है। कृतान्त का अर्थ है कर्मों का अन्त। वेदान्त में उपदिष्ट आत्म ज्ञान के होने पर अहंकार का अन्त हो जाता है और उसी के साथ उसके कर्मों की समाप्ति हो जाती है।इसलिए? वेदान्त का विशेषण कृतान्त कहा गया हैं। अगले श्लोक में उन पाँच कारणों को बताते हैं
।।18.13।।नन्वपरमार्थसंन्यासवदविशेषादज्ञानां परमार्थसंन्यासोऽपि किं न स्यात्त्यागस्य सुकरत्वात्तत्राह -- अतः परमार्थेति। तस्य सम्यग्दर्शनादविद्यानिवृत्तौ तदारोपितक्रियाकारकादिनिवृत्तेरिति हेत्वर्थः। विद्यावतः सर्वकर्मसंन्यासित्वसंभावनामुक्त्वैवकारव्यावर्त्यं दर्शयति -- नत्विति। अविदुषोऽशेषकर्मणां तद्धेतूनां च रागादीनां त्यागायोगे कारकेष्वधिष्ठानादिष्वात्मत्वदर्शनं हेतुमाह -- क्रियेति। कथमधिष्ठानादीनां क्रियाकर्तृत्वं कथं वा विदुषस्तेष्वात्मत्वधीरित्याशङ्क्यानन्तरश्लोकचतुष्टयस्य तात्पर्यमाह -- तदेतदिति। कर्मार्थानामधिष्ठानादीनामप्रामाणिकत्वाशङ्कामादावुद्धरति -- पञ्चेति। उत्तरत्रेत्यधिष्ठानादिषु वक्ष्यमाणेष्वित्यर्थः। वस्तूनां तेषामेव वैषम्यं दिदर्शयिषितं नहि चेतःसमाधानादृते ज्ञातुं शक्यते। सांख्यशब्दं व्युत्पादयति -- ज्ञातव्या इति। आत्मा त्वंपदार्थस्तत्पदार्थो ब्रह्म तयोरैक्यधीस्तदुपयोगिनश्च श्रवणादयः पदार्थास्ते संख्यायन्ते व्युत्पाद्यन्ते। कृतान्तशब्दस्य वेदान्तविषयत्वं विभजते -- कृतमित्यादिना। वेदान्तस्य तत्त्वधीद्वारा कर्मावसानभूमित्वे वाक्योपक्रमानुकूल्यं दर्शयति -- यावानिति। उदपाने कूपादौ यावानर्थः स्नानादिस्तावानर्थः समुद्रे संपद्यतेऽतो यथा कूपादिकृतं कार्यं सर्वं समुद्रेऽन्तर्भवति तथा सर्वेषु वेदेषु कर्मार्थेषु यावत्फलं तावज्ज्ञानवतो ब्राह्मणस्य ज्ञानेऽन्तर्भवति? ज्ञानं प्राप्तस्य कर्तव्यानवशेषादित्यर्थः। तत्रैव वाक्यान्तरमनुक्रामति -- सर्वमिति। उदाहृतवाक्ययोस्तात्पर्यमाह -- आत्मेति। आत्मज्ञाने सति सर्वकर्मनिवृत्तावपि कथं वेदान्तस्य कृतान्तत्वमित्याशङ्क्याह -- अत इति। तानि मद्वचनतो निबोधेति पूर्वेण संबन्धः।
।।18.13।।एवं परमार्थसंन्यासिनां त्रिविधकर्मफलाभावमुक्त्वा परमार्थसंन्यासाधिकारकारणस्यात्मन्यकर्तृत्वज्ञानस्यावश्यकतां बोधयितुमाह -- पञ्चैतानीत्यादिना। एतानि वक्ष्यमाणानि कारणानि निर्वर्तकानि निबोध मद्वजनाज्जनीहि। ज्ञात्वा च महाबाहुसाध्ये कायिके युद्धे कर्मणि कर्तृत्वाभिमानं परित्यजेति ध्वनयन्संबोधयति -- महाबाहो इति। देषामवश्यज्ञातव्यताज्ञापनाय तानि स्तौति -- सांख्य इति। त्वंपदार्थ आत्मा तत्पदार्थो ब्रह्म तयोरैक्यधीः तदुपयोगिनश्च शमदमादयो ज्ञातव्यः पदार्थाः संख्यायन्ते व्युत्पाद्यन्ते यस्मिन्वेदान्तशास्त्रे तत्सांख्यं। सांख्यं विशिनष्टि -- कृतान्ते कृतस्य कर्मणोऽन्तः परिसमाप्तिर्यत्र इत्यात्मज्ञाने जाते सर्वकर्मणां निवृत्तेर्दर्शितत्वात् आत्मज्ञानार्थकस्य सांख्यस्यापि कृतान्तत्वं। तस्मिन्प्रोक्तानि सर्वेषां कर्मणां सिद्धये निष्पत्त्यर्थ कथितानीत्यर्थः। संख्या मोचकं ज्ञानं तत्संबन्धिनि तज्जनके सांख्येऽकृतान्तेऽकृतो वेदोऽपौरुषेयत्वात्तस्यान्ते वेदान्ते इत्यर्थस्तु प्रश्लेषं विनैवार्थसंभवमभिप्रेत्याचार्यैर्न प्रदर्शितः। यत्तु संख्यायन्ते गण्यन्ते तत्त्वान्यस्मिन्निति सांख्यं कृतोऽन्तो निर्णयो यस्मिन्निति कृतान्तं सांख्यशास्त्रमेव तस्मिन्नत्यपरे वर्णयन्ति तन्नोपादेयम्। सांख्यशास्त्रे अधिष्ठानादीनां कारणत्वेनानुक्तत्वात्। भिन्नाः भोक्तार आत्मान इति प्रतिपादकस्य सांख्यशास्त्रस्य कर्तृत्वभोक्तृत्वशून्य एक एवात्मेति स्वसिद्धान्तविरुद्धस्य स्वोक्तेऽर्थे प्रमाणत्वेनोपन्थासायोगाच्च।
।।18.13।।पुनः सन्न्यासं प्रपञ्चयितुं कर्मकारणान्याह -- पञ्चेत्यादिना। साङ्क्ष्ये कृतान्ते ज्ञानसिद्धान्ते।
।।18.13।।नन्वात्मनः कर्मालेपनिमित्तं यदकर्तृत्वानुसंधानं तत्किं योषिदग्निदृष्ट्यादिवदाहार्यमुत वास्तवमेव सदविद्याध्यस्तकर्तृत्वेनावृतमिति शास्त्रदृष्ट्या कर्तृत्वतिरोधानेनाकर्तृत्वमेव भाव्यत इत्याशङ्क्याग्नित्वेन दृष्टायां योषिति दग्धृत्वादर्शनेनेव कल्पितेनाकर्तृत्वेन वास्तवस्य कर्मालेपस्यासंभवादाद्यं निरस्य द्वितीयमुपपादयिष्यन् पीठिकामारचयति -- पञ्चेति। हे महाबाहो? सर्वकर्मणां सिद्धये इमानि वक्ष्यमाणानि पञ्च कारणानि निर्वर्तकानि मे मद्वचनान्निबोध बुध्यस्व। स्ववचने विश्वासोत्पादनार्थं कारणानां समूलत्वमाह सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानीति।,सम्यग्विविच्य ख्यायन्ते प्रकटीक्रियन्ते तत्त्वान्यात्मानात्मपदार्थरूपाणि यस्मिंस्तत्सांख्यं वेदान्तशास्त्रम्। तदेव विशिनष्टि। कृतान्ते कृतस्य कर्मणोऽन्तः परिसमाप्तिर्यस्मिन्।सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते इत्यात्मज्ञाने सति सर्वकर्मणां समाप्तिदर्शनात् तस्मिन्सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि।
।।18.13।।संख्या बुद्धिः? सांख्ये कृतान्ते यथावस्थिततत्त्वविषयया वैदिक्या बुद्ध्या अनुसंहिते निर्णये सर्वकर्मणां सिद्धये -- उत्पत्तये प्रोक्तानि पञ्च एतानि कारणानि निबोध मे मम सकाशात् अनुसंधत्स्व।वैदिकी हि बुद्धिः शरीरेन्द्रियप्राणजीवात्मोपकरणं परमात्मानम् एव कर्तारम् अवधारयति।य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद? यस्यात्मा शरीरम्? य आत्मानमन्तरो यमयति? स त आत्मान्तर्याम्यमृतः (श0 प0 14।5।30)अन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा (तै0 आ0 3।11।3) इत्यादिषु।तद् इदम् आह --
।।18.13।।ननु कर्म कुर्वतः कर्मफलं कथं न भवेदित्याशङ्क्य सङ्गत्यागिनो निरहंकारस्य सतः कर्मफलेन लेपो नास्तीत्युपपादयितुमाह -- पञ्चैतानीति पञ्चभिः। सर्वकर्मणां सिद्धये निष्पत्तये इमानि वक्ष्यमाणानि पञ्च कारणानि मे वचनान्निबोध जानीहि। आत्मनः कर्तृत्वाभिमाननिवृत्यर्थमवश्यमेतानि ज्ञातव्यानीत्येवं तेषां स्तुत्यर्थमाह -- सांख्य इति। सम्यक् ख्यायते ज्ञायते परमात्माऽनेनेति सांख्यं तत्त्वज्ञानं तस्मिन्कृतं कर्म तस्यान्तः समाप्तिरस्मिन्निति कृतान्तस्तस्मिन्वेदान्तसिद्धान्त इत्यर्थः। यद्वा संख्यायन्ते गण्यन्ते तत्त्वानि यस्मिन्निति सांख्यं? कृतः अन्तो निर्णयो यस्मिन्निति कृतान्तं सांख्यशास्त्रमेव तस्मिन्प्रोक्तानि अतः सम्यङ्निबोधेत्यर्थः।
।।18.13।।अनिष्टमिष्टम् [18।12] इत्यादेरनन्तरं कारणपञ्चकोक्तेः का सङ्गतिः इत्यत्राऽऽह -- इदानीमिति। साक्षात्प्रश्नविषये प्रत्युक्ते सतीत्यर्थः।भगवति पुरुषोत्तम इत्युमाभ्यां प्रागुक्तप्रकारेण सर्वान्तर्यामिणः तद्गतत्वतत्प्रयुक्तदोषाभावख्यापनम्।प्रकारमाहेत्यनेनातृतीयाध्यायादनुक्रान्तस्याकर्तृत्वानुसन्धानस्यात्रैव सहेतुकयथावस्थितस्वरूपशोधनमिति दर्शितम्। त्रिषु त्यागेषु प्रक्रान्तेषु अन्यतमस्य प्रकारशोधनमिति सङ्गतिः। त्रिविधेऽपि त्यागे सात्त्विकतया प्रक्रान्ते किमिति कर्तृत्वत्यागप्रकारमात्रोपपादनं इत्यत्राऽऽह -- तत एवेति। इतिशब्दोऽत्र हेत्वर्थः। ऋत्विगादिषु कर्तृत्वेऽपि यजमानादेः कर्मणि फले च ममता दृश्यते तद्वदस्यापि किं न स्यात् अतः कर्तृत्वत्यागमात्रात्कथं कर्मणि फले च ममताबुद्धिनिवृत्तिः इत्यत्राऽऽह -- परमपुरुषो हीति।हीति प्रमाणप्रसिद्धिसूचनम्।त्वं न्यञ्चद्भिरुदञ्चद्भिः कर्मसूत्रोपपादितैः। हरे विहरसि क्रीडाकन्दुकैरिव जन्तुभिःबालः क्रीडनकैरिव [म.भा.3।12।543।30।37]कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम् [म.भा.2।38।23] इत्यादिप्रसिद्धमाह -- स्वकीयेनेत्यादिना। करणाधिपाधिपो हि परमपुरुषः श्रूयते अतः करणानां जीवशेषत्वदशायामपि गजतुरगाद्यलङ्कारेषु राज्ञ इव परमपुरुषस्य शेषित्वं न निवर्तत इत्यभिप्रायेणाऽऽहस्वकीयैश्च करणकलेवरप्राणैरिति। सङ्कोचकाभावाद्दृष्टादृष्टफलप्रदानादिकमपि तस्य लीलेत्याहस्वलीलाप्रयोजनायेति।लोकवत्तु लीलाकैवल्यम् [ब्र.सू.2।1।33] इत्यादिभिरिदं मीमांसितमिति भावः। लीलादिप्रयोजनायेति पाठे तु आदिशब्देन कारुण्यादिमूलभक्तरक्षणादिग्रहणम्। ननु शास्त्रीयस्य कर्मणः परमपुरुषसमाराधनतयैव विधानात्फलपर्यन्तस्य तस्य तदीयता युक्ता लौकिकं तु कर्म न तथा शिष्टं? नापि तथाध्यक्षं? क्षुन्निवृत्त्यादेः फलस्य जीवगामित्वेनैवोपलम्भात्? अतो लौकिकानां फलानां जीवशेषत्वे तत्साधनस्यापि कर्मणस्तदर्थता युक्ता तस्मात्सिद्धये सर्वकर्मणाम् इत्यादिभिः सर्वविषयसङ्गत्यागाद्युपपादनमशक्यमिति तत्राऽऽह -- अत इति।परमपुरुषस्यैवेति -- षष्ठी स्वस्वामिभावाख्यसम्बन्धविशेषविश्रान्ता। यथा पञ्जरशकुन्तपोषणादिकं तत्सुखादिकं च सार्वभौमस्य शेषभूतं? तथाऽत्रापीति भावः।,साङ्ख्ये कृतान्ते इति न साङ्ख्यसिद्धान्तो विवक्षितः? तत्रेश्वरानभ्युपगमात् करणातिरिक्तस्य कर्तृत्वानभ्युपगमेनकर्ता करणं पृथग्विधम् इति कर्तृकरणविभागोक्त्यसम्भवात्? तस्य वेदविरुद्धत्वे तत्त्वोपदेशाय तदुपन्यासायोगात्? अविरुद्धत्वेऽपि वेदमूलत्वस्यैवाङ्गीकर्तव्यत्वे वेद एव विश्रमात्? अर्थौचित्याय च रूढिपरित्यागेन यौगिकार्थावलम्बनस्य सर्वसम्मतेः अतो वेदेष्वेव यथावस्थिततत्त्वनिर्णयाय प्रवृत्तो भागः साङ्ख्यकृतान्तशब्देन विवक्षित इत्यभिप्रायेण निर्वक्ति -- सङ्ख्या बुद्धिरिति। प्रकरणानुरोधेन बुद्धिं विशिनष्टियथावस्थितेति। यदिहशङ्क्तरेणोक्तंपदार्थाः सङ्ख्यायन्ते यस्मिन् शास्त्रे तत्साङ्ख्यं वेदान्तः? स एव कृतान्तः? कृतस्य कर्मणोऽस्मिन्नन्तः इति तदसत्? वेदान्तेष्वपि कर्मान्वयस्य स्थापितत्वात्? रूढिपरित्यागे चावश्यम्भाविन्युचिततमयोगस्यैव ग्रहीतुं युक्तत्वात्। अन्तशब्दो निश्चयपरतया नैघण्टुकैः पठितः स एव बुद्धिपूर्वसम्पादिततया कृतशब्देन विशेष्यत इत्यभिप्रायेणअनुसंहिते निर्णय इत्युक्तम्। यद्वा निर्णयशब्दोऽत्र निर्णीतवस्तुपरः कृतान्तशब्दस्य सिद्धान्तपर्यायस्य तत्तदभ्युपगतार्थरूढत्वात्। अत एव हि -- अनुसंहित इति विशेषितम्। न हि निर्णय एवानुसन्धातव्यः। अथवा प्राचां निर्णयः परैरनुसंहित इति भावः। निर्णायकशब्दपरो वाऽत्र निर्णयशब्दः। तदानींप्रोक्तानि इत्यनेन समन्वयः। सिद्धिशब्देन फलपर्यन्तत्वादिकमिहाविवक्षितम्यत्कर्म प्रारभते? ৷৷. ৷৷. पञ्चैते तस्य हेतवः [18।15] इति कर्मस्वरूपोपसम्पत्तेरेवानन्तरोक्तेरित्यभिप्रायेणाऽऽह -- उत्पत्तय इति।मम कारणानि इत्यसम्भवान्मदीयानि कारणानीत्युक्तेरिह दैवशब्दनिर्दिष्टस्य स्वस्य स्वकीयत्वाभावेनानन्वयादुचितमन्वयमाह -- मम सकाशादनुसन्धत्स्वेति। वक्ष्यमाणानां पञ्चानां यथादर्शनं विविक्ते हेतुभावे मनस्समाधानविधानार्थमिदमिति भावः। ष़ड्विंशकमनभ्युपगच्छतां पञ्चविंशकं च कर्तृत्वारोपमात्राधिकरणं प्रतिपादयतां प्रकरणमिदं विरुद्धमित्यभिप्रायेण यौगिकार्थपरत्वमुपपादयति -- वैदिकी हीति। शरीरेन्द्रियप्राणजीवात्मोपकरणमिति बहुव्रीहिः। उपकरणं विवक्षितकार्यार्थतयोपात्तः परिकरः।
।।18.13 -- 18.17।।अधुना व्यवहारदशायामपि पञ्चस्वपि कर्महेतुषु स्थितेषु बलादेवामी ( बलादमी ) अविद्यान्धाः पुमांसः स्वात्मन्येव सकलकर्तृभावभारमारोपयन्ति ( आरोपयन्त्येते )। अतो निजयैव धिया आत्मानं बध्नन्ति? न तु वस्तुस्थित्या अस्य बन्धः इत्युपदिश्यते -- पञ्चेत्यादि न निबद्ध्यते इत्यन्तम्। कृतः अन्तः? निश्चयः यत्रेति कृतान्तः? सिद्धान्तः। अधिष्ठानं? विषयः। दैवम्? प्रागर्जितं शुभाशुभम्। पञ्चैते अधिष्ठानादयः सामग्रीरूपतां प्राप्ताः सर्वकर्मसु हेतवः।अन्ये तु? अधिष्ठीयते अनेन सर्वं कर्म इति बुद्धिगतं रजोलब्धवृत्तिकं धृतिश्रद्धासुखविविदिषाविविदिषारूपपञ्चकपरिणामिकर्मयोगशब्दवाच्यमधिष्ठानं क्वचित् प्रयत्नशब्देन उक्तम्। कर्ता? अनुसन्धाता बुद्धिलक्षणः। करणं मनश्चक्षुरादि? बाह्यमपि च खड्गादि। चेष्टा प्राणापानादिका। दैवशब्देन धर्माधर्मौ ताभ्यां च बुद्धिगताः सर्वेऽपि भावा उपलक्षिताः [ इति ]। अन्ये तु अधिष्ठानम् ईश्वरं मन्यन्ते।अकृतबुद्धित्वात्? अनिश्चितप्रज्ञतया। यः पुनरहंकारवियोगदार्ढ्येन प्रागुक्तयुक्तिशतशोधितेन कर्माणि करोति न स बन्धभाक् ( ? N न संबन्धभाक् )? कृतबुद्धित्वात् इत्याशयः।
।।18.13।।पञ्चेत्यादेः प्रकृतेन सङ्गत्यप्रतीतेस्तामाह -- पुनरिति। न केवलं काम्यानां कर्मणां न्यासः सन्न्यासः? किन्तु कर्तृत्वाभिमानत्यागश्चेत्येवं प्रागुक्तं सन्न्यासं पुनः प्रपञ्चयितुं आत्मनोऽकर्तृत्वे क्रियानिष्पत्तिप्रसङ्गादङ्गीकार्ये कर्तृत्वे कथं तदभिमानत्यागो युक्तः इत्याशङ्कापरिहारार्थमात्यव्यतिरिक्तान्येव कर्मकारणान्याहेत्यर्थः। साङ्ख्यशब्दः कापिलतन्त्रे रूढः। कृतं कर्म तस्यान्तो निवृत्तिर्यत्रोच्य इत्युपनिषत्सु कृतान्तशब्दं कश्चिद्व्याख्यातवान्? तदुभयं निवर्तयितुमाह -- साङ्ख्य इति। ज्ञानार्थः सिद्धान्तो ज्ञानसिद्धान्तः सिद्धान्त इति शास्त्रं लक्ष्यते? कापिलतन्त्रस्य निन्दितत्वात् उपनिषत्स्वपि कर्मत्यागाप्रतिपादनात्।
।।18.13।।तत्रात्मज्ञानरहितस्य संसारित्वे हेतुः कर्मत्यागासंभव उक्तोनहि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः इति। तत्राज्ञस्य कर्मत्यागासंभवे को हेतुः कर्महेतावधिष्ठानादिपञ्चके तादात्म्यभिमान इतीममर्थं चतुर्भिः श्लोकैः प्रपञ्चयति। तत्र प्रथमेनाधिष्ठानादीनि पञ्च वेदान्तप्रमाणमूलानि हेयत्वार्थमवश्यं ज्ञातव्यानीत्याह -- पञ्चैतानीति। इमानि वक्ष्यमाणानि पञ्च सर्वकर्मणां सिद्धये निष्पत्तये कारणानि निर्वर्तकानि हे महाबाहो? मे मम परमात्परस्य सर्वज्ञस्य वचनान्निबोध बोद्धुं सावधानो भव। नह्यत्यन्तदुर्ज्ञानान्येतान्यनवहितचेतसा शक्यन्ते ज्ञातुमिति चेतःसमाधानविधानेन तानि स्तौति। महाबाहुत्वेन च सत्पुरुष एव शक्तो ज्ञातुमिति सूचयति स्तुत्यर्थमेव। किमेतान्यप्रमाणकान्येव तव वचनाज्ज्ञेयानि नेत्याह -- सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानीति। निरतिशयपुरुषार्थप्राप्त्यर्थं सर्वानर्थनिवृत्त्यर्थं च ज्ञातव्यानि। जीवो ब्रह्म तयोरैक्यं तद्बोधोपयोगिनश्च श्रवणादयः पदार्थाः संख्यायन्ते व्युत्पाद्यन्तेऽस्मिन्निति सांख्यं वेदान्तशास्त्रं तस्मिन्नात्मवस्तुमात्रप्रतिपादके किमर्थमनात्मभूतान्यवस्तूनि लोकसिद्धानि च कर्मकारणानि पञ्च प्रतिपाद्यन्त इत्यतः शास्त्रविशेषणं कृतान्त इति। कृतमिति कर्मोच्यते तस्यान्तः परिसमाप्तिस्तत्त्वज्ञानोत्पत्त्या यत्र तस्मिन्कृतान्ते शास्त्रे प्रोक्तानि प्रसिद्धान्येव लोकेऽनात्मभूतान्येवात्मतया मिथ्याज्ञानारोपेण गृहीतान्यात्मतत्त्वज्ञानेन बाधसिद्धये हेयत्वेनोक्तानि। यदा ह्यन्यधर्म एव कर्मात्मन्यविद्ययाऽध्यारोपितमित्युच्यते तदा शुद्धात्मज्ञानेन तद्बाधात्कर्मणोऽन्तः कृतो भवति। अत आत्मनः कर्मासंबन्धप्रतिपादनायानात्मभूतान्येव पञ्च कर्मकारणानि वेदान्तशास्त्रे मया कल्पितान्यनूदितानीति नाद्वैतात्ममात्रतात्पर्यहानिस्तेषां तदङ्गत्वेनैवेतरप्रतिपादनादिहापि च सर्वकर्मान्तत्वं ज्ञानस्य प्रतिपादितंसर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते इति। तस्माज्ज्ञानशास्त्रस्य कर्मान्तत्वमुपपन्नम्।
।।18.13।।ननु सङ्गफलपरित्यागेऽपि कर्मकर्त्तुः फलं तु सम्भावितमेव? भोजनतृप्तिवदौषधार्थभक्षितमादकद्रव्यजोन्मादवत्? अतः कथं फलं न भवेत् इत्याशङ्क्याऽऽह -- पञ्चैतानीति श्लोकपञ्चकेन। हे महाबाहो फलत्यागक्रियाकरणसमर्थ सर्वकर्मणां सिद्धये फलाप्तये साङ्ख्ये त्यागात्यागनिर्णायके कृतान्ते कृतस्य कर्मणोऽन्तः समाप्तिर्यत्र स कृतान्तो वेदान्तस्तस्मिन् प्रोक्तानि। एतान्यग्रे प्रोच्यमानानि पञ्च कारणानि मे मत्तो निबोध जानीहि।
।।18.13।। -- पञ्च एतानि वक्ष्यमाणानि हे महाबाहो? कारणानि निर्वर्तकानि निबोध मे मम इति। उत्तरत्र चेतःसमाधानार्थम्? वस्तुवैषम्यप्रदर्शनार्थं च। तानि च कारणानि ज्ञातव्यतया स्तौति -- सांख्ये ज्ञातव्याः पदार्थाः संख्यायन्ते यस्मिन् शास्त्रे तत् सांख्यं वेदान्तः। कृतान्ते इति तस्यैव विशेषणम्। कृतम् इति कर्म उच्यते? तस्य अन्तः परिसमाप्तिः यत्र सः कृतान्तः? कर्मान्तः इत्येतत्। यावानर्थ उदपाने (गीता 2।46) सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते (गीता 4।33) इति आत्मज्ञाने सञ्जाते सर्वकर्मणां निवृत्तिं दर्शयति। अतः तस्मिन् आत्मज्ञानार्थे सांख्ये कृतान्ते वेदान्ते प्रोक्तानि कथितानि सिद्धये निष्पत्त्यर्थं सर्वकर्मणाम्।।कानि तानीति? उच्यते --,
।।18.13।।इदानीं भगवत्कर्तृत्वानुसन्धानपूर्वकम्। स्वकर्तृत्वानुसन्धानपरिहार उदीर्यते।।1।।कर्तृत्वं स्वस्य मनुते सत्सु कर्तृषु पञ्चसु। स यथा निन्द्यते लोके तथा कृष्णेन शास्त्रतः।।2।।पश्येद्गुणानां हेतुत्वं यदा,दैवस्य वा हरेः। तत एवेह ममतात्यागः स्यात्फलकर्मणोः।।3।।तत्रान्तर्यामिपुरुषे (षः स्वकीयैः करणादिभिः) कर्तृत्वं मुख्यतः स्थितम्। (जीवात्मना स्वलीलार्थं कर्माण्यारभते ततः)। स्वातन्त्र्यात्परतन्त्रे तु गौणमेवाभ्युपेयते।।4।।अतो ब्रह्मगतं कर्तृत्वादि जीवे तदंशतः। सर्वं कर्मफलं (चापि पुरुषस्य परस्य तत्) चौर्प्यं पुरुषेण परत्र तत्। इति तत्त्वं भगवता भाष्यमाभाष्यतेऽन्ततः।।5।।पञ्चेति। कृतान्ते सिद्धान्ते कृतनिर्णये वा साङ्ख्ये प्रोक्तानि सिद्धान्तीकृत्योक्तानि सर्वकर्मणां सिद्धये पञ्चैतानि कारणानि निबोध मे मम सकाशादवधेहि। साङ्ख्ये हि वेदानुरोधेन सूत्रनिबन्धो दृश्यते? तदनुरोधे शरीरेन्द्रियप्राणजीवात्मोपकरणं परमात्मानमन्तर्यामिणमुत्तमं कर्त्तारं प्रत्याययति य आत्मनि तिष्ठन्नात्मानमन्तरो यमयति? यमात्मा न वेद? यस्यात्मा शरीरं स त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः [श.प.14।5।30] अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा [तै.उ.3।11चित्त्यु.11।1] इत्यादौ स्वातन्त्र्येण नियमनादिकर्तृत्वं केवलस्य परमात्मनो बोध्यते इति। तदेककर्तृत्वं तदंशभूते जीवात्मनि सततं शुद्धं? अन्यत्तु प्राकृतं निषिध्यते तदेतदग्रे स्फुटीभविष्यति।
Chapter 18, Verse 13