यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।17.27।।
yajñe tapasi dāne cha sthitiḥ sad iti chochyate karma chaiva tad-arthīyaṁ sad ity evābhidhīyate
yajñe—in sacrifice; tapasi—in penance; dāne—in charity; cha—and; sthitiḥ—established in steadiness; sat—the syllable Sat; iti—thus; cha—and; uchyate—is pronounced; karma—action; cha—and; eva—indeed; tat-arthīyam—for such purposes; sat—the syllable Sat; iti—thus; eva—indeed; abhidhīyate—is described
Devotion to sacrifice, austerity, and gifts is also referred to as Sat; and thus, any action for such purposes is known as Sat.
And the steadfastness in sacrifice, austerity, and charity is spoken of as sat (good). And even the action meant for these is, indeed, called as sat.
Steadfastness in sacrifice, austerity, and gift is also called 'Sat', and action in connection with these, or for the sake of the Supreme, is also called 'Sat'.
Steadfastness is performing sacrifice, austerity, and giving gifts; this act is hence justly called SAT.
Conviction in sacrifice, austerity, and giving is also called Sat. So too, an action done only for the Lord's sake.
।।17.27।।यज्ञ, तप और दानरूप क्रियामें जो स्थिति (निष्ठा) है, वह भी 'सत्' -- ऐसे कही जाती है और उस परमात्माके निमित्त किया जानेवाला कर्म भी 'सत्' -- ऐसा ही कहा जाता है।
।।17.27।। यज्ञ, तप और दान में दृढ़ स्थिति भी सत् कही जाती है, और उस (परमात्मा) के लिए किया गया कर्म भी सत् ही कहलाता है।।
17.27 यज्ञे in sacrifice? तपसि in austerity? दाने in gift? च and? स्थितिः steadiness? सत् Sat? इति thus? च and? उच्यते is called? कर्म action? च and? एव also? तदर्थीयम् in connection with these or for the sake of the Supreme? सत् Sat? इति thus? एव even? अभिधीयते is called.Commentary If you perform sacrifice? austerity? gift and all actions in a spirit of total surrender to the Lord or the Eternal Being with purity and sincerity of heart? you will attain the highest goal of life or immortality? freedom and eternal bliss. If you do them in the name and for the sake of Brahman you will attain perfection and supreme peace of the Absolute.If you pin your faith on the glory and power of this name Om or Om Tat Sat? you will be freed from the bondage of birth and death. If you perform any sacrifice? austerity or charity or any action in a selfless and motiveless spirit? surrendering all the actions and their rewards to the Lord and if you utter the word Sat with faith? feeling and devotion? you will attain perfection and success in the action.Even the imperfect and nonSattvic acts of sacrifice? austerity and gift will be turned into perfect and Sattvic ones.These Sacrifice? austerity and gift.
।।17.27।। व्याख्या -- यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते -- यज्ञ? तप और दानरूप प्रशंसनीय क्रियाओंमें जो स्थिति (निष्ठा) होती है? वह सत् कही जाती है। जैसे? किसीकी सात्त्विक यज्ञमें? किसीकी सात्त्विक तपमें और किसीकी सात्त्विक दानमें जो स्थिति -- निष्ठा है अर्थात् इनमेंसे एकएक चीजके प्रति हृदयमें जो श्रद्धा है और इन्हें करनेकी जो तत्परता है? वह सन्निष्ठा (सत्निष्ठा) कही जाती है।च पद देनेका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार लोगोंकी सात्त्विक? यज्ञ? तप और दानमें श्रद्धा -- निष्ठा होती है? ऐसे ही किसीकी वर्णधर्ममें? किसीकी आश्रमधर्ममें? किसीकी सत्यव्रतपालनमें? किसीकी अतिथिसत्कारमें? किसीकी सेवामें? किसीकी आज्ञापालनमें? किसीकी पातिव्रतधर्ममें और किसीकी गङ्गाजीमें? किसीकी यमुनाजीमें? किसीकी प्रयागराज आदि विशेष तीर्थोंमें जो हृदयसे श्रद्धा है? उनमें जो रुचि? विश्वास और तत्परता है? वह भी सन्निष्ठा कही जाती है।कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते -- उन प्रशंसनीय कर्मोंके अलावा कर्मोंके दो तरहके स्वरूप होते हैं -- लौकिक (स्वरूपसे ही संसारसम्बन्धी) और पारमार्थिक (स्वरूपसे ही भगवत्सम्बन्धी) --,(1) वर्ण और आश्रमके अनुसार जीविकाके लिये यज्ञ? अध्यापन? व्यापार? खेती आदि व्यावहारिक कर्तव्यकर्म और खानापीना? उठनाबैठना? चलनाफिरना? सोनाजगना आदि शारीरिक कर्म -- ये सभी लौकिक हैं।(2) जपध्यान? पाठपूजा? कथाकीर्तन? श्रवणमनन? चिन्तनध्यान आदि जो कुछ किया जाय? सब,पारमार्थिक है।इन दोनों प्रकारके कर्मोंको अपने सुखआराम आदिका उद्देश्य न रखकर निष्कामभाव एवं श्रद्धाविश्वाससे केवल भगवानके लिये अर्थात् भगवत्प्रीत्यर्थ किये जायँ तो वे सबकेसब तदर्थीय कर्म हो जाते हैं। भगवदर्थ होनेके कारण उनका फल सत् हो जाता है अर्थात् सत्स्वरूप परमात्माके साथ सम्बन्ध होनेसे वे सभी दैवीसम्पत्ति हो जाते हैं? जो कि मुक्ति देनेवाली है।जैसे अग्निमें ठीकरी रख दी जाय तो अग्नि उसको अग्निरूप बना देती है। यह सब अग्निकी ही विशेषता है कि ठीकरी भी अग्निरूप हो जाती है ऐसे ही उस परमात्माके लिये जो भी कर्म किया जाय? वह सब सत् अर्थात् परमात्मस्वरूप हो जाता है अर्थात् उस कर्मसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। उस कर्ममें जो भी विशेषता आयी है? वह परमात्माके सम्बन्धसे ही आयी है। वास्तवमें तो कर्ममें कुछ भी विशेषता नहीं है।यहाँ तदर्थीयम् कहनेका तात्पर्य है कि जो ऊँचेसेऊँचे भोगोंको? स्वर्ग आदि भोगभूमियोंको न चाहकर केवल परमात्माको चाहता है? अपना कल्याण चाहता है? मुक्ति चाहता है? ऐसे साधकका जितना पारमार्थिक साधन बन गया है? वह सब सत् हो जाता है। इस विषयमें भगवान्ने कहा है कि कल्याणकारी काम करनेवाले किसीकी भी दुर्गति नहीं होती (गीता 6। 40)? इतनी ही बात नहीं? जो योग(समता अथवा परमात्मतत्त्व) का जिज्ञासु होता है? वह भी वेदोंमें स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये बताये हुए सकाम कर्मोंसे ऊँचा उठ जाता है (गीता 6। 44)। कारण कि वे कर्म तो फल देकर नष्ट हो जाते हैं? पर उस परमात्माके लिये किया हुआ साधन -- कर्म नष्ट नहीं होता? प्रत्युत सत् हो जाता है। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें आया कि परमात्माके उद्देश्यसे किये गये कर्म सत् हो जाते हैं। परन्तु परमात्माके उद्देश्यसे रहित जो कर्म किये जाते हैं? उनकी कौनसी संज्ञा होगी इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।17.27।। तत्सत् से प्रारम्भ किये गये प्रकरण का तात्पर्य यह है कि यदि साधक के यज्ञ? दान और तप ये कर्म पूर्णतया शास्त्रविधि से सम्पादित नहीं भी हों? तब भी परमात्मा के स्मरण तथा परम श्रद्धा के साथ यथाशक्ति उनका आचरण करने पर वे उसे श्रेष्ठ फल प्रदान कर सकते हैं।इसका सिद्धांत यह है कि मनुष्य जगत् में अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर शुभाशुभ कर्म करता है। इन कर्मों के फलस्वरूप उसके अन्तकरण में वासनाएं होती जाती हैं? जो उसे कर्मों में प्रवृत्त करके उसके बन्धनों को दृढ़ करती जाती हैं। इन कर्म बन्धनों से मुक्ति पाने का उपाय कर्म ही है? परन्तु वे कर्म केवल कर्तव्य कर्म ही हों और उनका आचरण ईश्वरार्पण बुद्धि से किया जाना चाहिए। ईश्वर के स्मरण से अहंकार नहीं रह जाता और इस प्रकार वासनाओं की निवृत्ति हो जाती है। इसीलिए इस श्लोक में कहा गया है कि परमात्मा के लिए किया गया कर्म सत् कहलाता है? क्योंकि वह मोक्ष का साधन है।यज्ञदानादि कर्म परम श्रद्धा के साथ युक्त होने पर ही पूर्ण होते हैं। तब स्वाभाविक ही
।।17.27।।प्रकारान्तरेण सच्छब्दस्य विनियोगमाह -- यज्ञ इति। नामत्रयोच्चारणेन साद्गुण्यं सिध्यतीति प्रकरणार्थमुपसंहरति -- तदेतदिति।
।।17.27।।यज्ञे यज्ञकर्मणि या स्तिथिस्तथा तपसि या स्थितिः दाने च या स्थितिः सा च विद्वद्भिः सदित्युच्यते। तदर्थीयं यज्ञदानतपोर्थीयं अथवा यस्याभिधानत्रयं प्रकृतं तदर्थीयमीश्वरार्थीयमित्येतत्सदित्येवाभिधीयते। तदेतद्यज्ञतपआदिकर्म असात्त्विकं विगुणमभक्तिपूर्वकमपि ब्रह्मणोऽभिधानत्रयेण सात्त्विकं सगुणं सभिक्तकं संपादितं भवत्यतोऽवश्यमोंतत्सदिति ब्रह्मणोऽभिधानत्रयमुदाहृत्य यज्ञादि प्रवर्तननीयमिति प्रकरणार्थः।
।।17.27।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
।।17.27।।किंच यज्ञादौ स्थितिर्निष्ठा सदिति समीचीनेति उच्यते। तदर्थः सच्छब्दार्थो ब्रह्म तदीयं तदर्थं कृतं तदर्थीयं परमेश्वरप्राप्त्यर्थं कृतं कर्म सदित्येव समीचीनमित्येवाभिधीयते लोके। तदेवं असात्त्विकं विगुणं वा यज्ञादिकं श्रद्धापूर्वकं ब्रह्मणोऽभिधानत्रयोच्चारणेन सात्त्विकं सद्गुणं च संपादितं भवति।
।।17.27।।अतो वैदिकानां त्रैवर्णिकानां यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः कल्याणतया सद् इति उच्यते। कर्म च तदर्थीयं त्रैवर्णिकार्थीयं यज्ञदानादिकं सद् इति एव अभिधीयते।तस्माद् वेदा वैदिकानि कर्माणि ब्राह्मणशब्दनिर्दिष्टाः त्रैवर्णिकाः चओं तत् सत् इति शब्दान्वयरूपलक्षणेन अवेदेभ्यः च अवैदिकेभ्यः च व्यावृत्ता वेदितव्याः।
।।17.27।।किंच -- यज्ञ इति। यज्ञादिषु च या स्थितिस्तात्पर्येणावस्थानं तदपि सदित्युच्यते। यस्य चेदं नामत्रयं स एव परमात्मा अर्थः फलं यस्य तत्तदर्थं कर्म पूजोपहारगृहाङ्गणपरिमार्जनोपलेपरङ्गमाङ्गलिकादिक्रियास्तत्सिद्धये यदन्यत्कर्म क्रियते उद्यानशालिक्षेत्रधनार्जनादिविषयं तत्कर्म तदर्थीयं। तच्चातिव्यवहितमपि सदित्येवाभिधीयते। यस्मादेवमतिप्रशस्तमेतन्नामत्रयं तस्मादेतत्सर्वकर्मसाद्गुण्यार्थं कीर्तयेदिति तात्पर्यार्थः। अत्र चार्थवादानुपपत्त्या विधिः कल्प्यतेविधेयं स्तूयते वस्तु इति न्यायात्। अपरे तुप्रवर्तन्ते विधानोक्ताः? क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः इत्यादि वर्तमानोपदेशःसमिधो यजति इत्यादिवद्विधितया परिणमनीय इत्याहुः। तत्तुसद्भावे साधुभावे च इत्यादिषु प्राप्तार्थत्वान्न संगच्छत इति पूर्वोक्तक्रमेण विधिकल्पनैव ज्यायसी।
।।17.27।।एवं सच्छब्दस्य व्युत्पत्तिप्रकारं प्रयोगं चोदाहृत्य तदुपजीवनेनानन्तरं लिलक्षयिषिते ब्राह्मणादित्रिके तत्प्रयोगोपपत्तिरुपसंह्रियत इत्यभिप्रायेणाऽऽहअत इति। स्थितिमुखेन स्थातृ़णां स्थापकानां च वेदानां सच्छब्दार्थान्वयोऽर्थादुच्यत इत्यभिप्रायेणाऽऽहवैदिकानामिति। अध्यायान्तेषुओं तत्सत् इति पाठात्स्थितिशब्दोऽत्र अन्तपर इति व्याख्यान्तरं प्रकृतोपयुक्तप्रसिद्धतमार्थे सम्भवत्ययुक्तमिति भावः। स्थितिशब्देन बुद्धावुपस्थापिताः स्थातारस्तच्छब्देन परामृश्यन्त इत्यभिप्रायेणाऽऽहत्रैवर्णिकार्थीयमिति। त्रिविधनिर्देशविषयतयाप्रकृतेश्वरार्थीयम् इति(शां) व्याख्यान्तरमतिव्यवहितपरामर्शात्सर्वेषां यज्ञादीनामतदर्थीयत्वाच्च अयुक्तमिति भावः। यज्ञाद्यर्थीयसाधनसम्पादनरूपकर्मणि सच्छब्दनिर्देशवचनादपि प्रक्रान्ते यज्ञादावेव तदुक्तिरिहोपपन्नेत्यभिप्रायेणाऽऽहयज्ञदानादिकमिति।तदर्थीयम् इति सामान्यसङ्ग्रहावलम्बिना आदिशब्देनाध्ययनादिग्रहणाद्वेदानामपि सच्छब्दान्वयोऽत्र प्रदर्शित एव। भवत्वेवं त्रयाणां त्रिभिरन्वयः? तदुक्तिरिह किमर्था इत्यत्र लक्षणोक्तिप्रयोजनभूतविविक्तानुसन्धानप्रतिपादनमुखेनओं तत्सत् इत्यादिश्लोकैः फलितं वदन्नुपसंहरतितस्मादिति। यत्तु -- कैश्चित्ओं तत्सत् इत्यमीषां वाक्यत्वकल्पनेन वाक्यार्थवर्णनं? यत्फलाभिसन्धिरहितं कर्म? तच्छोभनमिति युक्तम् तदोंतदेवेत्यर्थ इति एतदेवं विवक्षितमित्यत्र न कश्चिद्धेतुः न चोपयोगः लक्षणत्वाभिधानं त्वनुष्ठानोक्तमिति भावः।
।।17.23 -- 17.27।।इदानीं ये गुणत्रितयसंकटोत्तीर्णधियः ते क्रियां कथमाचरन्ति इति तादृक़्प्रकार उच्यते -- ओमित्यादि अभिधीयते इत्यन्तम्। ओं तत् सत् इत्येभिस्त्रिभिः शब्दैर्ब्रह्मणो निर्देशः? संमुखीकरणम्। तत्र ओम् इत्यनेन शास्त्रार्थोऽयमादेहसंबन्धमूरीकार्य इति सूच्यते।तत् इति सर्वनामपदेन सामान्यमात्राभिधायिना विशेषपरामर्शमात्रासमर्थेन फलानभिसंधानं ब्रह्मण्युच्यते अभिसंधानस्य विशेषपरिग्रहमन्तरेण अभावात् सकलविशेषानुग्राहित्वेऽपि सकलफलसंधाने सर्वकर्तृतायामपि विशिष्टफलायोगात्।सत् इत्यमुया श्रुत्या प्रशंसा अभिधीयते। क्रियमाणमपि इदं यज्ञादिकं दुष्टम् इति बुद्ध्या क्रियमाणं तामसतामेति। विशिष्टफलाभिसंधानेन च क्रियमाणं न च सत्? बन्धाधायकमेवेति। तस्मात् कर्तव्यमिदम् इति मन्वानाः [ फलविशेषमनभिसंदधानाः ] यज्ञादि कुर्वाणा अपि न बध्यन्ते। अनेनैवाभिप्रायेण आदिपर्वण्युक्तम् -- तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः।प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्क स्तान्येव भावोपहतानि कल्कः।।( M? Adi? Ch? 1? verse 210 ) इति।कल्कः? बन्धकः। स्वाभाविक इति -- ब्राह्मणेन निष्कारणं षडङ्गं ( omits षडङ्गम् ) वेदादि अध्येतव्यम् इति। प्रसह्य? शास्त्रलोकप्रसिद्धोचितया चेष्टया। भावेन? सत्त्वादिगुणत्रययोगिना चित्तेन उपहतान्येतान्येव,( ?N?K उपहतान्येव ) बन्धकानि? नान्यथा इति तात्पर्यम्। अतो यज्ञादि यावच्छरीरभावितया कार्यमेव। तदर्थे [ च ] हितं ( N?K विहितम् ) कर्म अर्जनादि।यदि वा ओम् इत्यनेन समुपशान्तसमस्तप्रपञ्चम् तत् इत्यनेनोद्भिद्यमानविश्वतरङ्गपरामर्शमात्रात्मकेच्छास्वातन्त्र्य -- स्वभावम् सत् इत्यनेन इच्छास्वातन्त्र्यभरविजृम्भमाणभेदकम्? पूर्णत्वेऽपि तावच्चित्रस्वभावतया भवनमिति प्रतिपाद्यते। तथाचोक्तम्,सद्भावे साधुभावे च इति। तेन परमं प्रशान्तं ( S परमप्रशान्तरूपं ) रूपं पुरस्कृत्य दित्सायियक्षातितप्सात्मकेच्छातरङ्गसंगतं च मध्येकृत्य दानयज्ञतपःक्रियाकारककलापपरिपूर्णं यच्चरमं वपुः इदमुल्लसितम्? एतत् खलु समं त्रितयमनर्गलस्य स्वाभाविकं रूपम् इति कस्य किं कथं कुतः क्व ( N omits क्व ) केन फलं स्यादिति।
।।17.27।।यज्ञे तपसि ৷৷. कर्म चैव इत्यनेन यज्ञादिषु सच्छब्दो व्याख्यातः। तेन ब्रह्मविषयत्वेन निष्ठया चेति लब्धम्।
।।17.27।।यज्ञे तपसि दाने च या स्थितिस्तत्परतयावस्थितिर्निष्ठा सापि सदित्युच्यते विद्वद्भिः। कर्म चैव तदर्थीयं तेषु यज्ञदानतपोरूपेष्वर्थेषु भवं तदनुकूलमेव च कर्म अथवा यस्य ब्रह्मणो नामेदं प्रस्तुतं तदेवार्थो विषयो यस्य तदर्थं शुद्धब्रह्मज्ञानं तदनुकूलं कर्म तदर्थीयं भगवदर्पणबुद्ध्या क्रियमाणं कर्म वा तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते तस्मात्सदिति नाम कर्मवैगुण्यापनोदनसमर्थं प्रशस्ततरं यस्यैकैकोऽवयवोऽप्येतादृशः किमु वक्तव्यं तत्समुदायस्योंतत्सदिति निर्देशस्य माहात्म्यमिति संपिण्डितार्थः।
।।17.27।।अथ भगवत्परत्वं सर्वत्रैव सच्छब्दे एवोच्यते इत्याह -- यज्ञे तपसीति। यज्ञे अग्निहोत्रादौ? तपसि कृच्छ्रादौ? दाने तुलापुरुषादौ या स्थितिः भगवदेकनिष्ठतया करणं तद्रूपा च सा सदिति उच्यते। च पुनः। तदर्थीयमेव कर्म यस्यैतन्नामत्रयं तस्य भगवत एव अर्थीयं सेवादिसामग्री सम्पादनरूपं सदित्येव अभिधीयते।
।।17.27।। --,यज्ञे यज्ञकर्मणि या स्थितिः? तपसि च या स्थितिः? दाने च या स्थितिः? सा सत् इति च उच्यते विद्वद्भिः। कर्म च एव तदर्थीयं यज्ञदानतपोऽर्थीयम् अथवा? यस्य अभिधानत्रयं प्रकृतं तदर्थीयं यज्ञदानतपोऽर्थीयम् ईश्वरार्थीयम् इत्येतत् सत् इत्येव अभिधीयते। तत् एतत् यज्ञदानतपआदि कर्म असात्त्विकं विगुणमपि श्रद्धापूर्वकं ब्रह्मणः अभिधानत्रयप्रयोगेण सगुणं सात्त्विकं संपादितं भवति।।तत्र च सर्वत्र श्रद्धाप्रधानतया सर्वं संपाद्यते यस्मात्? तस्मात् --,
।।17.27।।किञ्च यज्ञ इति। तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते। स्थादिधातुगणे भुवो व्यापकत्वं? तदनुकृञश्चेति यज्ञपत्युपाध्यायाः प्रोचुः। अतएवोक्तं -- सर्वेषामपि वस्तूनां भावार्थो भवति स्थितः। तस्यापि भगवानेष किमतद्वस्तु रूप्यताम् इति। तथा सति सत्पदं (श्रेयोवचनं) निष्ठावचनमुक्तम्। कर्म चैव तदर्थीयं सदुत्तममित्येवाभिधीयते। एतेनमां विधत्तेऽभिधत्ते मां [भाग.11।21।43] इति प्राक्तनकर्मसदाचारपरिपाटी दर्शिता।
Chapter 17, Verse 27