Chapter 17, Verse 1

Text

अर्जुन उवाचये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।।17.1।।

Transliteration

arjuna uvācha ye śhāstra-vidhim utsṛijya yajante śhraddhayānvitāḥ teṣhāṁ niṣhṭhā tu kā kṛiṣhṇa sattvam āho rajas tamaḥ

Word Meanings

arjunaḥ uvācha—Arjun said; ye—who; śhāstra-vidhim—scriptural injunctions; utsṛijya—disregard; yajante—worship; śhraddhayā-anvitāḥ—with faith; teṣhām—their; niṣhṭhā—faith; tu—indeed; kā—what; kṛiṣhṇa—Krishna; sattvam—mode of goodness; āho—or; rajaḥ—mode of passion; tamaḥ—mode of ignorance


Translations

In English by Swami Adidevananda

Arjuna said, "Now, O Krsna, what is the position or basis of those who, despite leaving aside the injunction of the Sastra, still worship with faith? Is it Sattva, Rajas, or Tamas?"

In English by Swami Gambirananda

Arjuna said, But, O Krsna, what is the state of those who, endued with faith, perform sacrifices, distribute wealth, etc. in honour of gods and others, while ignoring the injunctions of the scriptures? Is it sattva, rajas, or tamas?

In English by Swami Sivananda

Arjuna said, "What is the condition of those who, disregarding the injunctions of the scriptures, perform sacrifice with faith—is it Sattva, Rajas, or Tamas, O Krishna?"

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Arjuna said: "What is the state of those who remain faithful but neglect the scriptural injunctions—is it sattva, rajas, or tamas? O Krsna!"

In English by Shri Purohit Swami

Arjuna asked, "My Lord, what is the condition of those who perform acts of sacrifice not according to the scriptures, but with implicit faith? Is it one of purity, passion, or ignorance?"

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।17.1।। अर्जुन बोले -- हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्र-विधिका त्याग करके श्रद्धापूर्वक देवता आदिका पूजन करते हैं, उनकी निष्ठा फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी-तामसी?

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।17.1।। अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! जो लोग शास्त्रविधि को त्यागकर (केवल) श्रद्धा युक्त यज्ञ (पूजा) करते हैं, उनकी स्थिति (निष्ठा) कौन सी है ?क्या वह सात्त्विक है अथवा राजसिक या तामसिक ?  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

17.1 ये who? शास्त्रविधिम् the ordinances of the scriptures? उत्सृज्य setting aside? यजन्ते perform sacrifice? श्रद्धया with faith? अन्विताः endowed? तेषाम् their? निष्ठा condition? तु verily? का what? कृष्ण O Krishna? सत्त्वम् Sattva? आहो or? रजः Rajas? तमः Tamas.Commentary This chapter deals with the three kinds of people who are endowed with three kinds of faith. Each of them follows a path in accordance with his inherent nature -- either Sattvic? Rajasic or Tamasic.Arjuna says to Krishna It is very difficult to grasp the meaning of the scriptures. It is still more difficult to get a spiritual preceptor who can teach the scriptures. The vast majority of persons are not endowed with a pure? subtle? sharp and onepointed intellect. The span of life is short. The scriptures are endless. The obstacles on the spiritual path are many. Facilities for learning are not always available.There are conflicting statements in the scriptures which have to be reconciled. Thou hast said that liberation is not possible without a knowledge of the scriptures. An ordinary man? though ignorant of or unable to follow this teaching? does charity? performs rituals? worships the Lord with faith? tries to follow the footsteps of sages and saints just as a child copies letters that have been written out for him as a model? or as a blind man makes hiw way by the aid of another who possesses sight. What faith is his How should the state of such a man be described -- Sattvic? Rajasic or Tamasic What is the fate of the believers who have no knowledge of the scriptures

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।17.1।। व्याख्या    --   ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य ৷৷. सत्त्वमाहो रजस्तमः -- श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका संवाद सम्पूर्ण जीवोंके कल्याणके लिये है। उन दोनोंके सामने कलियुगकी जनता थी क्योंकि द्वापरयुग समाप्त हो रहा था। आगे आनेवाले कलियुगी जीवोंकी तरफ दृष्टि रहनेसे अर्जुन पूछते हैं कि महाराज जिन मनुष्योंका भाव बड़ा अच्छा है? श्रद्धाभक्ति भी है? पर शास्त्रविधिको जानते नहीं (टिप्पणी प0 833.3)। यदि वे जान जायँ? तो पालन करने लग जायँ? पर उनको पता नहीं। अतः उनकी क्या स्थिति होती हैआगे आनेवाली जनतामें शास्त्रका ज्ञान बहुत कम रहेगा। उन्हें अच्छा सत्सङ्ग मिलना भी कठिन होगा क्योंकि अच्छे सन्तमहात्मा पहले युगोंमें भी कम हुए हैं? फिर कलियुगमें तो और भी कम होंगे। कम होनेपर भी यदि भीतर चाहना हो तो उन्हें सत्संग मिल सकता है। परन्तु मुश्किल यह है कि कलियुगमें दम्भ? पाखण्ड ज्यादा होनेसे कई दम्भी और पाखण्डी पुरुष सन्त बन जाते हैं। अतः सच्चे सन्त पहचानमें आने मुश्किल हैं। इस प्रकार पहले तो सन्तमहात्मा मिलने कठिन हैं और मिल भी जायँ तो उनमेंसे कौनसे संत कैसे हैं -- इस बातकी पहचान प्रायः नहीं होती और पहचान हुए बिना उनका संग करके विशेष लाभ ले लें -- ऐसी बात भी नहीं है। अतः जो शास्त्रविधिको भी नहीं जानते और असली सन्तोंका सङ्ग भी नहीं मिलता? परन्तु जो कुछ यजनपूजन करते हैं? श्रद्धासे करते हैं -- ऐसे मनुष्योंकी निष्ठा कौनसी होती है सात्त्विकी अथवा राजसीतामसीसत्त्वमाहो रजस्तमः पदोंमें सत्त्वगुणको दैवीसम्पत्तिमें और रजोगुण तथा तमोगुणको आसुरीसम्पत्तिमें ले लिया गया है। रजोगुणको आसुरीसम्पत्तिमें लेनेका कारण यह है कि रजोगुण तमोगुणके बहुत निकट है (टिप्पणी प0 834.1)। गीतामें कई जगह ऐसी बात आयी है जैसे -- दूसरे अध्यायके बासठवेंतिरसठवें श्लोकोंमें काम अर्थात् रजोगुणसे क्रोध और क्रोधसे मोहरूप तमोगुणका उत्पन्न होना बताया गया है (टिप्पणी प0 834.2)। ऐसे ही अठारहवें अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें हिंसात्मक और शोकान्वितको रजोगुणी कर्ताका लक्षण बताया गया है और अठारहवें अध्यायके ही पचीसवें श्लोकमें हिंसा को तामस कर्मका लक्षण और पैंतीसवें श्लोकमें शोक को तामस धृतिका लक्षण बताया गया है। इस प्रकार रजोगुण और तमोगुणके बहुतसे लक्षण आपसमें मिलते हैं।सात्त्विक भाव? आचरण और विचार दैवीसम्पत्तिके होते हैं और राजसीतामसी भाव? आचरण और विचार आसुरीसम्पत्तिके होते हैं। सम्पत्तिके अनुसार ही निष्ठा होती है अर्थात् मनुष्यके जैसे भाव? आचरण और विचार होते हैं? उन्हींके अनुसार उसकी स्थिति (निष्ठा) होती है। स्थितिके अनुसार ही आगे गति होती है। आप कहते हैं कि शास्त्रविधिका त्याग करके मनमाने ढंगसे आचरण करनेपर सिद्धि? सुख और परमगति नहीं मिलती? तो जब उनकी निष्ठाका ही पता नहीं? फिर उनकी गतिका क्या पता लगे इसलिये आप उनकी निष्ठा बताइये? जिससे पता लग जाय कि वे सात्त्विकी गतिमें जाननेवाले हैं या राजसीतामसी गतिमें।कृष्ण का अर्थ है -- खींचनेवाला। यहाँ कृष्ण सम्बोधनका तात्पर्य यह मालूम देता है कि आप ऐसे मनुष्योंको अन्तिम समयमें किस ओर खींचेगे उनको किस गतिकी तरफ ले जायँगे छठे अध्यायके सैंतीसवें श्लोकमें भी अर्जुनने गतिविषयक प्रश्नमें कृष्ण सम्बोधन दिया है -- कां गतिं कृष्ण गच्छति। यहाँ भी अर्जुनका निष्ठा पूछनेका तात्पर्य गतिमें ही है।मनुष्यको भगवान् खींचते हैं या वह कर्मोंके अनुसार स्वयं खींचा जाता है वस्तुतः कर्मोंके अनुसार ही फल मिलता है? पर कर्मफलके विधायक होनेसे भगवान्का खींचना सम्पूर्ण फलोंमें होता है। तामसी कर्मोंका फल,नरक होगा? तो भगवान् नरकोंकी तरफ खींचेंगे। वास्तवमें नरकोंके द्वारा पापोंका नाश करके प्रकारान्तरसे भगवान् अपनी तरफ ही खींचते हैं। उनका किसीसे भी वैर या द्वेष नहीं है। तभी तो आसुरी योनियोंमें जानेवालोंके लिये भगवान् कहते हैं कि वे मेरेको प्राप्त न होकर अधोगतिमें चले गये (16। 20)। कारण कि उनका अधोगतिमें जाना भगवान्को सुहाता नहीं है। इसलिये सात्त्विक मनुष्य हो? राजस मनुष्य हो या तामस मनुष्य हो? भगवान् सबको अपनी तरफ ही खींचते हैं। इसी भावसे यहाँ कृष्ण सम्बोधन आया है। सम्बन्ध --   शास्त्रविधिको न जाननेपर भी मनुष्यमात्रमें किसीनकिसी प्रकारकी स्वभावजा श्रद्धा तो रहती ही है। उस श्रद्धाके भेद आगेके श्लोकमें बताते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।17.1।। पूर्वाध्याय के अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण ने शास्त्रों के प्रामाण्य एवं अध्ययन पर विशेष बल दिया था। उसी बिन्दु से विचार को आगे बढ़ाते हुए अर्जुन यहाँ प्रश्न पूछ रहा है। वह चाहता है कि भगवान् श्रीकृष्ण विस्तृतरूप से इसका विवेचन करें कि किस प्रकार हम प्रभावशाली और लाभदायक आध्यात्मिक जीवन को अपना सकते हैं। इसके साथ ही अध्यात्मविषयक भ्रान्त धारणाओं का भी वे निराकरण करें।शास्त्रविधि को त्यागकर प्राय धर्मशास्त्रों से अनभिज्ञ होने के कारण सामान्य जनों को शास्त्रीय विधिविधान उपलब्ध नहीं होते हैं। यदि शास्त्रों को उपलब्ध कराया भी जाये? तो बहुत कम लोग ऐसे होते हैं? जिनमें तत्प्रतिपादित ज्ञान को समझने की बौद्धित क्षमता होती है। सांसारिक जीवन में कर्मों की उत्तेजनाओं तथा मानसिक चिन्ताओं और व्याकुलता के कारण शास्त्रनिर्दिष्ट मार्ग के अनुसार अपना जीवन सुनियोजित करने की पात्रता हम में नहीं होती। परन्तु? इन सबका अभाव होते हुए भी एक लगनशील साधक को श्रेष्ठतर जीवन पद्धति तथा धर्म के आदर्श में दृढ़ श्रद्धा और भक्ति हो सकती है। इसलिए अर्जुन के प्रश्न का औचित्य सिद्ध होता है।यहाँ प्रयुक्त यज्ञ शब्द से वैदिक पद्धति के होमहवन आदि ही समझना आवश्यक नहीं हैं। गीता सम्पूर्ण शास्त्र है और उसमें उन शब्दों की अपनी परिभाषाएं भी दी गयी है। यज्ञ शब्द की परिभाषा में वे समस्त कर्म समाविष्ट हैं? जिन्हें समाज के लोग अपनी लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए निस्वार्थ भाव से करते हैं। अर्जुन की जिज्ञासा यह है कि जगत् के पारमार्थिक अधिष्ठान को जाने बिना भी यदि मनुष्य यज्ञभावना से कर्म करता है? तो क्या वह परम शान्ति को प्राप्त कर सकता है उसकी स्थिति क्या कही जायेगी अपने प्रश्न को और अधिक स्पष्ट करते हुए वह पूछता है कि ऐसे श्रद्धावान् साधक की निष्ठा कौनसी श्रेणी में आयेगी सात्त्विक ?राजसिक या त्ाामसिक

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।17.1।।आस्तिकानां नास्तिकानां च शास्त्रैकचक्षुषां गतिरुक्ता संप्रत्यास्तिकानामेव शास्त्रानभिज्ञानां गतिजिज्ञासया पृच्छतीत्याह -- तस्मादिति। यजन्त इति यागग्रहणं दानादेरुपलक्षणम्। यदि वेदोक्तं विधिमपश्यन्तस्तमुत्सृजन्ति कथं तर्हि श्रद्दधाना यागादि कुर्वन्ति? नहि मानं विना श्रद्धया यागादि कर्तुं शक्यमित्याशङ्क्याह -- श्रुतीति। ननु शास्त्रीयं विधिं पश्यन्तोऽपि केचित्तमुपेक्ष्य स्वोत्प्रेक्षया यागादि कुर्वन्तो दृश्यन्ते तेषामिह ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य इति ग्रहो भविष्यति नेत्याह -- ये पुनरिति। तेषामत्रापरिग्रहे प्रश्नपूर्वकं हेतुमाह -- कस्मादिति। शास्त्रज्ञानं तदुपेक्षावतां ग्रहेऽपि विशेषणमविरुद्धमित्याशङ्क्य व्याघातान्मैवमित्याह -- देवादीति। अश्रद्दधानतया तदुत्सृज्येति संबन्धः। शास्त्रोक्तं विधिमधिगच्छतामपि तमवधीर्य स्वेच्छया देवपूजादौ प्रवृत्तानामासुरेष्वेवान्तर्भावो यस्मादनन्तराध्याये सिद्धस्तस्मादास्तिकाधिकारे तेषां प्रसङ्गो नास्तीत्युपसंहरति -- यस्मादिति। पूर्वोक्ताः शास्त्रानभिज्ञाः। वृद्धव्यवहारानुसारिण इति यावत्। तैः श्रद्धया क्रियमाणं कर्म कुत्र पर्यवस्यतीति पृच्छति -- तेषामिति। का निष्ठेत्येतद्विवृणोति -- सत्त्वमिति। कार्याणां कारणैर्व्यपदेशमाश्रित्य तात्पर्यमाह -- एतदिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।17.1।।गीताभाष्यप्राकाशेन जगदुद्धारकौ परौ। वन्दे परस्परात्मानौ देवौ श्रीकृष्णशंकरौ।।यः शास्त्रविधिमुत्सृत्य?तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते इति भगवद्वाक्यात् ये शास्त्रविधिं परित्यज्य कामकारतः प्रवृत्तास्ते नास्तिका असुराः? ये तु शास्त्रविधिमनुरुध्य विहितानुष्ठानाय प्रतिषिद्धप्रहाणाय च श्रद्दधानतया प्रवृत्तास्ते आस्तिकाः सुरा इति ज्ञात्वा श्रद्धावतां शास्त्रानबिज्ञानां निष्ठां जिज्ञासुरर्जुन उवाच। ये केचिदसुराणां देवानां च विशेषणैरविशेषिताः शास्त्रविधिं श्रुतिस्भृत्यादिशास्त्रविधानमुत्सृज्यालस्यादिनाऽपश्यन्तो वृद्धव्यवहारादेव श्रद्धया आस्तिक्यबुद्य्धान्विताः संयुक्ताः सन्तो देवादीन्यजन्ति पूजयन्ति। ये तु किंचिच्छास्त्रविधिमुपलभमाना एवाश्रद्धधानतया तमुत्सृज्यायथाविधि देवादीन्पूजयन्ति तेत्र न गृह्यन्ते। श्रद्धयान्विता इति विशेणात्। तेषामेवंभूतानां निष्ठा तु का किं सत्त्वमवस्थानं श्रद्धायाः सात्त्विकत्वात्। आहो रजः किंवा तमः। क्लेशबुद्य्धा आलस्येन च शास्त्रादर्शनस्य राजसतामसत्वात्। एतदुक्तं भवति। या तेषां देवादिविषया पूजा सा किं सात्त्विकी आहोस्विद्राजस्युत तामसीति?कृषिर्भूवाचकः शब्दोण्श्च निर्वृतिवाचकः। तयोकैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते इति निरुक्तमभिप्रेत्य सर्वत्र सत्तास्फूरर्त्यादिना स्थितस्य परमात्मनस्तव किंचिदप्यविदितं न भवतीति सूचयन्संबोधयति -- कृष्णेति। मम संशयापकर्षणेति वा संबोधनार्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।17.1।।सर्वगुणपूर्णाय नमः। श्रीः। गुणभेदान् प्रपञ्चयत्यनेनाध्यायेन शास्त्रविधिमुत्सृज्य अज्ञात्वैव।वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना [मनुः2।165] इति विधिरुत्सृष्टो हि तैः। ये वै वेदं न पठन्ते न चार्थं वेदोज्झांस्तान्विद्धि सानूनबुद्धीन् इति माधुच्छन्दसश्रुतिः। अन्यथा तु तामसा इत्येवोच्येत। न तु विभज्य। यदि सात्विकास्तर्हि नोत्सृष्टशास्त्राः। न हि वेदविरुद्धो धर्मः।वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् [मनुः2।6] इति हि स्मृतिः।वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः इति च भागवते [6।1।40]।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।17.1।।तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते इति प्रश्नबीजमुपलभ्यार्जुन उवाच -- य इति। ये पुरुषाः शास्त्रविधिम्। शास्त्रपदेनात्र श्रुतिसदाचारकुलाचारा गृह्यन्ते। सर्वेषां तेषां धर्मे प्रमाणत्वात्। तत्र योऽधिगतो विधिर्विधेयं तदुत्सृज्य सर्वात्मना परित्यज्य यजन्ते पूजयन्ति तातकूपादीन्। मत्पित्रा कृतोऽयं कूपो गङ्गाशतादप्यधिकोऽत्रैव स्नानपानावगाहनपरिचर्याप्रदक्षिणप्रक्रणरूपादेतत्सेवनादहमिष्टं फलमवश्यं प्राप्स्यामीति तत्र दृढतरया श्रद्धयान्विताः सन्तस्तेषां निष्ठा इयं का कीदृशी किं सत्त्वं सात्त्विकी वा पित्र्ये कूपे श्रद्धाधिक्यदर्शनात्। किं रजः राजसी वा तेषां निष्ठा शास्त्रातिक्रमेण कामकाररूपत्वात्। आहो इति प्रश्ने। किं तमः तामसी वा सा निष्ठा रङ्गे रजतधीरिवाशास्त्रीयाया अल्पे महत्त्वबुद्धेर्विपर्यासरूपाया दर्शनात्। यदपि तु भाष्ये वृद्धव्यवहारदर्शनादेव श्रद्दधानतया देवादीन्यजन्त इत्युक्तं? तत्राप्यविगीत एव वृद्धव्यवहारो ग्राह्यः। अविगीतेऽस्मिंस्तामसत्वादिशङ्काया अयोगात्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।17.1।।अर्जुन उवाच -- शास्त्रविधिम् उत्सृज्य श्रद्धयान्विता ये यजन्ते तेषां निष्ठा का किं सत्वम् आहो स्वित् रजः अथ तमःनिष्ठा स्थितिः? स्थीयते अस्मिन् इति स्थितिः? सत्त्वादिः एव निष्ठा इति उच्यते? तेषां किं सत्त्वे स्थितिः किं वा रजसि किं वा तमसि इत्यर्थः।एवं पृष्टः भगवान् अशास्त्रविहितश्रद्धायाः तत्पूर्वकस्य च यागादेः निष्फलत्वं हृदि निधाय शास्त्रीयस्य एव यागादेः गुणतः त्रैविध्यं प्रतिपादयितुं शास्त्रीयश्रद्धायाः त्रैविध्यं तावद् आह --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।17.1।।उक्ताधिकारहेतूनां श्रद्धा मुख्या तु सात्त्विकी। इति सप्तदशे गौणश्रद्धाभेदस्त्रिधोच्यते।।1।।पूर्वाध्यायान्तेयः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति इत्यनेन शास्त्रोक्तविधिमुत्सृज्य कामकारेण वर्तमानस्य ज्ञानेऽधिकारो नास्तीत्युक्तम्। तत्र शास्त्रविधिमुत्सृज्य कामकारं विना श्रद्धया वर्तमानानां किमधिकारोऽस्ति नास्ति वेति बुभुत्सया अर्जुन उवाच -- य इति। अत्र शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते इत्यनेन शास्त्रार्थं बुध्वा तमुल्लङ्घ्य वर्तमानाश्च गृह्यन्ते? तेषां श्रद्धया यजनानुपपत्तेः। आस्तिक्यबुद्धिर्हि श्रद्धा। न चासौ शास्त्रज्ञानवतां शास्त्रविरुद्धेऽर्थे संभवति। तानेवाधिकृत्यत्रिविधा भवति श्रद्धा?यजन्ते सात्त्विका देवान् इत्याद्युत्तरानुपपत्तेश्च। अतो नात्र शास्त्रातिलङ्घिनो गृह्यन्ते अपितु क्लेशबुद्ध्या आलस्याद्वा शास्त्रार्थज्ञाने प्रयत्नमकृत्वा केवलमाचारपरम्परावशेन श्रद्धया क्वतिद्देवताराधनादौ प्रवर्तमाना गृह्यन्ते। अतोऽयमर्थःये शास्त्रविधिमुत्सृज्य दुःखबुद्ध्या आलस्याद्वा अनादृत्य केवलमाचारप्रामाण्येन श्रद्धयान्विताः सन्तो यजन्ते तेषां तु का निष्ठा का स्थितिः क आश्रयः तामेव विशेषेण पृच्छति किं सत्त्वं? आहो किं वा रजः? अथवा तम इति। तेषां तादृशी देवपूजादिप्रवृत्तिः किं सत्त्वसंश्रिता रजःसंश्रिता वा तमःसंश्रिता वेत्यर्थः। श्रद्धायाः सात्त्विकत्वात्? क्लेशबुद्ध्या आलस्येन च शास्त्रानादरस्य च राजसतामसत्वात्त्रेधा संदेहः। यदि सत्त्वभावसंश्रितास्तर्हि तेषामपि सात्त्विकत्वाद्यथोक्तात्मज्ञानेऽधिकारः स्यात् अन्यथा नेति प्रश्नतात्पर्यार्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।17.1।।उक्तशेषतया सप्तदशमवतारयितुमुक्तमुद्गृह्णाति -- देवासुरेति। प्रकृतस्य मुखभेदेन प्रपञ्चनपरतया सङ्गतिमाह -- इदानीमिति। हेयोपादेयव्यवस्थायाः शास्त्रैकमूलत्वोक्तिसमनन्तरमित्यर्थः।अशास्त्रमासुरं कृत्स्नं शास्त्रीयं गुणतः पृथक्। लक्षणं शास्त्रसिद्धस्य त्रिधा सप्तदशोदितम् [गी.सं.21] इति सङ्ग्रहश्लोकं विवृणोति -- अशास्त्रविहितस्येत्यादिना। अत्र सामान्यतो विशेषतश्च शास्त्रीयार्थविभजनमध्यायानुवृत्तार्थः।सप्तदशोदितम् इत्येतत्सङ्ग्रहश्लोकवाक्यत्रयेऽपि प्रत्येकमन्वेतव्यम्। एतत्सर्वं सप्तदशोदितमिति सर्वोपसंहारेण वाऽन्वयः।ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तम् [16।24] इत्यस्यानन्तरंये शास्त्रविधिमुत्सृज्य इति प्रश्नः कथं सङ्गच्छते इत्यत्राऽऽहतत्रेति।अशास्त्रविहितस्य निष्फलत्वमजानन्निति।अयमभिप्रायः -- प्रेक्षावतां स्वतः प्रयोजने तदुपाये वा बुभुत्सा अतः सत्त्वादिनिष्ठाभेदबुभुत्सा तन्मूलफलविशेषपर्यन्ता न च निष्फलत्वज्ञाने फलविशेषजिज्ञासा ततश्च लोकसिद्धाः कृषिचिकित्सादयोऽपि प्रेक्षावत्प्रवृत्तिविषयाः सफला एव दृश्यन्ते? अन्यथा शास्त्रस्यापि निर्मूलत्वप्रसङ्गात्। अलौकिकेष्वप्याचारसिद्धाः कतिकति धर्माः नच ते यत्किञ्चित्फलमन्तरेण स्युः? प्रेक्षावतामप्रवृत्तिप्रसङ्गात्। न च श्रद्धापूर्वकानुष्ठानेऽङ्गवैकल्यात् फलाभावः सम्भवति नच प्रेक्षावद्भिरनन्तैर्जनैर्बहुवित्तव्ययायासादिनाऽनुष्ठीयमानेषु दृष्टप्रयोजनरहितेषु कर्मसु अदृष्टपर्यवसानमन्तरेण गतिः अतः शास्त्रविहितादस्य यदि किञ्चिद्वैषम्यमुच्यते? तदा सत्त्वादिगुणभेदप्रयुक्तफलतारतम्यमात्रमेव स्यात्। अतःयः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् [13।23] इति पूर्वोक्तमपि प्रायशः प्रकृष्टसुखाभावविवक्षयाकामकारतः इति विशेषणं वा श्रद्धायुक्तव्यवच्छेदार्थमिति दुरुपदेशबाह्यागमस्वोत्प्रेक्षावृद्धव्यवहारमात्रकल्पिते ह्यत्र धर्माभिसन्धिश्रद्धादियोगान्नैष्फल्यनिवृत्तिर्युक्तेत्यर्जुनस्याशयः -- इति।विशिष्टस्य फलत्वशङ्कास्पदत्वाय कर्तृविशेषणं क्रियाविशेषणतया व्याख्यातम्। यागोऽत्र दानाद्युपलक्षणार्थः देवपूजात्वाविशेषात्तत्सङ्ग्रहो वा। अत्र कृष्णशब्देनकृषिर्भूवाचकः शब्दोणश्च निर्वृतिवाचकः [म.भा.5।70।5] इति सर्वापेक्षितः सिद्ध्यौपयिकीं निरुक्तिमभिप्रैति। तुशब्देन शास्त्रीयनिष्ठातः कामकारतश्च व्यावृत्तिर्विवक्षिता। विपरिणतस्य किंशब्दस्यअहो इति पदस्य वा अत्रावृत्तिमभिप्रेत्याऽऽह -- किं सत्त्वमिति। विनाशाद्यर्थव्यवच्छेदार्थं सत्त्वादिसामानाधिकरण्याय चाधिकरणव्युत्पत्तिमवतारयितुं पर्यायेण स्वरूपं व्यनक्तिनिष्ठा स्थितिरिति।तेषां निष्ठा तु का इति पृष्ट एवार्थःसत्त्वं इत्यादिना विशेष्यत इत्यभिप्रायेण फलितमाहतेषामिति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।17.1।।ये शास्त्रेति। शास्त्रविधिमनालंब्य ये व्यवहारमाचरन्ति [ श्रद्धया ]? तेषां का गतिरिति प्रश्नः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।17.1।।अध्यायार्थमाह -- गुणेति। गुणनिमित्ताः श्रद्धादीनां भेदाः।नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं [14।19] इत्युक्तत्वात् प्रपञ्चयतीत्युक्तम्। सात्त्विकानां पुमर्थसाधनत्वादनुष्ठेयत्वमन्येषां तद्विरुद्धत्वाभावः। त्याज्यत्वं च ज्ञापयितुमिति शेषः। शास्त्रविधिमुत्सृज्येत्यस्य वेदविधानमप्रामाण्यबुद्ध्या परित्यज्येत्यर्थप्रतीतिं निवारयितुमाह -- शास्त्रेति। अज्ञानमेवात्रोत्सर्गः? न त्वप्रामाण्यबुद्ध्या त्याग इत्यर्थः। ननु प्राप्तपरित्याग उत्सर्गः? एवं च प्रतीतार्थ एव युक्तो न ज्ञात्वेति तत्राऽऽह -- वेद इति। अर्थज्ञानपर्यन्तोऽयं विधिः। अयं च सर्वान्द्विजन्मनः प्राप्तस्तैरज्ञानिभिरुत्सृष्टश्च अतोऽज्ञात्वेति युक्तमित्यर्थः। अत्र श्रुतिसम्मतिं चाऽऽह -- य इति। न चार्थमधिगच्छन्ति सहानूनया वेदतदर्थाधिगतियोग्यया बुद्ध्या वर्तमानान् सानूनबुद्धयोऽपि ये वेदं न पठन्त इति योज्यम्। अप्रामाण्यबुद्ध्या परित्यज्येत्येवार्थः किं न स्यात् इत्यत आह -- अन्यथेति। यद्यत्र वेदविरोधिनां बौद्धादीनां निष्ठा पृच्छ्येत तदा ते तामसा इत्येवोत्तरमुच्येत तदीयतामसत्त्वस्याविकल्पितत्वादिति भावः। न केवलं वक्तव्यानुक्तिरेव दोषः? किन्तु तद्विरुद्धोक्तिश्च स्यादिति भावेनाऽऽह -- न त्विति।त्रिविधा भवति श्रद्धा [17।2] इत्यादिना श्रद्धां विभज्योत्तरं नोच्यते इत्यर्थः। एवमुत्तरवचनेऽपि किं स्यात् इति चेत् वेदाप्रामाण्यवादिनामपि पाक्षिकं सात्त्विकत्वं स्यात्। तथा च वक्ष्यामः। तदपि स्यादिति चेत्? न सात्त्विकत्ववेदविरोधित्वयोः सहानवस्थानादित्याह -- यदीति। सहानवस्थानमपि कुतो निश्चेयं इति चेत्? सात्त्विका हि धर्ममाचरन्तिसत्त्वाद्धर्मो भवेत्पुंसाम् [भाग.11।13।2] इति वचनात्। तथा च वेदविरोधिनो धर्मिणश्चेत्युक्तं भवति। एवं च वेदविरोधी धर्म इत्याद्यापद्येत तच्चानुपपन्नमित्याह -- न हीति। कुतो न इत्यात आह -- वेद इति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।17.1।।द्विविधाः कर्मानुष्ठातारो भवन्ति केचिच्छास्त्रविधिं ज्ञात्वाप्यश्रद्धया तमुत्सृज्य कामकारमात्रेण यत्किंचिदनुतिष्ठन्ति ते सर्वपुरुषार्थायोग्यत्वादसुराः। केचित्तु शास्त्रविधिं ज्ञात्वा श्रद्दधानतया तदनुसारेणैव निषिद्धं वर्जयन्तो विहितमनुतिष्ठन्ति ते सर्वपुरुषार्थयोग्यत्वाद्देवा इति पूर्वाध्यायान्ते सिद्धम्। ये तु शास्त्रीयं विधिमालस्यादिवशादुपेक्ष्य श्रद्दधानतयैव वृद्धव्यवहारमात्रेण निषिद्ध वर्जयन्तो विहितमनुतिष्ठन्ति ते शास्त्रीयविध्युपेक्षालक्षणेनासुरसाधर्म्येण श्रद्धापूर्वकानुष्ठानलक्षणेन च देवसाधर्म्येणान्विताः किमसुरेष्वन्तर्भवन्ति किंवा देवेष्वित्युभयधर्मदर्शनादेककोटिनिश्चायकादर्शनाच्च संदिहानोऽर्जुन उवाच। ये पूर्वाध्याये न निर्णीताः कोटिद्वयविलक्षणास्ते न देववच्छास्त्रानुसारिणः किंतु शास्त्रविधिं श्रुतिस्मृतिचोदनामुत्सृज्यालस्यादिवशादनादृत्य नासुरवदश्रद्दधानाः किंतु वृद्धव्यवहारानुसारेण श्रद्धयान्विता यजन्ते देवपूजादिकं कुर्वन्ति। तेषां तु शास्त्रविध्युपेक्षाश्रद्धाभ्यां पूर्वनिश्चितदेवासुरविलक्षणानां निष्ठा का कीदृशी तेषां शास्त्रविध्यनपेक्षा श्रद्धापूर्विका च। सा यजनादिक्रियाव्यवस्थितिर्हे कृष्ण भक्ताघकर्षण? किं सात्त्विकी तथा सति सात्त्विकत्वात्ते देवाः। आहो इति पक्षान्तरे। किं रजस्तमः राजसी तामसी च। तथा सति राजसत्वात्तामसत्वादसुरास्ते सत्त्वमित्येका कोटी रजस्तम इत्यपरा कोटिरिति विभागज्ञापनायाहोशब्दः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।17.1।।शास्त्रविध्ययुता श्रद्धा निर्गुणैवोत्तमा मता। इति दर्शयितुं श्रद्धा त्रिविधाऽन्न निरूप्यते।।1।।पूर्वाध्याये शास्त्रविधिरहितकामकारतः कर्मसु वर्त्तमानस्य न फलमित्युक्तं? तत्र कामकाराभावे शास्त्रविधिरहितस्य श्रद्धया वर्त्तमानानामग्रे सात्त्विकत्वाद्याश्रयेण किमपि ज्ञानादिकं सत्फलं भवति न वा इति जिज्ञासुरर्जुनः पृच्छति -- ये शास्त्रेति। ये सर्वत्यागादनन्यत्वादिशास्त्रविधिं दुस्तरत्वेनोत्सृज्य परम्पराचारप्रवाहप्रवृत्तभजनादिषु श्रद्धया आदरेण युक्ताः यजन्ते देवादिपूजनं कुर्वन्ति? हे कृष्ण तेषां का निष्ठा क आश्रयः सत्त्वं आहो रजः तमो वा।अयं भावः -- पूर्वं चेत् सत्त्वाश्रयस्तदा तत एव ज्ञानोदयः? पूर्वं चेद्रजस्तदा? तथा कुर्वतोऽग्रे सात्त्विकत्वं? पूर्वं चेत्तमस्तदाऽग्रे राजसत्वं ततस्तथा कुर्वतोऽग्रे सात्त्विकत्त्वं? ततो ज्ञानोदयस्ततो निर्गुणत्वेन त्वत्प्राप्तिः। फलात्मकनामसम्बोधनेन फलाभावे तत्कारणं व्यर्थमेव तदाचारादिप्रामाण्यं निष्प्रयोजनकमतस्तेषामाश्रय स्वरूपं वक्तव्यमिति भावो व्यञ्जितः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।17.1।। --,ये केचित् अविशेषिताः शास्त्रविधिं शास्त्रविधानं श्रुतिस्मृतिशास्त्रचोदनाम् उत्सृज्य परित्यज्य यजन्ते देवादीन् पूजयन्ति श्रद्धया अन्विताः श्रद्धया आस्तिक्यबुद्ध्या अन्विताः संयुक्ताः सन्तः -- श्रुतिलक्षणं स्मृतिलक्षणं वा कञ्चित् शास्त्रविधिम् अपश्यन्तः वृद्धव्यवहारदर्शनादेव श्रद्दधानतया ये देवादीन् पूजयन्ति? ते इह ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः इत्येवं गृह्यन्ते। ये पुनः कञ्चित् शास्त्रविधिं उपलभमाना एव तम् उत्सृज्य अयथाविधि देवादीन् पूजयन्ति? ते इह ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते इति न परिगृह्यन्ते। कस्मात् श्रद्धया अन्वितत्वविशेषणात्। देवादिपूजाविधिपरं किञ्चित् शास्त्रं पश्यन्त एव तत् उत्सृज्य अश्रद्दधानतया तद्विहितायां देवादिपूजायां श्रद्धया अन्विताः प्रवर्तन्ते इति न शक्यं कल्पयितुं यस्मात्? तस्मात् पूर्वोक्ता एव ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः इत्यत्र गृह्यन्ते। तेषाम् एवंभूतानां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वम् आहो रजः तमः? किं सत्त्वं निष्ठा अवस्थानम्? आहोस्वित् रजः? अथवा तमः इति। एतत् उक्तं भवति -- या तेषां देवादिविषया पूजा? सा किं सात्त्विकी? आहोस्वित् राजसी? उत तामसी इति।।सामान्यविषयः अयं प्रश्नः न अप्रविभज्य प्रतिवचनम् अर्हतीति श्रीभगवानुवाच --,श्रीभगवानुवाच --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।17.1।।पूर्वाध्यायान्तेयः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्त्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् [16।23] इत्यनेन शास्त्रविधिमुत्सृज्य स्वच्छन्दश्रद्धातो वर्त्तमानस्य दैवासुरविभागोक्तिमुखेन प्राप्यतत्त्वज्ञानाप्तिरूपा न सिद्धिरित्युक्तं? तत्राऽऽर्जुनः पृच्छति -- अर्जुन उवाच ये शास्त्रविधिमुत्सृज्येति। त्यक्त्वा वर्त्तन्ते कामकारशब्दनिर्दिष्टया श्रद्धयाऽन्विताः तेषां निष्ठा का हे कर्षक किं सत्त्वमाहो रजस्तम इति तेषां सत्त्वविषयिणी सा रजस्तमोविषयिणी वा निष्ठा इति प्रश्नतात्पर्यम्।


Chapter 17, Verse 1