यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।16.23।।
yaḥ śhāstra-vidhim utsṛijya vartate kāma-kārataḥ na sa siddhim avāpnoti na sukhaṁ na parāṁ gatim
yaḥ—who; śhāstra-vidhim—scriptural injunctions; utsṛijya—discarding; vartate—act; kāma-kārataḥ—under the impulse of desire; na—neither; saḥ—they; siddhim—perfection; avāpnoti—attain; na—nor; sukham—happiness; na—nor; parām—the supreme; gatim—goal
He who, abandoning the injunctions of the Sastras, acts under the influence of desire, attains neither perfection nor pleasure, nor the supreme state.
Ignoring the precepts of the scriptures, he who acts under the impulse of passion does not attain perfection, nor happiness, nor the supreme goal.
He who, having cast aside the ordinances of the scriptures, acts under the impulse of desire, does not attain perfection, nor happiness, nor the Supreme Goal.
He who neglects the injunctions of the scriptures and acts according to his own will, attains neither success nor happiness nor the highest goal of emancipation.
But he who neglects the commands of the scriptures and follows the promptings of passion does not attain perfection, happiness, or the final goal.
।।16.23।। जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि-(अन्तःकरणकी शुद्धि-) को, न सुखको और न परमगतिको ही प्राप्त होता है।
।।16.23।। जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी कामना से प्रेरित होकर ही कार्य करता है, वह न पूर्णत्व की सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न परा गति।।
16.23 यः who? शास्त्रविधिम् the ordinance of the scriptures? उत्सृज्य having cast aside? वर्तते acts? कामकारतः under the impulse of desire? न not? सः he? सिद्धिम् perfection? अवाप्नोति attains? न not? सुखम् happiness? न not? पराम् Supreme? गतिम् Goal.Commentary He who does not care for the Self? who gives free rein to these three sins? is a traitor to the Self. He who has renounced the authority of the Vedas which? like a mother? is eally disposed and kind to all? and which? like a beaconlight? points out what is good and what is evil? does not attain perfection nor happiness nor the Supreme Goal. He who pays no attention to prescribed actions and follows the promptings of desire awakened by the senses? does not obtain God.
।।16.23।। व्याख्या -- यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते -- जो लोग शास्त्रविधिकी अवहेलना करके शास्त्रविहित यज्ञ करते हैं? दान करते हैं? परोपकार करते हैं? दुनियाके लाभके लिये तरहतरहके कई अच्छेअच्छे काम करते हैं परन्तु वह सब करते हैं -- कामकारतः (टिप्पणी प0 830) अर्थात् शास्त्रविधिकी तरफ ध्यान न देकर अपने मनमाने ढङ्गसे करते हैं। मनमाने ढङ्गसे करनेमें कारण यह है कि उनके भीतर जो काम? क्रोध आदि पड़े रहते हैं? उनकी परवाह न करके वे बाहरी आचरणोंसे ही अपनेको बड़ा मानते हैं। तात्पर्य है कि वे बाहरके आचरणोंको ही श्रेष्ठ समझते हैं। दूसरे लोग भी बाहरके आचरणोंको ही विशेषतासे देखते हैं। भीतरके भावोंको? सिद्धान्तोंको जाननेवाले लोग बहुत कम होते हैं। परन्तु वास्तवमें भीतरके भावोंका ही विशेष महत्त्व है।अगर भीतरमें दुर्गुणदुर्भाव रहते हैं और बाहरसे बड़े भारी त्यागीतपस्वी बन जाते हैं? तो अभिमानमें आकर दूसरोंकी ताड़ना कर देते हैं। इस प्रकार भीतरमें ब़ढ़े हुए देहाभिमानके कारण उनके गुण भी दोषमें परिणत हो जाते हैं? उनकी महिमा निन्दामें परिणत हो जाती है? उनका त्याग रागमें? आसक्तिमें? भोगोंमें परिणत हो जाता है और आगे चलकर वे पतनमें चले जाते हैं। इसलिये भीतरमें दोषोंके रहनेसे ही वे शास्त्रविधिका त्याग करके मनमाने ढङ्गसे आचरण करते हैं।जैसे रोगी अपनी दृष्टिसे तो कुपथ्यका त्याग और पथ्यका सेवन करता है? पर वह आसक्तिवश कुपथ्य ले लेता है? जिससे उसका स्वास्थ्य और अधिक खराब हो जाता है। ऐसे ही वे लोग अपनी दृष्टिसे अच्छेअच्छे काम करते हैं? पर भीतरमें काम? क्रोध और लोभका आवेश रहनेसे वे शास्त्रविधिकी अवहेलना करके मनमाने ढङ्गसे काम करने लग जाते हैं? जिससे वे अधोगतिमें चले जाते हैं।न स सिद्धिमवाप्नोति -- आसुरीसम्पदावाले जो लोग शास्त्रविधिका त्याग करके यज्ञ आदि शुभ कर्म करते हैं? उनको धन? मान? आदर आदिके रूपमें कुछ प्रसिद्धिरूप सिद्धि मिल सकती है? पर वास्तवमें अन्तःकरणकी शुद्धिरूप जो सिद्धि है? वह उनको नहीं मिलती।न सुखम् -- उनको सुख भी नहीं मिलता क्योंकि उनके भीतरमें कामक्रोधादिकी जलन बनी रहती है। पदार्थोंके संयोगसे होनेवाला सुख उन्हें मिल सकता है? पर वह सुखदुःखोंका कारण ही है अर्थात् उससे दुःखहीदुःख पैदा होते हैं (गीता 5। 22)। तात्पर्य यह है कि पारमार्थिक मार्गमें मिलनेवला सात्त्विक सुख उनको नहीं मिलता।न परां गतिम् -- उनको परमगति भी नहीं मिलती। परमगति मिले ही कैसे पहले तो वे परमगतिको मानते ही नहीं और यदि मानते भी हैं? तो भी वह उनको मिल नहीं सकती क्योंकि काम? क्रोध और लोभके कारण उनके कर्म ही ऐसे होते हैं।सिद्धि? सुख और परमगतिके न मिलनेका तात्पर्य यह है कि वे आचरण तो श्रेष्ठ करते हैं? जिससे उन्हें सिद्धि? सुख और परमगतिकी प्राप्ति हो सके परन्तु भीतरमें काम? क्रोध? लोभ? अभिमान आदि रहनेसे उनके अच्छे आचरण भी बुराईमें ही चले जाते हैं। इससे उनको उपर्युक्त चीजें नहीं मिलतीं। यदि ऐसा मान लिया जाय कि उनके आचरण ही बुरे होते हैं? तो भगवान्का न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् -- ऐसा कहना बनेगा ही नहीं क्योंकि प्राप्ति होनेपर ही निषेध होता है -- प्राप्तौ सत्यां निषेधः। सम्बन्ध -- शास्त्रविधिका त्याग करनेसे मनुष्यको सिद्धि आदिकी प्राप्ति नहीं होती? इसलिये मनुष्यको क्या करना चाहिये -- इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।16.23।। गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश यह है कि कामक्रोधादि आत्मघातक अवगुणों के त्याग से आन्तरिक शक्तियों का जो संचय किया जाता है? उसका आत्मोन्नति के लिए सदुपयोग करना चाहिए। ऐसा न करने पर मनुष्य का जो पतन होता है? उससे पुन ऊपर उठना अति कठिन हो जाता है। रावणादि के समान असुरों का चरित्र इस तथ्य का विशिष्ट प्रमाण है। ये असुर तपश्चर्या के द्वारा असीम शक्तियां प्राप्त करते थे? परन्तु उसके दुरुपयोग करके वे आत्मनाश ही करते थे उनकी शक्तियां ऐसी अद्भुत और भयंकर थीं कि उन्होंने अपनी पीढ़ी को हिला दिया था और उसे चूरचूर कर पृथ्वी की धूल चटा दी थी। स्वयं को तथा इस जगत् को अनर्थ से सुरक्षित रख्ाने के लिए लोगों को गम्भीर चेतावनी की आवश्यकता है। इन अन्तिम दो श्लोकों में यही चेतावनी दी गयी है।जो पुरुष शास्त्रविधि की उपेक्षा करके अपनी स्वच्छन्द प्रकृति के अनुसार ही काम करता है? उसे वस्तुत किसी प्रकार का भी लाभ नहीं होता। यहाँ शास्त्र शब्द से कठिन और विस्तृत कर्मकाण्ड को ही समझना आवश्यक नहीं है? जिसका अनुष्ठान और उपदेश रूढ़िवादी लोग विशेष बल देकर करते हैं। ब्रह्यविद्या का तथा तत्प्राप्ति के साधनों का उपदेश जिन ग्रन्थों में दिया गया है उन्हें यहाँ शास्त्र कहा गया है। ऐसे ग्रन्थ मुख्यत उपनिषद् हैं। वेदान्त के प्रतिपाद्य विषय तथा परिभाषिक शब्दावली का वर्णन करने वाले ग्रन्थों को प्रकरण ग्रन्थ कहा जाता हैं। गीता में ब्रह्मविद्या तथा तत्प्राप्ति के साधन उपदिष्ट है? इसलिए गीता भी शास्त्र ही है।कामकारत प्रस्तुत खण्ड में काम? क्रोध और लोभ के त्याग का उपदेश दिया गया है। हमने यह देखा कि क्रोध और लोभ का मूल कारण काम ही है। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ केवल काम का ही उल्लेख करते हुए कहते हैं कि काम से प्रेरित मनुष्य को परम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती।वह न सिद्धि प्राप्त करता है न सुख और न परा गति। गीता के उपदेश का पालन न करने से क्या हानि होगी इसका उत्तर यह है कि कामना से प्रेरित? लोभ से प्रोत्साहित और क्रोध से विक्षिप्त पुरुष सदैव अशान्ति और क्रूर मनाद्वेगों से पूर्ण जीवन को ही प्राप्त करता है। ऐसा पुरुष न सुख प्राप्त करता है और न आत्मविकास।अत? निष्कर्ष यह निकलता है कि
।।16.23।।आसुर्याः संपदो वर्जने श्रेयसश्च करणे किं कारणं तदाह -- सर्वस्येति। तस्य कारणत्वं साधयति -- शास्त्रेति। उक्तमुपजीव्यानन्तरश्लोकं प्रवर्तयति -- अत इति। शिष्यतेऽनुशिष्यते बोध्यतेऽनेनापूर्वोऽर्थ इति शास्त्रं तच्च विधिनिषेधात्मकमित्युपेत्य व्याचष्टे -- कर्तव्येति। कामस्य करणं कामकारस्तस्माद्धेतोरित्युपेत्य कामाधीना शास्त्रविमुखस्य प्रवृत्तिरित्याह -- कामेति। कामाधीनप्रवृत्तेः सदा पुमर्थायोग्यस्य सर्वपुरुषार्थासिद्धिरित्याह -- नापीति।
।।16.23।।आसुर्याः संपदः परिवर्जनस्य श्रेयआचरणस्य च किं कारणमित्यपेक्षायामुभयं शास्त्रप्रमाणाच्छक्यं कर्तुं नान्यथाऽत उभयोः शास्त्रं कारणमिति बोधयितुं शास्त्रविधित्यागेऽनर्थमाह -- य इति। शिष्यतेऽनुशिष्यते बोध्यतेऽनेनाज्ञातोऽर्थ इति शास्त्रं वेदस्तदुपजीविस्मृतीतिहासपुराणादि च तस्य विधिः कुर्यान्न कुर्यादिति कर्तव्याकर्तव्यज्ञानकारणं शास्त्र संबन्धिविधिनिषेधाख्यस्तं यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य विहाय कामकारतः स्वेच्छानुसारेण वर्तते कामस्य करणं कामकारस्तस्माद्वेतोः शास्त्रविधिमुत्सृत्येति वा संबन्धः। संसिद्धिं पुरुषार्थयोग्यतां चित्तशुद्य्धादिलक्षणआं नावप्नोति नास्िमँल्लोके सुखं नापि परां प्रकृष्टां गतिं स्वर्गं मोक्षं चाप्नोति।
।।16.23।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
।।16.23।।न केवलं काष्ठतपस्विवत्कामादित्यागमात्रेणोच्छास्त्रवर्ती सिध्यतीत्याह -- य इति। शास्त्रविधिं शास्त्रेण इष्टसाधनतयाऽनिष्टसाधनतया च ज्ञापितंब्राह्मणो यजेत?न सुरां पिबेत् इत्यादिना विहितं निषिद्धं च उत्सृज्य विहितमकरणेन निषिद्धमाचरणेन च उत्सृज्य यो वर्तते कामकारत इच्छया स सिद्धिं चित्तशुद्धिं,सुखं वैराग्यादिजनितां तृप्तिं परां गतिं मोक्षं च नावाप्नोति।
।।16.23।।शास्त्रं वेदाः विधिः अनुशासनम् वेदाख्यं मदनुशासनम् उत्सृज्य यः कामकारतो वर्तते स्वच्छन्दानुगणमार्गेण वर्तते? न स सिद्धिम् अवाप्नोति? न काम् अपि आमुष्मिकीं सिद्धिम् अवाप्नोति। न सुखं ऐहिकम् अपि किञ्चिद् अवाप्नोति। न परां गतिम् कुतः परां गतिं प्राप्नोति इत्यर्थः।
।।16.23।।कामादित्यागश्च स्वधर्माचरणं विना न भवतीत्याह -- य इति। शास्त्रविधिं वेदविहितं धर्ममुत्सृज्य यः कामकारतो यथेच्छं वर्तते स सिद्धिं तत्त्वज्ञानं न प्राप्नोति। नच सुखमुपशमं नच परां गतिं मुक्तिं प्राप्नोति।
।।16.23।।आसुरस्वभावेषु मूलतया प्रधानभूतास्त्रय उक्ताः तेभ्योऽपि प्रधानतमःपरिहार्यो हेतुरनन्तरमुच्यत इत्याहशास्त्रानादर इति। सर्वावस्थसमस्तपुरुषहितानुशासनाच्छास्त्रशब्दो वेदेष्वेव प्रथमं प्राप्तः तदनुबन्धादन्येष्वित्यभिप्रायेणाऽऽहशास्त्रं वेदा इति। विधायकवाक्यस्य शास्त्रशब्देनोपात्तत्वात् तद्व्यापारोऽत्र विधिशब्दविवक्षित इत्याह -- विधिरनुशासनमिति। फलितमाह -- वेदाख्यं मदनुशासनमिति। शास्त्रमेव विधिरिति सामानाधिकरण्यं वा विवक्षितम्।मदनुशासनं इत्यनेनश्रुतिः स्मृतिर्ममैवाज्ञा [वि.ध.76।31] इत्यादिस्मारणम्। एतेनान्यथा लिङ्गाद्यर्थं वर्णयन्तोऽपि प्रत्युक्ताः। लिङादयो हि प्रशासितुरभिप्रायमाक्षेपादभिधानतो वा व्यञ्जयन्ति। शास्त्रप्रतिपक्षभूतः कामकारोऽत्र न शास्त्रीयवैकल्पिकादिविषय इत्यभिप्रायेणाऽऽहस्वच्छन्दानुगुणमार्गेति।अथ केन प्रयुक्तोऽयं [3।36]काम एष क्रोध एषः [3।37] इत्याद्युक्तकामप्रयुक्तेत्युक्तं भवति।या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च कांश्च कुदृष्टयः। सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः [मनुः12।96कू.पु.पू.7।2।31] इत्याद्यनुसन्धानेनाऽऽहन कामप्यामुष्मिकीं सिद्धिमिति। आमुष्मिकसुखहेतुभूतामुपायसिद्धिमित्यर्थः। न सुखं न स्वर्गादिसुखमित्यर्थः। यद्वाआमुष्मिकीं सिद्धिमिति स्वर्गादिफलविषयम्सुखमिति त्वैहिकपरम् अत एव हि किञ्चिच्छब्दः। इहापि हि सुखं शास्त्रीयानुष्ठानजनितपरमपुरुषानुग्रहादेव। अत एव ह्युच्यते -- अनाराधितगोविन्दा ये नरा दुःखभागिनः [वि.ध.19।13] इति। कैमुत्यप्रदर्शनायात्रान्यसुखसमभिव्याहार इत्याह -- कुतः परां गतिमिति।
।।16.23 -- 16.24।।न चैतत् पुरुषवचनमित्यनादरणीयम्? अपि तु अनादिशास्त्रमत्र प्रमाणम् इत्युच्यते -- यः शास्त्रविधिमिति। तस्मादिति। शास्त्रविधिं त्यजत स्वमनीषयैव कार्याकार्यविचारं कुर्वतः प्रत्युत नरकपातः। तस्मात् आत्मबुद्ध्या (S??N add शास्त्रमननुसृत्य after आत्मबुद्ध्या) कार्याकार्यव्यवस्थां मा कार्षीः इति तात्पर्यम् [इति]।
।।16.23।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।16.23।।यस्मादश्रेयोनाचरणस्य श्रेयआचरणस्य न शास्त्रमेव निमित्तं तयोः शास्त्रैकगम्यत्वात्तस्मात् -- यः शास्त्रविधिमुत्सृज्येति। शिष्यतेऽनुशिष्यतेऽपूर्वोऽर्थो बोध्यतेऽनेनेति शास्त्रं वेदस्तदुपजीविस्मृतिपुराणादि च? तत्संबन्धी विधिर्लिङादिशब्दः कुर्यान्न कुर्यादित्येवं प्रवर्तनानिवर्तनात्मकः कर्तव्याकर्तव्यज्ञानहेतुर्विधिनिषेधाख्यस्तं शास्त्रविधिं विधिनिषेधातिरिक्तमपि ब्रह्मप्रतिपादकं शास्त्रमस्तीति सूचयितुं विधिशब्दः। उत्सृज्याश्रद्धया परित्यज्य कामकारतः स्वेच्छामात्रेण वर्तते विहितमपि नाचरति निषिद्धमप्याचरति यः सः संसिद्धिं पुरुषार्थप्राप्तियोग्यामन्तःकरणशुद्धिं कर्माणि कुर्वन्नपि नाप्नोति। न सुखमैहिकं? नापि परां प्रकृष्टां गतिं स्वर्गं मोक्षं वा।
।।16.23।।किञ्च -- असुराश्च अशास्त्रविहिताः असत्कर्मणि निरता अतो यश्चैतत्सङ्गत्यागी न किन्तु तद्भक्तोऽशास्त्रं कर्म करोति न स मुक्तिं प्राप्नोतीत्याह -- यः शास्त्रेति। आसुरसङ्गात्तु यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य अवगणय्य कामकारतः स्वेच्छातः अशास्त्रेषु वर्तते? स न सिद्धिं स्वमनोभिलाषं? न सुखं मनोनिर्वृतिं? न परां गतिं मोक्षं प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।16.23।। --,यः शास्त्रविधिं शास्त्रं वेदः तस्य विधिं कर्तव्याकर्तव्यज्ञानकारणं विधिप्रतिषेधाख्यम् उत्सृज्य त्यक्त्वा वर्तते कामकारतः कामप्रयुक्तः सन्? न सः सिद्धिं पुरुषार्थयोग्यताम् अवाप्नोति? न अपि अस्मिन् लोके सुखं न अपि परां प्रकृष्टां गतिं स्वर्गं मोक्षं वा।।
।।16.23।।कामादित्यागश्च शास्त्रोक्तस्वधर्माचरणां विना न भवतीत्याह -- य इति। सर्वःब्रह्मादयस्त्ववयवाः पुरुषोत्तमस्य इत्याज्ञाय देवयजनं हरिणा सदोक्तं इति शास्त्रविधिमुत्सृज्य कामकारतः अशास्त्रीयस्वच्छन्दश्रद्धातो वर्त्तते? न च सिद्धिं कामपि तत्त्वज्ञानाप्तिरूपामामुष्मिकीं वा समवाप्नोति सुखमैहिकमपि नाप्नोति? न च परां गतिमपि।
Chapter 16, Verse 23