त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।16.21।।
tri-vidhaṁ narakasyedaṁ dvāraṁ nāśhanam ātmanaḥ kāmaḥ krodhas tathā lobhas tasmād etat trayaṁ tyajet
tri-vidham—three types of; narakasya—to the hell; idam—this; dvāram—gates; nāśhanam—destruction; ātmanaḥ—self; kāmaḥ—lust; krodhaḥ—anger; tathā—and; lobhaḥ—greed; tasmāt—therefore; etat—these; trayam—three; tyajet—should abandon
Desire, wrath, and greed—these are the three gateways to Naraka, ruinous to the self. Therefore, one should abandon these three.
This door to hell, which destroys the soul, is of three kinds—passion, anger, and greed. Therefore, one should forsake these three.
There are three gates to this hell, destructive of the self: lust, anger, and greed; therefore, one should abandon these three.
To the hell, there are three gates that ruin the Self: desire, anger, and greed. Hence, one should avoid these three.
The gates of hell are three: lust, wrath, and avarice; they destroy the Self, so avoid them.
।।16.21।।काम, क्रोध और लोभ -- ये तीन प्रकारके नरकके दरवाजे जीवात्माका पतन करनेवाले हैं, इसलिये इन तीनोंका त्याग कर देना चाहिये।
।।16.21।। काम, क्रोध और लोभ ये आत्मनाश के त्रिविध द्वार हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।।
16.21 त्रिविधम् triple? नरकस्य of hell? इदम् this? द्वारम् gate? नाशनम् destructive? आत्मनः of the self? कामः lust? क्रोधः anger? तथा also? लोभः greed? तस्मात् therefore? एतत् this? त्रयम् three? त्यजेत् (one) should abandon.Commentary Lust? anger and greed? -- these highway robbers will cause a man to fall into the dark abyss of hell? misery or grief. These are the three fountainheads of misery. These three constitute the gateway leading to the lowest of hells. These are the enemies of peace? devotion and knowledge. When these evil modifications of the mind arise in it? man loses his balance or poise and discrimination and commits various evil actions.Lust? anger and greed denote selfblindness and ignorance? for there are no Vasanas? wants? anger? or greed in Brahman or the pure immortal Self.Narakasya dvaram The gate to hell The gate leading to hell. The self is destroyed by merely entering at the gate? i.e.? it is not fit to do any right exertion to attain the goal of life.As this gate causes selfdestruction? let everyone renounce these three. (Cf.III.47)In the next verse the man who has abandoned these three evils is highyl eulogised.
।।16.21।। व्याख्या -- कामः क्रोधस्तथा लोभस्त्रिविधं नरकस्येदं द्वारम् -- भगवान्ने पाँचवें श्लोकमें कहा था कि दैवीसम्पत्ति मोक्षके लिये और आसुरीसम्पत्ति बन्धनके लिये है। तो वह आसुरीसम्पत्ति आती कहाँसे है जहाँ संसारकी कामना होती है। संसारके भोगपदार्थोंका संग्रह? मान? बड़ाई? आराम आदि जो अच्छे दीखते हैं? उनमें जो महत्त्वबुद्धि या आकर्षण है? बस? वही मनुष्यको नरकोंकी तरफ ले जानेवाला है। इसलिये काम? क्रोध? लोभ? मोह? मद और मत्सर -- ये ष़ड्रिपु माने गये हैं। इनमेंसे कहींपर तीनका? कहींपर दोका और कहींपर एकका कथन किया जाता है? पर वे सब मिलेजुले हैं? एक ही धातुके हैं। इन सबमें काम ही मूल है क्योंकि कामनाके कारण ही आदमी बँधता है (गीता 5। 12)।तीसरे अध्यायके छत्तीसवें श्लोकमें अर्जुनने पूछा था कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पापका आचरण क्यों करता है उसके उत्तरमें भगवान्ने काम और क्रोध -- ये दो शत्रु बताये। परन्तु उन दोनोंमें भी एष शब्द देकर कामनाको ही मुख्य बताया क्योंकि कामनामें विघ्न पड़नेपर क्रोध आता है। यहाँ काम? क्रोध और लोभ -- ये तीन शत्रु बताते हैं। तात्पर्य है कि भोगोंकी तरफ वृत्तियोंका होना काम है और संग्रहकी तरफ वृत्तियोंका होना लोभ है। जहाँ काम शब्द अकेला आता है? वहाँ उसके अन्तर्गत ही भोग और संग्रहकी इच्छा आती है। परन्तु जहाँ काम और लोभ -- दोनों स्वतन्त्ररूपसे आते हैं? वहाँ भोगकी इच्छाको लेकर काम और संग्रहकी इच्छाको लेकर लोभ आता है और इन दोनोंमें बाधा पड़नेपर क्रोध आता है। जब काम? क्रोध और लोभ -- तीनों अधिक बढ़ जाते हैं? तब मोह होता है।कामसे क्रोध पैदा होता है और क्रोधसे सम्मोह हो जाता है (गीता 2। 62 -- 63)। यदि कामनामें बाधा न पड़े? तो लोभ पैदा होता है और लोभसे सम्मोह हो जाता है। वास्तवमें यह काम ही क्रोध और लोभका रूप धारण कर लेता है। सम्मोह हो जानेपर तमोगुण आ जाता है। फिर तो पूरी आसुरी सम्पत्ति आ जाती है।नाशनमात्मनः -- काम? क्रोध और लोभ -- ये तीनों मनुष्यका पतन करनेवाले हैं। जिनका उद्देश्य भोग भोगना और संग्रह करना होता है? वे लोग (अपनी समझसे) अपनी उन्नति करनेके लिये इन तीनों दोषोंको हितकारी मान लेते हैं। उनका यही भाव रहता है कि हम लोग काम आदिसे सुख पायेंगे? आरामसे रहेंगे? खूब भोग भोगेंगे। यह भाव ही उनका पतन कर देता है।तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् -- ये काम? क्रोध आदि नरकोंके दरवाजे हैं। इसलिये मनुष्य इनका त्याग कर दे। इनका त्याग कैसे करे तीसरे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया है कि प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर राग (काम) और द्वेष (क्रोध) स्थित रहते हैं। साधकको चाहिये कि वह इनके वशीभूत न हो। वशीभूत न होनेका अर्थ है कि काम? क्रोध? लोभको लेकर अर्थात् इनके आश्रित होकर कोई कार्य न करे क्योंकि इनके वशीभूत होकर शास्त्र? धर्म और लोकमर्यादाके विरुद्ध कार्य करनेसे मनुष्यका पतन हो जाता है। सम्बन्ध -- अब भगवान्? काम? क्रोध और लोभसे रहित होनेका माहात्म्य बताते हैं --
।।16.21।। स्वर्ग सुखरूप है? तो नरक दुखरूप। अत इसी जीवन में भी मनुष्य अपनी मनस्थिति में स्वर्ग और नरक का अनुभव कर सकता है। शास्त्र प्रमाण से स्वर्ग और नरक के अस्तित्व का भी ज्ञान होता है। इस श्लोक में नरक के त्रिविध द्वार बताये गये हैं। इस सम्पूर्ण अध्याय का प्रय़ोजन मनुष्य का आसुरी अवस्था से उद्धार कर उसे निस्वार्थ सेवा तथा आत्मानन्द का अनुभव कराना है।काम? क्रोध और लोभ जहाँ काम है वहीं क्रोध का होना स्वाभाविक है। किसी विषय को सुख का साधन समझकर उसका निरन्तर चिन्तन करने से उस विषय की कामना उत्पन्न होती है। यदि इस कामनापूर्ति में कोई बाधा आती है? तो उससे क्रोध उत्पन्न होता है। यदि कामना तीव्र हो? तो क्रोध भी इतना उग्र रूप होता है कि वह जीवन की नौका को इतस्तत प्रक्षेपित कर? छिन्नभिन्न करके अन्त में उसे डुबो देता है।यदि कामना पूर्ण हो जाती है? तो मनुष्य का लोभ बढ़ता जाता है और इस प्रकार? उसकी शक्ति का ह्रास होता जाता है। असन्तुष्टि का वह भाव लोभ कहलाता है? जो हमारे वर्तमान सन्तुष्टि के भाव को विषाक्त करता है। लोभी पुरुष को कभी शान्ति और सुख प्राप्त नहीं होता? क्योंकि असन्तोष ही लोभ का स्वभाव है।काम? क्रोध और लोभ के इस क्रिया प्रतिक्रिया रूप संबंध को हम समझ लें? तो भगवान् का निष्कर्ष हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।इन तीनों के त्याग की स्तुति करते हुए कहते हैं
।।16.21।।कथमासुरीसंपदनन्तभेदवती पुरुषायुषेणापि परिहर्तुं शक्येतेत्याशङ्क्याह -- सर्वस्या इति। संक्षेपोक्तिफलमाह -- यस्मिन्निति। कामादौ त्रिविधे सर्वस्यासुरसंपद्भेदस्यान्तर्भावेऽपि कथमसौ परिह्रियते तत्राह -- यत्परिहारेणेति। कामादिपरिहारेणासुरीसंपद्भेदपरिहारेऽपि कथं सर्वानर्थपरिवर्जनमित्याशङ्कयाह -- यन्मूलमिति। कथमात्मनो नित्यस्य नाशशङ्केति तत्राह -- कस्मैचिदिति। त्रिविधमपि सामान्यतो दर्शितमाकाङ्क्षाद्वारा विशेषतो दर्शयति -- किं तदिति। तस्मादिति व्याचष्टे -- यत इति। कामादित्यागे सत्यनर्थाचरणश्रेयःप्रतिबन्धानिवृत्ती स्यातामिति भावः।
।।16.21।।नन्वनन्तभेदवतीयमासुरी संपत्पुरुषायुणापि परिहर्तुमशक्येत्याशङ्क्य सर्व आसुरीसंपद्भेदोऽनन्तोऽपि यस्मिन्नन्तर्भवति यत्परिहारेण परिहृतश्च भवति तत्सर्वानर्थमूलबूतं दर्शयति। त्रिविधं त्रिप्रकारमिदं नरकस्य प्राप्तौ द्वारमात्मनो नाशनं यद्द्वारं प्रविशन्नेवात्मा नश्यति न कस्मैचित्पुरुषार्थाय योग्यो भवति। किं तत् कामः क्रोधस्तथा क्षोभः इति त्रिविधं नरकस्य द्वारं नाशनमात्मनः तस्मादेतत्कामादित्रयं श्रेयोर्थी त्यजेत्।
।।16.21।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
।।16.21।।संक्षेपमासुर्याः संपत्तेराह -- त्रिविधमिति।
।।16.21।।अस्य असुरस्वभावरूपस्य नरकस्य एतत् त्रिविधं द्वारम् तत् च आत्मनो नाशनम् काम क्रोधः लोभ इति। त्रयाणां स्वरूपं पूर्वम् एव व्याख्यातम्। द्वारं मार्गो हेतुः इत्यर्थः। तस्मात् एतत् त्रयं त्यजेत्। तस्माद् अतिघोरनरकहेतुत्वात् कामक्रोधलोभानाम् एतत् त्रितयं दूरतः परित्यजेत्।
।।16.21।। उक्तानामासुरदोषाणां मध्ये सकलदोषमूलभूतं दोषत्रयं सर्वथा वर्जनीयमित्याह -- त्रिविधमिति। कामः क्रोधो लोभश्चेतीदं त्रिविधं नरकस्य द्वारम्। अतएवात्मनो नाशनं नीचयोनिप्रापकम्। तस्मादेतत्त्रयं सर्वात्मना त्यजेत्।
।।16.21।।अवश्यपरिहरणीयं सङ्क्षिप्योच्यत इत्यभिप्रायेणानन्तरग्रन्थं सङ्गमयति -- अस्येति। यथावस्थितस्यात्मनोऽप्राप्तिरेव ह्यात्मनाशः? स चासुरस्वभाव एवेत्यभिप्रायेणाऽऽहआसुरस्वभावस्यात्मनाशस्येति। मूलच्छेदात् सर्वोऽप्यासुरस्वभावश्छिन्न एवेत्यभिप्रायेणाऽऽहमूलहेतुमिति।आसुरस्वभावरूपस्य नरकस्येति -- एतस्मादधिकं किमन्यन्नरकं इति भावः। आसुरस्वभावपरिहारार्थं हि तन्मूलोपदेशोऽयमिति वा?तमोद्वारैः इत्यनन्तरैकार्थ्यं वा विवक्षितम्।आत्मनो नाशनमिति -- असन्नेव स भवति [तै.उ.2।6।1] इत्यादिक्रमेणेति भावः। प्रवेशहेतुर्हि द्वारं? तेनापि प्राप्तिमात्रहेतुत्वमिह विवक्षितमित्यभिप्रायेणोपचारावलम्बनक्रममाहमार्गो हेतुरित्यर्थ इति। द्वारं नाशनं प्रविशन्नेव नश्यतीति भावः। त्याज्यस्य दोषोक्तिस्त्यागविध्युपकारिकेत्यभिप्रायेणाऽऽह -- तस्मादिति। रौरवादिर्नरकः पापक्षयहेतुः आसुरस्वभावस्त्वसौ पापार्जनहेतुत्वादतिघोर इत्यभिप्रायेणाऽऽहअतिघोरनरकहेतुत्वादिति। सर्वस्यासुरस्वभावस्य परित्याज्यत्वेऽपि विशेषनिषेधोऽत्यन्तपरिहरणीयत्वज्ञापनायेत्याह -- दूरतः परित्यजेदिति।
।।16.21 -- 16.22।।त्रिविधमिति। एतैरिति। यत कामादिकं त्रयं (N त्रितयम्) नरकस्य द्वारं? तस्मात् एतत्,त्यज़ेत्।
।।16.21।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।16.21।।नन्वासुरी संपदनन्तभेदवती कथं पुरुषायुषेणापि परिहर्तुं शक्येतेत्याशङ्क्य तां संक्षिप्याह -- त्रिविधमिति। इदं त्रिविधं त्रिप्रकारं नरकस्य प्राप्तौ द्वारं साधनं सर्वस्या आसुर्याः संपदो मूलभूतमात्मनो नाशनं सर्वपुरुषार्थायोग्यतासंपादनेनात्यन्ताधमयोनिप्रापकं। किंतदित्यत आह। कामक्रोधस्तथा लोभ इति प्राग्व्याख्यातम्। यस्मादेतत्त्रयमेव सर्वानर्थमूलं तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्। एतत्त्रयत्यागेनैव सर्वाप्यासुरीसंपत्त्यक्ता भवति। एतत्त्रयत्यागश्च उत्पन्नस्य विवेकेन कार्यप्रतिबन्धस्ततः परं चानुत्पत्तिरिति द्रष्टव्यम्।
।।16.21।।तेषु तदभावात्तथा उक्तासुरसङ्गात्तन्मुख्यधर्मत्रयोत्पत्तिः स्यात्तच्च नरकद्वारं तत्र गमनसाधनरूपमतस्तत्सङ्गत्यागमाह -- त्रिविधमिति। इदमग्रे वक्ष्यमाणं त्रिविधं नरकस्य द्वारं प्रवेशसाधनमित्यर्थः। कीदृशं द्वारम् आत्मनो जीवस्य नाशनं विनाशकर्तृ? संसारपातनात् तद्विवेचयतिकामः क्रोधस्तथा लोभः इति। कामः स्वरमणानन्देच्छारूपः? क्रोधः अकारणहृत्तापरूपः? लोभः सर्वगुणनाशकपरस्वप्राप्तीच्छारूपः? तस्मात् असुरात् () एतत् त्रितयं स्यादतस्त्यजेत् तत्सङ्गमिति शेषः।
।।16.21।। --,त्रिविधं त्रिप्रकारं नरकस्य प्राप्तौ इदं द्वारं नाशनम् आत्मनः? यत् द्वारं प्रविशन्नेव नश्यति आत्मा कस्मैचित् पुरुषार्थाय योग्यो न भवति इत्येतत्? अतः उच्यते द्वारं नाशनमात्मनः इति। किं तत् कामः क्रोधः तथा लोभः। तस्मात् एतत् त्रयं त्यजेत्। यतः एतत् द्वारं नाशनम् आत्मनः तस्मात् कामादित्रयमेतत् त्यजेत्।।त्यागस्तुतिरियम् --,
।।16.21।।एतदासुरभावत आत्मनाशे मूलं हेतुमाह -- त्रिविधमिति। अस्यासुरस्य भावस्य नारकस्य त्रिधा मतं द्वारं कामश्च लोभश्च क्रोधः? तस्मादेतत्त्रयं त्यजेदिति तन्त्रान्तरवाक्येनैकार्थयति कामः क्रोधस्तथा लोभ इतितस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् इति हितोपदेशः।
Chapter 16, Verse 21