Chapter 16, Verse 19

Text

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।16.19।।

Transliteration

tān ahaṁ dviṣhataḥ krūrān sansāreṣhu narādhamān kṣhipāmy ajasram aśhubhān āsurīṣhv eva yoniṣhu

Word Meanings

tān—these; aham—I; dviṣhataḥ—hateful; krūrān—cruel; sansāreṣhu—in the material world; nara-adhamān—the vile and vicious of humankind; kṣhipāmi—I hurl; ajasram—again and again; aśhubhān—inauspicious; āsurīṣhu—demoniac; eva—indeed; yoniṣhu—in to the wombs;


Translations

In English by Swami Adidevananda

Those who are hateful, cruel, the vilest and most inauspicious of mankind, I hurl forever into the cycles of births and deaths, into the wombs of demons.

In English by Swami Gambirananda

I cast forever those hateful, cruel, evil-doers in the worlds, the vilest of human beings, verily into the demonic classes.

In English by Swami Sivananda

Those cruel haters, the worst among men in the world, I hurl those evil-doers into the wombs of demons only.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

These hateful, cruel, and base men, I hurl incessantly into the inauspicious, demoniac wombs, alone in the cycle of birth and death.

In English by Shri Purohit Swami

Those who thus hate Me, who are cruel, the dregs of mankind, I condemn them to a continuous, miserable, and godless rebirth.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।16.19।।उन द्वेष करनेवाले, क्रूर स्वभाववाले और संसारमें महान् नीच, अपवित्र मनुष्योंको मैं बार-बार आसुरी योनियोंमें गिराता ही रहता हूँ।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।16.19।। ऐसे उन द्वेष करने वाले,  क्रूरकर्मी और नराधमों को मैं संसार में बारम्बार (अजस्रम्) आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

16.19 तान् those? अहम् I? द्विषतः (the) hating (ones)? क्रूरान् cruel? संसारेषु in the worlds? नराधमान् worst among men? क्षिपामि (I) hurl? अजस्रम् for ever? अशुभान् evildoers? आसुरीषु of demons? एव only? योनिषु in wombs.Commentary Now listen to the manner in which I deal with all these demoniacal persons who injure people and who take delight in killing people and animals and who hate Me? the indweller of all bodies. I deprive them of their human state and reduce them to a lower condition as subhuman creatures. I hurl them into the wombs of the most cruel beings such as tigers? lions? scorpions? snakes and the like. For ever only means till they purify their hearts. There is no such thing as eternal damnation.Tan Those The enemies of those who tread the path of righteousness and the haters of virtuous persons.Naradhaman Worst among men because they are guilty of the wors evil deeds and they take delight in injuring virtuous persns and in killing persons and animals ruthlessly.Asurishu yonishu Wombs of Asuras Wombs of the most cruel beings such as tigers? lions and the like.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।16.19।। व्याख्या --   तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् -- सातवें अध्यायके पंद्रहवें और नवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें वर्णित आसुरीसम्पदाका इस अध्यायके सातवेंसे अठारहवें श्लोकतक विस्तारसे वर्णन किया गया। अब आसुरीसम्पदाके विषयका इन दो (उन्नीसवेंबीसवें) श्लोकोंमें उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐसे आसुर मनुष्य बिना ही कारण सबसे वैर रखते हैं और सबका अनिष्ट करनेपर ही तुले रहते हैं। उनके कर्म बड़े क्रूर होते हैं? जिनके द्वारा दूसरोंकी हिंसा आदि हुआ करती है। ऐसे वे क्रूर? निर्दयी? हिंसक मनुष्य नराधम अर्थात् मनुष्योंमें महान् नीच हैं -- नराधमान्। उनको मनुष्योंमें नीच कहनेका मतलब यह है कि नरकोंमें रहनेवाले और पशुपक्षी आदि (चौरासी लाख योनियाँ) अपने पूर्वकर्मोंका फल भोगकर शुद्ध हो रहे हैं और ये आसुर मनुष्य अन्यायपाप करके पशुपक्षी आदिसे भी नीचेकी ओर जा रहे हैं। इसलिये इन लोगोंका सङ्ग बहुत बुरा कहा गया है -- बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।(मानस 5। 46। 4)नरकोंका वास बहुत अच्छा है? पर विधाता (ब्रह्मा) हमें दुष्टका सङ्ग कभी न दे क्योंकि नरकोंके वाससे तो पाप नष्ट होकर शुद्धि आती है? पर दुष्टोंके सङ्गसे अशुद्धि आती है? पाप बनते हैं पापके ऐसे बीज बोये जाते हैं? जो आगे नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ भोगनेपर भी पूरे नष्ट नहीं होते।प्रकृतिके अंश शरीरमें राग अधिक होनेसे आसुरीसम्पत्ति अधिक आती है क्योंकि भगवान्ने कामना(राग) को सम्पूर्ण पापोंमें हेतु बताया है (3। 37)। उस कामनाके बढ़ जानेसे आसुरीसम्पत्ति बढ़ती ही चली जाती है। जैसे धनकी अधिक कामना बढ़नेसे झूठ? कपट? छल आदि दोष विशेषतासे बढ़ जाते हैं और वृत्तियोंमें भी अधिकसेअधिक धन कैसे मिले -- ऐसा लोभ बढ़ जाता है। फिर मनुष्य अनुचित रीतिसे? छिपावसे? चोरीसे धन लेनेकी इच्छा करता है। इससे भी अधिक लोभ बढ़ जाता है? तो फिर मनुष्य डकैती करने लग जाता है और थोड़े धनके लिये मनुष्यकी हत्या कर देनेमें भी नहीं हिचकता। इस प्रकार उसमें क्रूरता बढ़ती रहती है और उसका स्वभाव राक्षसोंजैसा बन जाता है। स्वभाव बिगड़नेपर उसका पतन होता चला जाता है और अन्तमें उसे कीटपतङ्ग आदि आसुरी योनियों और घोर नरकोंकी महान् यातना भोगनी पड़ती है।क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु -- जिनका नाम लेना? दर्शन करना? स्मरण करना आदि भी महान् अपवित्र करनेवाला है -- अशुभान्? ऐसे क्रूर? निर्दयी? सबके वैरी मनुष्योंके स्वभावके अनुसार ही भगवान् उनको आसुरी योनि देते हैं। भगवान् कहते हैं -- आसुरीष्वेव योनिषु क्षिपामि अर्थात् मैं उनको उनके स्वभावके लायक ही कुत्ता? साँप? बिच्छू? बाघ? सिंह आदि आसुरी योनियोंमें गिराता हूँ। वह भी एकदो बार नहीं? प्रत्युत बारबार गिराता हूँ -- अजस्रम्? जिससे वे अपने कर्मोंका फल भोगकर शुद्ध? निर्मल होते रहें।भगवान्का उनको आसुरी योनियोंमें गिरानेका तात्पर्य क्या हैभगवान्का उन क्रूर? निर्दयी मनुष्योंपर भी अपनापन है। भगवान् उनको पराया नहीं समझते? अपना द्वेषीवैरी नहीं समझते? प्रत्युत अपनी ही समझते हैं। जैसे? जो भक्त जिस प्रकार भगवान्की शरण लेते हैं? भगवान् भी उनको उसी प्रकार आश्रय देते हैं (गीता 4। 11)। ऐसे ही जो भगवान्के साथ द्वेष करते हैं? उनके साथ भगवान् द्वेष नहीं करते? प्रत्युत उनको अपना ही समझते हैं। दूसरे साधारण मनुष्य जिस मनुष्यसे अपनापन करते हैं? उस मनुष्यको ज्यादा सुखआराम देकर उसको लौकिक सुखमें फँसा देते हैं परन्तु भगवान् जिनसे अपनापन करते हैं उनको शुद्ध बनानेके लिये वे प्रतिकूल परिस्थिति भेजते हैं? जिससे वे सदाके लिये सुखी हो जायँ -- उनका उद्धार हो जाय।जैसे? हितैषी अध्यापक विद्यार्थियोंपर शासन करके? उनकी ताड़ना करके पढ़ाते हैं? जिससे वे विद्वान् बन जायँ? उन्नत बन जायँ? सुन्दर बन जायँ? ऐसे ही जो प्राणी परमात्माको जानते नहीं? मानते नहीं और उनका खण्डन करते हैं? उनको भी परम कृपालु भगवान् जानते हैं? अपना मानते हैं और उनको आसुरी योनियोंमें गिराते हैं? जिससे उनके किये हुए पाप दूर हो जायँ और वे शुद्ध? निर्मल बनकर अपना कल्याण कर लें।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।16.19।। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता ईश्वर के रूप में यह वाक्य कह रहे हैं? मैं उन्हें आसुरी योनियों में गिराता हूँ। मनुष्य अपनी स्वेच्छा से शुभाशुभ कर्म करता है और उसे कर्म के नियमानुसार ईश्वर फल प्रदान करता है। अत इस फल प्राप्ति में ईश्वर पर पक्षपात का आरोप नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ? जब एक न्यायाधीश अपराधियों को कारावास या मृत्युदण्ड देता है? तो उसे पक्षपाती नहीं कहा जाता? क्योंकि वह तो केवल विधि के नियमों के अनुसार ही अपना निर्णय देता है। इसी प्रकार? आसुरी भाव के मनुष्य अपनी निम्नस्तरीय वासनाओं से प्रेरित होकर जब दुष्कर्म करते हैं? तब उन्हें उनके स्वभाव के अनुकूल ही बारम्बार अासुरी योनियों में जन्म मिलता है। यहाँ इंगित किये गये पुनर्जन्म के सिद्धांत का एकाधिक स्थलों पर विस्तृत विवेचन किया जा चुका है।और

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।16.19।।तेषामुक्तविशेषणवतामासुराणां किं स्यादिति तदाह -- तानिति। भगवतो नैर्घृण्यप्रसङ्गं प्रत्यादिशति -- अधर्मेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।16.19।।उक्तविशेषणवतामासुराणां गतिमाह -- तान्सन्मार्गप्रतिक्षभूतान् साधुद्वेषिणो द्विषन्तश्च मां क्रूरान् व्याघ्रादिक्रूरजन्तुतुतल्यान् अजस्त्रं सततं अशुमाशुभकर्मकारिणोऽतो नराधमान्नरेष्वतिनिकृष्टानहं धर्माधर्मफलप्रदाता परमेश्वरोऽध्मदोषवत्त्वासंसारेषु नरकसंसरणमार्गेषु आसुरिष्वेव क्रूरकर्मप्रायासु सिंहव्याघ्रादियोनिषु क्षिपति संसारेऽस्िमँल्लोके इषवः परमर्मभेदकत्वात्संसारेषवः ते च ते नराधमाश्चेति विग्रहस्तु फलशून्यकुकल्पनालभ्यत्वादाचार्यैः परित्यक्त।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।16.19।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।16.19।।तेषां फलमाह -- तानिति। सर्वभूतसमोऽप्यहं तान् वेदोक्तशासनातिगान् भूतद्रोहकर्तृ़न्। अहमन्तरात्मा न तु तटस्थो येन मम वैषम्यं स्यात्। पूर्वसंस्कारात्ते तथैव पापं कुर्वन्ति तदनुरूपं फलं च प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।16.19।।य एवं मां द्विषन्ति तान् क्रूरान् नराधमान् अशुभान् अहम् अजस्रं संसारेषु जन्मजरामरणादिरूपेण परिवर्तमानेषु संतानेषु? तत्र अपि आसुरीषु एव योनिषु क्षिपामि। मदानुकूल्यप्रत्यनीकेषु एव जन्मसु क्षिपामि। तत्तज्जन्मप्राप्त्यनुगुणप्रवृत्तिहेतुभूतबुद्धिषु क्रूरासु अहम् एव संयोजयामि इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।16.19।। तेषां कदाचिदप्यासुरस्वभावप्रच्युतिर्न भवतीत्याह -- तानिति द्वाभ्याम्। तानहं मां द्विषतः क्रूरान्संसारेषु जन्ममृत्युमार्गेषु? तत्रापि आसुरीष्वेवातिक्रूरासु व्याघ्रादियोनिषु अजस्रमनवरतं क्षिपामि। तेषां पापकर्मणां तादृशं फलं ददामीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।16.19।।एवंविधप्रद्वेषादिपूर्वकयागादेरपि यथोचितप्रतिकूलफलप्रदोऽहमेवेत्युच्यते -- तानहम् इत्यादिश्लोकद्वयेन। वैषम्यनैर्घृण्यपरिहारार्थःतान् इत्यनुवाद इत्यभिप्रायेणाऽऽहय एवं मां द्विषन्तीति। अत्र चतुर्भिर्विशेषणैःन मां दुष्कृतिनः [17।15] इत्यादिनोक्ताश्चतुर्विधा दुष्कृतिन एव विवक्षिता इति तद्व्याख्यानम्। तथा हि -- नराधमशब्दस्तावत्स एव?आसुरं भावमाश्रिताः [7।15] इत्येतत्तुद्विषन्तः इत्येतत् समानार्थतया प्रागेव व्याख्यातम्? एवं क्रूराशुभशब्दावपि यथायोगं मूढादिशब्दसमानार्थौ नेतव्यौ। अत्राविभागेन योजनं चासुरराश्यैक्यात्। जन्मादिचक्रपरिवृत्तिष्वविच्छिन्नतयैकाकारेण सरणात् संसारः सन्तानः। संसरति पुरुषोऽस्मिन्निति अधिकरणार्थघञन्तोऽत्र संसारशब्दः। तद्बहुत्वोक्तिश्चक्रपरिवृत्त्यानन्त्यादित्याहजन्मजरेत्यादिना। संसारशब्दस्य सदसज्जन्मसाधारणत्वाद्विशेष्यत इत्याहतत्रापीति।एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् [6।42] इत्याद्युक्तभगवद्योगानुकूलसात्त्विकजन्मविशेषव्यवच्छेदाय तामसत्वम्आसुरीष्वेव इत्युच्यत इत्याहमदानुकूल्यप्रत्यनीकेष्विति। ईदृशं प्रतिकूलजन्म देवादिचतुर्विधयोनिष्वपि द्रष्टव्यमिति। एष एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषति [कौ.उ.3।9] इत्यादिश्रुत्यनुसारेणक्षिपामि इत्युक्तस्य द्वारमाहतत्तदिति। पापप्रवृत्तिहेतुभूतक्रूरबुद्ध्यादिप्रदानमपि प्राचीनप्रद्वेषादिफलभूतत्वान्नेश्वरस्य वैषम्यनैर्घृण्यापादकम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।16.17 -- 16.20।।आत्मसंभाविता इत्यादि गतिमित्यन्तम्। यज्ञैर्यजन्ते नाम? निष्फलमित्यर्थः। क्रोधेन हि सर्वं नश्यतीत्यर्थः। यद्वा नामयज्ञैः? संज्ञामात्रेणैव (S? omit एव) ये यज्ञाः तैः (S? omit तैः)। अथवा -- नामार्थं प्रसिद्ध्यर्थं ये यज्ञाः ( omits ये यज्ञाः) -- येन (S omits येन) यज्ञयाजी अयम् इति व्यपदेशो जायते -- ते दम्भपूर्वका एव? न तु फलन्ति। क्रोधादिरूषितत्वादेव लोकान् द्विषन्तो मामेव द्विषन्ति। अहं वासुदेवो हि सर्वावासः। आत्मनि च द्वेषवन्तः आत्मनो ( आत्मने) ह्यहितं निरयपातहेतुम् आचरन्ति (S उपाचरन्ति)। तांश्चाहम् आसुरीष्वेव योनिषु क्षिपामि।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।16.19।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।16.19।।तेषां त्वत्कृपया कदाचिन्निस्तारं स्यादिति नेत्याह -- तानिति। तान्सन्मार्गप्रतिपक्षभूतान् द्विषतः साधून् मां च क्रूरान् हिंसापरानतो नराधमानतिनिन्दितानजस्रं सन्ततमशुभानशुभकर्मकारिणः अहं सर्वकर्मफलदातेश्वरः संसारेष्वेव नरकसंसरणमार्गेषु क्षिपामि पातयामि। नरकगतश्चासुरीष्वेवातिक्रूरासु व्याघ्रसर्पादियोनिषु तत्तत्कर्मवासनानुसारेण क्षिपामीत्यनुषज्यते। एतादृशेषु द्रोहिषु नास्ति ममेश्वरस्य न कृपेत्यर्थः। तथाच श्रुतिःअथ कपूयचरणा अभ्याशोहयत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा शूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वेति। कपूयचरणाः कुत्सितकर्माणः अभ्याशो ह शीघ्रमेव कपूयां कुत्सितां योनिमापद्यन्त इति श्रुतेरर्थः। अतएव पूर्वपूर्वकर्मानुसारित्वान्नेश्वरस्य वैषम्यं नैर्घृण्यं वा। तथाच पारमर्षं सूत्रंवैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथा हि दर्शयति इति। एवं च पापकर्माण्येव तेषां कारयति भगवान् तेषु तद्बीजसत्त्वात्कारुणिकत्वेऽपि तानि न शातयति तन्नाशकपुण्योपचयाभावात्? पुण्योपचयं न कारयति तेषामयोग्यत्वात्। न हीश्वरः पाषाणेषु यवाङ्कुरान्करोतीश्वरत्वादयोग्यस्यापि योग्यतां संपादयितुं शक्नोतीति चेत् शक्नोत्येव सत्यसंकल्पत्वात्। यदि संकल्पयेत् नतु संकल्पयति आज्ञालङ्घिषु स्वभक्तद्रोहिषु दुरात्मस्वप्रसन्नत्वात्। अत एव श्रूयतेएष ह्येव साधुकर्म कारयति तं यमुन्निनीषत एष उ एवासाधुकर्म कारयति तं यमधो निनीषते इति। येषु प्रसादकारणमस्त्याज्ञापालनादि तेषु प्रसीदति येषु तु तद्वैपरीत्यं तेषु न प्रसीदति सति कारणे कार्यं कारणाभावे कार्याभाव इति किमत्र वैषम्यंपरात्तु तच्छ्रुतेः इति न्यायाच्चान्ततो गत्वा किंचिद्वैषम्यापादने माहामायत्वाददोषः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।16.19।।सर्वफलदाता च स्वयमेव? अतः स्वभक्तद्वेषिणां फलं न प्रयच्छामीत्याह -- तानहमिति। अहं तान् द्विषतः क्रूरान् कठिनान् नराधमान् तामसान् संसारेषु अहम्ममाप्तरूपेषु जन्ममरणादिरूपेषु वा? तेष्वप्यासुरीष्वेव मत्प्रतिपक्षरूपासु योनिषु अजस्रं निरन्तरं क्षिपामि पातयामीत्यर्थः। क्षिपामीत्युक्त्या क्रोधः सूचितः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।16.19।। --,तान् अहं सन्मार्गप्रतिपक्षभूतान् साधुद्वेषिणः द्विषतश्च मां क्रूरान् संसारेषु एव अनेकनरकसंसरणमार्गेषु नराधमान् अधर्मदोषवत्त्वात् क्षिपामि प्रक्षिपामि अजस्रं संततम् अशुभान् अशुभकर्मकारिणः आसुरीष्वेव क्रूरकर्मप्रायासु व्याघ्रसिंहादियोनिषु क्षिपामि इत्यनेन संबन्धः।।

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।16.19।।तानहमिति। अतः सहजासुरान् नत्वावेशिनो मायाविन आसुरीष्वेव योनिषु पुनः पुनः क्षिपामि।


Chapter 16, Verse 19