Chapter 16, Verse 16

Text

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16।।

Transliteration

aneka-citta-vibhrāntā moha-jāla-samāvṛtāḥ prasaktāḥ kāma-bhogeṣu patanti narake 'śucau

Word Meanings

aneka—numerous; citta-vibhrāntāḥ—perplexed by anxieties; moha—of illusions; jāla—by a network; samāvṛtāḥ—surrounded; prasaktāḥ—attached; kāma—lust; bhogeṣu—sense gratification; patanti—glides down; narake—into hell; aśucau—unclean.


Translations

In English by Swami Adidevananda

Bewildered by numerous thoughts, ensnared in the net of delusion, addicted to sensual pleasures, they fall into a wretched Naraka.

In English by Swami Gambirananda

Bewildered by numerous thoughts, ensnared in the net of delusion, and engrossed in the enjoyment of desirable objects, they fall into a foul hell.

In English by Swami Sivananda

Bewildered by many fancies, entangled in the snare of delusion, addicted to the gratification of lust, they fall into a foul hell.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Endowed with many thoughts, highly confused, enslaved by their delusion, and addicted to the gratification of desires, they fall into the hellish and foul.

In English by Shri Purohit Swami

Perplexed by discordant thoughts, entangled in the snares of desire, infatuated by passion, they sink into the depths of hell.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।16.16।।कामनाओंके कारण तरह-तरहसे भ्रमित चित्तवाले, मोह-जालमें अच्छी तरहसे फँसे हुए तथा पदार्थों और भोगोंमें अत्यन्त आसक्त रहनेवाले मनुष्य भयङ्कर नरकोंमें गिरते हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।16.16।। अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले, मोह जाल में फँसे तथा विषयभोगों में आसक्त ये लोग घोर, अपवित्र नरक में गिरते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

16.16 अनेकचित्तविभ्रान्ताः bewildred by many a fancy? मोहजालसमावृताः entangled in the snare of delusion? प्रसक्ताः addicted? कामभोगेषु to the gratification of lust? पतन्ति (they) fall? नरके into hell? अशुचौ foul.Commentary Just as a man utters many incoherent words when he gets delirium or high fever? so also these diabolical men prattle about their desires? sensual enjoyment? etc. They commit,countless sins and so they fall into a foul hell such as the Vaitarani. Delusion is a snare because those who are deluded are entrapped. They are caught like fish in the meshes of the net of delusion. They are enveloped by the net on four sides. They are bewildered as to what to do first and what next. As they are enveloped or covered by delusion? they are bewildered in various ways by entertaining various evil thoughts. They have no discrimination between the proper or beneficial and improper or harmful Sadhanas. The lack of the knowledge of the distinction between these two is Moha. As Mohas is a veil and a cause of bondage it is compared to a net.All the alities mentioned above lead to downfall.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।16.16।। व्याख्या --   अनेकचित्तविभ्रान्ताः -- उन आसुर मनुष्योंका एक निश्चय न होनेसे उनके मनमें अनेक तरहकी चाहना होती है? और उस एकएक चाहनाकी पूर्तिके लिये अनेक तरहके उपाय होते हैं तथा उन उपायोंके विषयमें उनका अनेक तरहका चिन्तन होता है। उनका चित्त किसी एक बातपर स्थिर नहीं रहता? अनेक तरहसे भटकता ही रहता है।मोहजालसमावृताः -- जडका उद्देश्य होनेसे वे मोहजालसे ढके रहते हैं। मोहजालका तात्पर्य है कि तेरहवेंसे पन्द्रहवें श्लोकतक काम? क्रोध और अभिमानको लेकर जितने मनोरथ बताये गये हैं? उन सबसे वे अच्छी तरहसे आवृत रहते हैं अतः उनसे वे कभी छूटते नहीं। जैसे मछली जालमें फँस जाती है? ऐसे ही वे प्राणी मनोरथरूप मोहजालमें फँसे रहते हैं। उनके मनोरथोंमें भी केवल एक तरफ ही वृत्ति नहीं होती? प्रत्युत दूसरी तरफ भी वृत्ति रहती है जैसे -- इतना धन तो मिल जायगा? पर उसमें अमुकअमुक बाधा लग जायगी तो हमारे पास दो नम्बरकी इतनी पूँजी है? इसका पता राजकीय अधिकारियोंको लग जायगा तो हमारे मुनीम? नौकर आदि हमारी शिकायत कर देंगे तो हम अमुक व्यक्तिको मार देंगे? पर हमारी न चली और दशा विपरीत हो गयी तो हम अमुकका नुकसान करेंगे? पर उससे हमारा नुकसान हो गया तो -- इस प्रकार मोहजालमें फँसे हुए आसुरी सम्पदावालोंमें काम? क्रोध और अभिमानके साथसाथ भय भी बना रहता है। इसलिये वे निश्चय नहीं कर पाते। कहींपर जाते हैं ठीक करनेके लिये? पर हो जाता है बेठीक मनोरथ सिद्ध न होनेसे उनको जो दुःख होता है? उसको तो वे ही जानते हैंप्रसक्ताः कामभोगेषु -- वस्तु आदिका संग्रह करने और उसका उपभोग करनेमें तथा मानबड़ाई? सुखआराम आदिमें वे अत्यन्त आसक्त रहते हैं।पतन्ति नरकेऽशुचौ -- मोहजाल उनके लिये जीतेजी ही नरक है और मरनेके बाद उन्हें कुम्भीपाक? महारौरव आदि स्थानविशेष नरकोंकी प्राप्ति होती है। उन नरकोंमें भी वे घोर यातनावाले नरकोंमें गिरते हैं। नरके अशुचौ कहनेका तात्पर्य यह है कि जिन नरकोंमें महान् असह्य यातना और भयंकर दुःख दिया जाता है? ऐसे घोर नरकोंमें वे गिरते हैं (टिप्पणी प0 822) क्योंकि जिनकी जैसी स्थिति होती है? मरनेके बाद भी उनकी वैसी (स्थितिके अनुसार) ही गति होती है। सम्बन्ध --   भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे विमुख हुए आसुरीसम्पदावालोंके दुराचारोंका फल नरकप्राप्ति बताकर? दुराचारोंद्वारा बोये गये दुर्भावोंसे वर्तमानमें उनकी कितनी भयंकर दुर्दशा होती है और भविष्यमें उसका क्या परिणाम होता है -- इसे बतानेके लिये आगेका (चार श्लोकोंका) प्रकरण आरम्भ करते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।16.16।। अनेकचित्त विभ्रान्ता आत्मकेन्द्रित और विषयासक्त पुरुष का मन सदैव अस्थिर रहता है। अनेक प्रकार की भ्रामक कल्पनाओं में वह अपनी मन की एकाग्रता की क्षमता को क्षीण कर लेता है।मोहजाल समावृता यदि ऐसे आसुरी पुरुष का मन सारहीन स्वप्नों में बिखरा होता है? तो उसकी बुद्धि की स्थिति भी दयनीय ही होती है। विवेक और निर्णय की उसकी क्षमता मोह और असत् मूल्यों में फँस जाती है। आश्रियविहीन बुद्धि किस प्रकार उचित निर्णय और जीवन का सही मूल्यांकन कर सकती है ऐसे दोषपूर्ण मन और बुद्धि के द्वारा जगत् का अवलोकन करने पर सर्वत्र विषमता और विकृति के ही दर्शन होंगे? समता और संस्कृति के नहीं।विषयों में आसक्त जिस पुरुष की बुद्धि मोह से आच्छादित हो और मन विक्षेपों से अशान्त हो? तो उसकी इन्द्रियाँ भी असंयमित ही होंगी। यदि कार की चालकशक्ति ही मदोन्मत्त हो? तो कार की गति भी संयमित नहीं हो सकती। इस लिए? ऐसे आसुरी स्वभाव के पुरुष विषयभोगों में अत्यधिक आसक्त हो,जाते हैं।वे अपवित्र नरक में गिरते हैं शरीर से थके? मन से भ्रमित और बुद्धि से विचलित ये लोग यहीं पर स्वनिर्मित नरक में रहते हैं तथा अपने दुख और कष्ट सभी को वितरित करते हैं। इस तथ्य को समझने के लिए हमें कोई महान् दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य में यह सार्मथ्य है कि वह समता के दर्शन से नरक को स्वर्ग में परिवर्तित कर सकता है और विषमता के दर्शन से स्वर्ग को नरक भी बना सकता है। अयुक्त व्यक्तित्व का पुरुष किसी भी स्थिति में शान्ति और पूर्णता का अनुभव नहीं करता। यदि समस्त वातावरण और परिस्थितियाँ अनुकूल भी हों? तो वह अपनी आन्तरिक पीड़ा और दुख के द्वारा उन्हें प्रतिकूल बना देता है।यदि इन आसुरी गुणों से युक्त केवल एक व्यक्ति भी सुखद परिस्थितियों को दुखद बना सकता है? तो हम उस जगत् की दशा की भलीभांति कल्पना कर सकते हैं जहाँ बहुसंख्यक लोगों की कमअधिक मात्रा में ये ही धारणायें होती हैं। स्वर्ग और नरक का होना हमारे अन्तकरण की समता और विषमता पर निर्भर करता है।आगे कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।16.16।।उक्तप्रकारविपर्ययेण कृत्याकृत्यविवेकविकलानां किं स्यादित्यपेक्षायामाह -- अनेकेति। कामा विषयास्तेषां भोगेषु तत्प्रयुक्तेषूपभोगेष्विति यावत्।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।16.16।।एवमभिप्रायवन्त आसुराः कृत्याकत्यविवेकहीनाः कस्िमँल्लोके गच्छन्तीत्याकाङ्क्षायामाह। अनेकचित्तविभ्रान्ताःउक्तप्रकारेरनैकेश्चत्तैस्तदुष्टसंकल्पैर्विभ्रान्ताः विवधं भ्रान्ताः मोहजालसमावृताः कार्याकार्यहिताहितसारसारहेयोपादेयाविवेको मोहः स एव जालमिवावरणात्मकत्वात् तेन सभ्यगावृताः पक्षिण इव सूत्रमयेन जालेन बन्धनं गताः प्रसक्ताः कामभोगेषु कामानां विषयाणामुपभोगेषु प्रकर्षेण सक्ता आसक्तिं गताः तत्रैव निष्ण्णाः एतादृशाः सन्तस्तेनोपचीयमानकल्मषा अशुचौ विण्मूत्रादिपूर्णे वैतरण्यादिरुपे नरके पतन्ति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।16.16।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।16.16।।अनेकं नास्ति एकं चिन्तनीयं यस्य तदनेकं बहुषु विषयेषु पूर्वोक्तेषु लग्नं चित्तं येषां ते अनेकचित्तास्ते च ते विभ्रान्ताश्च किमिदमादौ साधनीयमिदमादौ साधनीयमिति विशेषेण भ्रान्त्याकुला अनेकचित्तविभ्रान्ताः। मोहः असत्स्वपि सद्बुद्धिस्तदेव जालं तेन सम्यगावृताः। प्रसक्ताः प्रकर्षेण लग्नाः। अशुचौ विण्मूत्रादिमये।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।16.16।।अदृष्टेश्वरादिसहकारम् ऋते स्वेन एव सर्वं कर्तुं शक्यम् इति कृत्वा एवं कुर्याम् एतत् च कुर्याम् अन्यत् च कुर्याम् इति अनेकचित्तविभ्रान्ताः -- अनेकचित्ततया विभ्रान्ताः एवंरूपेण मोहजालेन समावृताः कामभोगेषु प्रकर्षेण सक्ताः मध्ये मृताः अशुचौ नरके पतन्ति।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।16.16।। एवंभूता यत्प्राप्नुवन्ति तच्छृणु -- अनेकेति। अनेकेषु मनोरथेषु प्रवृत्तं चित्तमनेकचित्तं तेन विभ्रान्ताः विक्षिप्ताः मोहमयेन जालेन समावृताः? मत्स्या इव सूत्रमयेन जानेन यन्त्रिताः। एवं कामभोगेषु सक्ता अभिनिविष्टाः सन्तोऽशुचौ कश्मले नरके पतन्ति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।16.16।।ईश्वरे न्यस्तभरा हि प्रायशो निश्चिताः? तद्व्यतिरेकमाह -- स्वेनैव सर्वमिति।इति कृत्वा -- इति मत्वेत्यर्थः। चिन्तारूपवृत्तियुक्तं मन एव चित्तम्? तत्प्रवृत्तिभेदादनेकत्वोक्तिः तद्दर्शयतिएवं कुर्यामित्यादिना।विभ्रान्ताः विक्षिप्ता इत्यर्थः। यद्वा विभ्रान्तिर्विपरीतज्ञानम्? मोहस्त्वज्ञानम्। अथवाअन्यथा चिन्तितं कार्यं देवेन कृतमन्यथा इति न्यायाच्चिन्तानामेव भ्रान्तिरूपत्वमाहएवं रूपेणेति।न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते [वि.पु.4।10।23भाग.9।19।14म.भा.17।75।50मनुः.2।94] इत्ययमर्थ उपसर्गेण द्योत्यत इत्याहप्रकर्षेण सक्ता इति।इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत्कृताकृतम्। एवमीहासमायुक्तं कृतान्तः कुरुते वशे इत्युक्तमाहमध्ये मृता इति। अशुचौ कामभोगे प्रसक्तानां तथाविधमेव फलमित्यभिप्रायेण नरकस्याशुचित्वविशेषणम्। पूयरुधिरवसादिमयत्वं चाशुचित्वम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।16.13 -- 16.16।।इहमद्येत्यादि अशुचौ इत्यन्तम्। अनेकचित्ता (A अनेकचिन्ताः N अनेकचित्तविभ्रान्ताः) इतिनिश्चयाभावात्। अशुचौ निरये? अवीच्यादौ? जन्ममरणसन्ताने च।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।16.16।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।16.16।।अनेकेति। उक्तप्रकारैरनेकैश्चित्तैस्तत्तद्दुष्टसंकल्पैर्विविधं भ्रान्ताः यतो मोहजालसमावृताः मोहो हिताहितवस्तुविवेकासामर्थ्यं तदेव जालमावरणात्मकत्वेन बन्धहेतुत्वात्तेन सम्यगावृताः सर्वतो वेष्टिताः। मत्स्या इव सूत्रमयेन जालेन परवशीकृता इत्यर्थः। अतएव स्वानिष्टसाधनेष्वपि कामभोगेषु प्रसक्ताः सर्वथा तदेकपराः प्रतिक्षणमुपचीयमानकल्मषाः पतन्ति नरके वैतरण्यादौ अशुचौ विण्मूत्रश्लेष्मादिपूर्णे।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।16.16।।एवमभिनिविष्टानां फलमाह -- अनेकेति। अनेकेषु क्षुद्रादिदेवेषु मनोरथेषु वा व्याप्तं चित्तं तेन,विभ्रान्ताः विशेषेण भ्रान्ता विक्षिप्ताः? तेनैव भ्रान्तिपरिकल्पितेन मोहमयेन जालेन समावृताः सम्यगावृताः शकुन्ता इव सूत्रजाले ततो निस्सरणासमर्थाः -- तत्रापि चेन्मत्स्मरणादिकं कुर्युस्तदा तु न पतेरन्? किन्तु खगादिवत् स्वकुटुम्बचिन्तनपराः? कामभोगेषु पूर्वोक्तरीत्या प्रसक्ताः सन्तः? अशुचौ पापात्मके परमदुःखनिधाने नरके विषयसुखात्मके आसक्त्युत्पादके पतन्ति। पतनोक्त्या वैवश्यं ज्ञापितम्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।16.16।। --,अनेकचित्तविभ्रान्ताः उक्तप्रकारैः अनेकैः चित्तैः विविधं भ्रान्ताः अनेकचित्तविभ्रान्ताः? मोहजालसमावृताः मोहः अविवेकः अज्ञानं तदेव जालमिव आवरणात्मकत्वात्? तेन समावृताः। प्रसक्ताः कामभोगेषु तत्रैव निषण्णाः सन्तः तेन उपचितकल्मषाः पतन्ति नरके अशुचौ वैतरण्यादौ।।

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।16.16।।अनेकेति।अज्ञश्चार्द्धप्रबुद्धश्च ब्रह्माहमिति यो वदेत्। महानरकजालेषु पच्यते नात्र संशयः इति ब्रह्माण्डोक्तेः। दुर्ज्ञाः कामोपभोगेषु प्रसक्ता अशुचौ नरके पतन्ति।


Chapter 16, Verse 16