Chapter 2, Verse 10

Text

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।।2.10।।

Transliteration

tam-uvācha hṛiṣhīkeśhaḥ prahasanniva bhārata senayorubhayor-madhye viṣhīdantam-idaṁ vachaḥ

Word Meanings

tam—to him; uvācha—said; hṛiṣhīkeśhaḥ—Shree Krishna, the master of mind and senses; prahasan—smilingly; iva—as if; bhārata—Dhritarashtra, descendant of Bharat; senayoḥ—of the armies; ubhayoḥ—of both; madhye—in the midst of; viṣhīdantam—to the grief-stricken; idam—this; vachaḥ—words


Translations

In English by Swami Adidevananda

O King, to him who was thus sorrowing between the two armies, Sri Krishna spoke the following words, as if smiling (by way of ridicule).

In English by Swami Gambirananda

O descendant of Bharata, Hrsikesa, mocking as it were, said these words to him who was sorrowing between the two armies:

In English by Swami Sivananda

To him who was despondent in the midst of the two armies, Krishna, smiling, O Bharata, spoke these words.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

O descendant of Bharata, Hrsikesa, as if smiling, spoke to him who was sinking in despondency between two armies.

In English by Shri Purohit Swami

Thereupon, the Lord, with a gracious smile, addressed him who was so much depressed in the midst of the two armies.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।2.10।। हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र! दोनों सेनाओंके मध्यभागमें विषाद करते हुए उस अर्जुनके प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।2.10।। हे भारत (धृतराष्ट्र) ! दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकमग्न अर्जुन को भगवान् हृषीकेश ने हँसते हुए से यह वचन कहे।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

2.10 तम् to him? उवाच spoke? हृषीकेशः Hrishikesha? प्रहसन् smiling? इव as it were? भारत O Bharata? सेनयोः of the armies? उभयोः (of) both? मध्ये in the middle? विषीदन्तम् despondent? इदम् this? वचः word.No commentary.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 2.10।। व्याख्या-- तमुवाच हृषीकेषशः ৷৷. विषीदन्तमिदं वचः-- अर्जुनने बड़ी शूरवीरता और उत्साहपूर्वक योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान्से दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेके लिये कहा था। अब वहींपर अर्थात् दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुन विषादमग्न हो गये! वास्तवमें होना यह चाहिये था कि वे जिस उद्देश्यसे आये थे, उस उद्देश्यके अनुसार युद्धके लिये खड़े हो जाते। परन्तु उस उद्देश्यको छोड़कर अर्जुन चिन्ता-शोकमें फँस गये। अतः अब दोनों सेनाओंके बीचमें ही भगवान् शोकमग्न अर्जुनको उपदेश देना आरम्भ करते हैं। 'प्रहसन्निव'-- (विशेषतासे हँसते हुएकी तरह-) का तात्पर्य है कि अर्जुनके भाव बदलनेको देखकर अर्थात् पहले जो युद्ध करनेका भाव था, वह अब विषादमें बदल गया--इसको देखकर भगवान्को हँसी आ गयी। दूसरी बात, अर्जुनने पहले (2। 7 में) कहा था कि मैं आपके शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये अर्थात् मैं युद्ध करूँ या न करूँ, मेरेको क्या करना चाहिये-- इसकी शिक्षा दीजिये; परन्तु यहाँ मेरे कुछ बोले बिना अपनी तरफसे ही निश्चय कर लिया कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'--यह देखकर भगवान्को हँसी आ गयी। कारण कि शरणागत होनेपर 'मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ' आदि कुछ भी सोचनेका अधिकार नहीं रहता। उसको तो इतना ही अधिकार रहता है कि शरण्य जो काम कहता है, वही काम करे। अर्जुन भगवान्के शरण होनेके बाद 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ऐसा कहकर एक तरहसे शरणागत होनेसे हट गये। इस बातको लेकर भगवान्को हँसी आ गयी। 'इव' का तात्पर्य है कि जोरसे हँसी आनेपर भी भगवान् मुस्कराते हुए ही बोले। जब अर्जुनने यह कह दिया कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' तब भगवान्को यहीं कह देना चाहिये था कि जैसी तेरी मर्जी आये, वैसा कर--'यथेच्छसि तथा कुरु'(18। 63)। परन्तु भगवान्ने यही समझा कि मनुष्य जब चिन्ता-शोकसे विकल हो जाता है, तब वह अपने कर्तव्यका निर्णय न कर सकनेके कारण कभी कुछ, तो कभी कुछ बोल उठता है। यही दशा अर्जुनकी हो रही है। अतः भगवान्के हृदयमें अर्जुनके प्रति अत्यधिक स्नेह होनेके कारण कृपालुता उमड़ पड़ी। कारण कि भगवान् साधकके वचनोंकी तरफ ध्यान न देकर उसके भावकी तरफ ही देखते हैं। इसलिये भगवान् अर्जुनके 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' इस वचनकी तरफ ध्यान न देकर (आगेके श्लोकसे) उपदेश आरम्भ कर देते हैं। जो वचनमात्रसे भी भगवान्के शरण हो जाता है भगवान् उसको स्वीकार कर लेते हैं। भगवान्के हृदयमें प्राणियोंके प्रति कितनी दयालुता है!  'हृषीकेश' कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं अर्थात् प्राणियोंके भीतरी भावोंको जाननेवाले हैं। भगवान् अर्जुनके भीतरी भावोंको जानते हैं कि अभी तो कौटुम्बिक मोहके वेगके कारण और राज्य मिलनेसे अपना शोक मिटता न दीखनेके कारण यह कह रहा है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'; परन्तु जब इसको स्वयं चेत होगा ,तब यह बात ठहरेगी नहीं और मैं जैसा कहूँगा, वैसा ही यह करेगा।  'इदं वचः उवाच' पदोंमें केवल 'उवाच' कहनेसे ही काम चल सकता था; क्योंकि 'उवाच' के अन्तर्गत ही 'वचः' पदका अर्थ आ जाता है। अतः 'वचः' पद देना पुनरूक्तिदोष दीखता है। परन्तु वास्तवमें यह पुनरुक्तिदोष नहीं है, प्रत्युत इसमें एक विशेष भाव भरा हुआ है। अभी आगेके श्लोकसे भगवान् जिस रहस्यमय ज्ञानको प्रकट करके उसे सरलतासे, सुबोध भाषामें समझाते हुए बोलेंगे, उसकी तरफ लक्ष्य करनेके लिये यहाँ  'वचः' दिया गया है। सम्बन्ध -- शोकाविष्ट अर्जुनको शोकनिवृत्तिका उपदेश देनेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण कहते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।2.10।। इस प्रकार धर्म और अधर्म शुभ और अशुभ इन दो सेनाओं के संव्यूहन के मध्य अर्जुन (जीव) पूर्ण रूप से अपने सारथी भगवान् श्रीकृष्ण (सूक्ष्म विवेकवती बुद्धि) की शरण में आत्मसमर्पण करता है जो पाँच अश्वों (पंच ज्ञानेन्द्रियों) द्वारा चालित रथ (देह) अपने पूर्ण नियन्त्रण में रखते हैं।ऐसे दुखी और भ्रमित व्यक्ति जीव अर्जुन को श्रीकृष्ण सहास्य उसकी अन्तिम विजय का आश्वासन देने के साथ ही गीता के आत्ममुक्ति का आध्यात्मिक उपदेश भी करते हैं जिसके ज्ञान से सदैव के लिये मनुष्य के शोक मोह की निवृत्ति हो जाती है।उपनिषद् के रूपक को ध्यान में रखकर यदि हम संजय द्वारा चित्रित दृश्य का वर्णन उपर्युक्त प्रकार से करें तो इसमें हमें सनातन पारमार्थिक सत्य के दर्शन होंगे। जब जीव (अर्जुन) विषादयुक्त होकर शरीर में (देह) स्थित हो जाता है और सभी स्वार्थ पूर्ण कर्मों के साधनों (गाण्डीव) को त्यागकर इन्द्रियों को (श्वेत अश्व) मन की लगाम के द्वारा संयमित करता है तब सारथि (शुद्ध बुद्धि) जीव को धर्म शक्ति की सहायता से वह दैवी सार्मथ्य और मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे अधर्म की बलवान सेना को भी परास्त कर जीव सम्पूर्ण विजय को प्राप्त करता है।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।2.10।।तमर्जुनं सेनयोर्वाहिन्योरुभयोर्मध्ये विषीदन्तं विषादं कुर्वन्तमतिदुःखितं शोकमोहाभ्यामभिभूतं स्वधर्मात्प्रच्युतप्रायं प्रतीत्य प्रहसन्निवोपहासं कुर्वन्निव तदाश्वासार्थं हे भारत भरतान्वय इत्येवं संबोध्य भगवानिदं प्रश्नोत्तरं निःश्रेयसाधिगमसाधनं वचनमूचिवानित्याह  तमुवाचेति। 

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।2.10।।   एतदनन्तरं भगवान्किं कृतवानित्यत आह  तमिति।  तं सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तं शोकमोहावङ्गीकुर्वन्तं अर्जुनं हृषीकेशो भगवान्वासुदेवः प्रहसन्निव मदाज्ञावशवर्तिनि त्वय्यहं प्रसन्नोऽस्मीति प्रकटयन्निवेदं वक्ष्यमाणं वचो वचनमुवाच। अनुचिताचरणप्रकाशनेन लज्जाम्बुधौ मज्जयन्निवेति केचित्। मूढोऽप्ययममूढवद्वदतीति प्रहसन्निवेत्यन्ये। त्वमपि भरतवंशोद्भवत्वाद्भगवद्वाक्यं सावधानतया श्रोतुमर्हसीति द्योतयन्संजयः प्रज्ञाचक्षुषं धृतराष्ट्रं संबोधयति भारतेति तदाश्वासार्थं भारतान्वयेत्येवं संबोध्य भगवांस्तमुवाचेत्येके।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।2.10।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।2.10।। तमिति।  मूढोऽप्ययममूढवद्वदतीति प्रहसन्निव। इदं वक्ष्यमाणम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।2.10।।संजय उवाच एवं अस्थाने समुपस्थितस्नेहकारुण्याभ्याम् अप्रकृतिं गतं क्षत्रियाणां युद्धं परमं धर्मम् अपि अधर्मं मन्वानं धर्मबुभुत्सया च शरणागतं पार्थम् उद्दिश्य आत्मयाथात्म्यज्ञानेन युद्धस्य फलाभिसन्धिरहितस्य स्वधर्मस्य आत्मयाथार्थ्यप्राप्त्युपायताज्ञानेन च विना अस्य मोहो न शाम्यति इति मत्वा भगवता परमपुरुषेण अध्यात्मशास्त्रावतरणं कृतम्। तदुक्तम्अस्थाने स्नेहकारुण्यधर्माधर्मधियाकुलम्। पार्थं प्रपन्नमुद्दिश्य शास्त्रावतरणं कृतम्।। (गीतार्थसंग्रह 5) इति।।तम् एवं देहात्मनोः याथात्म्यज्ञाननिमित्तशोकाविष्टं देहातिरिक्तात्मज्ञाननिमित्तिं च धर्मं भाषमाणं परस्परं विरुद्धगुणान्वितम् उभयोः सेनयोः युद्धाय उद्युक्तयोः मध्ये अकस्मात् निरुद्योगं पार्थम् आलोक्य परमपुरुषः प्रहसन् इव इदम् उवाच। परिहासवाक्यं वदन् इव आत्मपरमात्मयाथात्म्यतत्प्राप्त्युपायभूतकर्मयोगज्ञानयोगभक्तियोगगोचरम्न त्वेवाहं जातु नासम् (गीता 2।12) इत्यारभ्यअहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। (गीता 18।66) इत्येतदन्तम् उवाच इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।2.10।।ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायामाह  तमुवाचेति।  प्रहसन्निव प्रसन्नमुखः सन्नित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।2.10।।परिहासयोग्यत्वायतम् इति परामृष्टमाह एवमित्यादिना।उभयोः इत्यनेन सूचितमुक्तंयुद्धायोद्युक्तयोरिति। एतेनोपदेशावसरलाभो व्यञ्जितः।सीदमानम् इत्यनेन निरुद्योगत्वं फलितम्। युद्धविनिवृत्त्यनर्हावस्थाज्ञापकेनमध्ये इत्यनेनाभिप्रेतमाह अकस्मादिति। अधर्मादिः पराजयादिर्वा युद्धनिवृत्तेः सम्यग्घेतुरत्र नास्ति अहेतुकोपक्रान्तत्यागे तु परिहास्यत्वमिति भावः। अत्र हृषीकेशत्वोक्तिफलितं वक्ष्यमाणशास्त्रप्रामाण्याद्युपयुक्तं वक्तुः पुरुषस्य सर्ववैलक्षण्यंपरमपुरुष इति दर्शितम्। यद्यप्यसौ हृषीकेशत्वात्पार्थस्य हृषीकादिकं सर्वं सङ्कल्पमात्रेण नियम्य भूभारावतारणाय प्रेरयितुं शक्तः तथापि जगदुपकृतिमर्त्यतया पार्थतदितरात्मसाधारणपुरुषार्थोपायशास्त्रोपदेशद्वारा प्रवर्तयतीति भावः। यद्वा धीरमर्जुनं हृषीकेशतया स्वयं प्रक्षोभ्य प्रहसन्निव जगदुपकाराय शास्त्रमुवाचेति सम्बन्धविशेषात् समनन्तरवाक्यपर्यालोचनया च परिहासार्थत्वौचित्यात् प्रहासस्य पार्थकर्मकत्वमुक्तम्। यद्वा प्रपन्नस्य दोषनिरीक्षणेन परिहासासम्भवं शिष्यं प्रत्यध्यात्मोपदेशे प्रहासमात्रं दृष्टान्तानुपयोगं च अभिप्रेत्यपार्थशब्दः। अतःप्रहसन्निव इत्यनेन फलितं सरसत्वं सुग्रहत्वं निखिलनिगमान्तगह्वरनिलीनस्य महतोऽर्थजातस्यानायासभाषणम्इदंशब्दस्य वक्ष्यमाणसमस्तभगवद्वाक्यविषयत्वम् इङ्गितेनापि विवक्षितसूचनं च दर्शयति परिहासेत्यादिना।अशोच्यान् इतिश्लोकस्यापि उपदेशार्थावधानापादनार्थपरिहासच्छायतया शास्त्रावतरणमात्रत्वेन साक्षाच्छास्त्रत्वाभावात्न त्वेवाहम् इत्यारभ्य इत्युक्तम्। यद्वाऽत्रअशोच्यान् 2।11 इति श्लोकः प्रहसन्निवेत्यस्य विषयःन त्वेवाहम् 2।12इत्यादिकमिदंशब्दार्थः। अत्रमां शुचः 16।5 इत्येतदन्तंभक्तियोगगोचरमिति निर्देशः सर्वसाधकस्यापि चरमश्लोकोक्तप्रपदनस्य प्रकृतान्वयेन भक्तिविरोधिनिवर्तकतयोदाहरिष्यमाणत्वात्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।2.7 2.10।।कार्पण्येत्यादि। सेनयोरुभयोर्मध्ये इत्यादिनेदं सूचयति संशयाविष्टोऽर्जुनो नैकपक्षेण ( नोऽनेक ) युद्धान्निवृत्तः यत एवमाह स्म शाधि मा त्वां (S omits त्वाम्) प्रपन्नम् इति। अतः उभयोरपि ज्ञानाज्ञानयोर्मध्यगः श्रीभगवतानुशिष्यते।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।2.10।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।2.10।।एवं युद्धमुपेक्षितवत्यप्यर्जुने भगवान्नोपेक्षितवानिति धृतराष्ट्रदुराशानिरासायाह सेनयोरुभयोर्मध्ये युद्धोद्यमेनागत्य तद्धिरोधिनं विषादं मोहं प्राप्नुवन्तं तमर्जुनं प्रहसन्निव अनुचिताचरणप्रकाशनेन लज्जाम्बुधौ मज्जयन्निव हृषीकेशः सर्वान्तर्यामी भगवानिदं वक्ष्यमाणमशोच्यानित्यादि वचः परमगम्भीरार्थमनुचिताचरणप्रकाशकमुक्तवान्नतूपेक्षितवानित्यर्थः। अनुचिताचरणप्रकाशनेन लज्जोत्पादनं प्रहासः। लज्जा च दुःखात्मिकेति द्वेषविषय एव मुख्यः। अर्जुनस्य तु भगवत्कृपाविषयत्वादनुचिताचरणप्रकाशनस्य च विवेकोत्पत्तिहेतुत्वादेकदलाभावेन गौण एवायं प्रहास इति कथयितुमिवशब्दः। लज्जामुत्पादयितुमिव विवेकमुत्पादयितुमर्जुनस्यानुचिताचरणं भगवता प्रकाश्यते लज्जोत्पत्तिस्तु नान्तरीयकतयास्तु मास्तु वेति न विवक्षितेति भावः। यदि युद्धारम्भात्प्रागेव गृहे स्थितो युद्धमुपेक्षेत तदा नानुचितं कुर्यात् महता संरम्भेण तु युद्धभूमावागत्य तदुपेक्षणमतीवानुचितमिति कथयितुं सेनयोरित्यादिविशेषणम्। एतच्चाशोच्यानित्यादौ स्पष्टं भविष्यति।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।2.10।।ततो भगवान् किमुत्तरितवानित्याकाङ्क्षायामाह तमुवाचेति। हृषीकेशः विषीदन्तमर्जुनं प्रहसन्निव उभयोः सेनयोर्मध्ये इदं वचोऽग्रे वक्ष्यमाणमुवाच। स्वोक्ताकारिष्वपि स्वीयेषु भगवान् पुनर्वदति विश्वासार्थं सम्बोधने भारतेति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।2.10।। अत्र दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् (गीता 1.2) इत्यारभ्य यावत् न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह (गीता 2.9) इत्येतदन्तः प्राणिनां शोकमोहादिसंसारबीजभूतदोषोद्भवकारणप्रदर्शनार्थत्वेन व्याख्येयो ग्रन्थः। तथाहि अर्जुनेन राज्यगुरुपुत्रमित्रसुहृत्स्वजनसंबन्धिबान्धवेषु अहमेषाम् ममैते इत्येवंप्रत्ययनिमित्तस्नेहविच्छेदादिनिमित्तौ आत्मनः शोकमोहौ प्रदर्शितौ कथं भीष्ममहं संख्ये (गीता 2.4) इत्यादिना। शोकमोहाभ्यां ह्यभिभूतविवेकविज्ञानः स्वत एव क्षत्रधर्मे युद्धे प्रवृत्तोऽपि तस्माद्युद्धादुपरराम परधर्मं च भिक्षाजीवनादिकं कर्तुं प्रववृते। तथा च सर्वप्राणिनां शोकमोहादिदोषाविष्टचेतसां स्वभावत एव स्वधर्मपरित्यागः प्रतिषिद्धसेवा च स्यात्। स्वधर्मे प्रवृत्तानामपि तेषां वाङ्मनःकायादीनां प्रवृत्तिः फलाभिसंधिपूर्विकैव साहंकारा च भवति। तत्रैवं सति धर्माधर्मोपचयात् इष्टानिष्टजन्मसुखदुःखादिप्राप्तिलक्षणः संसारः अनुपरतो भवति। इत्यतः संसारबीजभूतौ शोकमोहौ। तयोश्च सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकादात्मज्ञानात् नान्यतो निवृत्तिरिति तदुपदिदिक्षुः सर्वलोकानुग्रहार्थम् अर्जुनं निमित्तीकृत्य आह भगवान्वासुदेवः अशोच्यान् (गीता 2.11) इत्यादि।। अत्र केचिदाहुः सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकादात्मज्ञाननिष्ठामात्रादेव केवलात् कैवल्यं न प्राप्यत एव। किं तर्हि अग्निहोत्रादिश्रौतस्मार्तकर्मसहितात् ज्ञानात् कैवल्यप्राप्तिरिति सर्वासु गीतासु निश्चितोऽर्थ इति। ज्ञापकं च आहुरस्यार्थस्य अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि (गीता 2.33) कर्मण्येवाधिकारस्ते (गीता 2.47) कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम् (गीता 4.15) इत्यादि। हिंसादियुक्तत्वात् वैदिकं कर्म अधर्माय इतीयमप्याशङ्का न कार्या। कथम् क्षात्रं कर्म युद्धलक्षणं गुरुभ्रातृपुत्रादिहिंसालक्षणमत्यन्तं क्रूरमपि स्वधर्म इति कृत्वा न अधर्माय तदकरणे च ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि (गीता 2.33) इति ब्रुवता यावज्जीवादिश्रुतिचोदितानां पश्वादिहिंसालक्षणानां च कर्मणां प्रागेव नाधर्मत्वमिति सुनिश्चितमुक्तं भवति इति।। तदसत् ज्ञानकर्मनिष्ठयोर्विभागवचनाद्बुद्धिद्वयाश्रययोः। अशोच्यान् (गीता 2.11) इत्यादिना भगवता यावत् स्वधर्ममपि चावेक्ष्य (गीता 2.31) इत्येतदन्तेन ग्रन्थेन यत्परमार्थात्मतत्त्वनिरूपणं कृतम् तत्सांख्यम्। तद्विषया बुद्धिः आत्मनो जन्मादिषड्विक्रियाभावादकर्ता आत्मेति प्रकरणार्थनिरूपणात् या जायते सा सांख्यबुद्धिः। सा येषां ज्ञानिनामुचिता भवति ते सांख्याः। एतस्या बुद्धेः जन्मनः प्राक् आत्मनो देहादिव्यतिरिक्तत्वकर्तृत्वभोक्तृत्वाद्यपेक्षो धर्माधर्मविवेकपूर्वको मोक्षसाधनानुष्ठानलक्षणो योगः। तद्विषया बुद्धिः योगबुद्धिः। सा येषां कर्मिणामुचिता भवति ते योगिनः। तथा च भगवता विभक्ते द्वे बुद्धी निर्दिष्टे एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु (गीता 2.39) इति। तयोश्च सांख्यबुद्ध्याश्रयां ज्ञानयोगेन निष्ठां सांख्यानां विभक्तां वक्ष्यति पुरा वेदात्मना मया प्रोक्ता (गीता 3.3) इति। तथा च योगबुद्ध्याश्रयां कर्मयोगेन निष्ठां विभक्तां वक्ष्यति कर्मयोगेन योगिनाम् (गीता 3.3) इति। एवं सांख्यबुद्धिं योगबुद्धिं च आश्रित्य द्वे निष्ठे विभक्ते भगवतैव उक्ते ज्ञानकर्मणोः कर्तृत्वाकर्तृत्वैकत्वानेकत्वबुद्ध्याश्रययोः युगपदेकपुरुषाश्रयत्वासंभवं पश्यता। यथा एतद्विभागवचनम् तथैव दर्शितं शातपथीये ब्राह्मणे एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तो ब्राह्मणाः प्रव्रजन्ति (बृ0 4.4.22) इति सर्वकर्मसंन्यासं विधाय तच्छेषेण किं प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मायं लोकः (बृ0 4.4.22) इति। तत्र एव च प्राक् दारपरिग्रहात् पुरुषः आत्मा प्राकृतो धर्मजिज्ञासोत्तरकालं लोकत्रयसाधनम् पुत्रम् द्विप्रकारं च वित्तं मानुषं दैवं च तत्र मानुषं कर्मरूपं पितृलोकप्राप्तिसाधनं विद्यां च दैवं वित्तं देवलोकप्राप्तिसाधनम् सोऽकामयत (बृ0 1.4.17) इति अविद्याकामवत एव सर्वाणि कर्माणि श्रौतादीनि दर्शितानि। तेभ्यः व्युत्थाय प्रव्रजन्ति (बृ0 4.4.22) इति व्युत्थानमात्मानमेव लोकमिच्छतोऽकामस्य विहितम्। तदेतद्विभागवचनमनुपपन्नं स्याद्यदि श्रौतकर्मज्ञानयोः समुच्चयोऽभिप्रेतः स्याद्भगवतः।। न च अर्जुनस्य प्रश्न उपपन्नो भवति ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते (गीता 3.1) इत्यादिः। एकपुरुषानुष्ठेयत्वासंभवं बुद्धिकर्मणोः भगवता पूर्वमनुक्तं कथमर्जुनः अश्रुतं बुद्धेश्च कर्मणो ज्यायस्त्वं भगवत्यध्यारोपयेन्मृषैव ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिः (गीता 3.1) इति।। किञ्च यदि बुद्धिकर्मणोः सर्वेषां समुच्चय उक्तः स्यात् अर्जुनस्यापि स उक्त एवेति यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् (गीता 5.1) इति कथमुभयोरुपदेशे सति अन्यतरविषय एव प्रश्नः स्यात् न हि पित्तप्रशमनार्थिनः वैद्येन मधुरं शीतलं च भोक्तव्यम् इत्युपदिष्टे तयोरन्यतत्पित्तप्रशमनकारणं ब्रूहि इति प्रश्नः संभवति।। अथ अर्जुनस्य भगवदुक्तवचनार्थविवेकानवधारणनिमित्तः प्रश्नः कल्प्येत तथापि भगवता प्रश्नानुरूपं प्रतिवचनं देयम् मया बुद्धिकर्मणोः समुच्चय उक्तः किमर्थमित्थं त्वं भ्रान्तोऽसि इति। न तु पुनः प्रतिवचनमननुरूपं पृष्टादन्यदेव द्वे निष्ठे मया पुरा प्रोक्ते इति वक्तुं युक्तम्।। नापि स्मार्तेनैव कर्मणा बुद्धेः समुच्चये अभिप्रेते विभागवचनादि सर्वमुपपन्नम्। किञ्च क्षत्रियस्य युद्धं स्मार्तं कर्म स्वधर्म इति जानतः तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि (गीता 3.1) इति उपालम्भोऽनुपपन्नः।। तस्माद्गीताशास्त्रे ईषन्मात्रेणापि श्रौतेन स्मार्तेन वा कर्मणा आत्मज्ञानस्य समुच्चयो न केनचिद्दर्शयितुं शक्यः। यस्य तु अज्ञानात् रागादिदोषतो वा कर्मणि प्रवृत्तस्य यज्ञेन दानेन तपसा वा विशुद्धसत्त्वस्य ज्ञानमुत्पन्नं परमार्थतत्त्वविषयम् एकमेवेदं सर्वं ब्रह्म अकर्तृ च इति तस्य कर्मणि कर्मप्रयोजने च निवृत्तेऽपि लोकसंग्रहार्थं यत्नपूर्वं यथा प्रवृत्तिः तथैव प्रवृत्तस्य यत्प्रवृत्तिरूपं दृश्यते न तत्कर्म येन बुद्धेः समुच्चयः स्यात् यथा भगवतो वासुदेवस्य क्षत्रधर्मचेष्टितं न ज्ञानेन समुच्चीयते पुरुषार्थसिद्धये तद्वत् तत्फलाभिसंध्यहंकाराभावस्य तुल्यत्वाद्विदुषः। तत्त्वविन्नाहं करोमीति मन्यते न च तत्फलमभिसंधत्ते। यथा च स्वर्गादिकामार्थिनः अग्निहोत्रादिकर्मलक्षणधर्मानुष्ठानाय आहिताग्नेः काम्ये एव अग्निहोत्रादौ प्रवृत्तस्य सामि कृते विनष्टेऽपि कामे तदेव अग्निहोत्राद्यनुतिष्ठतोऽपि न तत्काम्यमग्निहोत्रादि भवति। तथा च दर्शयति भगवान् कुर्वन्नपि न लिप्यते (गीता 5.1) न करोति न लिप्यते (गीता 13.31) इति तत्र तत्र।। यच्च पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् (गीता 4.15) कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः (गीता 3.20) इति तत्तु प्रविभज्य विज्ञेयम्। तत्कथम् यदि तावत् पूर्वे जनकादयः तत्त्वविदोऽपि प्रवृत्तकर्माणः स्युः ते लोकसंग्रहार्थम् गुणा गुणेषु वर्तन्ते (गीता 3.28) इति ज्ञानेनैव संसिद्धिमास्थिताः कर्मसंन्यासे प्राप्तेऽपि कर्मणा सहैव संसिद्धिमास्थिताः न कर्मसंन्यासं कृतवन्त इत्यर्थः। अथ न ते तत्त्वविदः ईश्वरसमर्पितेन कर्मणा साधनभूतेन संसिद्धिं सत्त्वशुद्धिम् ज्ञानोत्पत्तिलक्षणां वा संसिद्धिम् आस्थिता जनकादय इति व्याख्येयम्। एतमेवार्थं वक्ष्यति भगवान् सत्त्वशुद्धये कर्म कुर्वन्ति इति। (गीता 5.11) स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः (गीता (18.46) इत्युक्त्वा सिद्धिं प्राप्तस्य पुनर्ज्ञाननिष्ठां वक्ष्यति सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म (गीता 18.50) इत्यादिना।। तस्माद्गीताशास्त्रे केवलादेव तत्त्वज्ञानान्मोक्षप्राप्तिः न कर्मसमुच्चितात् इति निश्चितोऽर्थः। यथा चायमर्थः तथा प्रकरणशो विभज्य तत्र तत्र दर्शयिष्यामः।। तत्रैव धर्मसंमूढचेतसो मिथ्याज्ञानवतो महति शोकसागरे निमग्नस्य अर्जुनस्य अन्यत्रात्मज्ञानादुद्धरणमपश्यन् भगवान्वासुदेवः ततः कृपया अर्जुनमुद्दिधारयिषुः आत्मज्ञानायावतारयन्नाह श्रीभगवानुवाच  

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।2.10।।ततः किं जातमिति तमुवाचेति। अहो अस्यात्मतत्त्वाज्ञानतः क्लैव्यं कीदृक् इति प्रहसन् धर्मिष्ठत्वादस्यैतदप्युचितमिति भावेनेत्युक्तम्।


Chapter 2, Verse 10