Chapter 15, Verse 14

Text

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।15.14।।

Transliteration

ahaṁ vaiśhvānaro bhūtvā prāṇināṁ deham āśhritaḥ prāṇāpāna-samāyuktaḥ pachāmy annaṁ chatur-vidham

Word Meanings

aham—I; vaiśhvānaraḥ—fire of digestion; bhūtvā—becoming; prāṇinām—of all living beings; deham—the body; āśhritaḥ—situated; prāṇa-apāna—outgoing and incoming breath; samāyuktaḥ—keeping in balance; pachāmi—I digest; annam—foods; chatuḥ-vidham—the four kinds


Translations

In English by Swami Adidevananda

Becoming the digestive fire, I function within the bodies of all living beings. In union with the inward and outward breath, I digest the four kinds of food.

In English by Swami Gambirananda

Taking the form of Vaisvanara, and residing in the bodies of creatures, I, in association with Prana and Apana, digest the four kinds of food.

In English by Swami Sivananda

Having become the fire Vaisvanara, I abide in the bodies of living beings and, associated with the Prana and the Apana, digest the fourfold food.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Being the digestive fire dwelling within the bodies of living creatures, and being in association with the upward and downward winds [of the body], I digest the four kinds of food.

In English by Shri Purohit Swami

Becoming the fire of life, I pass into their bodies and, uniting with the vital streams of Prāṇa and Apāna, I digest the various kinds of food.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।15.14।।प्राणियोंके शरीरमें रहनेवाला मैं प्राण-अपानसे युक्त वैश्वानर होकर चार प्रकारके अन्नको पचाता हूँ।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।15.14।। मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

15.14 अहम् I? वैश्वानरः (the fire) Vaisvanara? भूत्वा having become? प्राणिनाम् of living beings? देहम् the body? आश्रितः abiding? प्राणापानसमायुक्तः associated with Prana and Apana? पचामि (I) digest? अन्नम् food? चतुर्विधम् fourfold.Commentary The immanence of the Lord as the gastric fire in all living beings is described in this verse.Vaisvanara The fire that abides in the stomach. This fire is fanned by the bellows of the incoming and the outgoing breaths continuously and large antities of food are digested. Inside the wonderful laboratory of the stomach I digest the food by taking the form of this gastric fire.Four kinds of food (1) Food which has to be eaten by mastication (Bhakshyam). (2) That which has to be sucked in (Bhojyam). (3) That which has to be licked (Lehyam). (4) That which has to be devoured or swallowed (Choshyam). Another classification is as follows (1) Rice is PrithiviAnnam (solid food) for human beings. (2) Water is Apyannam (watery food) for birds like the Chataka. (3) Fire is Tejasannam (hot food) for certain creatures. (4) Air is Vayvannam (air as food) for serpents.अयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषः येनेदमन्नं पच्यते।।This fire which is within man and by which the food is digested is Vaisvanara. (Brihadaranyaka Upanishad 5.9.1)He who thinks or meditates and feels that the Vaisvanara fire is the eater? that the food eaten by the fire is the Soma (moon) and that the two together form AgniSoma is not contaminated by the impurities in the food. He who meditates before he takes his food that the whole world which is in the form of eater and eaten is made up of Agni and Soma? is not tainted by the evil arising from eating bad food.Repeat this verse daily before you take your food. You will be free from all taints of impurity in food.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।15.14।। व्याख्या --   अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः -- बारहवें श्लोकमें अग्निकी प्रकाशनशक्तिमें अपने प्रभावका वर्णन करनेके बाद भगवान् इस श्लोकमें वैश्वानररूप अग्निकी पाचनशक्तिमें अपने प्रभावका वर्णन करते हैं (टिप्पणी प0 775.1)। तात्पर्य यह है कि अग्निके दोनों ही कार्य (प्रकाश करना और पचाना) भगवान्की ही शक्तिसे होते हैं।प्राणियोंके शरीरको पुष्ट करने तथा उनके प्राणोंकी रक्षा करनेके लिये भगवान् ही वैश्वानर(जठराग्नि) के रूपसे उन प्राणियोंके शरीरमें रहते हैं। मनुष्योंकी तरह लता? वृक्ष आदि स्थावर और पशु? पक्षी आदि जङ्गम प्राणियोंमें भी वैश्वानरकी पाचनशक्ति काम करती है। लता? वृक्ष आदि जो खाद्य? जल ग्रहण करते हैं? पाचनशक्तिके द्वारा उसका पाचन होनेके फलस्वरूप ही उन लतावृक्षादिकी वृद्धि होती है।प्राणापानसमायुक्तः -- शरीरमें प्राण? अपान? समान? उदान और व्यान -- ये पाँच प्रधान वायु एवं नाग? कूर्म? कृकर? देवदत्त और धनञ्जय -- ये पाँच उपप्रधान वायु रहती हैं (टिप्पणी प0 775.2)। इस श्लोकमें भगवान् दो प्रधान वायु -- प्राण और अपानका ही वर्णन करते हैं क्योंकि ये दोनों वायु जठराग्निको प्रदीप्त करती हैं। जठराग्निसे पचे हुए भोजनके सूक्ष्म अंश या रसको शरीरके प्रत्येक अङ्गमें पहुँचानेका सूक्ष्म कार्य भी मुख्यतः प्राण और अपान वायुका ही है।पचाम्यन्नं चतुर्विधम् -- प्राणी चार प्रकारके अन्नका भोजन करते हैं --,(1) भोज्य -- जो अन्न दाँतोंसे चबाकर खाया जाता है जैसे -- रोटी? पुआ आदि।(2) पेय -- जो अन्न निगला जाता है जैसे खिचडी? हलवा? दूध? रस आदि।(3) चोष्य -- दाँतोंसे दबाकर जिस खाद्य पदार्थका रस चूसा जाता है और बचे हुए असार भागको थूक,दिया जाता है जैसे -- ऊख? आम आदि। वृक्षादि स्थावर योनियाँ इसी प्रकारसे अन्नको ग्रहण करती हैं।(4) लेह्य -- जो अन्न जिह्वासे चाटा जाता है जैसे -- चटनी? शहद आदि।अन्नके उपर्युक्त चार प्रकारोंमें भी एकएकके अनेक भेद हैं। भगवान् कहते हैं कि उन चारों प्रकारके अन्नोंको वैश्वानर(जठराग्नि) रूपसे मैं ही पचाता हूँ। अन्नका ऐसा कोई अंश नहीं है? जो मेरी शक्तिके बिना पच सके। सम्बन्ध --   पीछेके तीन श्लोकोंमें अपनी प्रभावयुक्त विभूतियोंका वर्णन करके अब उस विषयका उपसंहार करते हुए भगवान् सब प्रकारसे जाननेयोग्य तत्त्व स्वयंको बताते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।15.14।। वैश्वानर वही चैतन्यस्वरूप परमात्मा समस्त जीवित प्राणियों के शरीरों में जीवन की उष्णता के रूप में व्यक्त होता है। इस उष्णता के अभाव में देह मृत हो जाता है। अन्न से जीवन द्रव्य बनाने की प्रक्रिया से शरीर में उष्णता उत्पन्न होती है और शरीर के अन्तरावयव स्वत अपना कार्य करते रहते हैं। जब तक जीवनी शक्ति शरीर में प्रवाहित होती रहती है? तब तक इन शारीरिक प्रक्रियाओं का व्यक्ति को न भान होता है और न उसे उनके लिये कोई सजग प्रयत्न ही करना पड़ता है।प्राणियों के देह में स्थित जठराग्नि भी जो अन्न को पचाती है परमात्मा की ही एक अभिव्यक्ति है? जिसे यहाँ वैश्वानर कहा गया है।मैं चतुर्विध अन्न को पचाता हूँ एक स्वस्थ प्राणी की पाचनशक्ति सभी प्रकार के अन्न को पचा सकती है। यहाँ अन्न का चतुर्विध वर्गीकरण उसके भक्षण के प्रकार पर आधारित है। प्रथम है भक्ष्य? अर्थात् जिसे दांतों से चबाकर खाना पड़ता है? जैसे रोटी आदि (2) भोज्य अथवा पेय जिसे निगला जाता है? जैसे दूध आदि (3) चोष्य जिसे चूसना पड़ता है? जैसे आम? गन्ना आदि और (4) लेह्य जिसे चाटना पड़ता है? जैसे मधु? चटनी आदि। इस चतुर्विध अन्न में समस्त प्रकार के सामिष? निरामिष? पक्व और अपक्व आहारों का समावेश हो जाता है। मुख के द्वारा भक्षण किये गये समस्त प्रकार के अन्न का पाचन तथा शरीर के लिये आवश्यक उसके रूपान्तर का कार्य पाचन क्रिया के द्वारा ही संभव होता है? और इस पाचन क्रिया की यह क्षमता परमात्मा की ही एक अभिव्यक्ति है।प्राण और अपान से युक्त होकर समस्त प्राणियों के शरीरों में होने वाली ग्रहण और विसर्जन की क्रियाओं को क्रमश प्राण और अपान कहा जाता है। तथापि इनका और अधिक व्यापक अर्थ यहाँ स्वीकार किया जा सकता है। चैतन्य आत्मा न केवल वैश्वानर के रूप में ग्रहण किये गये अन्न को पचाता ही है? वरन् वही चैतन्य प्राण के रूप में व्यक्त होकर भक्षण किये हुये अन्न को अन्ननलिका द्वारा पेट तक पहुँचाता है। पाचन के पश्चात् यही आत्मा आंतों को मलविसर्जन की क्षमता प्रदान करता है। सारांशत? परमात्मा ही हमें अन्न के भक्षण? उसके पाचन तथा अनावश्यक मल के विसर्जन के कार्यों में सहायता करता है।और

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।15.14।।भगवतः सर्वात्मत्वे हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। अहमेवेत्यहंशब्देन परो लक्ष्यते? भूत्वा पचामीति संबन्धः। परस्यैव जाठरात्मना स्थितौ श्रुतिं प्रमाणयति -- अयमिति। बाह्यं भौममग्निं व्यावर्तयति -- योऽयमिति। देहान्तरारम्भकं तृतीयं भूतं व्यवच्छिनत्ति -- येनेति। जाठरात्मना परः स्थितश्चेत्तस्य देहांश्रितत्वं सिद्धमिति न पृथग्वक्तव्यमित्याशङ्क्यपुरुषविधं पुरुषेऽन्तः प्रतिष्ठितं वेद इति श्रुतिमाश्रित्याह -- प्रविष्ट इति। परस्य जाठरात्मनोऽन्नपाके सहकारिकारणमाह -- प्राणेति। संयुक्तत्वं संधुक्षितत्वम्। अन्नस्य चातुर्विध्यं प्रकटयति -- भोज्यमिति। भोक्तरि वैश्वानरदृष्टिर्भोज्ये सोमदृष्टिरेवं भोक्तृभोज्यरूपं सर्वं जगदग्नीषोमात्मना भुक्तिकाले ध्यायतो भोक्तुरन्नकृतो दोषो नेति प्रासङ्गिकं सफलं ध्यानं दर्शयति -- भोक्तेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।15.14।।किंचाहं परमात्मा वैश्वानर उदरस्थोऽग्निर्भूत्वा प्राणिनां प्राणवतां देहमाश्रितः प्रविष्टः प्राणापानाभ्यामुद्दीपकाभ्यां समायुक्तः भोज्यं भक्ष्यं चोष्यं लेह्यं चेति चतुर्विधमन्नं पचामि पक्तिं करोमि। तत्र यत्पायसादि केवलं जिह्वया विलोड्य निगीर्यते तद्भोज्यम्। यत्त्वपूपादि दन्तैरवखड्यावखण्ड्य भक्ष्यते तद्भक्ष्यम्। यत्त्विवक्षुदण्डादि दंष्ट्राभिर्निपीड्य सारांशं निगीर्यावशिष्टं त्यज्यते तच्चोष्यम्। यद्द्रवीभूतं गडादि जिह्वयां निक्षिप्य रसास्वादितं निगीर्यते तल्लोह्यम्। तथाच श्रुतिःअयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्तःपुरुषे येनेदमन्नं पच्यते इत्याद्या। भोक्ता वैश्वानरोऽग्निर्भोज्यमन्नं सोमशब्देनोदितम्। एवं भोक्तृभोज्यरुपं सर्वं जगदग्नीषोमात्मना भुक्तिकाले ध्यायतो भोक्तुरन्नकुतो दोषो न भवतीति प्रासङ्गिकं सफलं ध्यानं द्रष्टव्यम्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।15.12 -- 15.14।।पूर्वोक्तमेव ज्ञानं प्रपञ्चयति -- यदादित्यगतमित्यादिना। गां भूमिम्।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।15.14।।अहं वैश्वानरसंज्ञ उदरस्थोऽग्निर्भूत्वा प्राणिनां सर्वेषां देहमाश्रितः सन् प्राणापानाभ्यां वायुभ्यां समायुक्तः समुद्दीपितश्चतुर्विधमन्नमदनीयं भक्ष्यं दन्तव्यापारापेक्षमपूपादि। भोज्यं तदनपेक्षं पायसादि। लेह्यं गुडशर्करादि। चोष्यं निश्चोष्य त्यज्यमानमिक्षुदण्डादि। एतेन सर्वत्र सर्वा शक्तिर्या दृश्यते सा मदीयैवेति भावः। तदेवं भोक्ता वैश्वानरोऽग्निर्भोज्यमन्नं सोमस्तदेवमुभयमग्नीषोमौ सर्वमिति पश्यतोऽन्नदोषलेपो न भवतीत्यपि द्रष्टव्यम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।15.14।।अहं वैश्वानरो जाठरानलो भूत्वा सर्वेषां प्राणिनां देहम् आश्रितः तैः भुक्तं खाद्यचोष्यलेह्यपेयात्मकं चतुर्विधम् अन्नं प्राणापानवृत्तिभेदसमायुक्तः पचामि।अत्र परमपुरुषविभूतिभूतौ सोमवैश्वानरौ अहं सोमो भूत्वा वैश्वानरो भूत्वा इति तत्सामानाधिकरण्येन निर्दिष्टौ। तयोः च सर्वस्य भूतजातस्य च परमपुरुषसामानाधिकरण्यनिर्देशे हेतुम् आह --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।15.14।।किंच -- अहमिति। वैश्वानरो जाठरो भूत्वा प्राणिनां देहस्यान्तः प्रविश्य प्राणापानाभ्यां तदुद्दीपकाभ्यां सहितः प्राणिभिर्भुक्तं भक्ष्यं भोज्यं लेह्यं चोष्यं चेति चतुर्विधमन्नं पचामि। तत्र यद्दन्तैरवखण्ड्यावखण्ड्य भक्ष्यतेऽपूपादि तद्भक्ष्यम्। यत्तु केवलं जिह्वया विलोड्य निगीर्यते पायासादि तद्भोज्यम्। यत्तु जिह्वायां निक्षिप्य रसास्वादेन क्रमशो निगीर्यते द्रवीभूतं गुडादि तल्लेह्यम्। यत्तु दंष्ट्रादिभिर्निष्पीड्य रसांशं निगीर्यावशिष्टं त्यज्यत इक्षुदण्डादि तच्चोष्यमिति चतुर्विधभेदः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।15.14।।जाठरानलो भूत्वेतिकोष्ठेऽग्निर्भुक्तमृच्छति इति तेन ह्युक्तमिति भावः। ननु त्रेधा विहितं वा इदमन्नमशनं पानं खादः [1ऐत.3।4।3] इति वचनात्कथं चातुर्विध्यं तत्राह -- खाद्यचोष्यलेह्यपेयात्मकमिति आकारान्तरेण संग्रहादन्यत्र त्रेधोपदेश इति भावः।अपानप्राणयोर्मध्ये प्राणापानसमाहितः। समन्वितः समानेन सम्यक्पचति पावकः इत्यादिष्वान्तरपवनवृत्तिसन्धुक्षितो ह्यग्निः पचनाय प्रभवतीत्युच्यत इत्यभिप्रायेणाहप्राणापानवृत्तिभेदसमायुक्त इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।15.12 -- 15.14।।यदादित्येत्यादि चतुर्विधमित्यन्तम्। अर्कादितेजस्त्रयरूपतया दशमाध्यायसूचितसृष्टिस्थितिसंहार [कर्तृत्व] प्रकटीकरणे श्रीगुरवः प्राहुः (?N श्रीगुरवस्त्त्वाहुः) -- भूतपञ्चकस्य समस्तव्यस्ततया यल्लोकधारकत्वं ( लोकद्वयाधारकत्वं च) तद्भगवत एव माहेश्वर्यमित्येतदनेन [उक्तमिति]। तथाहि -- रवितेजसः प्रकाशकत्वं धारकत्वं च तेजोधराद्वयतादात्म्यात्। तदेतदुक्तम् यदादित्यगतम् इति गामाविश्य च इति चार्धद्वयेन। चान्द्रं तेजः प्रकाशकं पोषकं च? धराजलतेजोयोगात् (K. omits धरा)। तदुक्तम् यच्चन्द्रमसि इत्यनेन भागेन पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः (?N omit चौषधीः -- त्मकः) इति चार्धश्लोकेन। वाह्नं तु तेजः प्रकाशनशोषणदहनस्वेदनपचनात्मकं पृथिव्यप्तेजोवायुयोगात्। तदेतदिहोक्तम् (N तदेवेहोक्तम्) यच्चाग्नौ इत्यनेन? अहं वैश्वानरः इत्यनेन च (S??N इति श्लोकेन च)। नभस्तु बोधावकाशरूपतया सर्वगतमेव।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।15.13 -- 15.14।।धेनोरावेशो न भूतधारणे कारणमित्यत आह -- गामिति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।15.14।।अहमिति। किंचाहमीश्वर एव वैश्वानरो जाठराग्निर्भूत्वाअयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते इत्यादिश्रुतिप्रतिपादितः सन् प्राणिनां सर्वेषां देहमाश्रितोऽन्तःप्रविष्टः प्राणापानाभ्यां तदुद्दीपकाभ्यां संयुक्तः संधुक्षितः सन् पचामि पक्तिं नयामि। प्राणिभिर्भुक्तमन्नं चतुर्विधं भक्ष्यं भोज्यं लेह्यं चोष्यं चेति। तत्र यद्दन्तैरवखण्ड्यावखण्ड्य भक्ष्यतेऽपूपादि तद्भक्ष्यं चर्व्यमिति चोच्यते। यत्तु केवलं जिह्वया विलोड्य निगीर्यते सूपौदनादि तद्भोज्यम्। यत्तु जिह्वायां निक्षिप्य रसास्वादेन निगीर्यते किंच द्रवीभूतगुडरसालशिखरिण्यादि तल्लेह्यम्। यत्तु दन्तैर्निष्पीड्य रसांशं निगीर्यावशिष्टं त्यज्यते यथेक्षुदण्डादि तच्चोष्यमिति भेदः। भोक्ता यः सोऽग्निर्वैश्वानरो यद्भोज्यमन्नं स सोमस्तदेतदुभयमग्नीषोमौ सर्वमिति ध्यायतोऽन्नदोषलेपो न भवतीत्यपि द्रष्टव्यम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।15.14।।ततस्तेषां पोषार्थमेव तद्भक्षितमन्नं पचामीत्याह -- अहमिति। अहं वैश्वानरो जाठराग्निरूपो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितोऽन्तःप्रविष्टः सन् प्राणापानाभ्यां तदुद्दीपकाभ्यां युक्तश्चतुर्विधमन्नं भुक्तं भक्ष्यं भोज्यं लेह्यं चोष्यं पचामि।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।15.14।। -- अहमेव वैश्वानरः उदरस्थः अग्निः भूत्वा -- अयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते (बृ0 उ0 5।9।1) इत्यादिश्रुतेः वैश्वानरः सन् प्राणिनां प्राणवतां देहम् आश्रितः प्रविष्टः प्राणापानसमायुक्तः प्राणापानाभ्यां समायुक्तः संयुक्तः पचामि पक्तिं करोमि अन्नम् अशनं चतुर्विधं चतुष्प्रकारं भोज्यं भक्ष्यं चोष्यं लेह्यं च। भोक्ता वैश्वानरः अग्निः? अग्नेः भोज्यम् अन्नं सोमः? तदेतत् उभयम् अग्नीषोमौ सर्वम् इति पश्यतः अन्नदोषलेपः न भवति।।किं च --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।15.14।।किञ्च अहं वैश्वानर इति।वैश्वांनरः साधारणशब्दविशेषात् [ब्र.सू.1।2।24] इति सूत्रेषु श्रौतपदनिदर्शनार्थमुक्तम्। स्वस्यैव व्यापकतानिर्देशेन च नामरूपात्मतामाह -- वैश्वानरो वागधिपतिर्जाठरोऽहं? तत्र कार्यमाह पचामीति। तैर्भुक्तं भक्ष्यभोज्यलेह्यपेयात्मकं चतुर्विधमन्नं प्राणापाननिर्दिष्टव्यक्तिभेदसंयुक्तः पचामि। अत्र परमपुरुषविभूतिरूपाः सूर्यसोमवैश्वानरोऽहं रविः सोमोऽन्तर्वैश्वानरो भूत्वेति सामानाधिकरण्येन निर्दिष्टाः।


Chapter 15, Verse 14