Chapter 14, Verse 25

Text

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।14.25।।

Transliteration

mānāpamānayos tulyas tulyo mitrāri-pakṣhayoḥ sarvārambha-parityāgī guṇātītaḥ sa uchyate

Word Meanings

māna—honor; apamānayoḥ—dishonor; tulyaḥ—equal; tulyaḥ—equal; mitra—friend; ari—foe; pakṣhayoḥ—to the parties; sarva—all; ārambha—enterprises; parityāgī—renouncer; guṇa-atītaḥ—risen above the three modes of material nature; saḥ—they; uchyate—are said to have


Translations

In English by Swami Adidevananda

He who is the same in honor and dishonor, and the same to friend and foe, and who has abandoned all enterprises—he is said to have risen above the Gunas.

In English by Swami Gambirananda

He who is the same under honor and dishonor, who is equitably disposed towards both friends and foes, who has renounced all undertakings—he is said to have gone beyond dualities.

In English by Swami Sivananda

Who is the same in honor and dishonor, the same to friend and foe, abandoning all undertakings, he is said to have transcended the dualities.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Who remains equal to honor and dishonor, and equal to the sides of both the friend and the foe; and who has given up all fruits of his actions—he is said to have transcended the bonds.

In English by Shri Purohit Swami

Who looks equally upon honor and dishonor, loves friends and foes alike, and abandons all initiative, such is he who transcends the qualities.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।14.25।।जो धीर मनुष्य सुख-दुःखमें सम तथा अपने स्वरूपमें स्थित रहता है; जो मिट्टीके ढेले, पत्थर और सोनेमें सम रहता है जो प्रिय-अप्रियमें तथा अपनी निन्दा-स्तुतिमें सम रहता है जो मान-अपमानमें तथा मित्र-शत्रुके पक्षमें सम रहता है; जो सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।14.25।। जो मान और अपमान में सम है; शत्रु और मित्र के पक्ष में भी सम है, ऐसा सर्वारम्भ परित्यागी पुरुष गुणातीत कहा जाता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

14.25 मानापमानयोः in honour and dishonour? तुल्यः the same? तुल्यः the same? मित्रारिपक्षयोः to friend and foe? सर्वारम्भपरित्यागी abandoning all undertakings? गुणातीतः crossed the Gunas? सः he? उच्यते is said.Commentary He keeps a balanced mind in honour and dishonour. He is the same to friend and foe. He is not affected by the dual throng. He has risen above the Gunas. He rests in his own essential nature as ExistenceKnowledgeBliss Absolute. He abids in his own Self. He is a Gunatita (one who has transcended the alities of Nature) who is not affected by the play of the alities. He keeps an even outlook amidst changes. He maintains a clam eilibrium.He abandons all actions that can bring visible or invisible fruits or results but he does actions that are necessary for the bare maintenance of his body. The alities described in verses 23? 24 and 25? such as indifference? etc.? are the means for attaining liberation. They represent the ideal that you should have before you. The aspirant should cultivate them. But one attains knowledge of the Self when he abides in his own true nature. These attributes form part and parcel of his nature and serve as marks to indicate that he has crossed beyond the three alities.The Lord gives in the following verse the answer to the third estion of Arjuna How does one go beyond the three alities

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।14.25।। व्याख्या --   धीरः? समदुःखसुखः -- नित्यअनित्य? सारअसार आदिके तत्त्वको जानकर स्वतःसिद्ध स्वरूपमें स्थित होनेसे गुणातीत मनुष्य धैर्यवान् कहलाता है।पूर्वकर्मोंके अनुसार आनेवाली अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिका नाम सुखदुःख है अर्थात् प्रारब्धके अनुसार शरीर? इन्द्रियों आदिके अनुकूल परिस्थितिको सुख कहते हैं और शरीर? इन्द्रियों आदिके प्रतिकूल परिस्थितिको दुःख कहते हैं। गुणातीत मनुष्य इन दोनोंमें सम रहता है। तात्पर्य है कि सुखदुःखरूप बाह्य परिस्थितियाँ उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणमें विकार पैदा नहीं कर सकतीं? उसको सुखीदुःखी नहीं कर सकतीं।स्वस्थः -- स्वरूपमें सुखदुःख है ही नहीं। स्वरूपसे तो सुखदुःख प्रकाशित होते हैं। अतः गुणातीत मनुष्य आनेजानेवाले सुखदुःखका भोक्ता नहीं बनता? प्रत्युत अपने नित्यनिरन्तर रहनेवाले स्वरूपमें स्थिर रहता है।समलोष्टाश्मकाञ्चनः -- उसका मिट्टीके ढेले? पत्थर और स्वर्णमें न तो आकर्षण (राग) होता है और न विकर्षण (द्वेष) होता है। परन्तु व्यवहारमें वह ढेलेको ढेलेकी जगह रखता है? पत्थरको पत्थरकी जगह रखता है और स्वर्णको स्वर्णकी जगह (तिजोरी आदिमें) रखता है। तात्पर्य है कि यद्यपि उनकी प्राप्तिअप्राप्तिमें उसको हर्षशोक नहीं होते? वह सम रहता है? तथापि उनसे व्यवहार तो यथायोग्य ही करता है।ढेले? पत्थर और स्वर्णका ज्ञान न होना समता नहीं कहलाती। समता वही है कि इन तीनोंका ज्ञान होते हुए भी इनमें रागद्वेष न हों। ज्ञान कभी दोषी नहीं होता? विकार ही दोषी होते हैं।तुल्यप्रियाप्रियः -- क्रियमाण कर्मोंकी सिद्धिअसिद्धिमें अर्थात् उनके तात्कालिक फलकी प्राप्तिअप्राप्तिमें भी वह सम रहता है।तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः -- निन्दा और स्तुतिमें नामकी मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्यका नामके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता अतः कोई निन्दा करे तो उसके चित्तमें खिन्नता नहीं होती और कोई स्तुति करे तो उसके चित्तमें प्रसन्नता नहीं होती। इसी प्रकार निन्दा करनेवालोंके प्रति उसका द्वेष नहीं होता और स्तुति करनेवालोंके प्रति उसका राग नहीं होता।साधारण मनुष्योंकी यह एक आदत बन जाती है कि उनको अपनी निन्दा बुरी लगती है और स्तुति अच्छी लगती है। परन्तु जो गुणोंसे ऊँचे उठ जाते हैं? उनको निन्दास्तुतिका ज्ञान तो होता है और वे बर्ताव भी सबके साथ यथोचित ही करते हैं? पर उनमें निन्दास्तुतिको लेकर खिन्नताप्रसन्नता नहीं होती। कारण कि वे जिस तत्त्वमें स्थित हैं? वहाँ गुणोंवाली परकृत निन्दास्तुति पहुँचती ही नहीं।निन्दा और स्तुति -- ये दोनों ही परकृत क्रियाएँ हैं। उन क्रियाओंसे राजीनाराज होना गलती है। कारण कि जिसका जैसा स्वभाव है? जैसी धारणा है? वह उसके अनुसार ही बोलता है। वह हमारे अनुकूल ही बोले? हमारी निन्दा न करे -- यह न्याय नहीं है अर्थात् उसको बोलनेमें बाध्य करनेका भाव न्याय नहीं है? अन्याय है। दूसरोंपर हमारा क्या अधिकार है कि तुम हमारी निन्दा मत करो हमारी स्तुति ही करो दूसरी बात? कोई निन्दा करता है तो उसमें साधकको प्रसन्न होना चाहिये कि इससे मेरे पाप कट रहे हैं? मैं शुद्ध हो रहा हूँ। अगर कोई हमारी प्रशंसा करता है? तो उससे हमारे पुण्य नष्ट होते हैं। अतः प्रशंसामें राजी नहीं होना चाहिये क्योंकि राजी होनेमें खतरा हैमानापमानयोस्तुल्यः -- मान और अपमान होनेमें शरीरकी मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्यका शरीरके साथ तादात्म्य नहीं रहता। अतः कोई उसका आदर करे या निरादर करे? मान करे या अपमान करे? इन परकृत क्रियाओंका उसपर कोई असर नहीं पड़ता।निन्दास्तुति और मानअपमान -- इन दोनों ही परकृत क्रियाओंमें गुणातीत मनुष्य सम रहता है। इन दोनों परकृत क्रियाओंका ज्ञान होना दोषी नहीं है? प्रत्युत निन्दा और अपमानमें दुःखी होना तथा स्तुति और मानमें हर्षित होना दोषी है क्योंकि ये दोनों ही प्रकृतिके विकार हैं। गुणातीत पुरुषको निन्दास्तुति और मानअपमानका ज्ञान तो होता है? पर गुणोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेसे? नाम और शरीरके साथ तादात्म्य न रहनेसे वह सुखीदुःखी नहीं होता। कारण कि वह जिस तत्त्वमें स्थित है? वहाँ ये विकार नहीं हैं। वह तत्त्व गुणरहित है? निर्विकार है।तुल्यो मित्रारिपक्षयोः -- वह मित्र और शत्रुके पक्षमें सम रहता है। यद्यपि गुणातीत मनुष्यकी दृष्टिमें कोई मित्र और शत्रु नहीं होता? तथापि दूसरे लोग अपनी भावनाके अनुसार उसे अपना मित्र अथवा शत्रु भी मान सकते हैं। साधारण मनुष्यको भी दूसरे लोग अपनी भावनाके अनुसार मित्र या शत्रु मान सकते हैं किन्तु इस बातका पता लगनेपर उस मनुष्यपर इसका असर पड़ता है? जिससे उसमें रागद्वेष उत्पन्न हो सकते हैं। परन्तु गुणातीत मनुष्यपर इस बातका पता लगनेपर भी कोई असर नहीं पड़ता। वस्तुतः मित्र और शत्रुकी भावनाके कारण ही व्यवहारमें पक्षपात होता है। गुणातीत मनुष्यके कहलानेवाले अन्तःकरणमें मित्रशत्रुकी भावना ही नहीं होती अतः उसके व्यवहारमें पक्षपात नहीं होता।एक व्यक्ति उस महापुरुषके साथ मित्रता रखता है और दूसरा व्यक्ति अपने स्वभाववश उस महापुरुषके साथ शत्रुता रखता है। जब उन दोनों व्यक्तियोंकी किसी बातको लेकर न्याय करनेका अवसर आ जाय? तब (व्यवहारमें) वह मित्रता रखनेवालेकी अपेक्षा शत्रुता रखनेवालेका कुछ अधिक पक्ष लेता है। जैसे -- पदार्थादिका बँटवारा करते समय वह मित्रता रखनेवालेको कम (उतना ही? जितना वह प्रसन्नतापूर्वक सहन कर सकता हो) और शत्रुता रखनेवालोंको कुछ ज्यादा पदार्थ देता है। यह भी समता ही कहलाती है क्योंकि अपने पक्षवालोंके साथ न्याय और विपक्षवालोंके साथ उदारता होनी चाहिये।सर्वारम्भपरित्यागी -- वह महापुरुष सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी होता है। तात्पर्य है कि धनसम्पत्तिके संग्रह और भोगोंके लिये वह किसी तरहका कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता। स्वतः प्राप्त परिस्थितिके अनुसार ही उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है अर्थात क्रियाओंमें उसकी प्रवृत्ति कामना? वासना? ममतासे रहित होती है और निवृत्ति भी मानबड़ाई आदिकी इच्छासे रहित होती है।गुणातीतः स उच्यते -- यहाँ उच्यते पदसे यही ध्वनि निकलती है कि उस महापुरुषकी गुणातीत संज्ञा नहीं है किन्तु उसके कहे जानेवाले शरीर? अन्तःकरणके लक्षणोंको लेकर ही उसको गुणातीत कहा जाता है।वास्तवमें देखा जाय तो जो गुणातीत है? उसके लक्षण नहीं हो सकते। लक्षण तो गुणोंसे ही होते हैं अतः जिसके लक्षण होते हैं? वह गुणातीत कैसे हो सकता है परन्तु अर्जुनने भी गुणातीतके ही लक्षण पूछे हैं और भगवान्ने भी गुणातीतके ही लक्षण कहे हैं। इसका तात्पर्य यह है कि लोग पहले उस गुणातीतकी जिस शरीर और अन्तःकरणमें स्थिति मानते थे? उसी शरीर और अन्तःकरणके लक्षणोंको लेकर वे उसमें आरोप करते हैं कि यह गुणातीत मनुष्य है। अतः ये लक्षण गुणातीत मनुष्यको पहचाननेके संकेतमात्र हैं।प्रकृतिके कार्य गुण हैं और गुणोंके कार्य शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि हैं। अतः मनबुद्धि आदिके द्वारा अपने कारण गुणोंका भी पूरा वर्णन नहीं हो सकता? फिर गुणोंके भी कारण प्रकृतिका वर्णन हो ही कैसे सकता है जो प्रकृतिसे भी सर्वथा अतीत (गुणातीत) है? उसका वर्णन करना तो उन मनबुद्धि आदिके द्वारा सम्भव ही नहीं है। वास्तवमें गुणातीतके ये लक्षण स्वरूपमें तो होते ही नहीं किन्तु अन्तःकरणमें मानी हुई अहंताममताके नष्ट हो जानेपर उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणके माध्यमसे ही ये लक्षण -- गुणातीतके लक्षण कहे जाते हैं।यहाँ भगवान्ने सुखदुःख? प्रियअप्रिय? निन्दास्तुति और मानअपमान -- ये आठ परस्पर विरुद्ध नाम लिये हैं? जिनमें साधारण आदमियोंकी तो विषमता हो ही जाती है? साधकोंकी भी कभीकभी विषमता हो जाती है। ऐसे इन आठ कठिन स्थलोंमें जिसकी समता हो जाती है? उसके लिये अन्य सभी अवस्थाओंमें समता रखना सुगम हो जाता है। अतः यहाँ उन्हीं आठ कठिन स्थलोंका नाम लेकर भगवान् यह बताते हैं कि गुणातीत महापुरुषकी इन आठों स्थलोंमें स्वतःस्वाभाविक समता होती है।गुणातीत मनुष्यकी जो स्वतःसिद्ध निर्विकारता है? उसकी जो स्वाभाविक स्थिति है? उसमें अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेजानेका कुछ भी फरक नहीं पड़ता। उसकी निर्विकारता? समता ज्योंकीत्यों अटल रहती है। उसकी शान्ति कभी भङ्ग नहीं होती।[चौबीसवें और पचीसवें -- इन दो श्लोकोंमें भगवान्ने गुणातीत महापुरुषकी समताका वर्णन किया है।] सम्बन्ध --   अर्जुनने तीसरे प्रश्नके रूपमें गुणातीत होनेका उपाय पूछा था। उसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।14.25।। पूर्वोक्त श्लोकों में चित्रित किये गये त्रिगुणातीत पुरुष के सामान्य चित्र को यहाँ और अधिक स्पष्ट किया गया है? जिससे हम उसका समीप से सूक्ष्म अवलोकन कर सकें।मान और अपमान में सम रहना ज्ञानी पुरुष का लक्षण है। अपने दिव्य स्वरूप में दृढ़ निष्ठा प्राप्त किया हुआ पुरुष जीवन से भयभीत नहीं होता? क्योंकि जगत् की ओर देखने का उसका दृष्टिकोण अज्ञानियों से सर्वथा भिन्न होता है। जीवन का अहंकार केन्द्रित मूल्यांकन हमें मान और अपमान को क्रमश उपादेय (स्वीकार्य) और हेय (त्याज्य) मानने को बाध्य करता है।लौकिक जीवन में भी हम देखते हैं कि देश के लिये प्राणोत्सर्ग करने वाले पुरुष ऐसी स्थिति की कामना करते हैं जिसे अन्य लोग अपमान जनक समझते हैं। परन्तु समाज के मान और अपमान की ओर ध्यान दिये बिना ऐसे लोग पूर्ण उत्साह के साथ अपनी पीढ़ी से प्रेम और उसकी सेवा करते हैं। आपेक्षिक सिद्धान्त की खोज के दिन आर्कमिडीज को विवस्त्र स्थिति में सड़क पर यूरेका? यूरेका चिल्लाते हुये दौड़ने में अपमान का अनुभव नहीं हुआ? परन्तु किसी और दिन यह बात नहीं होती मान और अपमान बुद्धि के निर्णय हैं? जो स्थानस्थान पर और समयसमय पर बदलते रहते हैं। जो पुरुष अहंकार के स्तर से ऊंचा उठ गया है? उसे दोनों ही समान हैं? कांटो के मुकुट का उतना ही स्वागत है? जितना गुलाब के फूलों के मुकुट काशत्रु और मित्र के पक्षों में सम जैसे हम अपने शरीर के किसी अंग को शत्रु और किसी अंग को मित्र नहीं मानते? वैसे ही आत्मैकत्व ज्ञान प्राप्त पुरुष भी किसी से मित्रता या शत्रुता नहीं रखता। तथापि अन्य लोग उससे अवश्य ही मित्र या शत्रु भाव रख सकते हैं? किन्तु वह दोनों के प्रति समान भाव से रहता है। आत्मानुभव की दृष्टि से ज्ञानी पुरुष जानता है वे सब मैं ही हूँ।सर्वारम्भ परित्यागी आरंभ का अर्थ है कर्म। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि त्रिगुणातीत पुरुष क्रियाशून्य हो जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि उसे अपने कर्मों में न कर्तृत्व का अभिमान होता है और न स्वार्थ का। आरम्भ शब्द में वे सब कर्म समाविष्ट हैं? जो अनेक वस्तुओं के अर्जन और संग्रह करने तथा उनपर अपना स्वामित्य स्थापित करने के लिये अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। अज्ञानी जीव के लिये ये कर्म स्वाभाविर्क हैं। अहंकार रहित आत्मज्ञानी पुरुष ईश्वर से अनुप्राणित होकर ईश्वरीय पुरुष के रूप में इस जगत् में कल्याणार्थ कार्य करता है।उपर्युक्त लक्षणों से पुरुष गुणातीत कहा जाता है। इन श्लोकों में अर्जुन के द्वितीय प्रश्न का उत्तर दिया गया है।श्री शंकराचार्य अपने भाष्य में लिखते हैं कि मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक साधक को इन गुणों को साधन के रूप में अपनाना चाहिये। एक बार ज्ञान में निष्ठा प्राप्त कर लेने पर ये गुण उसके स्वाभाविक लक्षण बन जायेंगे? जो स्वसंवेद्य होते हैं। गुणातीत पुरुष के ये मुख्य लक्षण हैं।अर्जुन का तीसरा प्रश्न यह था? किस प्रकार वह तीनों गुणों से अतीत होता है इसका उत्तर देते हुये भगवान् कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।14.25।।इतश्च गुणातीतः शक्यो ज्ञातुमित्याह -- किञ्चेति। मानः सत्कारस्तिरस्कारोऽपमानः। परदृष्ट्या यौ सखिशत्रू तयोः पक्षयोर्निर्विशेषो न कस्यचित्पक्षे तिष्ठतीत्याह -- तुल्य इति। विदुषो मित्रादिबुद्ध्यभावात्तुल्यो मित्रारिपक्षयोरित्ययुक्तमित्याशङ्क्याह -- यद्यपीति। सर्वकर्मत्यागे देहधारणमपि निमित्ताभावान्न स्यादित्याशङ्क्याह -- देहेति। उक्तविशेषणो गुणातीतो ज्ञातव्य इत्याह -- गुणेति। यदुक्तमुपेक्षकत्वादि तद्विद्योदयात्पूर्वं यत्नसाध्यं विद्याधिकारिणा ज्ञानसाधनत्वेनानुष्ठेयमुत्पन्नायां तु विद्यायां जीवन्मुक्तस्योक्तधर्मजातं स्थिरीभूतं स्वानुभवसिद्धलक्षणत्वेन तिष्ठतीत्युक्ते धर्मजाते विभागं दर्शयति -- उदासीनवदित्यादिना।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।14.25।।मानः सत्कारोऽपमानस्तिरस्कास्तयोर्मानापामानयोस्तुल्यः समो निर्विकारः परदृष्ट्या यौ मित्रशत्रू तयोः पक्षयोस्तुल्यो न कस्यचित्पक्षं भजतीत्यर्थः। दृष्टादृष्टार्थानि कर्माण्यारभ्यन्त इत्यारम्भास्तान्सर्वारम्भांस्त्यक्तुं शीलं यस्येति देहधारणमात्रनिमित्तव्यतिरेकेण सर्वारम्भपरित्यागीत्यर्थः। एतोदृशो यः स गुणातीति उच्यते सर्वारम्भपरित्यागीत्येतदन्तं यावद्यन्त्रसाध्यं तावद्गुणातीतत्वासाधनं विरक्तेन मुमुक्षुणानुष्ठेयं स्थिरीभूतं तु जीवन्मुक्तस्य गुणातीतस्य स्वभावभूतत्वादयन्त्रसिद्धं लक्षणं भवति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।14.24 -- 14.25।।तुल्यत्वार्थ उक्तः पुरस्तात्।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।14.25।।अथ चतुर्थ्यां भूमौ सत्त्वापत्तिसंज्ञायां स्थितस्य योगिनः समाधिसुखाभावेन स्वसंवेद्यलिङ्गाभावात्तत्त्वनिश्चयेन द्वैतस्य बाधाल्लिङ्गमाचारश्च परसंवेद्य एव तदाह -- मानेति। यथाहि परीक्षकः कूटकार्षापणस्य लाभे विनाशे वा हर्षविषादशून्यो न च तल्लाभार्थं यत्नमारभते? मूढस्तु ताभ्यां बाध्यते तल्लाभार्थं यत्नं चारभते? एवं विद्वान् द्वैतं मरुमरीचिकाह्रदसमानं पश्यन् तत्र मानापमानयोर्वा मित्रारिपक्षयोर्वा तुल्य एव नत्वन्यतरलाभाय परिहाराय वा यत्नमारभते अतो गुणातीत इत्युच्यते। सर्वत्र पदार्थः स्पष्टः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।14.25 ।।समदुःखसुखः दुःखसुखयोः समः चित्तः स्वस्थः स्वस्मिन् स्थितः स्वात्मैकप्रियत्वेन तद्व्यतिरिक्तपुत्रादिजन्ममरणादिसुखदुःखयोः समचित्त इत्यर्थः।।तत एव समलोष्टाश्मकाञ्चनः? तत एव च तुल्यप्रियाप्रियः तुल्यप्रियाप्रियविषयः।। धीरः प्रकृत्यात्मविवेककुशलः? तत एव तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः आत्मनि मनुष्यत्वाद्यभिमानकृतगुणागुणनिमित्तस्तुतिनिन्दयोः स्वासंबन्धानुसंधानेन तुल्यचित्तः? तत्प्रयुक्तमानापमानयोः तत्प्रयुक्तमित्रारिपक्षयोः अपि स्वसंबन्धाभावाद् एव तुल्यचित्तः? तथा देहित्वप्रयुक्तसर्वारम्भपरित्यागी य एवंभूतः स गुणातीत उच्यते।अथ एवं रूपगुणात्यये प्रधानहेतुम् आह --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।14.25।।अपिच -- मानापमानयोरिति। मानेऽपमाने च तुल्यः? मित्रपक्षेऽरिपक्षे च तुल्यः? सर्वान्दृष्टादृष्टार्थानारम्भानुद्यमान्परित्यक्तुं शीलं यस्य। स एवंभूताचारयुक्तो गुणातीत उच्यते।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 14.25 समदुःखसुखत्वादिकं प्रागेव सुशिक्षितम्? स्वस्थशब्देन विकारराहित्यगुणाननुविधानादिमात्रप्रतिपादनं पुनरुक्तम् आत्मनिष्ठताविधानं तु बहुविधसमचित्तताप्रतिपादने हेतुतयोपयुक्तमित्यभिप्रायेणाहस्वस्मिन् स्थित इति। तदभिप्रेतमाहस्वात्मैकप्रियत्वेनेति। सुखदुःखप्रियाप्रियादिशब्दानामनतिभिन्नार्थानामपि लोकव्यवहारच्छायया पुनरुक्तिः परिहृता।तत एवस्वस्थत्वादेवेत्यर्थः। प्रियाप्रियोपनतावक्षोभ्यत्वादेस्तुल्यप्रियाप्रियादिशब्दैः सिद्धत्वादत्र विवक्षितं धीविशेषवत्त्वलक्षणं धीरत्वं निन्दास्तुतिसाम्यादौ यथा हेतुर्भवति? तथा विशिनष्टिप्रकृत्यात्मविवेककुशल इति।धीरः इत्यन्तैरान्तरलक्षणान्युक्तानि। अथ बाह्याचारलिङ्गप्रश्नोत्तरमित्यभिप्रायेणाहतत एव तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिरिति।समदुःखः इत्यादिकं बाह्यलिङ्गपरमिति केचित्। स्तुतिनिन्दे हि गुणदोषख्यापनरूपे तत्र विविक्तात्मदर्शिनो देहगतैः सौन्दर्यवैरूप्यादिगुणदोषैः स्तुतिनिन्दाप्रवृत्तौ परस्तुतिनिन्दयोरिव न प्रीत्यादिसम्भव इत्याह -- आत्मनीति।मूर्खाः पूजितपूजकाः (लोकः पूजितपूजकः) [म.भा.5।33।55] इति न्यायेन लौकिकाः स्तुवन्तं मानयन्ति? निन्दकमवमन्यन्ते मानावमानप्रकाराश्च लोकव्यवहारतः शास्त्रतश्च सिद्धाः। तत्रमानयितारो मित्राणि भवन्ति? अवमन्तारस्त्वरयः इति लोकदृष्टक्रमविवक्षामाह -- तत्प्रयुक्तेति। वाचिकस्तुतिनिन्दयोः पृथगुपादानादत्र मानावमानशब्दौ मानसकायिकविषयौ। समबुद्धेरपि गुणातीतस्य परबुद्धिकल्पितौ मित्रारिपक्षौ विद्येते। आरभ्यत इत्यारम्भः कर्म? कृतप्रतिकृतादिरूपः। अपवर्गार्थारम्भव्यवच्छेदायाहदेहित्वप्रयुक्तेति? सांसारिकसर्वारम्भपरित्यागीत्यर्थः। एतदेव बाह्याचारलिङ्गम्। आन्तरैरद्वेषादिभिर्बाह्यैरारम्भपरित्यागादिभिश्च गुणातीतो लक्ष्यते। त एव च गुणात्ययोपाया इति प्रश्नत्रयं प्रत्युक्तं भवति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।14.23 -- 14.25।।अत एवाह -- उदासीनवदित्यादि उच्यते इत्यन्तम्। यः अज्ञो निर्विवेकस्तिष्ठति स एव ज्ञः? सम्यग्ज्ञानात्। तथा हि नेङ्गते न स्वरूपात् च्यवते। अत्र चोपायः शरीरेन्द्रियादिस्वभाव (S??N चोपायः सर्वेषामारंभाणां शरीरारंभकेन्द्रियादि -- ) एषः? यत् प्रवर्तनम् (N प्रवर्तते) ? न तु फलं किंचिदहमभिसन्दधे इति स्थिरा बुद्धिः (N स्थिरबुद्धिः)।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।14.24 -- 14.25।।समदुःखसुखः [14।24] इत्यादिना सर्वथा सुखादौ तुल्यत्वबुद्धिरुच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह -- तुल्यत्वेति। तुल्यत्ववाचिनः शब्दस्यार्थ इत्यर्थः। प्रायः सर्वानित्याद्युक्तरीत्येति भावः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।14.25।।मानः सत्कार आदरापरपर्यायः? अपमानस्तिरस्कारोऽनादरापरपर्यायस्तयोस्तुल्यो हर्षविषादशून्यो निन्दास्तुती शब्दरूपे मानापमानौ तु शब्दमन्तरेणापि कायमनोव्यापारविशेषाविति भेदः। अत्र पकारवकारयोः पाठविकल्पेऽप्यर्थः स एव। तुल्यो मित्रारिपक्षयोर्मित्रपक्षस्येवारिपक्षस्यापि द्वेषाविषयः स्वयं तयोरनुग्रहनिग्रहशून्य इति वा। सर्वारम्भपरित्यागी आरभ्यन्त इत्यारम्भाः कर्माणि तान्सर्वान्परित्यक्तुं शीलं यस्य स तथा।,देहयात्रामात्रव्यतिरेकेण सर्वकर्मपरित्यागीत्यर्थः। उदासीनवदासीन इत्याद्युक्तप्रकाराचारो गुणातीतः स उच्यते। यदुक्तमुपेक्षकत्वादि तद्विद्योदयात्पूर्वं यत्नसाध्यं विद्याधिकारिणा साधनत्वेनानुष्ठेयमुत्पन्नायां तु विद्यायां जीवन्मुक्तस्य गुणातीतस्योक्तं धर्मजातमयत्नसिद्धं लक्षणत्वेन तिष्ठतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।14.25।।किञ्च मानापमानयोस्तुल्यः भगवत्कृतमानापमानयोः स्वीयत्वेन कृतत्वात्तुल्यः। तुल्यो मित्रारिपक्षयोः? भगवदीयेन तदीयत्वेन? मित्रपक्षे कृते तुल्यः भगवदीयभावेन अरिपक्षे आसुरैर्भगवदीयत्वेन विचारिते भगवदीयत्वेन तथा विचारयन्तीति तेषामुचितमेवेति तद्दोषाविचारकत्वात्तुल्यः। सर्वारम्भपरित्यागी सर्वेषां पदार्थानामारम्भानां दृष्टप्रत्ययानां परित्यजनशीलवान्। एवमाचारवान् यः सगुणातीत उच्येते? कथ्यत इत्यर्थः। ,

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।14.25।। --,मानापमानयोः तुल्यः समः निर्विकारः तुल्यः मित्रारिपक्षयोः? यद्यपि उदासीना भवन्ति केचित् स्वाभिप्रायेण? तथापि पराभिप्रायेण मित्रारिपक्षयोरिव भवन्ति इति तुल्यो मित्रारिपक्षयोः इत्याह। सर्वारम्भपरित्यागी? दृष्टादृष्टार्थानि कर्माणि आरभ्यन्ते इति आरम्भाः? सर्वान् आरम्भान् परित्यक्तुं शीलम् अस्य इति सर्वारम्भपरित्यागी? देहधारणमात्रनिमित्तव्यतिरेकेण सर्वकर्मपरित्यागी इत्यर्थः। गुणातीतः सः उच्यते।।उदासीनवत् (गीता 14।23) इत्यादि गुणातीतः स उच्यते (गीता 14।25) इत्येतदन्तम् उक्तं यावत् यत्नसाध्यं तावत् संन्यासिनः अनुष्ठेयं गुणातीतत्वसाधनं मुमुक्षोः स्थिरीभूतं तु स्वसंवेद्यं सत् गुणातीतस्य यतेः लक्षणं भवति इति। अधुना कथं च त्रीन्गुणानतिवर्तते इत्यस्य प्रश्नस्य प्रतिवचनम् आह --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।14.25।।मानापमानयोरिति। देहित्वप्रयुक्तसर्वारम्भपरित्यागी च यः? एवम्भूतः स गुणातीत उच्यते ज्ञानमार्गीयः।


Chapter 14, Verse 25