समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।14.24।।
sama-duḥkha-sukhaḥ sva-sthaḥ sama-loṣhṭāśhma-kāñchanaḥ tulya-priyāpriyo dhīras tulya-nindātma-sanstutiḥ
sama—alike; duḥkha—distress; sukhaḥ—happiness; sva-sthaḥ—established in the self; sama—equally; loṣhṭa—a clod; aśhma—stone; kāñchanaḥ—gold; tulya—of equal value; priya—pleasant; apriyaḥ—unpleasant; dhīraḥ—steady; tulya—the same; nindā—blame; ātma-sanstutiḥ—praise;
He who is alike in pleasure and pain, who dwells in his Self, who looks upon a clod, a stone, and a piece of gold as of equal value, who remains the same towards things dear and hateful, and who is intelligent, who regards both blame and praise of himself as equal.
He to whom sorrow and happiness are alike, who is established in his own Self, to whom a lump of earth, iron, and gold are the same, to whom the agreeable and the disagreeable are the same, who is wise, to whom censure and his own praise are the same;
Who is the same in pleasure and pain, who dwells in the Self, to whom a clod of earth, a stone, and gold are all alike, who is the same to the dear and the unfriendly, who is firm, and to whom censure and praise are one and the same.
To whom pain, pleasure, and sleep are all the same; to whom a cold, a stone, and a lump of gold are all the same; to whom both the pleasant and unpleasant things are equal; who is firm-minded; to whom blame and personal commendation are equal.
Who accepts pain and pleasure as they come, is centered in their Self, to whom a piece of clay, stone, or gold are all the same, who neither likes nor dislikes, who is steadfast, indifferent alike to praise or censure;
।।14.24।।जो धीर मनुष्य सुख-दुःखमें सम तथा अपने स्वरूपमें स्थित रहता है; जो मिट्टीके ढेले, पत्थर और सोनेमें सम रहता है जो प्रिय-अप्रियमें तथा अपनी निन्दा-स्तुतिमें सम रहता है; जो मान-अपमानमें तथा मित्र-शत्रुके पक्षमें सम रहता है जो सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।
।।14.24।। जो स्वस्थ (स्वरूप में स्थित), सुख-दु:ख में समान रहता है तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समदृष्टि रखता है; ऐसा वीर पुरुष प्रिय और अप्रिय को तथा निन्दा और आत्मस्तुति को तुल्य समझता है।।
14.24 समदुःखसुखः alike in pleasure and pain? स्वस्थः standing in his own Self? समलोष्टाश्मकाञ्चनः regarding a clod of earth? a stone and gold alike? तुल्यप्रियाप्रियः the same to the dear and the undear? धीरः firm? तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः the same in censure and praise. Commentary Night and day have no meaning to a post fixed in the ground. Even so pleasure and pain have no meaning to a sage who dwells in his own Self. He is above the pairs of opposites. In his eyes cowdung or gold? a jewel or a stone? are of eal value. He is free from the idea of,giving and taking. His mind is not perturbed by anything pleasant or unpleasant. He is the same towards agreeable and disagreeable things. Praise and censure cannot affect him. He stands adamant. He abides in his own essential state as ExistenceKnowledgeBliss Absolute. He is ever calm and serene. (Cf.V.18)
।।14.24।। व्याख्या -- धीरः? समदुःखसुखः -- नित्यअनित्य? सारअसार आदिके तत्त्वको जानकर स्वतःसिद्ध स्वरूपमें स्थित होनेसे गुणातीत मनुष्य धैर्यवान् कहलाता है।पूर्वकर्मोंके अनुसार आनेवाली अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिका नाम सुखदुःख है अर्थात् प्रारब्धके अनुसार शरीर? इन्द्रियों आदिके अनुकूल परिस्थितिको सुख कहते हैं और शरीर? इन्द्रियों आदिके प्रतिकूल परिस्थितिको दुःख कहते हैं। गुणातीत मनुष्य इन दोनोंमें सम रहता है। तात्पर्य है कि सुखदुःखरूप बाह्य परिस्थितियाँ उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणमें विकार पैदा नहीं कर सकतीं? उसको सुखीदुःखी नहीं कर सकतीं।स्वस्थः -- स्वरूपमें सुखदुःख है ही नहीं। स्वरूपसे तो सुखदुःख प्रकाशित होते हैं। अतः गुणातीत मनुष्य आनेजानेवाले सुखदुःखका भोक्ता नहीं बनता? प्रत्युत अपने नित्यनिरन्तर रहनेवाले स्वरूपमें स्थिर रहता है।समलोष्टाश्मकाञ्चनः -- उसका मिट्टीके ढेले? पत्थर और स्वर्णमें न तो आकर्षण (राग) होता है और न विकर्षण (द्वेष) होता है। परन्तु व्यवहारमें वह ढेलेको ढेलेकी जगह रखता है? पत्थरको पत्थरकी जगह रखता है और स्वर्णको स्वर्णकी जगह (तिजोरी आदिमें) रखता है। तात्पर्य है कि यद्यपि उनकी प्राप्तिअप्राप्तिमें उसको हर्षशोक नहीं होते? वह सम रहता है? तथापि उनसे व्यवहार तो यथायोग्य ही करता है।ढेले? पत्थर और स्वर्णका ज्ञान न होना समता नहीं कहलाती। समता वही है कि इन तीनोंका ज्ञान होते हुए भी इनमें रागद्वेष न हों। ज्ञान कभी दोषी नहीं होता? विकार ही दोषी होते हैं।तुल्यप्रियाप्रियः -- क्रियमाण कर्मोंकी सिद्धिअसिद्धिमें अर्थात् उनके तात्कालिक फलकी प्राप्तिअप्राप्तिमें भी वह सम रहता है।तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः -- निन्दा और स्तुतिमें नामकी मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्यका नामके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता अतः कोई निन्दा करे तो उसके चित्तमें खिन्नता नहीं होती और कोई स्तुति करे तो उसके चित्तमें प्रसन्नता नहीं होती। इसी प्रकार निन्दा करनेवालोंके प्रति उसका द्वेष नहीं होता और स्तुति करनेवालोंके प्रति उसका राग नहीं होता।साधारण मनुष्योंकी यह एक आदत बन जाती है कि उनको अपनी निन्दा बुरी लगती है और स्तुति अच्छी लगती है। परन्तु जो गुणोंसे ऊँचे उठ जाते हैं? उनको निन्दास्तुतिका ज्ञान तो होता है और वे बर्ताव भी सबके साथ यथोचित ही करते हैं? पर उनमें निन्दास्तुतिको लेकर खिन्नताप्रसन्नता नहीं होती। कारण कि वे जिस तत्त्वमें स्थित हैं? वहाँ गुणोंवाली परकृत निन्दास्तुति पहुँचती ही नहीं।निन्दा और स्तुति -- ये दोनों ही परकृत क्रियाएँ हैं। उन क्रियाओंसे राजीनाराज होना गलती है। कारण कि जिसका जैसा स्वभाव है? जैसी धारणा है? वह उसके अनुसार ही बोलता है। वह हमारे अनुकूल ही बोले? हमारी निन्दा न करे -- यह न्याय नहीं है अर्थात् उसको बोलनेमें बाध्य करनेका भाव न्याय नहीं है? अन्याय है। दूसरोंपर हमारा क्या अधिकार है कि तुम हमारी निन्दा मत करो हमारी स्तुति ही करो दूसरी बात? कोई निन्दा करता है तो उसमें साधकको प्रसन्न होना चाहिये कि इससे मेरे पाप कट रहे हैं? मैं शुद्ध हो रहा हूँ। अगर कोई हमारी प्रशंसा करता है? तो उससे हमारे पुण्य नष्ट होते हैं। अतः प्रशंसामें राजी नहीं होना चाहिये क्योंकि राजी होनेमें खतरा हैमानापमानयोस्तुल्यः -- मान और अपमान होनेमें शरीरकी मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्यका शरीरके साथ तादात्म्य नहीं रहता। अतः कोई उसका आदर करे या निरादर करे? मान करे या अपमान करे? इन परकृत क्रियाओंका उसपर कोई असर नहीं पड़ता।निन्दास्तुति और मानअपमान -- इन दोनों ही परकृत क्रियाओंमें गुणातीत मनुष्य सम रहता है। इन दोनों परकृत क्रियाओंका ज्ञान होना दोषी नहीं है? प्रत्युत निन्दा और अपमानमें दुःखी होना तथा स्तुति और मानमें हर्षित होना दोषी है क्योंकि ये दोनों ही प्रकृतिके विकार हैं। गुणातीत पुरुषको निन्दास्तुति और मानअपमानका ज्ञान तो होता है? पर गुणोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेसे? नाम और शरीरके साथ तादात्म्य न रहनेसे वह सुखीदुःखी नहीं होता। कारण कि वह जिस तत्त्वमें स्थित है? वहाँ ये विकार नहीं हैं। वह तत्त्व गुणरहित है? निर्विकार है।तुल्यो मित्रारिपक्षयोः -- वह मित्र और शत्रुके पक्षमें सम रहता है। यद्यपि गुणातीत मनुष्यकी दृष्टिमें कोई मित्र और शत्रु नहीं होता? तथापि दूसरे लोग अपनी भावनाके अनुसार उसे अपना मित्र अथवा शत्रु भी मान सकते हैं। साधारण मनुष्यको भी दूसरे लोग अपनी भावनाके अनुसार मित्र या शत्रु मान सकते हैं किन्तु इस बातका पता लगनेपर उस मनुष्यपर इसका असर पड़ता है? जिससे उसमें रागद्वेष उत्पन्न हो सकते हैं। परन्तु गुणातीत मनुष्यपर इस बातका पता लगनेपर भी कोई असर नहीं पड़ता। वस्तुतः मित्र और शत्रुकी भावनाके कारण ही व्यवहारमें पक्षपात होता है। गुणातीत मनुष्यके कहलानेवाले अन्तःकरणमें मित्रशत्रुकी भावना ही नहीं होती अतः उसके व्यवहारमें पक्षपात नहीं होता।एक व्यक्ति उस महापुरुषके साथ मित्रता रखता है और दूसरा व्यक्ति अपने स्वभाववश उस महापुरुषके साथ शत्रुता रखता है। जब उन दोनों व्यक्तियोंकी किसी बातको लेकर न्याय करनेका अवसर आ जाय? तब (व्यवहारमें) वह मित्रता रखनेवालेकी अपेक्षा शत्रुता रखनेवालेका कुछ अधिक पक्ष लेता है। जैसे -- पदार्थादिका बँटवारा करते समय वह मित्रता रखनेवालेको कम (उतना ही? जितना वह प्रसन्नतापूर्वक सहन कर सकता हो) और शत्रुता रखनेवालोंको कुछ ज्यादा पदार्थ देता है। यह भी समता ही कहलाती है क्योंकि अपने पक्षवालोंके साथ न्याय और विपक्षवालोंके साथ उदारता होनी चाहिये।सर्वारम्भपरित्यागी -- वह महापुरुष सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी होता है। तात्पर्य है कि धनसम्पत्तिके संग्रह और भोगोंके लिये वह किसी तरहका कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता। स्वतः प्राप्त परिस्थितिके अनुसार ही उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है अर्थात क्रियाओंमें उसकी प्रवृत्ति कामना? वासना? ममतासे रहित होती है और निवृत्ति भी मानबड़ाई आदिकी इच्छासे रहित होती है।गुणातीतः स उच्यते -- यहाँ उच्यते पदसे यही ध्वनि निकलती है कि उस महापुरुषकी गुणातीत संज्ञा नहीं है किन्तु उसके कहे जानेवाले शरीर? अन्तःकरणके लक्षणोंको लेकर ही उसको गुणातीत कहा जाता है।वास्तवमें देखा जाय तो जो गुणातीत है? उसके लक्षण नहीं हो सकते। लक्षण तो गुणोंसे ही होते हैं अतः जिसके लक्षण होते हैं? वह गुणातीत कैसे हो सकता है परन्तु अर्जुनने भी गुणातीतके ही लक्षण पूछे हैं और भगवान्ने भी गुणातीतके ही लक्षण कहे हैं। इसका तात्पर्य यह है कि लोग पहले उस गुणातीतकी जिस शरीर और अन्तःकरणमें स्थिति मानते थे? उसी शरीर और अन्तःकरणके लक्षणोंको लेकर वे उसमें आरोप करते हैं कि यह गुणातीत मनुष्य है। अतः ये लक्षण गुणातीत मनुष्यको पहचाननेके संकेतमात्र हैं।प्रकृतिके कार्य गुण हैं और गुणोंके कार्य शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि हैं। अतः मनबुद्धि आदिके द्वारा अपने कारण गुणोंका भी पूरा वर्णन नहीं हो सकता? फिर गुणोंके भी कारण प्रकृतिका वर्णन हो ही कैसे सकता है जो प्रकृतिसे भी सर्वथा अतीत (गुणातीत) है? उसका वर्णन करना तो उन मनबुद्धि आदिके द्वारा सम्भव ही नहीं है। वास्तवमें गुणातीतके ये लक्षण स्वरूपमें तो होते ही नहीं किन्तु अन्तःकरणमें मानी हुई अहंताममताके नष्ट हो जानेपर उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणके माध्यमसे ही ये लक्षण -- गुणातीतके लक्षण कहे जाते हैं।यहाँ भगवान्ने सुखदुःख? प्रियअप्रिय? निन्दास्तुति और मानअपमान -- ये आठ परस्पर विरुद्ध नाम लिये हैं? जिनमें साधारण आदमियोंकी तो विषमता हो ही जाती है? साधकोंकी भी कभीकभी विषमता हो जाती है। ऐसे इन आठ कठिन स्थलोंमें जिसकी समता हो जाती है? उसके लिये अन्य सभी अवस्थाओंमें समता रखना सुगम हो जाता है। अतः यहाँ उन्हीं आठ कठिन स्थलोंका नाम लेकर भगवान् यह बताते हैं कि गुणातीत महापुरुषकी इन आठों स्थलोंमें स्वतःस्वाभाविक समता होती है।गुणातीत मनुष्यकी जो स्वतःसिद्ध निर्विकारता है? उसकी जो स्वाभाविक स्थिति है? उसमें अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेजानेका कुछ भी फरक नहीं पड़ता। उसकी निर्विकारता? समता ज्योंकीत्यों अटल रहती है। उसकी शान्ति कभी भङ्ग नहीं होती।[चौबीसवें और पचीसवें -- इन दो श्लोकोंमें भगवान्ने गुणातीत महापुरुषकी समताका वर्णन किया है।] सम्बन्ध -- अर्जुनने तीसरे प्रश्नके रूपमें गुणातीत होनेका उपाय पूछा था। उसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
।।14.24।। जीवन की निरन्तर परिवर्तनशील परिस्थितियों में ज्ञानी पुरुष के मन के समत्व और सन्तुलन का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। त्रिगुणों की क्रूरताओं से परे आत्मा में ज्ञानी पुरुष स्थित रहता है? जहाँ सत्त्वगुण का रोमांचक सुख नहीं है? न रजोगुण का कोलाहल है और न ही तमोगुण की थकान है। वह सच्चिदानन्द स्वरूप है।सामान्य मनुष्य को समता की यह स्थिति पूर्ण मृत्यु ही प्रतीत होगी। और? निसन्देह? यह वास्तविकता भी है यह परिच्छिन्न अहंकार की मृत्यु है? जो सांसारिक अनुभवों का भोक्ता है। उपाधियुक्त आत्मा ही जीवरूप में प्रतीत होता है? जो सदैव विक्षुब्ध मन की प्रचण्ड चंचल वृत्तियों पर समुद्री सतह पर बहते हुये काष्ठ खण्ड के समान व्यवहार करता है। प्रेम और घृणा? राग और द्वेष के तूफानों से सदैव विचलित हुआ यह दुखी जीव असंख्य विक्षेपों और दुखों को भोगता रहता है।इसलिये? तृष्णा और आसक्ति के इस दुर्व्यवस्थित क्षेत्र से स्वयं को विलग कर स्वस्वरूप में ही स्थित होना ही मुक्ति है। ज्ञानी पुरुष का जगत् के साथ क्या सम्बन्ध होता है यह प्रश्न ऐसा ही है? जैसे जाग्रत पुरष का अपने स्वप्नजगत् से क्या सम्बन्ध होता है त्रिगुणों के बन्धनों से मुक्त पुरुष जगत् की अनात्म वस्तुओं के साथ के अविद्याजनित अहं और मम भाव को सर्वथा त्याग देता है। उस वास्तविक दैवी जाग्रति की अवस्था में निम्न स्तर के अनुभव? इस जगत् के सुख और दुख? प्रिय और अप्रिय तथा निन्दा और स्तुति का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। समस्त अनुभवों में वह सम? असंग साक्षी बनकर रहता है।स्वस्थ अपने सर्व उपाधिविवर्जित सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित पुरुष स्वस्थ कहलाता है। अत उपाधियों के द्वारा अनुभूत जगत् से वह अछूता रहता है।समदुखसुख इन्द्रियों के द्वारा बाह्य जगत् के सम्पर्क में आकर पूर्वकाल में अर्जित किये हुये समान अनुभवों की तुलना में उसका मूल्यांकन करना और तत्पश्चात् उसे सुख या दुख के रूप में अनुभव करना? यह हमारे व्यष्टि मन की युक्ति है। यदि बाह्य जगत् की वस्तुओं में ही सुख या दुख होता? तो सभी व्यक्तियों का अनुभव एक समान होता जैसे सूर्य के प्रकाश का सबका अनुभव एक समान है? क्योंकि प्रकाश सूर्य का धर्म है। परन्तु विषयों के सम्बन्ध में यह बात नहीं देखी जाती। कोई विषय किसी एक व्यक्ति को सुखदायक प्रतीत होता है तो अन्य व्यक्ति को दुखदायक। इससे सिद्ध होता है कि हमारे सुखदुख अपने मन की कल्पना मात्र हैं? वस्तुस्थिति न्ाहीं। ज्ञानी पुरुष मन और बुद्धि के उपनेत्रों से जगत् को नहीं देखता और? इसलिये? संसारी पुरुषो द्वारा कहे जाने वाले सुख और दुख में वह समान रहता है।समलोष्टाश्मकाञ्चन वह लोष्ट (मिट्टी)? अश्म (पाषाण) और काञ्चन (स्वर्ण) इन सबको समदृष्टि से देखता है। वस्तुओं का परिग्रह करने में संसारी लोगों की अत्यधिक रुचि होती है। लोग स्वर्ण? हीरे? मोती आदि बहुमूल्य वस्तुओं को एकत्र करना चाहते हैं? किन्तु सामान्य मिट्टी? पाषाण आदि की उपेक्षा करते हैं। परन्तु जिसे परमार्थ वस्तु की उपलब्धि हो गई है? वह ज्ञानी पुरुष मिट्टी? पाषाण? स्वर्ण इन सबको एक समान ही देखता है ? क्योंकि पारमार्थिक सत्य की दृष्टि से ये सब मिथ्या वस्तुएं ही हैं। वस्तुत? उनमें कोई भी मूल्यवान नहीं है।बाल्यावस्था में? छोटे बालक मयूरपंख? शुक्तिका? संगमर्मर के टुकड़े? टूटी चूड़ियां? पुरानी टिकटें आदि वस्तुओं का संग्रह करते हैं और उनके लिये वह एक बहुमूल्य कोष के समान होता है। परन्तु युवावस्था के प्राप्त होने पर उस कोष का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। वे उसे अपने छोटे भाई को दे देते हैं तो वह उस धरोहर को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है। इसी प्रकार? जीवभाव में स्थित अज्ञानी पुरुष असंख्य वस्तुओं का संग्रह करना चाहता है? जो ज्ञानी की दृष्टि में बच्चों का एक खेल मात्र है।तुल्यप्रियाप्रिय यदि हम अनेक व्यक्तियों के साथ के अपने सम्बन्धों पर विचार करें? तो यह ज्ञात होगा कि हमें अपने समस्वभाव का व्यक्ति प्रिय प्रतीत होगा और प्रतिकूल स्वभाव का व्यक्ति अप्रिय। यही बात वस्तुओं और परिस्थितियों के सम्बन्ध में भी सत्य है। यह प्रिय और अप्रिय का अनुभव मन के स्तर पर रहने वाले लोगों के लिये ही है? मन से परे आत्मस्वरूप में स्थित हुये ज्ञानी पुरुष के लिये नहीं। जगत् में सामान्य दृष्टि से किन्हीं वस्तुओं और घटनाओं को प्रिय या अप्रिय समझा जाता है। ज्ञानी पुरुष के लिये वे सब तुल्य हैं? क्योंकि वह समान्य जनों के मापदण्ड से जगत् की ओर नहीं देखता है।तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति स्वप्नावस्था में स्वप्नद्रष्टा पुरुष की कोई निन्दा करते हैं और कोई प्रशंसा। जब वह स्वप्न से जाग जाता है तो क्या वह उस निन्दा और स्तुति को तुल्य नहीं समझेगा संसारी लोग अपनीअपनी बुद्धि और ज्ञान के अनुसार कभी किसी की निन्दा करते हैं? तो कभी स्तुति। सर्वोच्च आत्मज्ञान में निष्ठा प्राप्त पुरुष के लिये दोनों का ही कोई महत्त्व नहीं होता।उपर्युक्त अनुभवों के चार सुन्दर उदाहरणों के द्वारा व्यासजी ने जीवन के कुछ प्रमुख अनुभव दर्शाये हैं? जिनमें सामान्य मनुष्य सुख और दुख का अनुभव करता है।आगे कहते हैं
।।14.24।।गुणातीतस्य लिङ्गान्तरमाह -- किञ्चेति। तयोः समत्वं रागद्वेषानुत्पादकतया स्वकीयत्वाभिमानानास्पदत्वं प्रसन्नत्वं स्वास्थ्यादप्रच्युतिरविक्रियत्वम्। विद्वद्दृष्ट्या प्रियाप्रिययोरसंभवेऽपि लोकदृष्टिमाश्रित्याह -- प्रियं चेति। प्रियाप्रियग्रहणेन गृहीतानां काञ्चनादीनां ब्राह्मणपरिव्राजकवत्पृथग्ग्रहणम्। निन्दा दोषोक्तिरात्मसंस्तुतिरात्मनो गुणकीर्तनम्।
।।14.24।।किंच समे रागद्वेषानुत्पादकतया स्वीयत्वाभिमानानास्पदे दुःखसुखे यस्य स समदुःखसुखः स्वस्मिन्नविक्रिये आत्मनि स्थितः स्वरुपान्न कदापि प्रत्युतः। समानि अहेयोपादेयानि लोष्टदानि यस्य स यत्स्तुल्य समे प्रियाप्रिये यस्य स धीरो धीमान्। अतएव तुल्य निन्दात्मसंस्तुती यस्य स गुणातीति उच्यत इति परेणान्वयः।
।।14.24 -- 14.25।।तुल्यत्वार्थ उक्तः पुरस्तात्।
।।14.24।।अथ पञ्चम्यां भूमावसंसक्तिनामिकायां स्थितो ब्रह्मविद्वर उच्यते -- समेति। समाधौ समे दुःखसुखे यस्य स समदुःखसुखः। स्वस्थः स्वेनैव स्वेच्छयैव तिष्ठतीति स्वस्थः। यदा तु न समाधाविच्छा तदा स्वयमेव व्युत्तिष्ठतीति भावः। सोऽपि व्युत्थानावस्थायां समलोष्टाश्मकाञ्चनो विरक्त इत्यर्थः। तुल्यप्रियाप्रियः तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिश्च। प्रियाप्रिययोर्निन्दास्तुत्योश्च प्राप्तौ तुल्यो हर्षविषादशून्यः। अत्र हेतुर्धीर इति। यथा कश्चिच्छूरस्तीव्रप्रहारवेदनार्तोऽपि न व्यामुह्यति धैर्याद्वेदनां चानुभवति तद्वदयं हर्षविषादानुभवन्नपि धैर्यान्न चलति। पूर्वस्य तु जातायामपि वेदनायां हर्षाद्युदय एव नास्ति। तत्पूर्वस्य तु वेदनैव नास्तीति भेदः। एतेन श्लोकत्रयेण सर्वेषां जीवन्मुक्तानां समाधौ लिङ्गानि तत्संवेद्यान्याचाराश्च परसंवेद्यानि लिङ्गान्युक्तानि।
।।14.24 ।।समदुःखसुखः दुःखसुखयोः समः चित्तः स्वस्थः स्वस्मिन् स्थितः स्वात्मैकप्रियत्वेन तद्व्यतिरिक्तपुत्रादिजन्ममरणादिसुखदुःखयोः समचित्त इत्यर्थः।।तत एव समलोष्टाश्मकाञ्चनः? तत एव च तुल्यप्रियाप्रियः तुल्यप्रियाप्रियविषयः।। धीरः प्रकृत्यात्मविवेककुशलः? तत एव तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः आत्मनि मनुष्यत्वाद्यभिमानकृतगुणागुणनिमित्तस्तुतिनिन्दयोः स्वासंबन्धानुसंधानेन तुल्यचित्तः? तत्प्रयुक्तमानापमानयोः तत्प्रयुक्तमित्रारिपक्षयोः अपि स्वसंबन्धाभावाद् एव तुल्यचित्तः? तथा देहित्वप्रयुक्तसर्वारम्भपरित्यागी य एवंभूतः स गुणातीत उच्यते।अथ एवं रूपगुणात्यये प्रधानहेतुम् आह --
।।14.24।।अपिच -- समेति। समे सुखदुःखे यस्य। यतः स्वस्थः स्वरूप एव स्थितः। अतएव समानि लोष्टाश्मकाञ्चनानि यस्य। तुल्ये प्रियाप्रिये सुखदुःखहेतुभूते यस्य। धीरो धीमान्। तुल्या निन्दा च आत्मस्तुतिश्च यस्य।
।।14.24।।समदुःखसुखत्वादिकं प्रागेव सुशिक्षितम्? स्वस्थशब्देन विकारराहित्यगुणाननुविधानादिमात्रप्रतिपादनं पुनरुक्तम् आत्मनिष्ठताविधानं तु बहुविधसमचित्तताप्रतिपादने हेतुतयोपयुक्तमित्यभिप्रायेणाहस्वस्मिन् स्थित इति। तदभिप्रेतमाहस्वात्मैकप्रियत्वेनेति। सुखदुःखप्रियाप्रियादिशब्दानामनतिभिन्नार्थानामपि लोकव्यवहारच्छायया पुनरुक्तिः परिहृता।तत एवस्वस्थत्वादेवेत्यर्थः। प्रियाप्रियोपनतावक्षोभ्यत्वादेस्तुल्यप्रियाप्रियादिशब्दैः सिद्धत्वादत्र विवक्षितं धीविशेषवत्त्वलक्षणं धीरत्वं निन्दास्तुतिसाम्यादौ यथा हेतुर्भवति? तथा विशिनष्टिप्रकृत्यात्मविवेककुशल इति।धीरः इत्यन्तैरान्तरलक्षणान्युक्तानि। अथ बाह्याचारलिङ्गप्रश्नोत्तरमित्यभिप्रायेणाहतत एव तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिरिति।समदुःखः इत्यादिकं बाह्यलिङ्गपरमिति केचित्। स्तुतिनिन्दे हि गुणदोषख्यापनरूपे तत्र विविक्तात्मदर्शिनो देहगतैः सौन्दर्यवैरूप्यादिगुणदोषैः स्तुतिनिन्दाप्रवृत्तौ परस्तुतिनिन्दयोरिव न प्रीत्यादिसम्भव इत्याह -- आत्मनीति।मूर्खाः पूजितपूजकाः (लोकः पूजितपूजकः) [म.भा.5।33।55] इति न्यायेन लौकिकाः स्तुवन्तं मानयन्ति? निन्दकमवमन्यन्ते मानावमानप्रकाराश्च लोकव्यवहारतः शास्त्रतश्च सिद्धाः। तत्रमानयितारो मित्राणि भवन्ति? अवमन्तारस्त्वरयः इति लोकदृष्टक्रमविवक्षामाह -- तत्प्रयुक्तेति। वाचिकस्तुतिनिन्दयोः पृथगुपादानादत्र मानावमानशब्दौ मानसकायिकविषयौ। समबुद्धेरपि गुणातीतस्य परबुद्धिकल्पितौ मित्रारिपक्षौ विद्येते। आरभ्यत इत्यारम्भः कर्म? कृतप्रतिकृतादिरूपः। अपवर्गार्थारम्भव्यवच्छेदायाहदेहित्वप्रयुक्तेति? सांसारिकसर्वारम्भपरित्यागीत्यर्थः। एतदेव बाह्याचारलिङ्गम्। आन्तरैरद्वेषादिभिर्बाह्यैरारम्भपरित्यागादिभिश्च गुणातीतो लक्ष्यते। त एव च गुणात्ययोपाया इति प्रश्नत्रयं प्रत्युक्तं भवति।
।।14.23 -- 14.25।।अत एवाह -- उदासीनवदित्यादि उच्यते इत्यन्तम्। यः अज्ञो निर्विवेकस्तिष्ठति स एव ज्ञः? सम्यग्ज्ञानात्। तथा हि नेङ्गते न स्वरूपात् च्यवते। अत्र चोपायः शरीरेन्द्रियादिस्वभाव (S??N चोपायः सर्वेषामारंभाणां शरीरारंभकेन्द्रियादि -- ) एषः? यत् प्रवर्तनम् (N प्रवर्तते) ? न तु फलं किंचिदहमभिसन्दधे इति स्थिरा बुद्धिः (N स्थिरबुद्धिः)।
।।14.24 -- 14.25।।समदुःखसुखः [14।24] इत्यादिना सर्वथा सुखादौ तुल्यत्वबुद्धिरुच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह -- तुल्यत्वेति। तुल्यत्ववाचिनः शब्दस्यार्थ इत्यर्थः। प्रायः सर्वानित्याद्युक्तरीत्येति भावः।
।।14.24।।समे दुःखसुखे द्वेषरागशून्यतयानात्मधर्मतयाऽनृततया च यस्य च समदुःखसुखः। कस्मादेवं यस्मात्स्वस्थः स्वस्मिन्नात्मन्येव स्थितो द्वैतदर्शनशून्यत्वात्। अतएव समानि हेयोपादेयभावरहितानि लोष्टाश्मकाञ्चनानि यस्य स तथा। लोष्टः पांसुपिण्डः। अतएव तुल्ये प्रियाप्रिये सुखदुःखसाधने यस्य हितसाधनत्वाहितसाधनत्वबुद्धिविषयत्वाभावेनोपेक्षणीयत्वात्। धीरो धीमान् धृतिमान्वा। अतएव तुल्ये निन्दात्मसंस्तुती दोषकीर्तनगुणकीर्तने यस्य स गुणातीत उच्यत इति द्वितीयगतेनान्वयः।
।।14.24।।किञ्च समदुःखसुखः समे दुःखसुखे विप्रयोगसंयोगात्मके लौकिकालौकिकदेहरूपे वा यस्य सः। स्वस्थः मत्स्वरूपे स्थितः। अतएव समलोष्टाश्मकाञ्चनः समानि लोष्टाश्मकाञ्चनानि यस्य? सर्वस्य भगवदात्मकत्वात्तादृशः। तुल्यप्रियाप्रियः तुल्ये प्रियाप्रिये संयोगवियोगात्मके यस्य सः। भगवदिच्छाया एव मुख्यत्वादुभयोस्तुल्यत्वम्। धीरः विप्रयोगादितीक्ष्णदुःखसहनशीलः। तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः तुल्या निन्दा आत्मसंस्तुतिश्च यस्य।अयं भावः -- दुष्टकृता निन्दाऽपि भक्तत्वेन स्तुतिप्रायैव।
।।14.24।। --,समदुःखसुखः समे दुःखसुखे यस्य सः समदुःखसुखः? स्वस्थः स्वे आत्मनि स्थितः प्रसन्नः? समलोष्टाश्मकाञ्चनः लोष्टं च अश्मा च काञ्चनं च लोष्टाश्मकाञ्चनानि समानि यस्य सः समलोष्टाश्मकाञ्चनः? तुल्यप्रियाप्रियः प्रियं च अप्रियं च प्रियाप्रिये तुल्ये समे यस्य सोऽयं तुल्यप्रियाप्रियः? धीरः धीमान्? तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः निन्दा च आत्मसंस्तुतिश्च निन्दात्मसंस्तुती? तुल्ये निन्दात्मसंस्तुती यस्य यतेः सः तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।किं च --,
।।14.24।।समेति। गुणकार्येषु हर्षद्वेषशून्यतया स लक्ष्य इत्युक्ते समत्वं योगो हेतुरिति साङ्ख्ययोगसारभूतमर्थं स्मारयति। समे दुःखसुखे रजस्सत्त्वकार्ये यस्य। तत्र हेतुः -- स्वस्थ आत्मस्थ इति। समानि लोष्टाश्मकाञ्चनानि हेयतया यस्य? सर्वत्र समभूतस्य।
Chapter 14, Verse 24