उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते।।14.23।।
udāsīna-vad āsīno guṇair yo na vichālyate guṇā vartanta ity evaṁ yo ’vatiṣhṭhati neṅgate
udāsīna-vat—neutral; āsīnaḥ—situated; guṇaiḥ—to the modes of material nature; yaḥ—who; na—not; vichālyate—are disturbed; guṇāḥ—modes of material nature; vartante—act; iti-evam—knowing it in this way; yaḥ—who; avatiṣhṭhati—established in the self; na—not; iṅgate—wavering
He who sits like one unconcerned, undisturbed by the Gunas; who knows, 'It is the Gunas that are in motion,' and so remains unshaken;
He who, sitting like one indifferent, is not distracted by the three qualities; he who, thinking that the qualities alone act, remains firm and does not move surely;
He who, seated like one unconcerned, is not moved by the dualities, and who, knowing that the dualities are active, is self-centered and does not move.
He who, sitting like an unconcerned person, is not perturbed by the strands; who is ignorant of the existence of the strands; or who remains simply aware that the strands alone exist; who is not shaken;
He who maintains an attitude of indifference, who is not disturbed by the qualities, who realizes that it is only they who act, and remains calm;
।।14.23।।जो उदासीनकी तरह स्थित है और जो गुणोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही (गुणोंमें) बरत रहे हैं -- इस भावसे जो अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता।
।।14.23।। जो उदासीन के समान आसीन होकर गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और "गुण ही व्यवहार करते हैं" ऐसा जानकर स्थित रहता है और उस स्थिति से विचलित नहीं होता।।
14.23 उदासीनवत् like one unconcerned? आसीनः seated? गुणैः by the Gunas? यः who? न not? विचाल्यते is moved? गुणाः the Gunas? वर्तन्ते operate? इति thus? एव even? यः who? अवतिष्ठति is selfcentred? न not? इङ्गते moves.Commentary He is seated as a neutral (one who inclines to neither party). He is free from likes and dislikes. He is entirely unconcerned whether the alities with their effects and the body come or go. He is like the spectator at a football or a cricket match or a drama. Just as the sky remains unconcerned when the wind blows? so also he remains ite unconcerned when the alities operate.He does not swerve from the path of Selfrealisation. He treads the path firmly. He thinks and feels The alities are modified into the body? senses and senseobjects. They act and react upon one another? remains unshaken by them. He abides in his own Self and stands firm like the mountain Meru. (Cf.III.28V.8to11)
।।14.23।। व्याख्या -- उदासीनवदासीनः -- दो व्यक्ति परस्पर विवाद करते हों? तो उन दोनोंमेंसे किसी एकका पक्ष लेनेवाला पक्षपाती कहलाता है और दोनोंका न्याय करनेवाला मध्यस्थ कहलाता है। परन्तु जो उन दोनोंको देखता तो है? पर न तो किसीका पक्ष लेता है और न किसीसे कुछ कहता ही है? वह उदासीन कहलाता है। ऐसे ही संसार और परमात्मा -- दोनोंको देखनेसे गुणातीत मनुष्य उदासीनकी तरह दीखता है।वास्तवमें देखा जाय तो संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। सत्स्वरूप परमात्माकी सत्तासे ही संसार सत्तावाला दीख रहा है। अतः जब गुणातीत मनुष्यकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता है ही नहीं? केवल एक परमात्माकी सत्ता ही है? तो फिर वह उदासीन किससे हो परन्तु जिनकी दृष्टिमें संसार और परमात्माकी सत्ता है? ऐसे लोगोंकी दृष्टिमें वह गुणातीत मनुष्य उदासीनकी तरह दीखता है।गुणैर्यो न विचाल्यते -- उसके कहलानेवाले अन्तःकरणमें सत्त्व? रज? और तम -- इन गुणोंकी वृत्तियाँ तो आती हैं? पर वह इनसे विचलित नहीं होता। तात्पर्य है कि जैसे अपने सिवाय दूसरोंके अन्तःकरणमें गुणोंकी वृत्तियाँ आनेपर अपनेमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता? ऐसे ही उसके कहलानेवाले अन्तःकरणमें गुणोंकी वृत्तियाँ आनेपर उसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता अर्थात् वह उन वृत्तियोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता। कारण कि उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणमें अन्तःकरणसहित सम्पूर्ण संसारका अत्यन्त अभाव एवं परमात्मतत्त्वका भाव निरन्तर स्वतःस्वाभाविक जाग्रत् रहता है।गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति -- गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं (गीता 3। 28) अर्थात् गुणोंमें ही सम्पूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं -- ऐसा समझकर वह अपने स्वरूपमें निर्विकाररूपसे स्थित रहता है।न इङ्गते -- पहले गुणा वर्तन्त इत्येव पदोंसे उसका गुणोंके साथ सम्बन्धका निषेध किया? अब न ईङ्गते पदोंसे उसमें क्रियाओँका अभाव बताते हैं। तात्पर्य है कि गुणातीत पुरुष खुद कुछ भी चेष्टा नहीं करता। कारण कि अविनाशी शुद्ध स्वरूपमें कभी कोई क्रिया होती ही नहीं।[बाईसवें और तेईसवें -- इन दो श्लोकोंमें भगवान्ने गुणातीत महापुरुषकी तटस्थता? निर्लिप्तताका वर्णन किया है।] सम्बन्ध -- इक्कीसवें श्लोकमें अर्जुनने दूसरे प्रश्नके रूपमें गुणातीत मनुष्यके आचरण पूछे थे। उसका उत्तर अब आगेके दो श्लोकोंमें देते हैं।
।।14.23।। भगवान् श्रीकृष्ण तीन श्लोकों में जगत् की वस्तुओं और व्यक्तियों के साथ ज्ञानी पुरुष जो सम्बन्ध रखता है? उसका विस्तृत वर्णन करते हैं। मनुष्य की संस्कृति एक मिथ्या मुखौटा हो सकती है। जब तक पर्याप्त रूप से प्रलोभित करने वाली परिस्थितियां हमारे समक्ष उपस्थित नहीं होती? तब तक हममें से बहुत से लोग ईश्वर के समान व्यवहार कर सकते हैं। मनुष्य के हाथ में जब तक सत्ता नहीं आती? तब तक हो सकता है कि वह क्रूर न हो वह जब तक दरिद्री है? तब तक शान्त जीवन व्यतीत करता हो और प्रलोभनों के अभाव में वह भ्रष्टाचार से ऊपर हो। इस प्रकार? अनेक ऐसे सद्गुण जिनसे अनेक व्यक्तियों को हम सम्पन्न समझते हैं? वे सब केवल कृत्रिम सौन्दर्य के ही होते हैं। उनका वास्तविक हीन स्वरूप उस मुखौटे से छिपा रहता है।सम्भावित दुष्ट पुरुष ऋण लिये सद्गुणों के कृत्रिम परिधानों को धारण करके जगत् में विचरण करते रहते हैं। इसलिए? ज्ञानी पुरुष की वास्तविक परीक्षा या पहचान जंगलों या गिरिकन्दराओं में नहीं? वरन् बीच बाजार में हो सकती है? जहाँ वह जगत् की दुष्टताओं से पीड़ित किया जाता है। ईसा मसीह इतने महान् कभी नहीं थे जितने वे सूली पर चढ़ाये जाने के समय हुए जगत् के द्वारा कुचले जाने पर ही हमारा वास्तविक स्वभाव प्रगट होता है। घर्षण से ही चन्दन की सुगन्ध प्रगट होती है। जिन उँगलियों से हम तुलसी दल को पीसते हैं वह उन्हीं पर अपना सुगन्ध छोड़ जाता है।ज्ञानी पुरुष उदासीन के समान आसीन हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता है। जगत् के सभी शुभ? अशुभ और उपेक्ष्य अनुभवों में वह उदासीन के समान रहता है? क्योंकि वह जानता है कि यह सब मन का खेल मात्र है। चित्रपट ग्रह में दर्शाये जा रहे चलचित्र के सुखान्त अथवा दुखान्त से हम विचलित नहीं होते? क्योंकि हम जानते हैं कि यह छायाचित्र का खेल हमारे मनोरंजन के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि ज्ञानी पुरुष जगत् की घटनाओं से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध ही नहीं रखता है। व्यासजी अत्यन्त सावधानीपूर्वक शब्दों को चुनते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष ऐसा प्रतीत होता है? मानो वह उदासीन्ा हो उदासीनवत् आसीन। इसका अभिप्राय यह हुआ कि वह अपने जीवन में तथा बाह्य जगत् में होने वाली घटनाओं से विक्षुब्ध या उत्तेजित नहीं हो जाता।वह भलीभाँति जानता है कि उसके अन्तकरण में होने वाले ये निरन्तर परिवर्तन केवल गुणों के ही हैं और फिर बाह्य जगत् का अनुभव भी मनस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। सम्यक्दर्शी पुरुष अपने आन्तरिक तथा बाह्य जगत् में होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया को जानकर उनसे अविचलित रहता है।इन गुणों की क्रीड़ा देखने के लिये स्वयं साक्षी बनकर रहना होता है। अपने आत्मस्वरूप में स्थित रहकर वह गुणों की अन्तर्बाह्य क्रीड़ा को देखते हुये उसका आनन्द उठाता है। गली में हो रहे लड़ाईझगड़े को ऊपर छज्जे पर से देखने वाला व्यक्ति उस लड़ाई से प्रभावित नहीं होता है। उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी अपनी समत्व की स्थिति से गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है।पूर्व श्लोक को और अधिक स्पष्ट करते हुये कहते हैं
।।14.23।।कैर्लिङ्गैरित्यादि परिहृत्य द्वितीयं प्रश्नं परिहरति -- अथेति। दृष्टान्तं व्याचष्टे -- यथेति। उपेक्षकस्य पक्षपाते तत्त्वायोगादित्यर्थः। आत्मविदात्मकौटस्थ्यज्ञानेनासीनो निवृत्तकर्तृत्वाभिमानोऽप्रयतमानो भवतीति दार्ष्टान्तिकमाह -- तथेति। गुणातीतत्वोपायमार्गो ज्ञानमेव। शब्दादिभिर्विषयैरस्य कूटस्थत्वज्ञानात्प्रच्यवनमाशङ्क्याह -- गुणैरिति। उपनतानां विषयाणां रागद्वेषद्वारा प्रवर्तकत्वमित्येतत्प्रपञ्चयति -- तदेतदिति। योऽवतिष्ठति स गुणातीत इत्युत्तरत्र संबन्धः। अवपूर्वस्य तिष्ठतेरात्मनेपदे प्रयोक्तव्ये कथं परस्मैपदमित्याशङ्क्याह -- छन्दोभङ्गेति। पाठान्तरे तु बाधितानुवृत्तिमात्रमनुष्ठानम्। करणाकारपरिणतानां गुणानां विषयाकारपरिणतेषु तेषु प्रवृत्तिर्न ममेति पश्यन्नचलतया कूटस्थदृष्टिमात्मनो न जहातीत्याह -- नेङ्गत इति।
।।14.23।।कैर्लिङक्षैरित्यादिप्रश्नं समाधायाथेदानीं किमाचार इति प्रश्नस्योत्तरमाह त्रिभिः। उदासीनवत् यथोदासीनो न कस्यचित्पक्षं भजते तथा कौटस्थ्यज्ञानेन निवृत्तकर्तृत्वाभिमान आत्मवित् गुणातिक्रमणोपायमार्गे तत्त्वज्ञानेऽवस्थि आसीनः आत्मविवेकदर्शनावस्थातो गुणैर्न विचाल्यते न प्रच्याव्यते तदेतत्स्पष्टयति। गुणाः कार्यकरणविषयाकारपरिणता अन्योन्यस्मिन्वर्तन्ते नाहिमित्येवं निश्चित्य यः कूटस्थज्ञानेऽवतिष्ठति तेन नेङ्गते न चलति स्वरुपावस्थ एव भवतीत्यर्थ। अपपूर्वस्य तिष्ठरेतात्मनेपदे प्रयोक्तव्ये छन्दोभङ्गभयात्मपरस्मैपदप्रयोगः कृतः। अनुष्टुप्छन्दसि पञ्चमस्य लधुत्वनियमात्।अनुतिष्ठति इति वा पाठान्तरम्।
।।14.23।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
।।14.23।।अथ षष्ठ्यां पदार्थाभावन्यां गतो ब्रह्मविद्वरीयानुच्यते -- उदासीनवदिति। योऽयं समाधावुदासीन इवास्ते व्युत्थाने किमपि प्रयोजनमपश्यन्। इदं मम कर्तव्यमस्तीति वासनाशून्यत्वात्। य आस्ते एव न तु परप्रयत्नमन्तरेण कदाचिदपि गुणैर्विचाल्यते। परेण व्युत्थापितोऽपि गुणान्पश्यन् गुणा वर्तन्त इत्येव ज्ञात्वा योऽवतिष्ठति स्तब्ध एव वर्तते न तु गुणकृतैरिष्टानिष्टस्पर्शैरिङ्गते चलति। अयमर्थः -- यथा कश्चिद्भुञ्जानो रसनामौढ्यात्स्वयं शाकादिरसं न विन्दति। परेण ज्ञापितोऽपि कञ्चिद्रसविशेषमुपलभ्यापि तत्रोदासीन एवास्ते। झटित्येव विशेषदर्शनस्य तिरोधानान्न तत्कृतं सुखं दुःखं वा पश्यति तद्वदयं ज्ञेयः।
।।14.23।।उदासीनवद् आसीनः गुणव्यतिरिक्तात्मावलोकनतृप्त्या अन्यत्र उदासीनवद् आसीनः गुणैः द्वेषाकाङ्क्षाद्वारेण यो न विचाल्यते? गुणाः स्वेषु कार्येषु प्रकाशादिषु वर्तन्ते इति अनुसंधाय यः तूष्णीम् अवतिष्ठते? न इङ्गते न गुणकार्यानुगुणं चेष्टते।
।।14.23।।तदेवं स्वसंवेद्यं तस्य लक्षणमुक्त्वा परसंवेद्यं तस्य लक्षणं वक्तुं किमाचार इति द्वितीयप्रश्नस्योत्तरमाह -- उदासीनवदिति त्रिभिः। उदासीनवत्साक्षितया आसीनः स्थितः सन् गुणैर्गुणकार्यैः सुखदुःखादिभिर्यो न विचाल्यते स्वरूपान्न प्रच्याव्यते अपितु गुणा एव स्वकार्येषु वर्तन्ते? एतैर्मम संबन्ध एव नास्तीति विवेकज्ञानेन यस्तूष्णीमवतिष्ठति। परस्मैपदमार्षम्। नेङ्गते न चलति।
।।14.23।।कथं तर्ह्येते कथं च सशरीर इष्टानिष्टसाधनसम्पत्तौ न विक्रियेत इत्यत्रोत्तरंउदासीनवदिति। आत्मव्यतिरिक्तौदासीन्यं च गुणकार्यद्वेषकाङ्क्षानिवृत्तिहेतुः।न विचाल्यते बाह्यविषयेषु कार्यद्वारा न प्रवर्तत इत्यर्थः। अविचाल्यत्वविवरणायद्वेषाकाङ्क्षाद्वारेणेति विचलनप्रकारोक्तिः।गुणा गुणेषु वर्तन्ते [3।28] इत्युक्तस्यगुणा वर्तन्ते इत्यस्य चैकार्थ्यं दर्शयन्नविचाल्यताहेतुमाहगुणाः स्वेषु कार्येष्विति। इतिकरणमनुसन्धानप्रकारपरमित्याहअनुसन्धायेति। एवकाराभिप्रेतमाहतूष्णीमिति। छन्दोभङ्गभयादार्षं परस्मैपदमित्याह -- तूष्णीमवतिष्ठत इति। स्वकार्यप्रवृत्तैः किमेभिर्ममेति भावः। तदेतदौदासीन्यविवरणम्।न विचाल्यते इत्यनेननेङ्गते इति विवृतम्। तदाह -- न गुणकार्यानुगुणं चेष्टत इति। न द्वेषकाङ्क्षानुगुणं प्रवर्तत इत्यर्थः।
।।14.23 -- 14.25।।अत एवाह -- उदासीनवदित्यादि उच्यते इत्यन्तम्। यः अज्ञो निर्विवेकस्तिष्ठति स एव ज्ञः? सम्यग्ज्ञानात्। तथा हि नेङ्गते न स्वरूपात् च्यवते। अत्र चोपायः शरीरेन्द्रियादिस्वभाव (S??N चोपायः सर्वेषामारंभाणां शरीरारंभकेन्द्रियादि -- ) एषः? यत् प्रवर्तनम् (N प्रवर्तते) ? न तु फलं किंचिदहमभिसन्दधे इति स्थिरा बुद्धिः (N स्थिरबुद्धिः)।
।।14.23।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।14.23।।एवं लक्षणमुक्त्वा गुणातीतः किमाचार इति द्वितीयप्रश्नस्य प्रतिवचनमाह त्रिभिः -- यथोदासीनो द्वयोर्विवदमानयोः कस्यचित्पक्षमभजमानो न रज्यति न वा द्वेष्टि तथायमात्मविद्रागद्वेषशून्यतया स्वस्वरूप एवासीनो गुणैः सुखदुःखाद्याकारपरिणतैर्यो न विचाल्यते न प्रच्याव्यते स्वरूपावस्थानात् किंतु गुणा एवैते देहेन्द्रियविषायाकारपरिणताः परस्परस्मिन्वर्तन्ते ममत्वादित्यस्येवैतत्सर्वभासकस्य न केनापि भास्यधर्मेण संबन्धः? स्वप्नवन्मायामात्रश्चायं भास्यप्रपञ्चो जडः? स्वयंज्योतिः स्वभावस्त्वहं परमार्थसत्यो निर्विकारो द्वैतशून्यश्चेत्येवं निश्चित्य यः स्वरूपेऽवतिष्ठत्यवतिष्ठते।यो नु तिष्ठति इति वा पाठस्तत्र नुः पृथक्कार्यः। नेङ्गते नानुव्याप्रियते कुत्रचित् गुणातीतः स उच्यत इति तृतीयगतेनान्वयः।
।।14.23।।एवं लिङ्गोत्तरमुक्त्वा आचारोत्तरमाह -- उदासीन इति। उदासीनवत्,सुखदुःखप्राप्त्यभावराहित्येन मत्कृतिं साक्षिरूपेण पश्यन्नासीनो गुणैर्लौकिकैर्मत्कृतिं पश्यन्नात्मस्वरूपान्न विचाल्यते। किञ्च गुणाः भगवदात्मकाः गुणेषु स्वकार्येषु वर्तन्ते स्वत एव भगवदिच्छयेत्येवं प्रकारेणैवावतिष्ठति? नेङ्गते न चलति पूर्वरूपात्।
।।14.23।। --,उदासीनवत् यथा उदासीनः न कस्यचित् पक्षं भजते? तथा अयं गुणातीतत्वोपायमार्गेऽवस्थितः आसीनः आत्मवित् गुणैः यः संन्यासी न विचाल्यते विवेकदर्शनावस्थातः। तदेतत् स्फुटीकरोति -- गुणाः कार्यकरणविषयाकारपरिणताः अन्योन्यस्मिन् वर्तन्ते इति यः अवतिष्ठति। छन्दोभङ्गभयात् परस्मैपदप्रयोगः। योऽनुतिष्ठतीति वा पाठान्तरम्। न इङ्गते न चलति? स्वरूपावस्थ एव भवति इत्यर्थः।।किं च --,
।।14.23।।उदासीनवदिति। गुणातिरिक्तात्मावलोकनतृप्तत्वात् अन्यत्रानात्मवस्तुनि उदासीनवदासीनः द्वेषाकाङ्क्षाद्वारेण गुणैश्च यो न विचाल्यते? किन्तु स्वकार्येषु प्रकाशादिषु गुणा वर्त्तन्त इति तिष्ठति न गुणानुगुणं स्वात्मना चेष्टते।
Chapter 14, Verse 23