Chapter 13, Verse 34

Text

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।13.34।।

Transliteration

yathā prakāśhayaty ekaḥ kṛitsnaṁ lokam imaṁ raviḥ kṣhetraṁ kṣhetrī tathā kṛitsnaṁ prakāśhayati bhārata

Word Meanings

yathā—as; prakāśhayati—illumines; ekaḥ—one; kṛitsnam—entire; lokam—solar system; imam—this; raviḥ—sun; kṣhetram—the body; kṣhetrī—the soul; tathā—so; kṛitsnam—entire; prakāśhayati—illumine; bhārata—Arjun, the son of Bharat


Translations

In English by Swami Adidevananda

As the one sun illuminates this entire world, so does the Knower of the Field (Ksetrin, the self), O Arjuna, illuminate the entire Field (the body).

In English by Swami Gambirananda

As the single sun illuminates this entire world, similarly, O descendant of the Bharata dynasty, the Knower of the field illuminates the entire field.

In English by Swami Sivananda

Just as the one sun illuminates the entire world, so too does the Lord of the field (Supreme Self) illuminate the entire field, O Arjuna.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Just as a single sun illuminates this entire world, so too does the Lord of the Field illuminate the entire Field, O descendant of Bharata!

In English by Shri Purohit Swami

As the one Sun illuminates the entire earth, so the Lord illuminates the entire universe.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।13.34।।हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! जैसे एक ही सूर्य सम्पूर्ण संसारको प्रकाशित करता है, ऐसे ही क्षेत्री (क्षेत्रज्ञ, आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्रको प्रकाशित करता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।13.34।। हे भारत ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही क्षेत्री (क्षेत्रज्ञ) सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

13.34 यथा as? प्रकाशयति illumines? एकः one? कृत्स्नम् the whole? लोकम् world? इमम् this? रविः sun? क्षेत्रम् the field? क्षेत्री the Lord of the field (Paramatma)? तथा so? कृत्स्नम् the whole? प्रकाशयति illumines? भारत O descendant of Bharata (Arjuna).Commentary The Supreme Self is one. It illumines the whole matter from the Unmanifested down to the blade of grass or a lump of clay? from the great elements down to firmness or fortitude. (Cf. verses 5 and 6.) Just as the sun is one? just as the sun illumines the whole world? just as the sun is not tainted? so also the Self is One in all bodies? It illumines all the bodies and It is not contaminated.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।13.34।। व्याख्या --   यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः -- नेत्रोंसे दीखनेवाले इस सम्पूर्ण संसारको? संसारके मात्र पदार्थोंको एक सूर्य ही प्रकाशित करता है और संसारकी सब क्रियाएँ सूर्यके प्रकाशके अन्तर्गत होती हैं परन्तु सूर्यमें मैं सबको प्रकाशित करता हूँ ऐसा कर्तृत्व नहीं होता। जैसे -- सूर्यके प्रकाशमें ही ब्राह्मण वेदपाठ करता है और शिकारी पशुओंको मारता है? पर सूर्यका प्रकाश वेदपाठ और शिकाररूपी क्रियाओंको करनेकरवानेमें कारण नहीं बनता।यहाँ लोक शब्द मात्र संसार(चौदह भुवनों) का वाचक है। कारण कि मात्र संसारमें जो कुछ भी (चन्द्रमा? तारे? अग्नि? मणि? जड़ीबूटी आदिमें) प्रकाश है? वह सब सूर्यका ही है।क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत -- सूर्यकी तरह एक ही क्षेत्री (क्षेत्रज्ञ? आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्रोंको प्रकाशित करता है अर्थात् सब क्षेत्रोंमें करनाकरवानारूप सम्पूर्ण क्रियाएँ क्षेत्रीके प्रकाशमें ही होती हैं परन्तु क्षेत्री उन क्रियाओँको करनेकरवानेमें कारण नहीं बनता।सूर्य तो केवल स्थूल संसारको ही प्रकाशित करता है और उसके प्रकाशमें स्थूल संसारकी ही क्रियाएँ होती हैं? पर क्षेत्री केवल स्थूल क्षेत्र(संसार) को ही प्रकाशित नहीं करता? प्रत्युत वह स्थूल? सूक्ष्म और कारण -- तीनों क्षेत्रोंको प्रकाशित करता है तथा उसके प्रकाशमें स्थूल? सूक्ष्म और कारण -- तीनों शरीरोंकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं।जैसे सम्पूर्ण संसारको प्रकाशित करनेपर भी सूर्यमें (सबको प्रकाशित करनेका) अभिमान नहीं आता और तरहतरहकी क्रियाओंको प्रकाशित करनेपर भी सूर्यमें नानाभेद नहीं आता? ऐसे ही सम्पूर्ण क्षेत्रोंको प्रकाशित करने? उनको सत्तास्फूर्ति देनेपर भी क्षेत्रीमें अभिमान? कर्तृत्व नहीं आता और तरहतरहकी क्रियाओँको प्रकाशित करनेपर भी क्षेत्रीमें नानाभेद नहीं आता। वह क्षेत्री सदा ही ज्योंकात्यों निर्लिप्त? असङ्ग रहता है।कोई भी क्रिया तथा वस्तु बिना आश्रयके नहीं होती और कोई भी प्रतीति बिना प्रकाश(ज्ञान) के नहीं होती। क्षेत्री सम्पूर्ण क्रियाओं? वस्तुओं और प्रतीतियोंका आश्रय और प्रकाशक है। सम्बन्ध --   अब भगवान् क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागको जाननेका फल बताते हुए प्रकरणका उपसंहार करते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।13.34।। आध्यात्मिक साहित्य में भगवान् पार्थसारथि का दिया हुआ यह दृष्टान्त ध्यानाकर्षित करने वाला है। यह दृष्टान्त क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के सम्बन्ध को बोधगम्य बना देता है। जैसे सुदूर आकाश में स्थित एक ही सूर्य सदैव इस जगत् को प्रकाशित करता रहता है? वैसे ही एक आत्मा वस्तुओं? शरीर? मन और बुद्धि को केवल प्रकाशित करता है।यद्यपि? लौकिक भाषा में सूर्य जगत् को प्रकाशित करता है? इस प्रकार कह कर हम सूर्य पर प्रकाशित करने की क्रिया के कर्तृत्व का आरोप करते हैं तथापि विचार करने पर ज्ञात होगा कि इस प्रकार का हमारा आरोप सर्वथा निराधार है। कर्म वह है? जो किसी क्षण विशेष में प्रारम्भ होकर अन्य क्षण में समाप्त होता है तथा सामान्यत वह किसी दृढ़ इच्छा या मूक प्रयोजन की सिद्धि के लिए किया जाता है। इस दृष्टि से सूर्य जगत् को प्रकाशित नहीं करता। प्रकाश तो उसका धर्म है और प्रत्येक वस्तु उसकी उपस्थिति में प्रकाशित होती है। इसी प्रकार? चैतन्य तो आत्मा का स्वरूप है और उसकी उपस्थिति में सब वस्तुएं ज्ञात होती हैं।जगत् के शुभ और अशुभ? सदाचारी और दुराचारी? सुरूप और कुरूप इन सबको एक ही सूर्य प्रकाशित करता है? किन्तु उनमें से किसी के भी गुण या दोष से वह लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार? सच्चिदानन्द आत्मा उपाधियों में व्यक्त होने पर भी मन के पाप? बुद्धि के विकार और शरीर के अपराधों से असंस्पृष्ट ही रहता है।इस अध्याय में विवेचित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विषय का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।13.34।।अध्यायार्थं सफलमुपसंहरति -- समस्तेति। विशेषं कौटस्थ्यपरिणामादिलक्षणं तदेवममानित्वादिनिष्ठतया क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यविज्ञानवतः सर्वानर्थनिवृत्त्या परिपूर्णपरमानन्दाविर्भावलक्षणपुरुषार्थसिद्धिरिति सिद्धम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ त्रयोदशोऽध्यायः।।13।।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।13.34।।प्रकाशरुपत्वाच्च प्रकाशयधर्मैर्न लिप्यत इति दृष्टान्तेनाह -- यथेति। यथा एको रविः सूर्यः कृत्स्त्रं सर्वमिमं प्रत्यक्षादिनानुभूयमानं लोकं प्रकाशयति अवभासयंश्चावभास्यधर्मैर्न लिप्यते। तथा महाभूतादिधृत्यन्तं सर्वं क्षेत्रमेकः क्षेत्री प्रत्यगाभिन्नः परमात्मा प्रकाशयति प्रकाशयंश्च प्रकाश्यधर्मैरेकः परमात्मा न लिप्यत इत्यर्थः। तथाच श्रुतिःसूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्ने लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःकेन बाह्यः इति। यथा एकएव भरतः स्वनाम्ना भवदादीन्प्रकाशयति तथेति सूचयन्नाह -- भारतेति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।13.34।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।13.34।।न करोति न लिप्यत इति द्वयमपि दृष्टान्तान्तरेण प्रतिपादयति -- यथेति। यथा सूर्यः स्वसत्तामात्रेण विश्वं प्रकाशयति नतु व्यापाराविष्टतया कुविन्द इव पटम्। यथा चैष प्रकाश्यधर्मैर्दुर्गन्धादिभिर्न लिप्यते एवमयं क्षेत्री क्षेत्रज्ञः सूर्यवदेक एव सन्ननेकधा भूतं क्षेत्रं महाभूतानीत्यादिना चतुर्विंशतितत्त्वात्मकमिच्छाद्वेषादिविकारयुक्तमुक्तं तत्स्वसत्तामात्रेण प्रकाशयति हे भारत? न तु व्यापारविष्टतया तत्संपादयति। तद्धर्मैर्वा पुण्यपापादिभिर्न लिप्यते। सूर्यदृष्टान्तेनैकत्वमकर्तृत्वप्रयुक्तमलेपत्वं च दर्शितम्। तथा च श्रुतयःयथा ह्ययं ज्योतिरात्मा विवस्वानपो भिन्ना बहुरूपोऽनुगच्छन्। उपाधिना क्रियते भेदरूपो देवः क्षेत्रेष्वेवमजोऽयमात्मासूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः इति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।13.34।।एवम् उक्तेन प्रकारेण क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः अन्तरं विशेषं विवेकविषयज्ञानाख्येन चक्षुषा ये विदुः भूतप्रकृतिमोक्षं च? ते परं यान्ति निर्मुक्तबन्धनम्? आत्मानं प्राप्नुवन्ति।मोक्ष्यते अनेन इति मोक्षः? अमानित्वादिकम् उक्तं मोक्षसाधनम् इत्यर्थः। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः विवेकविषयेण उक्तेन ज्ञानेन तयोः विवेकं विदित्वा भूताकारपरिणतप्रकृतिमोक्षोपायम् अमानित्वादिकं च अवगम्य ये आचरन्ति? ते निर्मुक्तबन्धाः स्वेन रूपेण अवस्थितम् अनवच्छिन्नज्ञानलक्षणम् आत्मानं प्राप्नुवन्ति इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।13.34।। असङ्गत्वाल्लेपो नास्तीत्याकाशदृष्टान्तेनोक्तम्? प्रकाशकत्वाच्च प्रकाश्यधर्मैर्न युज्यत इति रविदृष्टान्तेनाह -- यथेति। स्पष्टार्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।13.34।।अथाध्यायारम्भेएतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञम् [13।2] इति वेद्यत्ववेदितृत्वाभ्यां प्रतिपादितं सङ्घातात्मकत्वासङ्घातात्मकत्वप्रयुक्तनानात्वैकत्वाभ्यां सिद्धं च भेदं दृष्टान्तपूर्वं स्थिरीकरोति -- यथा प्रकाशयतीति श्लोकेन। स्वरूपधर्मभूतयोर्ज्ञानयोरेकजातीययोरपि वैधर्म्यप्रदर्शनार्थं प्रभोदाहरणम्।कृत्स्नं,क्षेत्रम् इत्यनेन कृत्स्नशब्देन सर्वेषां शरीराणां सङ्ग्रहः प्रतीयते। व्याचख्युश्च परे (शं.)रविदृष्टान्तोऽत्र रविवत्सर्वक्षेत्रेष्वेक आत्मा अलेपकश्चेति ज्ञापनार्थम् इति। तच्चायुक्तं? प्रतिक्षेत्रमात्मनां भिन्नत्वादेकैकस्य सर्वक्षेत्रप्रकाशनाभावाज्जातिपरत्वे त्वादित्यदृष्टान्तासङ्गतिरित्यभिप्रायेणाह -- बहिरन्तश्चापादतलमस्तकमिति। बहिस्त्वगादिः? अन्तर्मांसादिः। एकैकस्य शरीरस्य अवयवभेदप्रयुक्तनानात्वेन आत्मव्यतिरेकप्रदर्शनार्थमवयवेषु कस्यचिद्वेदितृत्वशङ्काव्युदासार्थं च कृत्स्नशब्द इति भावः। अनेकावयवसमुदायात्मकाच्छरीरात्तदखिलज्ञातृत्वेन प्रतिसन्धीयमान एक आत्मा भिन्न इत्युपलम्भबलसिद्धमित्युक्तं भवति। न प्रकाशकत्वमात्रप्रतिपादनपरोऽत्र दृष्टान्तः? अपितु तदधीनवैलक्षण्यपर इत्याह -- प्रकाश्यादिति। कर्मकर्तृभावादिना भेदोऽत्र स्फुट इति भावः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।13.34।।यथेति। ननु एकः परमात्मा कथमनेकानि क्षेत्राणि व्याप्नोति इत्याशङ्का प्रसिद्धेन रविणा दृष्टान्तेन अपाकृता। कृत्स्नं क्षेत्रम्? चराचराणि क्षेत्राणीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।13.34।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।13.34।।न केवलमसङ्गस्वभावत्वादात्मा नोपलिप्यते प्रकाशकत्वादपि प्रकाश्यधर्मैर्न लिप्यत इति सदृष्टान्तमाह -- यथेति। यथा रविरेक एव कृत्स्नं सर्वमिमं लोकं देहेन्द्रियसंघातं। रूपवद्वस्तुमात्रमिति यावत्। प्रकाशयति नच प्रकाश्यधर्मैर्लिप्यते न वा प्रकाश्यभेदाद्भिद्यते। तथा क्षेत्री क्षेत्रज्ञ एक एव कृत्स्नं क्षेत्रं प्रकाशयति। हे भारत? अतएव न प्रकाश्यधर्मैर्लिप्यते न वा प्रकाश्यभेदाद्भिद्यत इतियर्थः।सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः इति श्रुतेः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।13.34।।नन्वलेपे देहादिगुणप्रकाशकत्वं कथं इत्याशङ्क्याऽऽह -- यथेति। यथैको रविर्मदंशात्मकत्वात् कृत्स्नं सम्पूर्णमिमं लोकं प्रकाशयति? तथा मदंशकत्वादेव क्षेत्री क्षेत्रं कृत्स्नं सम्पूर्णं प्रकाशयति। रवेर्लोचनात्मकत्वात्तद्दृष्टान्ते मत्कृपादृष्ट्या क्रीडोपयोग्यत्वायाऽऽत्मापि क्षेत्रं प्रकाशयतीति ज्ञापितम्। भारतेतिसम्बोधनेन सैन्यमध्ये स्थितो मदंशत्वात्तद्दोषैस्त्वं यथा न लिप्यस इति ज्ञापितम्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।13.34।। --,यथा प्रकाशयति अवभासयति एकः कृत्स्नं लोकम् इमं रविः सविता आदित्यः? तथा तद्वत् महाभूतादि धृत्यन्तं क्षेत्रम् एकः सन् प्रकाशयति। कः क्षेत्री परमात्मा इत्यर्थः। रविदृष्टान्तः अत्र आत्मनः उभयार्थोऽपि भवति -- रविवत् सर्वक्षेत्रेषु एक एव आत्मा? अलेपकश्च इति।।समस्ताध्यायार्थोपसंहारार्थः अयं श्लोकः --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।13.34।।प्रकाशकत्वं च दृष्टान्तान्तरेण स्पष्टयति -- यथेति। चैतन्यं ज्ञानरूपमात्मनो धर्मः न प्राकृत इति। यथा सूर्यः प्रकाशधर्मवान् सर्वं प्रकाशयति तथाऽयं क्षेत्रीति। अनेन पुरुषस्य क्षेत्रित्वमेव? साम्प्रतं तत्त्वज्ञानेन भगवद्गुणसारत्वात्तद्व्यपदेशः क्षेत्रज्ञत्वं भवतीति बोधितम्।


Chapter 13, Verse 34