यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते।।13.33।।
yathā sarva-gataṁ saukṣhmyād ākāśhaṁ nopalipyate sarvatrāvasthito dehe tathātmā nopalipyate
yathā—as; sarva-gatam—all-pervading; saukṣhmyāt—due to subtlety; ākāśham—the space; na—not; upalipyate—is contaminated; sarvatra—everywhere; avasthitaḥ—situated; dehe—the body; tathā—similarly; ātmā—the soul; na—not; upalipyate—is contaminated
As the all-pervading ether is not tainted due to its subtlety, even so, the self abiding in the body is not tainted everywhere.
As the all-pervading space is not defiled, due to its subtlety, similarly the Self, present everywhere in bodies, is not defiled.
As the all-pervading ether is not tainted, due to its subtlety, so the Self seated everywhere in the body is not tainted either.
Just as the all-pervasive Ether is not stained due to its subtlety, in the same way the Self, abiding in the body everywhere, is not stained.
As space, though present everywhere, remains unaffected due to its subtlety, so too the Self, though present in all forms, retains its purity unalloyed.
।।13.33।।जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्त नहीं होता।
।।13.33।। जिस प्रकार सर्वगत आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सर्वत्र देह में स्थित आत्मा लिप्त नहीं होता।।
13.33 यथा as? सर्वगतम् the allpervading? सौक्ष्म्यात् because of its subtlety? आकाशम् ether? न not? उपलिप्यते is tainted? सर्वत्र everywhere? अवस्थितः seated? देहे in the body? तथा so? आत्मा the Self? न not? उपलिप्यते is tainted.Commentary Ether pervades everything. All are immersed in it. There is no point whereunto ether does not penetrate and pervade and yet it is not tainted by anything. Even so the Self pervades the whole body and the whole world. Being subtler than the body the Self is never tainted by it or anything else. It is unattached and actionless. It has no parts or limbs. So virtuous and vicious actions cannot contaminate the Self. It is ever pure and stainless.
।।13.33।। व्याख्या -- [पूर्वश्लोकमें भगवान्ने न करोति पदोंसे पहले कर्तृत्वका और फिर न लिप्यते पदोंसे भोक्तृत्वका अभाव बताया है। परन्तु उन दोनोंका विवेचन करते हुए इस श्लोकमें पहले भोक्तृत्वके अभावकी बात बतायी है और आगेके श्लोकमें कर्तृत्वके अभावकी बात बतायेंगे। अतः यहाँ ऐसा व्यतिक्रम रखनेमें भगवान्का क्या भाव है इसका उत्तर यह है कि यद्यपि कर्तृत्वके बाद ही भोक्तृत्व होता है अर्थात् कर्म करनेके बाद ही उस कर्मके फलका भोग होता है? तथापि मनुष्य जो कुछ भी करता है? पहले किसी फल(सिद्धि) का उद्देश्य मनमें रखकर ही करता है। अतः मनमें पहले भोक्तृत्व आता है? फिर उसके अनुसार काम करता है अर्थात् फिर कर्तृत्व आता है। इस दृष्टिसे भगवान् यहाँ सबसे पहले भोक्तृत्वका निषेध करते हैं। भोक्तृत्व(लिप्तता) का त्याग होनेपर कर्तृत्वका त्याग स्वतः हो जाता है अर्थात् फलेच्छाका त्याग,होनेपर क्रिया करनेपर भी कर्तृत्व नहीं होता।]यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते -- आकाशका कार्य वायु? तेज? जल और पृथ्वी है। अतः आकाश अपने कार्य वायु आदि चारों भूतोंमें व्यापक है? पर ये चारों आकाशमें व्यापक नहीं हैं? प्रत्युत व्याप्य हैं। ये चारों आकाशके अन्तर्गत हैं? पर आकाश इन चारोंके अन्तर्गत नहीं है। इसका कारण यह है कि आकाशकी अपेक्षा ये चारों स्थूल हैं और आकाश इनकी अपेक्षा सूक्ष्म है। ये चारों सीमित हैं? सान्त हैं और आकाश असीम है? अनन्त है। इन चारों भूतोंमें विकार होते हैं? पर आकाशमें विकार नहीं होता।सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते -- जैसे आकाश वायु आदि चारों भूतोंमें रहता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता? ऐसे ही सब जगह? सब शरीरोंमें रहनेवाला आत्मा किसी भी शरीरमें लिप्त नहीं होता। आत्मा सबमें परिपूर्ण रहता हुआ भी किसीमें घुलतामिलता नहीं। वह सदासर्वदा सर्वथा निर्लिप्त रहता है क्योंकि आत्मा स्वयं नित्य? सर्वगत? स्थाणु? अचल? सनातन? अव्यक्त? अचिन्त्य और अविकारी है (गीता 2। 24 25) तथा इस अविनाशी आत्मासे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है (गीता 2। 17)। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने आत्मामें भोक्तृत्वका अभाव बताया? अब आगेके श्लोकमें आत्मामें कर्तृत्वका अभाव बताते हैं।
।।13.33।। यहाँ प्रकृति और पुरुष के सम्बन्ध को दर्शाने के लिए आकाश का दृष्टान्त दिया गया है। अवकाशात् आकाश? अर्थात् जो वस्तुओं को रहने के लिए स्थान प्रदान करे वह आकाश है। पंचमहाभूतों में यह सूक्ष्मतम है? और इस कारण से सर्वगत है। सूक्ष्म आकाश उसमें स्थित सभी स्थूल वस्तुओं को व्याप्त किये हुए है? किन्तु उनमें से कोई भी वस्तु उसे मर्यादित या अपने दोष से लिप्त नहीं कर सकती।परमात्मा आकाश का भी कारण होने से उससे भी सूक्ष्मतर और उसे व्याप्त किये हुए है। वह सबको व्याप्ता है? परन्तु उसे कोई व्याप नहीं सकता। अत वह परमात्मा देह में स्थित होकर भी उससे लिप्त नहीं होता।स्वप्नावस्था के हत्यारे के हाथ जागृत पुरुष को रक्तरञ्जित नहीं कर सकते। प्रेत के रक्तरञ्जित वस्त्र स्तम्भ पर अपने चिन्ह नहीं छोड़ सकते। मृगमारीचिका से रेत गीली नहीं हो जाती। ये सब उदाहरण भ्रम और अध्यास के हैं। यह जगत् परम सत्य के अज्ञान से प्रक्षेपित होने के कारण किसी भी प्रकार से परमात्मा को दूषित नहीं कर सकता।तब? इस आत्मा का देह में क्या कार्य है सुनो
।।13.33।।न करोति न लिप्यते चेत्यत्र द्रष्टृत्वेन दृश्यधर्मशून्यत्वं हेतुमाह -- किञ्चेति। दृष्टान्तेन विवक्षितमर्थं दर्शयति -- रवीति। उभयविधमर्थमेव स्फुटयति -- रविवदिति।
।।13.33।।कर्तृत्वाभावान्न लिप्यत इत्युक्तं तत्र दृष्टान्तमाह -- यथेति। सर्वत्र देहादौ गतं स्थितमप्याकाशं खं यथा सौक्ष्भ्यात् सूक्ष्मत्वादसङ्गस्वभावत्वात् देहादिगतकर्तृत्वादिभिर्न लिप्यते न संबध्यते तथा सर्वत्र सर्वस्मिन्नवस्थितः आत्मा देहे देहधर्मैर्न लिप्यत इत्यर्थः।
।।13.33।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
।।13.33।।निर्गुणत्वान्न करोतीति सिद्धम्। असङ्गत्वान्नोपलिप्यत इत्याह -- यथेति। यथा आकाशो धूमादिना न लिप्यते सौक्ष्म्यादसङ्गस्वभावत्वात्। एवमात्मा पुण्यपापादिना नोपलिप्यत इत्यर्थः।
।।13.33।।यथा एक आदित्यः स्वया प्रभया कृत्स्नम् इमं लोकं प्रकाशयति? तथा क्षेत्रम् अपि क्षेत्री मम इदं क्षेत्रम् ईदृशम् इति कृत्स्नं बहिः अन्तः च आपादतलमस्तकं स्वकीयेन ज्ञानेन प्रकाशयति। अतः प्रकाश्यात् लोकात् प्रकाशकादित्यवद् वेदितृत्वेन वेद्यभूताद् अस्मात् क्षेत्राद् अत्यन्तविलक्षणः अयम् उक्तलक्षण आत्मा इत्यर्थः।
।।13.33।। तत्र दृष्टान्तमाह -- यथेति। यथा सर्वत्र पङ्कादिष्वपि स्थितमाकाशं सौक्ष्यादसङ्गत्वात्पङ्कादिभिर्नोपलिप्यते तथा सर्वत्र उत्तमे मध्यमेऽधमे वा देहेऽवस्थितोऽप्यात्मा नोपलिप्यते। दैहिकैर्गुणदोषैर्न युज्यत इत्यर्थः।
।।13.33।।न करोति इत्युक्तमकर्तृत्वं तु पूर्वत्रोत्तरत्र च विशोधितस्वरूपम्शरीरस्थोऽपि न लिप्यते [13।32] इत्यस्मिन् साध्यांशे रुमागतकाष्ठादिन्यायशङ्का अनन्तरश्लोकेन परिह्रियत इत्याह -- यद्यपीति।संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति शुष्काणार्द्रं दह्यते मित्रभावात्। इति हि प्रसिद्धमिति भावः।यं प्राप्यातिपवित्राणि वस्त्राण्याभरणानि च। अशुचित्वं क्षणाद्यान्ति किमन्यदशुचिस्ततः इति न्यायाद्देहेन क्षणमात्रयोगेऽपि वस्त्रादय उपहन्यन्ते किं पुनरनादिसंयुक्तः इत्यभिप्रायेणाह -- नित्यसंयुक्त इति। संसर्गस्य संसर्गिणि संसर्ग्यन्तरस्वभावापादकत्वमनियतमिति व्यभिचारोपपादनार्थोयथा सर्वगतम् इत्यनुवाद इति ज्ञापनायोभयत्र अपिशब्दोपादानम्। सर्वगतत्वानुवादःशरीरस्थोऽपि इति शङ्कोत्थापक इति च भावः।सर्वैर्वस्तुभिः संयुक्तमपीति -- सर्वगतशब्देन परस्परविरुद्धानन्तस्वभावलेपप्रसङ्गोऽभिप्रेत इति भावः। यथा आकाशो भूतान्तरेभ्यः सूक्ष्मः? तथा आकाशादपि सूक्ष्मतरोऽयमिति ज्ञापनार्थमुक्तंअतिसौक्ष्म्यादिति। तथेत्यनेन हेतुरप्यतिदिश्यत इति भावः। केचित्पदार्थाः कैश्चित्संसर्गे तत्स्वभावलेपरहिता अपि ततोऽन्यैः कैश्चित्संसर्गे तत्स्वभावलेपवन्तो दृश्यन्ते यथा कार्पासादावञ्जनादिवासनयाऽपि न श्यामतादियोगः? लाक्षारसवासनया त्वरुणता दृष्टा तथेहापि सम्भवतीति शङ्काव्युदासाय दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोः सर्वशब्दः।
।।13.31 -- 13.33।।यदि वा -- यदेत्यादि नोपलिप्यत इत्यन्तम्। विस्तीर्णत्वेन सर्वव्याप्त्या यदा भूतानां पृथक्तां भिन्नताम् (S चित्रताम्) आत्मन्येव पश्यति? आत्मन एव च उदितां तां मन्यते? तदापि सर्वकर्तृत्त्वात् न लेपभाक् यतः असौ परमात्मैव शरीरस्थोऽपि न लिप्यते आकाशवत्।
।।13.33।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।13.33।।शरीरस्थोपि तत्कर्मणा न लिप्यते स्वयमसङ्गत्वादित्यत्र दृष्टान्तमाह -- यथेति। सौक्ष्म्यादसङ्गस्वभावत्वात् आकाशं सर्वगतमपि नोपलिप्यते पङ्कादिभिर्यथेति दृष्टान्तार्थः। स्पष्टमितरत्।
।।13.33।।एतदर्थं दृष्टान्तमाह -- यथेति। यथा सर्वगतं सर्वत्र जडजीवान्तर्गतमाकाशं सौक्ष्म्यात् स्वरूपाभावात् सङ्गरहितं तेन सह नोपलिप्यते? तथा सर्वत्र उच्चनीचोऽपि देहावस्थितोऽप्यात्मा न लिप्यते।
।।13.33।। --,यथा सर्वगतं व्यापि अपि सत् सौक्ष्म्यात् सूक्ष्मभावात् आकाशं खं न उपलिप्यते न संबध्यते? सर्वत्र अवस्थितः देहे तथा आत्मा,न उपलिप्यते।।किञ्च --,
।।13.33।।यद्यपि निर्गुणत्वान्न करोति तथापि नित्यसंयुक्तैर्देहस्वभावैः कथं न लिप्यते इत्यत्राह दृष्टान्तेन -- यथा सर्वगतमिति। आकाशवत्सर्वाश्रयव्यापी सौक्ष्म्यादणुत्वाद्धेतोः जीवः आत्माऽपि तथा नोपलिप्यते सर्वाश्रयव्यापित्वं तु व्यापिचैतन्यगुणादेव युज्यते चन्दनादिवदिति।
Chapter 13, Verse 33