प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति।।13.30।।
prakṛityaiva cha karmāṇi kriyamāṇāni sarvaśhaḥ yaḥ paśhyati tathātmānam akartāraṁ sa paśhyati
prakṛityā—by material nature; eva—truly; cha—also; karmāṇi—actions; kriyamāṇāni—are performed; sarvaśhaḥ—all; yaḥ—who; paśhyati—see; tathā—also; ātmānam—(embodied) soul; akartāram—actionless; saḥ—they; paśhyati—see
He who sees that all acts are done universally by Prakrti alone, and likewise that the self is not the doer, he indeed sees.
And he who sees actions being done in various ways by Nature itself, and also the Self as the non-agent, he sees.
He sees, who sees that all actions are performed solely by Nature and that the Self is without action.
Whoever views all actions as being performed (or all objects as being created) by the Material Cause itself, and at the same time views their own Self as a non-performer (or non-creator) - they view properly.
He who understands that it is only the Law of Nature that brings action to fruition, and that the Self never acts, alone knows the Truth.
।।13.30।।जो सम्पूर्ण क्रियाओंको सब प्रकारसे प्रकृतिके द्वारा ही की जाती हुई देखता है और अपने-आपको अकर्ता देखता (अनुभव करता) है, वही यथार्थ देखता है।
।।13.30।। जो पुरुष समस्त कर्मों को सर्वश: प्रकृति द्वारा ही किये गये देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।।
13.30 प्रकृत्या by Nature? एव alone? च and? कर्माणि actions? क्रियमाणानि being performed? सर्वशः all? यः who? पश्यति sees? तथा so also? आत्मानम् the Self? अकर्तारम् actionless? सः he? पश्यति sees.Commentary Nature is responsible for all activities. The Self is beyond all action. It is the silent witness only. He who experiences thus is the real seer or sage.He who knows that all actions proceeding from the five organs of knowledge? the five organs of action? the mind and the intellect are prompted by Nature and that the Self is actionless? really sees. He alone sees. He who identifies himself with the body? the mind and the senses and foolishly thinks that the Self is the actor is an ignorant man. He sees only with the physical eyes. He has no inner eye of intuition. The sky remains motionless but the clouds move across the sky. Even so the Self is actionless but Nature does everythin. The Self is destitute of any limiting adjunct. Just as there is no variety in ether? so also there is no variety in the Self. It is one homogeneous essence. It is free from any kind of characteristics. (Cf.III.27XIV.19XVIII.16)
।।13.30।। व्याख्या -- प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः -- वास्तवमें चेतन तत्त्व स्वतःस्वाभाविक निर्विकार? सम और शान्तरूपसे स्थित है। उस चेतन तत्त्व(परमात्मा) की शक्ति प्रकृति स्वतःस्वाभाविक क्रियाशील है। उसमें नित्यनिरन्तर क्रिया होती रहती है -- प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः। यद्यपि प्रकृतिको सक्रिय और अक्रिय -- दो अवस्थाओंवाली (सर्गअवस्थामें सक्रिय और प्रलयअवस्थामें अक्रिय) कहते हैं? तथापि सूक्ष्म विचार करें तो प्रलयअवस्थामें भी उसकी क्रियाशीलता मिटती नहीं है। कारण कि जब प्रलयका आरम्भ होता है? तब प्रकृति सर्गअवस्थाकी तरफ चलती है। इस प्रकार प्रकृतिमें सूक्ष्म क्रिया चलती ही रहती है। प्रकृतिकी सूक्ष्म क्रियाको ही अक्रियअवस्था कहते हैं क्योंकि इस अवस्थामें सृष्टिकी रचना नहीं होती। परन्तु महासर्गमें जब सृष्टिकी रचना होती है? तब सर्गके आरम्भसे सर्गके मध्यतक प्रकृति सर्गकी तरफ चलती है और सर्गका मध्य भाग आनेपर प्रकृति प्रलयकी तरफ चलती है। इस प्रकार प्रकृतिकी स्थूल क्रियाको सक्रियअवस्था कहते हैं। अगर प्रलय और महाप्रलयमें प्रकृतिको अक्रिय माना जाय? तो प्रलयमहाप्रलयका आदि? मध्य और अन्त कैसे होगा ये तीनों तो प्रकृतिमें सूक्ष्म क्रिया होनेसे ही होते हैं। अतः सर्गअवस्थाकी अपेक्षा प्रलयअवस्थामें अपेक्षाकृत अक्रियता है? सर्वथा अक्रियता नहीं है।सूर्यका उदय होता है? फिर वह मध्यमें आ जाता है और फिर वह अस्त हो जाता है? तो इससे मालूम होता है कि प्रातः सूर्योदय होनेपर प्रकाश मध्याह्नतक बढ़ता जाता है और मध्याह्नसे सूर्यास्ततक प्रकाश घटता जाता है। सूर्यास्त होनेके बाद आधी राततक अन्धकार बढ़ता जाता है और आधी रातसे सूर्योदयतक अन्धकार घटता जाता है। वास्तवमें प्रकाश और अन्धकारकी सूक्ष्म सन्धि मध्याह्न और मध्यरात ही है? पर वह दीखती है सूर्योदय और सूर्यास्तके समय। इस दृष्टिसे प्रकाश और अन्धकारकी क्रिया मिटती नहीं? प्रत्युत निरन्तर होती ही रहती है। ऐसे ही सर्ग और प्रलय? महासर्ग और महाप्रलयमें भी प्रकृतिमें क्रिया निरन्तर होती ही रहती है (टिप्पणी प0 704)।इस क्रियाशील प्रकृतिके साथ जब यह पुरुष सम्बन्ध जोड़ लेता है? तब शरीरद्वारा होनेवाली स्वाभाविक क्रियाएँ (तादात्म्यके कारण) अपनेमें प्रतीत होने लगती हैं। यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति -- प्रकृति और उसके कार्य स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरमें खानापीना? चलनाफिरना? उठनाबैठना? घटनाबढ़ना? हिलनाडुलना? सोनाजागना? चिन्तन करना? समाधिस्थ होना आदि जो कुछ भी क्रियाएँ होती हैं? वे सभी प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं? स्वयंके द्वारा नहीं क्योंकि स्वयंमें कोई क्रिया होती ही नहीं -- ऐसा जो देखता है अर्थात् अनुभव करता है? वही वास्तवमें ठीक देखता है। कारण कि ऐसा देखनेसे अपनेमें अकर्तृत्व(अकर्तापन) का अनुभव हो जाता है।यहाँ क्रियाओंको प्रकृतिके द्वारा होनेवाली बताया है? कहीं गुणोंके द्वारा होनेवाली बताया है और कहीं,इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली बताया है -- ये तीनों बातें एक ही हैं। प्रकृति सबका कारण है? गुण प्रकृतिके कार्य हैं और गुणोंका कार्य इन्द्रियाँ हैं। अतः प्रकृति? गुण और इन्द्रियाँ -- इनके द्वारा होनेवाली सभी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा होनेवाली ही कही जाती हैं।
।।13.30।। विभिन्न मोटर कम्पनियों के द्वारा निर्मित विभिन्न अश्वशक्ति की असंख्य कारों में से प्रत्येक वाहन का कार्य सम्पादन विशिष्ट होता है। इससे हम यह नहीं कह सकते कि इन कारों में प्रयुक्त पेट्रोल विभिन्न क्षमताओं का है। बल्ब अनेक हैं? परन्तु विद्युत् तो एक ही है। ये दृष्टान्त इस श्लोक में व्यक्त किये गये आत्मैकत्व के सिद्धान्त को भली भाँति स्पष्ट करते हैं।सब कर्म आत्मा की केवल उपस्थिति में प्रकृति से उत्पन्न उपाधियों के द्वारा ही किये जाते हैं। अब विभिन्न व्यक्तियों के कर्मों में जो भेद है? वह उनके विभिन्न शुभाशुभ संस्कारों और इच्छाओं के कारण है? आत्मा के कारण नहीं। केवल क्षेत्र या क्षेत्रज्ञ में कोई कर्म नहीं होते हैं।आत्मा अकर्ता है कर्म करने के लिये शरीरादि कारणों की और मन में इच्छा की आवश्यकता होती है? परन्तु आत्मा सर्वव्यापी? निराकार और सर्व उपाधि रहित होने से उसमें कोई कर्म ही नहीं हो सकते? तो फिर वह कर्ता कैसे हो सकता है आत्मा के अकर्तृत्व के विषय में अन्य कारण भी आगे प्रस्तुत किये जायेंगे।जो प्रकृति की क्रियाओं में आत्मा को अकर्ता जानता है? वही पुरुष वास्तव में तत्त्व को देखता है। उपाधियों के अभाव में समस्त जीवों के गुणों और कर्मों की विलक्षणता का अभाव होकर केवल परमात्मा ही स्वस्वरूप में अवस्थित रह जाता है।पुन? ज्ञानी पुरुष के सम्यक् दर्शन को दूसरे शब्दों में बताते हुये कहते हैं
।।13.30।।प्रकृतेर्विकाराणां च सांख्यवत्पुरुषादन्यत्वप्रसक्तौ प्रत्याह -- पुनरपीति। उपदेशजनितं प्रत्यक्षदर्शनमनुवदति -- आत्मैवेति। भूतानां विकाराणां नानात्वं प्रकृत्या सहात्ममात्रतया प्रलीनं पश्यति नहि भूतपृथक्त्वं सत्यां प्रकृतौ केवले परस्मिन्विलापयितुं शक्यत इत्यर्थः। परिपूर्णादात्मन एव प्रकृत्यादेर्विशेषान्तस्य स्वरूपलाभमुपलभ्य तन्मात्रतां पश्यतीत्याह -- तत एवेति। उक्तमेव विस्तारं श्रुत्यवष्टम्भेन स्पष्टयति -- आत्मत इति। ब्रह्मसंपत्तिर्नाम पूर्णत्वेनाभिव्यक्तिरपूर्णत्वहेतोः सर्वस्यात्मसात्कृतत्वादित्याह -- ब्रह्मैवेति। ज्ञानसमानकालैव मुक्तिरिति सूचयति -- तदेति।
।।13.30।।ननु सुखदुःखादिभिः गुणैर्धर्माधर्माख्यैः स्वकर्मभिश्च वैलक्षण्यात्प्रतिदेहं भेदे तद्विशिष्टेष्वतामसु साभ्यदर्शनमनुपपन्नमिति चेत्तत्राह। प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिका भगवतो माया।मायां तु प्रकृतिं विद्यात् इति श्रुतेः। तयैव च कर्माणि वाङ्यनःकायारभ्याणि क्रियमाणानि सर्वशः सर्वप्रकारैः। सर्वप्रकारत्वे च काम्यत्वनिषिद्धत्वादिना प्रकारबाहुल्यं यः पश्यति तथात्मानं क्षेत्रज्ञमकर्तारं सर्वोपाधिशून्यमेकं यः पश्यति स पश्यति परमार्थदर्शीति पूर्ववत्। निर्गुणस्याकर्तुर्निर्विशेषस्याकाशस्येव भेदे प्रमाणानुपपत्तेरित्यर्थः।
।।13.30।।आत्मानं चाकर्त्तारं पश्यति स पश्यति।
।।13.30।।ननु विषमस्वभावानि भूतानि कः समबुद्ध्या पश्यत्यग्निमिव शीतबुद्ध्येत्याशङ्क्याह -- प्रकृत्यैवेति। सर्वशः सर्वप्रकारेण कर्माणि वाङ्मनःकायैरारब्धानि प्रकृत्यैव क्रियमाणानीति यः पश्यति तथा आत्मानं चाकर्तारं यः पश्यति पूर्वोक्तरीत्या स एव सर्वत्र समं पश्यतीति पूर्वेणान्वयः।
।।13.30।।प्रकृतिपुरुषतत्त्वद्वयात्मकेषु देवादिषु सर्वेषु भूतेषु सत्सु तेषां देवत्वमनुष्यत्वह्रस्वत्वदीर्घत्वादि पृथग्भावम् एकस्थम् एकतत्त्वस्थं प्रकृतिस्थं यदा पश्यति? न आत्मस्थम्? तत एव प्रकृतित एव उत्तरोत्तरपुत्रपौत्रादिभेदविस्तारं च यदा पश्यति? तदा एव ब्रह्म संपद्यते अनवच्छिन्नज्ञानैकाकारम् आत्मानं प्राप्नोति इत्यर्थः।
।।13.30।।ननु शुभाशुभकर्मकर्तृत्वेन वैषम्ये दृश्यमाने कथमात्मनः समत्वमित्याशङ्क्याह -- प्रकृत्यैवेति। प्रकृत्यैव देहेन्द्रियाकारेण परिणतया सर्वशः सर्वैः प्रकारैः क्रियमाणानि कर्माणि यः पश्यति? तथात्मानं? चाकर्तारं देहाभिमानेनैवात्मनः कर्तृत्वं न स्वतः इत्येवं यः पश्यति? स एव सम्यक्पश्यति नान्य इत्यर्थः।
।।13.30।।अथ साक्षात्िक्रयाश्रयत्वतदभावादिवैधर्म्यमुच्यते -- प्रकृत्यैवेति श्लोकद्वयेन। अत्र कर्माण्याकुञ्चनप्रसारणादीनि। प्रकृत्या क्रियमाणानां कर्मणां स्वरूपदर्शनमात्रं विद्वदविद्वत्साधारणम् विदुषस्तु प्रकृत्या क्रियमाणत्वदर्शनं विशेष इत्युपादेयांशविशदीकरणाय -- क्रियमाणानीति इति करणम्। अकर्तृत्वमात्मशब्दाभिप्रेतेन शुद्धाकारेण स्थापयति -- ज्ञानाकारमिति।ज्ञाताकारम् इति वा पाठ। कथं तर्हि शास्त्रवश्यत्वतत्फलभोक्तृत्वादिकं इत्यत्राह -- तस्येति। सर्वस्यास्य चक्रवत्परिवर्तमानोपाधिप्रवाहनिबन्धनत्वान्न कश्चिद्दोष इति भावः।
।।13.30।।प्रकृत्येति। यस्य हि ईदृशी स्थिरतरा बुद्धिर्भवति प्रकृतिरेवेदं करोति? नाहं किञ्चित् इति (K omits इति) स सर्वं कुर्वाणोऽपि न करोति। एवमकर्तृत्वम्।
।।13.30।।प्रकृत्यैव च इत्यत्र यः प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि पश्यति स आत्मानमकर्तारं पश्यतीति कश्चिदन्वयमाह? तदसत् तथाशब्दवैयर्थ्यापत्तेरिति भावेनान्यथाऽऽह -- आत्मानं चेति। स पश्यति परमेश्वरम्।
।।13.30।।ननु शुभाशुभकर्मकर्तारः प्रतिदेहं भिन्ना आत्मानो विषमाश्च तत्तद्विचित्रफलभोक्तृत्वेनेति कथं सर्वभूतस्थमेकमात्मानं समं पश्यन्न हिनस्त्यात्मनात्मानमित्युक्तमत आह -- प्रकृत्यैवेति। कर्माणि वाङ्मनःकायारभ्याणि सर्वशः सर्वैः प्रकारैः प्रकृत्यैव देहेन्द्रियसंघाताकारपरिणतया सर्वविकारकार्यकारणभूतया त्रिगुणात्मिकया भगवन्माययैव क्रियमाणानि नतु पुरुषेण सर्वाविकारशून्येन यो विवेकी पश्यति? एवं क्षेत्रेण क्रियमाणेष्वपि कर्मसु आत्मानं क्षेत्रज्ञमकर्तारं सर्वोपाधिविवर्जितमसङ्गमेकं सर्वत्र समं यः पश्यति। तथाशब्दः पश्यतीति क्रियाकर्षणार्थः। स पश्यति स परमार्थदर्शीति पूर्ववत्। सविकारस्य क्षेत्रस्य तत्तद्विचित्रकर्मकर्तृत्वेन प्रतिदेहं भेदेऽपि वैषम्येऽपि न निर्विशेषस्याकर्तुराकाशस्येव न भेदे प्रमाणं किंचिदात्मन इत्युपपादितं प्राक्।
।।13.30।।ननु सर्वरूपेण यदि सर्वत्र स एवास्ति? तदा कथं न सर्वे तथा पश्यन्ति इत्याशङ्क्याऽऽह -- प्रकृत्यैवेति। प्रकृत्या लीलोपयोगीन्येव क्रियमाणानि कर्माणि यः पश्यति? चकारेण कार्यमाणानि? तथा आत्मानं जीवमकर्तारं तदिच्छाभावे सर्वकरणाशक्तं यः पश्यति स पश्यति परमेश्वरमिति शेषः। अथवा स एव पश्यति अन्ये त्वन्धा एवेति भावः।
।।13.30।। -- प्रकृत्या प्रकृतिः भगवतः माया त्रिगुणात्मिका? मायां तु प्रकृतिं विद्यात् (श्वे0 उ0 4।10) इति मन्त्रवर्णात्? तया प्रकृत्यैव च न अन्येन महदादिकार्यकरणाकारपरिणतया कर्माणि वाङ्मनःकायारभ्याणि क्रियमाणानि निर्वर्त्यमानानि सर्वशः सर्वप्रकारैः यः पश्यति उपलभते? तथा आत्मानं क्षेत्रज्ञम् अकर्तारं सर्वोपाधिविवर्जितं सः पश्यति? सः परमार्थदर्शी इत्यभिप्रायः निर्गुणस्य अकर्तुः निर्विशेषस्य आकाशस्येव भेदे प्रमाणानुपपत्तिः इत्यर्थः।।पुनरपि तदेव सम्यग्दर्शनं शब्दान्तरेण प्रपञ्चयति --,
।।13.30।।द्वितीयस्यापि स्वस्य दर्शने फलमाह -- प्रकृत्यैवेति। साङ्ख्ये तु प्रकृत्यैव क्रियमाणानि कर्माणि कर्तृत्वं चेष्टावत्त्वेन प्रकृत्याश्रयं? न तु केवल आत्मनि जीवस्वरूपेऽणुपरिमाणमात्रे चिद्रूपेऽपि मुख्यकर्तृपुरुषोत्तमांशभावानुसन्तत्यैव देहद्वयोपाधिवैशिष्टये तु तत्र कर्तृत्वं प्राकृतमेवेति ध्येयं? तथा चैवमन्ततोऽकर्त्तारमात्मानं स्वस्वरूपं निरुपाधिभावं पश्यति स पश्यति अन्ये त्वन्धाः।
Chapter 13, Verse 30