Chapter 13, Verse 17

Text

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।13.17।।

Transliteration

avibhaktaṁ cha bhūteṣhu vibhaktam iva cha sthitam bhūta-bhartṛi cha taj jñeyaṁ grasiṣhṇu prabhaviṣhṇu cha

Word Meanings

avibhaktam—indivisible; cha—although; bhūteṣhu—amongst living beings; vibhaktam—divided; iva—apparently; cha—yet; sthitam—situated; bhūta-bhartṛi—the sustainer of all beings; cha—also; tat—that; jñeyam—to be known; grasiṣhṇu—the annihilator; prabhaviṣhṇu—the creator; cha—and


Translations

In English by Swami Adidevananda

Undivided yet appearing as if divided among beings, this Self is to be known as the supporter of the elements. It devours them and causes their generation.

In English by Swami Gambirananda

The Knowable, though undivided, appears to exist as divided in all beings, and It is the sustainer, devourer, and originator of all beings.

In English by Swami Sivananda

Undivided yet, It exists as if divided in beings; It is to be known as the supporter of beings; It devours and It generates.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

It remains undistinguished among the distinguished beings, and appears as if distinguished. It is to be known as the supporter of beings, and also as their swallower and originator.

In English by Shri Purohit Swami

In all beings, undivided yet living in division, it is the upholder of all, both creator and destroyer alike.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।13.17।।वे परमात्मा स्वयं विभागरहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंमें विभक्तकी तरह स्थित हैं। वे जाननेयोग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले, उनका भरण-पोषण करनेवाले और संहार करनेवाले हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।13.17।। और वह अविभक्त है, तथापि वह भूतों में विभक्त के समान स्थित है। वह ज्ञेय ब्रह्म भूतमात्र का भर्ता, संहारकर्ता और उत्पत्ति कर्ता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

13.17 अविभक्तम् undivided? च and? भूतेषु in beings? विभक्तम् divided? इव as if? च and? स्थितम् existing? भूतभर्तृ the supporter of beings? च and? तत् That ज्ञेयम् to be known? ग्रसिष्णु devouring? प्रभविष्णु generating? च and.Commentary Brahman must be regarded as That which supports? swallows up and also creates all beings? in the three forms of Brahma who creates the world of names anf forms? Vishnu who preserves or sustains? and Rudra who destroys. It is undivided in the various bodies. It is like ether. It is allpervding like space (Akasa). It is indivisible and the One? but It seems to divide Itself in forms and appears as all the separate existing things and beings. It is essentially unbroken. Yet? It is? as it were? divided among all beings.It devours this world during the cosmic dissolution. It generates it at the time of the origin of the next age. It supports all beings during the period of sustenance of this world.Just as fire is hidden in the wood? so also Brahman is hidden in all bodies. Just as the one space appears to be different through the limiting adjuncts (pot? house? etc.) so also the one indivisible Brahman appears to be different through the limiting adjuncts (the body? etc.). (Cf.XVIII.20)An objector says The knowable Brahman? the Knower of the field? is allpervading. It exists everywhere and yet It is not perceived. Therefore It must be of the nature of darkness or Tamas.The answer is No. It cannot be.What? then It is the Light of Lights.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।13.17।। व्याख्या --   अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् -- इस त्रिलोकीमें देखने? सुनने और समझनेमें जितने भी स्थावरजङ्गम प्राणी आते हैं? उन सबमें परमात्मा स्वयं विभागरहित होते हुए भी विभक्तकी तरह प्रतीत होते हैं। विभाग केवल प्रतीति है।जिस प्रकार आकाश घट? मठ आदिकी उपाधिसे घटाकाश? मठाकाश आदिके रूपमें अलगअलग दीखते हुए भी तत्त्वसे एक ही है? उसी प्रकार परमात्मा भिन्नभिन्न प्राणियोंके शरीरोंकी उपाधिसे अलगअलग दीखते हुए भी तत्त्वसे एक ही हैं।इसी अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् पदोंसे परमात्माको सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभावसे स्थित देखनेके लिये कहा गया है। इसी तरह अठारहवें अध्यायके बीसवें श्लोकमें अविभक्तंविभक्तेषु पदोंसे सात्त्विक ज्ञानका वर्णन करते हुए भी परमात्माको अविभक्तरूपसे देखनेको ही सात्त्विक ज्ञान कहा गया है।भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च -- इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें विद्धि पदसे जिस परमात्माको जाननेकी बात कही गयी है और बारहवें श्लोकमें जिस ज्ञेय तत्त्वका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की गयी है? उसीका यहाँ ब्रह्मा? विष्णु और शिवके रूपसे वर्णन हुआ है। वस्तुतः चेतन तत्त्व (परमात्मा) एक ही है। वे ही परमात्मा रजोगुणकी प्रधानता स्वीकार करनेसे ब्रह्मारूपसे सबको उत्पन्न करनेवाले सत्त्वगुणकी प्रधानता स्वीकार करनेसे विष्णुरूपसे सबका भरणपोषण करनेवाले और तमोगुणकी प्रधानता स्वीकार करनेसे रुद्ररूपसे सबका संहार करनेवाले हैं। तात्पर्य है कि एक ही परमात्मा सृष्टि? पालन और संहार करनेके कारण ब्रह्मा? विष्णु और शिव नाम धारण करते हैं (टिप्पणी प0 691)। यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि परमात्मा सृष्टिरचनादि कार्योंके लिये भिन्नभिन्न गुणोंको स्वीकार करनेपर भी उन गुणोंके वशीभीत नहीं होते। गुणोंपर उनका पूर्ण आधिपत्य रहता है। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने ज्ञेय तत्त्वका आधाररूपसे वर्णन किया? अब आगेके श्लोकमें उसका प्रकाशकरूपसे वर्णन करते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।13.17।। यद्यपि विद्युत् सर्वत्र विद्यमान है? तथापि प्रकाश के रूप में वह केवल बल्ब में ही प्रकट होती है। उसी प्रकार आत्मा सर्वगत होते हुए भी जहाँ उपाधियाँ हैं वहीं पर विशेष रूप से प्रकट होता है। एक ही व्यापक आकाश घट और मठ की उपाधियों से घटाकाश और मठाकाश के रूप में प्रतीत होता है।पूर्व के अध्यायों में भी अनेक स्थलों पर वर्णन किया जा चुका है कि किस प्रकार विश्वाधिष्ठान परमात्मा विश्व की उत्पत्ति? स्थिति और संहार का कर्ता है। यहाँ मिट्टी? स्वर्ण? समुद्र और जाग्रतअवस्था के मन के दृष्टान्त स्मरणीय हैं? जो क्रमश घट? आभूषण? तरंग और स्वप्न की उत्पत्ति? स्थिति और लय के कारण होते हैं।यह ज्ञेय वस्तु है। प्रस्तुत प्रकरण के श्लोकों में उस ज्ञेय वस्तु का निर्देशात्मक वर्णन किया गया है? जिसे आत्मरूप से जानने के लिए अमानित्वादि गुणों के पालन से अन्तकरण को सुपात्र बनाने का उपदेश दिया गया था।आत्मतत्त्व हमारे अन्तर्बाह्य सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी यदि अनुभव का विषय नहीं बनता हो? तो वह अन्धकारस्वरूप होगा। ऐसी शंका प्राप्त होने पर कहते हैं कि ऐसा नहीं है? क्योंकि

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।13.17।।इतोऽपि ज्ञेयस्यास्तित्वमित्याह -- किञ्चेति। हेत्वन्तरमेव स्फोरयितुं शङ्कते -- सर्वत्रेति। न तत्तमो मन्तव्यमित्याह -- नेति। तर्हि किं तस्य रूपमिति पृच्छति -- किं तर्हीति। तत्रोत्तरं -- ज्योतिषामिति। सूर्यादीनां बुद्ध्यादीनां च प्रकाशकत्वादस्ति ज्ञेयं ब्रह्मेत्याह -- ज्योतिषामिति। तदेवोपपादयति -- आत्मेति। तत्र श्रुतिद्वयं प्रमाणयति -- येनेति। उक्तेऽर्थे वाक्यशेषमपि दर्शयति -- स्मृतेश्चेति। ज्ञेयस्यातमस्त्वेऽपि तमःस्पृष्टत्वमाशङ्क्योक्तं -- तमस इति। उत्तरार्धस्य तात्पर्यमाह -- ज्ञानादेरिति। उत्तम्भनमुद्दीपनं प्रकटीकरणमिति यावत्। ज्ञानममानित्वादि करणव्युत्पत्त्येति शेषः। ज्ञानगम्यं ज्ञेयमिति पुनरुक्तिं शङ्कित्वोक्तं -- ज्ञेयमिति। उक्तत्रयस्य बुद्धिस्थतया प्राकट्यं प्रकटयति -- तदेतदिति। तत्रानुभवमनुकूलयति -- तत्रैवेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।13.17।।किंचेतोऽपि ज्ञेयास्तित्वमित्याह। अविभक्तं विभागशून्यं प्रतिदेहं व्योमवदेकं तद्भेदे मानाभावाद्भिन्नत्वे च घटवदनात्मत्वापातात्। तथाच श्रुतिःएकमेवाद्वितीयं नेह नानास्ति किंचन। मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति इत्याद्या। तेन प्रतिदेहं भिन्न आत्मेति सांख्यादिमतं श्रुतिस्मृतिविरुद्धं नादर्तव्यम्। कथं तर्हि भेदबुद्धिरित्याशंक्य कल्पनयेत्याह। भूतेषु सर्वप्राणिषु विभक्तमिव च स्थितं मिथ्याभूतभेदवत्प्रतीतं जलमात्रेषु चन्द्रावद्देहेष्वेव विभाव्यमानत्वात्।एकएव तु भूतात्मा भूतेभूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् इतिश्रुतेः। एव ज्ञेयस्य प्रत्यगात्मत्वेनास्तित्वमभिधाय परमेश्वरात्मनास्तित्वमाह। भूतभर्तृ च स्थितिकाले तज्ज्ञेयं। भूतानि बिभार्ति धारयति पालयति चेति तत्प्रलयकाले तदेव ग्रसिष्णु ग्रसनशीलं उत्पत्तिकाले प्रभविष्णु प्रभवनशीलं यथा कल्पितसर्पादीनां स्थितिकाले रज्जवादिरेव तान्बभर्ति। बाधकाले च ग्रसिष्णुरुत्पत्तिकाले च प्रभविष्णुरित्यर्थः। तेन कार्यकारणत्वस्य वस्तु त्वाद्द्वतमिति न शङ्कनीयम्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।13.17।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।13.17।।एतदेवोपपादयत्यर्धेन -- अविभक्तं चेति।एक एव तु भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् इति श्रुतेर्भूतेषु कार्यकारणसंघातापन्नेषु जलपात्रेषु चन्द्रस्येव ब्रह्मणः प्रतिबिम्बा जीवास्ते चोक्तरीत्या बिम्बादनन्या इति तद्रूपेण भूतेष्वविभक्तं च विभागमप्राप्तमपि ज्ञेयवस्तु मूढदृष्ट्या विभक्तमिव दूरदेशस्थमिव चाद्विभिन्नमिव च स्थितम्। एवं तर्हि चन्द्रादुदपात्राणामिव भूतानां पृथक्सत्त्वापत्तिरित्याशङ्क्याह -- भूतभर्तृचेति। अधिष्ठानत्वेन सर्वाणि भूतानि धारयतीति न ततस्तेषां पृथक्सत्तास्ति रज्जुत इव तदध्यस्तानां सर्पदण्डधारादीनामित्यर्थः। एतदेवाह -- ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च। यथा रज्जुस्त्वज्ञानदशायां सर्पादीन् ग्रसति अज्ञानदशायां च तानेव प्रसूते तद्वत् ज्ञातं ब्रह्म सर्वभूतानि ग्रसिष्णु ग्रसनशीलमज्ञातं च सर्वभूतानां प्रभविष्णु उत्पादनशीलम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।13.17।।ज्योतिषां दीपादित्यमणिप्रभृतीनाम् अपि तद् एव ज्योतिः प्रकाशकम् दीपादित्यादीनाम् अपि आत्मप्रभारूपं ज्ञानम् एव प्रकाशकम्। दीपादयः तु विषयेन्द्रियसन्निकर्षविरोधिसंतमसनिरसनमात्रं कुर्वते? तावन्मात्रेण एव तेषां प्रकाशकत्वम्।तमसः परम् उच्यते -- तमः शब्दः सूक्ष्मावस्थप्रकृतिवचनः? प्रकृतेः परम् उच्यते इत्यर्थः। अतो ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानैकाकारम् इति ज्ञेयम् तत् च ज्ञानगम्यम् अमानित्वादिभिः उक्तैः ज्ञानसाधनैः प्राप्यम् इत्यर्थः। हृदि सर्वस्य विष्ठितं सर्वस्य मनुष्यादेः हृदि विशेषेण अवस्थितं सन्निहितम्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।13.17।। किंच -- अविभक्तमिति। भूतेषु स्थावरजङ्गमात्मकेषु अविभक्तं कारणात्मना अभिन्नं? कार्यात्मना विभक्तं च भिन्नमिवावस्थितं च। समुद्राज्जातं फेनादि समुद्रादन्यन्न भवति तत्पूर्वोक्तं स्वरूपं च ज्ञेयम्। भूतानां भर्तृ च पोषकं स्थितिकाले? प्रलयकाले च ग्रसिष्णु ग्रसनशीलम्? सृष्टिकाले च प्रभविष्णु नानाकार्यात्मना प्रभवनशीलम्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।13.17।।स्वरूपभेदवत्स्वविग्रहक्षेत्रादिष्वविभक्तशब्दप्रयोगात्पण्डिताः समदर्शिनः [5।8] इति प्रागुक्तं साम्यमिहापि विवक्षितमित्याह -- देवमनुष्यादीति।अविभक्तं स्वरूपेण देवत्वादिविभागरहितमित्यर्थः।विभक्तमिव इतीवशब्देन भ्रान्तोपलम्भविषयाकारसूचनमाहअविदुषामिति। एवं शुद्ध्यवस्थोक्ता? तत्रभूतभर्तृ इत्यादिना जगद्व्यापारभ्रमव्युदासाय प्रकरणस्य भोक्तृव्यतिरेकपरतामेव वदन् पूर्वोक्तपुनरुक्तिं च परिहरतिदेवोऽहमित्यादिना ग्रन्थद्वयेन। अहंत्वानहंत्वज्ञातृत्वाज्ञत्वादिरूपो भेदः प्रागुक्तः अत्र त्वाधाराधेयभावभोक्तृत्वभोग्यत्वविकार्यत्वविकारहेतुत्वैर्विवेकः क्रियत इत्यर्थः। अत्र जीवभर्तव्यविषयो भूतशब्दोऽचिन्मात्रपरः तत्रापि प्रसिद्ध्यनुरोधेन महाभूतविषयत्वेऽपि क्षेत्रप्रकरणात्तादृशपरिणामवद्भूतविषय इत्याह -- भूतानामिति। ज्ञेयशब्दश्चज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि [13।13] इत्युपक्रान्तत्वेऽपि पुनरिहोच्यमानत्वात्तदतिरिक्तार्थतया व्याख्यातः। भर्तृत्वभर्तव्यत्वफलितमाह -- अर्थान्तरमिति।प्रभवहेतुरिति -- देहव्यतिरिक्तत्वोपपादने तात्पर्यादयमेवार्थ उचित इति भावः। प्रभवोऽत्र रेतोगर्भादिरूपेण परिणामः।आकारान्तरेण -- रसमलधात्वादिरूपेणेत्यर्थः।ननु शरीरेणैव ग्रासादिकं क्रियमाणं दृश्यते? न च कार्यकरणसङ्घातमन्तरेण निरवयवस्य ग्रसनादिसम्भवः?,तत्कथमात्मधर्मत्वेन व्यपदिश्यत इति शङ्कायामुक्तमर्थं व्यतिरेकेण द्रढयति -- मृतशरीर इति। क्षेत्रं शरीरत्ववेषेण ग्रसनादिकारणम्? उत भूतसङ्घातमात्रेण आद्ये शरीरत्वस्यात्मप्रतियोगिकत्वादात्मसापेक्षत्वं ग्रसनादेः सिद्धम्? द्वितीये मृतशरीरादिष्वदर्शनादयुक्तिः। यद्यपि मृतशरीरेऽपि केचिद्विशेषा दृश्यन्ते तथापि जीवज्ञानपूर्वकग्रसनभरणाद्यभावान्न ते जीवापेक्षाः। ईश्वरापेक्षा तु सार्वत्रिकीति न तत्र विशेष इति भावः। अत्र भरणग्रसनादिकं रज्ज्वादिषु सर्पादेरिवेति वदन्तः श्रुतहानाश्रुतकल्पनादिभिर्निरस्ताः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।13.13 -- 13.18।।एतेन ज्ञानेन यत् ज्ञेयं तदुच्यते -- ज्ञेयमित्यादि विष्ठितमित्यन्तम्। अनादिमत् परं ब्रह्म इत्यादिभिर्विशेषणैः ब्रह्मस्वरूपाक्षेपानुग्राहकं,(S -- स्वरूपापेक्षानु -- ) सर्वप्रवादाभिहितविज्ञानापृथग्भावं कथयति (S??N सर्वप्रवादान्तराभिहितपृथग्भावकमुच्यते)। एतानि च विशेषणानि पूर्वमेव व्याख्यातानि इति किं निष्फलया,पुनरुक्त्या।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।13.17।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।13.17।।यदुक्तमेकमेव सर्वमावृत्य तिष्ठतीति तद्विवृणोति प्रतिदेहमात्मभेदवादिनां निरासाय -- अविभक्तमिति। भूतेषु सर्वप्राणिषु अविभक्तमभिन्नमेकमेव तत् नतु प्रतिदेहं भिन्नं व्योमवत्सर्वव्यापकत्वात्। तथापि देहतादात्म्येन प्रतीयमानत्वात्प्रतिदेहं विभक्तमिव च स्थितं औपाधिकत्वेनापारमार्थिको व्योम्नीव तत्र भेदावभास इत्यर्थः। ननु भवतु क्षेत्रज्ञः सर्वव्यापक एको ब्रह्म तु जगत्कारणं ततो भिन्नमेवेति नेत्याह -- भूतेति। भूतभर्तृ च भूतानि सर्वाणि स्थितिकाले बिभर्तीति? तथा प्रलयकाले ग्रसिष्णु ग्रसनशीलं? उत्पत्तिकाले प्रभविष्णु च प्रभवनशीलं। सर्वस्य यथा रज्ज्वादिः सर्पादेर्मायाकल्पितस्य? तस्माद्यज्जगतः स्थितिलयोत्पत्तिकारणं ब्रह्म तदेव क्षेत्रज्ञं प्रतिदेहमेकं ज्ञेयं न ततोऽन्यदित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।13.17।।किञ्च -- अविभक्तमिति। भूतेषु स्थावरजङ्गमेषु स्वलीलार्थस्वस्वरूपात्मकत्वेन सर्वस्य प्रकटितत्वात् अभिन्नं रसार्थं द्वितीयरूपेण कृतत्वात् विभक्तमिव भिन्नमिव स्थितम्। इवपदेन स्वेच्छया तथा प्रदर्शयतीति ज्ञापितम्। किञ्च तत् पूर्वोक्तं ज्ञेयं भूतानां भर्तृ रक्षकं पोषकम्। भर्तृपदेन रमणशीलत्वं ज्ञापितं? तेन रमणार्थमेव स्थितिकाले रक्षकमित्यर्थः। वियोगात्मकप्रलयकाले ग्रसिष्णु ग्रसनशीलं? स्वस्मिन्नवरोधकमित्यर्थः। च पुनः सृष्टिकाले लीलात्मकरसदानात्मके प्रभविष्णु नानास्वरूपैः प्रभवनशीलम्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।13.17।। --,अविभक्तं च प्रतिदेहं व्योमवत् तदेकम्। भूतेषु सर्वप्राणिषु विभक्तमिव च स्थितं देहेष्वेव विभाव्यमानत्वात्। भूतभर्तृ च भूतानि बिभर्तीति तत् ज्ञेयं भूतभर्तृ च स्थितिकाले। प्रलयकाले गृसिष्णु ग्रसनशीलम्। उत्पत्तिकाले प्रभविष्णु च प्रभवनशीलं यथा रज्जवादिः सर्पादेः मिथ्याकल्पितस्य।।किञ्च? सर्वत्र विद्यमानमपि सत् न उपलभ्यते चेत्? ज्ञेयं तमः तर्हि न। किं तर्हि --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।13.17।।तर्हि खण्डशः स्यादित्याशङ्क्याऽऽह -- अविभक्तमिति। अनन्तमूर्तिष्वपि न परस्परं विभेदः? केवलमिच्छया तावन्मात्रप्रकटनार्थं विभक्तमिव च स्थितम्। पालकरूपेण भूतभर्तृ? संहारकरूपेण ग्रसिष्णु? प्रजापतिरूपेण प्रभविष्णु च। यथोक्तं निबन्धे -- अनन्तमूर्ति तद्ब्रह्म (स्व) ह्मविभक्तं विभक्तिमत्। बहु स्यां प्रजायेयेति वीक्षा तस्य ह्यभूत्सती। तदिच्छामात्रतः सृष्टा ब्रह्मभूतांशचेतनाः। सृष्ट्यादौ निर्गताः सर्वे निराकारास्तदिच्छया।।विस्फुलिङ्गा इवाग्नेस्तु सदंशेन जडा अपि। आनन्दांशस्वरूपेण सर्वान्तर्यामिरूपिणः।।इत्यादि। अस्यार्थः -- बहु स्यामिति अनेकत्वमुच्चनीचत्वं भावयामास। भावना तस्य विषयाव्यभिचारिणी। तदिच्छामात्रतः सृष्टा ब्रह्मभूताः? न तु योगबलेनाविर्भूताः अंशाः मन्दप्रकाशाः साकाराः सूक्ष्मपरिच्छेदाः? चेतनाश्चित्प्रधानाः। सर्वेऽसङ्ख्याताः प्रथमसृष्टौ। ततः साकारा भगवद्रूपा अपि उच्चनीचभावेच्छया निर्गता इति निराकारा जाताः? विस्फुलिङ्गा इव वह्नेः। प्रकृतिः तद्गुणाश्च सत्प्राधान्येन,अन्तर्यामिणस्तु आनन्दांशस्वरूपेण। यथा जीवानां नानात्वं तथाऽन्तर्यामिणामपि? एकस्मिन् हृदि हंसरूपेणोभयोः प्रवेशात्। अतएवात्रापिसर्वस्य हृदि धिष्ठितं इत्युक्तम्। भेदस्तु जीवेऽपि नास्तीति न काप्यनुपपत्ति? इत्येवं त्रैविध्यमंशेन? तत्रापि विचारः -- सति चिदानन्दधर्मयोस्तिरोभावः? चित्यानन्दस्य आनन्दांशतिरोभावस्यापि ज्ञापकं तु निराकारा इति। भगवदाकारश्चतुर्भुजाद्यानन्दमयाकार आकारशब्देनोच्यते आनन्दस्यैव भगवत्याकारसमर्पकत्वात्। एवं स्वरूपेऽवैजात्यं? नामतो वैजात्यं जडश्चिदन्तर्यामिण इति व्यवहार इति।


Chapter 13, Verse 17