अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।12.11।।
athaitad apy aśhakto ’si kartuṁ mad-yogam āśhritaḥ sarva-karma-phala-tyāgaṁ tataḥ kuru yatātmavān
atha—if; etat—this; api—even; aśhaktaḥ—unable; asi—you are; kartum—to work; mad-yogam—with devotion to me; āśhritaḥ—taking refuge; sarva-karma—of all actions; phala-tyāgam—to renounce the fruits; tataḥ—then; kuru—do; yata-ātma-vān—be situated in the self
If you are unable to do even this—that is, take refuge in My Yoga—then, with your self-control, renounce the fruits of every action.
If you are unable to do even this, then resort to the Yoga for Me and afterwards, control your mind and renounce the results of all your works.
If you are unable to do even this, then, resort to union with Me and renounce the fruits of all actions with self-control.
Now, if you are not capable of doing this either, then take refuge in My Yoga, renouncing the fruits of all action, with your mind subdued.
And if thou art too weak to do even this, then seek refuge in union with Me, and with perfect self-control renounce the fruits of thy actions.
।।12.11।।अगर मेरे योग-(समता-) के आश्रित हुआ तू इस(पूर्वश्लोकमें कहे गये साधन-) को भी करनेमें असमर्थ है, तो मन-इन्द्रियोंको वशमें करके सम्पूर्ण कर्मोंके फलका त्याग कर।
।।12.11।। और यदि इसको भी करने के लिए तुम असमर्थ हो, तो आत्मसंयम से युक्त होकर मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर, तुम समस्त कर्मों के फल का त्याग करो।।
12.11 अथ if? एतत् this? अपि also? अशक्तः unable? असि (thou) art? कर्तुम् to do? मद्योगम् My Yoga? आश्रितः resorting to? सर्वकर्मफलत्यागम् the renunciation of the fruits of all actions? ततः then? कुरु do? यतात्मवान् selfcontrolled.Commentary This is the easiest path. If thou art unable to perform actions for My sake? if thou canst not even be intent on My service? if thou art unable to practise the Bhagavata Dharmas? if thous wishest to do actions impelled by personal desires? then do thou perform them (for your sake from a sense of duty) renouncing them all in Me and also abandon the fruits of all actions? at the same time practising selfcontrol.In verse 8 the Yoga of meditation is prescribed for advanced students in verse 9 the Yoga of constant practice if one finds that? too? to be difficult? the performance of actions for the sake of the Lord alone has been taught in verse 10 and those who cannot do even this are asked to abandon the fruits of all actions.Madyogam My Yoga. Surrendering all actions and their fruits to Me is My Yoga.Yatatmavan The man of discrimination who has controlled all the senses? who has withdrawn the senses from sound? touch? form? taste and smell.Now the Lord eulogises the renunciation of the fruits of all actions in order to encourage the aspirants to practise the Yoga of renunciation of the fruits of actions.
।।12.11।। व्याख्या--'अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अपने लिये ही सम्पूर्ण कर्म करनेसे अपनी प्राप्ति बतायी और अब इस श्लोकमें वे सम्पूर्ण कर्मोंके फलत्यागरूप साधनकी बात बता रहे हैं। वहाँ भगवान्के लिये समस्त कर्म करनेमें भक्तिकी प्रधानता होनेसे उसे 'भक्तियोग' कहेंगे और यहाँ सर्वकर्मफलत्यागमें केवल फलत्यागकी मुख्यता होनेसे इसे 'कर्मयोग' कहेंगे। इस प्रकार भगवत्प्राप्तिके ये दोनों ही स्वतन्त्र (पृथक्-पृथक्) साधन हैं।
।।12.11।। पूर्व श्लोक में? हमें अहंकार का सर्वथा त्याग करके जगत् में कर्म करने का उपदेश दिया गया था। अत्यन्त अहंकारी और मानी पुरुष के लिए यह कार्य़ इतना सरल नहीं है। ऐसा पुरुष रजोगुण के कारण अत्यन्त क्षुब्ध रहता है तथा तमोगुण की निम्नस्तरीय प्रवृत्तियों के कारण उसका व्यक्तित्व विषाक्त रहता है। ऐसे निम्न स्तर के व्यक्ति के लिए भी गीता में साधन मार्ग बताया गया है। प्राय ऐसा पुरुष सभी धर्मों के लिए निराशा का ही विषय बन जाता है। परन्तु? गीता में ऐसे दीर्घस्थायी रोग से पीड़ित रोगियों के लिये भी विचारपूर्वक उपचार बताया गया है। वह उपचार सरल किन्तु ऐसा प्रभावी है कि उसके द्वारा उस रोगी को रोग से सर्वथा मुक्त कर उस्ो सर्वोच्च व्यक्तित्व की आभा तथा कार्यकुशलता प्रदान की जा सकती है।यदि समस्त कर्मों को ईश्वरार्पण बुद्धि से कर पाना असंभव है? तो उस साधक के लिए उतना ही प्रभावी अन्य उपाय यहाँ बताया गया है कि? आत्मसंयम से युक्त होकर? मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर? तुम समस्त कर्मों के फलों का त्याग करो।ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण को वे लोग अप्रिय हैं? जो केवल वेतनार्थी होते हैं। परन्तु उनका यह द्वेष मध्यमवर्गीय अथवा उच्चवर्गीय लोगों के मन में पसीना बहाने वाले मजदूरों के प्रति तिरस्कार नहीं समझना चाहिए। समाजवाद की प्रणाली वाले राष्ट्र में प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति के मन में श्रीकृष्ण की यह अधीरता उठती है। वे अपने राष्ट्र में ऐसे लोगों को सहन नहीं कर सकते? जो केवल वेतन या व्यक्तिगत लाभ के लिए ही कर्म करते हैं। ऐसे समादवादी राष्ट्र में ऐसा प्रत्येक कर्मचारी दण्ड के योग्य अपराधी माना जायेगा जो अधिकतम अकुशलता से किये गये? न्यूनतम समय के कार्य के लिए उच्चतम वेतन की मांग करता है। इस प्रकार के वेतनार्थियों के प्रति भगवान् श्रीकृष्ण की अप्रियता उनके उपदेशों में स्पष्ट दिखाई देती है।वर्तमान क्षण में किया गया कर्म ही परिपक्व होकर भविष्य के क्षण में फल बनकर प्रकट होता है। आज? यदि कोई कृषक भूमि को जोतकर बीज बोता है? तो उसे वह फसल दोतीन महीनों के पश्चात् ही प्राप्त होगी। और यदि वह कृषक वर्तमान में करने योग्य कार्य को त्यागकर भविष्य में आने वाले फल की ही चिन्ता करने में समय का अपव्यय करे? तो निश्चय ही उसे कभी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। यद्यपि यह एक सुविदित तथ्य है? तथापि बहुसंख्यक लोग वर्तमान में प्राप्त अवसरों को केवल भविष्य की चिन्ता करने में ही खो देते हैं। भविष्य की चिन्ता एवं भय के कारण हमारी समस्त क्षमताएं नष्ट हो जाती हैं? और वह मनकल्पित अन्धकारमय भविष्य तो अभी आया ही नहीं हैं? और सम्भवत कभी आये भी नहीं यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण केवल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम भविष्य विषयक इन व्यर्थ कल्पनाओं को त्याग दें और वर्तमान काल में ही सजग परिपूर्ण और प्रभावी जीवन जियें। इस प्रकार का जीवन जीने से भी हमारा व्यक्तित्व सुगठित और मन एकाग्र और समर्थ बन सकता है।उपर्युक्त तीन श्लोकों में तीन प्रकार के साधकों के लिए तीन भिन्नभिन्न साधनाएं बतायी गयी हैं। सभी मनुष्य किसी सीमा तक बहिर्मुखी होते ही हैं। दो मनुष्यों के बीच जो अन्तर होता है? वह उन दोनों के अन्तकरण में स्थित वासनाओं की परतों की मोटाई के कारण होता है। यदि एक पीतल का पात्र हल्कासा मैला हुआ हो? तो उसे चमकाने के लिए केवल राख से मांजना ही पर्याप्त होता है यदि वह मैल अधिक घना हो तो उसकी स्वच्छता के लिए कुछ अम्ल की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार? यदि मन में वासनाओं की पतली परत ही है तो उससे उत्पन्न होने वाले विक्षेपों को अभ्यासयोग के द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है। परन्तु वासनाधिक्य होने पर कर्मयोग की आवश्यकता होगी? जिसमें साधक को समस्त कर्म ईश्वर को अर्पण करने का उपदेश दिया गया है। यदि किसी पुरुष के अन्तकरण में वासनाओं की परतें और भी घनी हों? तो उसे कर्मफल का त्याग करने को कहा जाता है। यहाँ कर्मफल त्याग का अर्थ यह है कि भविष्य में आने वाले फलों की व्यर्थ की चिन्ताओं और कल्पनाओं का सर्वथा त्याग कर देना और वर्तमान में कर्म करते रहना। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है? विश्व के किसी भी आध्यात्मिक ग्रन्थ में आत्मविकास के लिए इतने विविध और विस्तृत मार्गों का विवेचन नहीं किया गया है? जितना भगवद्गीता में हैं।उपर्य़ुक्त तीन साधनों का अभ्यास एक साथ नहीं हो सकता है। उन्हें क्रमवार करना है। इस बात को दर्शाते हुए? अगले श्लोक में? भगवान् सर्वकर्मफल त्याग की प्रशंसा करते हैं
।।12.11।।भगवत्कर्मपरत्वमप्यशक्यमिति शङ्कते -- अथेति। बहिर्विषयाकृष्टचेतस्त्वादित्यर्थः। तर्हि भगवत्प्राप्त्युपायत्वेन संयतचित्तो भूत्वा कर्मफलसंन्यासं कुर्वित्याह -- मद्योगमिति।
।।12.11।।तर्हि विषयाकृष्टचित्तत्वाद्भगवत्कर्मपरतायामशक्तं प्रत्युपायान्तरमाह -- अथैतदपि कर्तुमशक्तोऽसि चेत्तर्हि मद्योगमाश्रितः मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य तेषामुनुष्ठानं मद्योगस्तमाश्रितः मदेकशरणत्वमाश्रितः सन् तदनन्तरं सर्वेषां कर्मणां फलसंन्यासं कुरु विवेकसंयतचित्तः सन्नित्यर्थः।
।।12.11।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
।।12.11।।मद्योगं श्रवणादौ निष्ठाम्। तर्हि पूर्वोक्तं श्रौतस्मार्तसर्वकर्मफलत्यागं कुर्वित्यर्थः। यतात्मवान् यतश्च नियमादिमांश्च आत्मवान् जितचित्तश्चेति यतात्मवान्।
।।12.11।।अथ मद्योगम् आश्रित्य एतद् अपि कर्तुं न शक्नोषि? मद्गुणानुसंधानकृतं मदेकप्रियत्वाकारं भक्तियोगम् आश्रित्य भक्तियोगाङ्गरूपम् एतद् मत्कर्म अपि कर्तुं न शक्नोषि ततः अक्षरयोगम् आत्मस्वभावानुसंधानरूपं परभक्तिजननं पूर्वषट्कोदितम् आश्रित्य तदुपायतया सर्वकर्मफलत्यागं कुरु। मत्प्रियत्वेन मदेकप्राप्यताबुद्धिः हि प्रक्षीणाशेषपापस्य एव जायते यतात्मवान् यतमनस्कः। ततः अनभिसंहितफलेन मदाराधनरूपेण अनुष्ठितेन कर्मणा सिद्धेन आत्मज्ञानेन निवृत्ताविद्यादिसर्वतिरोधाने मच्छेषतैकस्वरूपे प्रत्यगात्मनि साक्षात्कृते सति मयि परा भक्तिः स्वयम् एव उत्पद्यते।तथा च वक्ष्यते -- स्वकर्मणा तमभ्यर्चय सिद्धिं विन्दति मानवः। (गीता 18।46) इत्यारभ्यविमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।।समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।। (18।5354) इति।
।।12.11।। अत्यन्तं भगवद्धर्मपरिनिष्ठायामशक्तस्य पक्षान्तरमाह -- अथैतदपीति। अथैतदपि कर्तुमशक्तोऽसि तर्हि मद्योगं मदेकशरणत्वमाश्रितः सर्वेषां दृष्टादृष्टार्थानामावश्यकानां चाग्निहोत्रादिकर्मणां फलानि नियतचित्तो भूत्वा परित्यज। एतदुक्तं भवति। मया तावदीश्वराज्ञया यथाशक्ति कर्माणि कर्तव्यानि? फलं पुनर्दृष्टमदृष्टं वा परमेश्वराधीनमित्येवं मयि भारमारोप्य फलासक्तिं परित्यज्य वर्तमानो मत्प्रसादेन कृतार्थो भविष्यसीति तात्पर्यम्।
।।12.11।।स्वार्थेष्वेव कर्मसु निबद्धचित्तस्य कथं त्वदर्थेषु कर्मस्वत्यर्थप्रियत्वेन प्रवृत्तिः सम्भवेदित्यत्र तदुपायपरम्पराकाष्ठाभूतं कर्मयोगं प्रत्यभिज्ञापयतिअथैतदिति।मद्योगमाश्रितः इत्यस्याक्षरयोगविषयेणोत्तरार्धेन अन्वयव्युदासाय पूर्वार्धान्वयमाहअथ मद्योगमिति। तस्याशक्यत्वज्ञापनायाह -- मद्गुणेति। भक्तियोगावस्थाविशेषेष्वतः पूर्वावस्था नास्तीति व्यञ्जनायभक्तियोगाङ्कुररूपमित्युक्तम्।मद्योगम् इत्यनेन जीवात्मयोगव्यवच्छेदः। ततश्च मद्योगमाश्रित्य तदङ्कुरे कर्मण्यसमर्थश्चेज्जीवात्मयोगमाश्रित्य तदङ्कुरे कर्मयोगे प्रवर्तस्वेति वाक्यार्थः। तदेतदभिप्रेत्याहततोऽक्षरेति। अक्षरयोगस्याप्यव्यवधानेन मोक्षोपायत्वव्युदासायपरभक्तिजननमित्युक्तम्। सप्रकाराक्षरयोगप्रत्यभिज्ञापनार्थं? मध्यमषट्कोदिताक्षरयोगव्यवच्छेदार्थं चपूर्वषट्कोदितमित्युक्तम्। सर्वकर्मफलत्यागस्याव्यवधानेन भक्तियोगजनकत्वव्युदासायतदुपायतयेत्युक्तम्।कर्मयोगपूर्वकात्मसाक्षात्कारस्य भक्त्युत्पत्त्युपयोगित्वप्रकारं प्रकरणान्तरोक्तं दर्शयति -- मत्प्रियत्वेनेति।मय्येव मन आधत्स्व [12।8] इति पूर्वं परमात्मनि मनस्समाधानं विहितम् तदशक्तं प्रत्युपदिश्यमानाक्षरयोगांकुररूपे कर्मणि प्रवृत्तस्य तु पूर्वषट्कप्रपञ्चितैर्हेतुभिः मनोनियमनशक्यत्वंयतात्मवान् इत्युक्तमित्यभिप्रायेणयतमनस्क इत्युक्तम्। कर्मयोगस्यानन्तरश्लोकेऽभिधास्यमानक्रमेण परम्परया भक्तियोगजनकत्वप्रकारमाहततोऽनभिसंहितेति।फलत्यागं कुरु इति साध्यांशत्यागवचनेन तत्पूर्वकसाधनानुष्ठानं विवक्षितमिति ज्ञापनायअनभिसंहितफलेनेत्यादिकमुक्तम्। अनन्तराभिधास्यमानमनश्शान्तिद्वारात्मध्यानसिद्धिः। अविद्या संसारकारणं कर्म?अविद्या कर्मसंज्ञा इत्युपक्रम्ययया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा वेष्टिता [वि.पु.6।7।61] इति वचनात्। आदिशब्देनअनात्मन्यात्मबुद्धिर्या त्वस्वे स्वमिति या मतिः। अविद्यातरुसम्भूतिबीजमेतद्द्विधा स्थितम् [वि.पु.6।7।11] इत्याद्युक्तसङ्ग्रहः। यद्वाऽत्र अविद्या देहात्मभ्रमादिः आदिशब्देन कर्मवासनादिसङ्ग्रहः। परभक्तिजनकत्वसिद्ध्यर्थमुक्तंमच्छेषतैकस्वरूप इति। यथा बाल्ये बालक्रीडाप्रसङ्गेन नरेन्द्रभवनान्निष्क्रान्तस्य मार्गाद्भ्रष्टस्य व्याधगृहीतस्य पक्कणे वर्तमानस्य राजकुमारस्याप्तोपदेशात्स्वात्मनस्तथात्वं मत्वा विमृशतः स्वात्मनि राजसाम्यमङ्गप्रत्यङ्गादिषु पश्यतस्तस्मिन् यथा पितृत्वप्रीतिर्निरतिशया जायते एवमस्यापि यथोपदेशं भगवच्छेषभूते स्वात्मनि तत्साम्याकारेण साक्षात्कृते भक्तिसिद्ध्यर्थं न किञ्चित्कर्तव्यमस्तीत्यभिप्रायेण -- मयि परा भक्तिः स्वयमेवोत्पद्यत इत्युक्तम्। एतेनाध्यायारम्भेये चाप्यक्षरमव्यक्तम् [12।1] इत्युक्ताक्षरयोगोऽप्यक्षरसाक्षात्कारद्वारा परभक्तिमुत्पाद्य परमात्मप्राप्तौ विश्राम्यतीति सिद्धम्। स एव ह्यत्रापि प्रथमषट्कोक्तोऽक्षरयोगः प्रस्पष्टमुच्यते।ननु यदशक्तं प्रति यदुपदिश्यते? तत्तत्तुल्यफलमशक्ताधिकारं साधनान्तरं दृष्टम् यथावगाहना शक्तस्य स्नानान्तराणि। उच्यते चान्यत्र क्रियायोगस्य साक्षान्मोक्षसाधनत्वंमोक्षकारणमव्यक्तमचिन्त्यमपरिग्रहम्। तमाराध्य जगन्नाथं क्रियायोगेन मुच्यते इति। तथात्रापि किं न स्यादिति शङ्कायां कर्मयोगस्य भक्तियोगसाधनत्वं अष्टादशाध्याये वक्ष्यमाणं दर्शयतितथाचेति। अन्यत्र चाप्ययं क्रमः स्फुटः -- तत्र चित्तं समावेष्टुं न शक्नोति भवान्यदि। तदभ्यासपरस्तस्मिन् कुरु योगं दिवानिशम्। तत्राप्यसामर्थ्यवतः क्रियायोगो महात्मनः। ब्रह्मणा यः समाख्यातस्तत्परः सततं भव। करोषि यानि कर्माणि देवदेवे जगत्पतौ। समर्पयस्व भद्रं ते ततः कर्म प्रहास्यसि। प्रधानं कारणं योगो विमुक्तेर्दितिजेश्वर। क्रियायोगश्च योगस्य परमं तस्य साधनम् इति।मद्भक्तिं लभते पराम् [18।54] इति वक्ष्यमाणफलस्य कर्मयोगहेतुकत्वं प्रकरणसिद्धमिति ज्ञापनायस्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः [18।46]इत्यारभ्येत्युक्तम्।
।।12.11।।अथेति। यदि च भगवत्कर्म कर्तुं न शक्तोऽसि? (N न शक्नोषि) ? अज्ञत्वात्,शास्त्रोक्तक्रमावेदनात् तत् सर्वं मयि संन्यसेः (N संन्यस्येः) आत्मनिवेदनद्वारेणेत्याशयः। अमुमेवाशयमाश्रित्य लघुप्रक्रियायां मयैवोक्तम् -- ऊनाधिकमविज्ञातं पौर्वापर्यविवर्जितम्।यच्चावधानरहितं बुद्धेर्विस्खलितं च यत्।।तत्सर्वं मम सर्वेश भक्तस्यार्तस्य दुर्मतेः।क्षन्तव्यं कृपया शम्भो यतस्त्वं करुणापरः।।अनेन स्तोत्रयोगेन तवात्मानं निवेदये (S निवेदयेत)।पुनर्निष्कारणमहं दुःखानां नैमि पात्रताम्।।इतिपारमेश्वरेषु हि सिद्धान्तशास्त्रेषु आत्मनिवेदने अयमेवाभिप्रायः।
।।12.11।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।12.11।।अथेति। अथ बहिर्विषयाकृष्टचेतस्त्वादेतन्मत्कर्मपरत्वमपि कर्तुं न शक्नोषि ततो मद्योगं मदेकशरणत्वमाश्रितः मयि सर्वकर्मसमर्पणं मद्योगस्तं वाश्रितः सन् यतात्मवान् यतः संयतसर्वेन्द्रियः आत्मवान् विवेकी च सन् सर्वकर्मफलत्यागं कुरु फलाभिसन्धिं त्यजेत्यर्थः।
।।12.11।।एतत्प्राप्त्यर्थमतिसुगमोपायमाह -- अथैतदिति। अथ चेत् एतदपि मदर्थकं कर्तुमशक्तोऽसि न समर्थोऽसि? स्वरूपाज्ञानात् तदा मद्योगं मम योगः संयोगो यस्मिन् यस्य वा तादृशं भक्तमाश्रितः सन् यतात्मवान् तदेकपरचित्तो भूत्वा सर्वकर्मफलत्यागं सन्ध्यावन्दनाग्निहोत्रादीनां स्वर्गादिरूपफलानां त्यागं कुरु? चिन्तनं त्यजेत्यर्थः। तत्फलानभिलाषे मदाज्ञया करणात् कर्मभिश्चित्तशुद्ध्या मद्भक्तोपदिष्टं ज्ञानं स्थिरीभविष्यति? तेन मत्कर्मसिद्धिर्भविष्यतीति भावः।
।।12.11।। --,अथ पुनः एतदपि यत् उक्तं मत्कर्मपरमत्वम्? तत् कर्तुम् अशक्तः असि? मद्योगम् आश्रितः मयि क्रियमाणानि कर्माणि संन्यस्य यत् करणं तेषाम् अनुष्ठानं सः मद्योगः? तम् आश्रितः सन्? सर्वकर्मफलत्यागं सर्वेषां कर्मणां फलसंन्यासं सर्वकर्मफलत्यागं ततः अनन्तरं कुरु यतात्मवान् संयतचित्तः सन् इत्यर्थः।।इदानीं सर्वकर्मफलत्यागं स्तौति --,
।।12.11।।अथैतदपि न कर्त्तुं त्वं शक्तोसि चेत्तर्हि मद्योगं मत्सम्बन्धसेव्यसेवकत्वरूपमाश्रितः सन् सर्वकर्मफलत्यागं कुरु। एतदुक्तं भवति -- ईश्वराज्ञया परमाचार्योपदिष्टशरणमार्गतः यथाशक्ति स्वधर्माचरणं फलादित्यागपूर्वकं सुखावहमिति मयि भारमारोप्य अन्यज्ञानयोगधर्मपरित्यागेन मदाश्रये कृतार्थतेति। विशेषस्त्वग्रे स्पष्टीकरिष्यते।
Chapter 12, Verse 11