सञ्जय उवाच तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।2.1।।
sañjaya uvācha taṁ tathā kṛipayāviṣhṭamaśhru pūrṇākulekṣhaṇam viṣhīdantamidaṁ vākyam uvācha madhusūdanaḥ
sañjayaḥ uvācha—Sanjay said; tam—to him (Arjun); tathā—thus; kṛipayā—with pity; āviṣhṭam—overwhelmed; aśhru-pūrṇa—full of tears; ākula—distressed; īkṣhaṇam—eyes; viṣhīdantam—grief-stricken; idam—these; vākyam—words; uvācha—said; madhusūdanaḥ—Shree Krishn, slayer of the Madhu demon
Sanjaya said: To him, who was overcome with pity, whose eyes were wet with tears, who was sorrow-stricken and bore a bewildered look, Sri Krishna spoke as follows:
Sanjaya said: To him who had been filled with pity, whose eyes were filled with tears and showed distress, and who was sorrowing, Madhusudana uttered these words.
Sanjaya said: To him, who was thus overcome with pity, despondent, with eyes full of tears and agitated, Madhusudana (the destroyer of Madhu) or Krishna spoke these words.
Sanjaya said: To him, who was thus possessed by compassion, whose eyes were confused and filled with tears, and who was sinking in despondency, Madhusudana spoke the following words.
Sanjaya then told how the Lord Shri Krishna, seeing Arjuna overwhelmed with compassion, his eyes dimmed with flowing tears and full of despondency, consoled him:
।।2.1।। संजय बोले - वैसी कायरता से आविष्ट उन अर्जुन के प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं और आँसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखने की शक्ति अवरुद्ध हो रही है, भगवान् मधुसूदन ये (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
।।2.1।। संजय ने कहा -- इस प्रकार करुणा और विषाद से अभिभूत, अश्रुपूरित नेत्रों वाले आकुल अर्जुन से मधुसूदन ने यह वाक्य कहा।।
2.1 तम् to him? तथा thus? कृपया with pity? आविष्टम् overcome? अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् with eyes filled with tears and agitated? विषीदन्तम् despondent? इदम् this? वाक्यम् speech? उवाच spoke? मघुसूदनः Madhusudana.No commentary.
2.1।। व्याख्या--'तं तथा कृपयाविष्टम्'--अर्जुन रथमें सारथिरूपसे बैठे हुए भगवान्को यह आज्ञा देते हैं कि हे अच्युत! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये ,जिससे मैं यह देख लूँ कि इस युद्धमें मेरे साथ दो हाथ करनेवाले कौन हैं? अर्थात् मेरे-जैसे शूरवीरके साथ कौन-कौन-से योद्धा साहस करके लड़ने आये हैं? अपनी मौत सामने दीखते हुए भी मेरे साथ लड़नेकी उनकी हिम्मत कैसे हुई? इस प्रकार जिस अर्जुनमें युद्धके लिये इतना उत्साह था, वीरता थी, वे ही अर्जुन दोनों सेनाओंमें अपने कुटुम्बियोंको देखकर उनके मरनेकी आशंकासे मोहग्रस्त होकर इतने शोकाकुल हो गये हैं कि उनका शरीर शिथिल हो रहा है, मुख सूख रहा है, शरीरमें कँपकँपी आ रही है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, हाथसे धनुष गिर रहा है, त्वचा जल रही है, खड़े रहनेकी भी शक्ति नहीं रही है और मन भी भ्रमित हो रहा है। कहाँ तो अर्जुनका यह स्वभाव कि 'न दैन्यं न पलायनम्' और कहाँ अर्जुनका कायरताके दोषसे शोकाविष्ट होकर रथके मध्यभागमें बैठ जाना! बड़े आश्चर्यके साथ सञ्जय यही भाव उपर्युक्त पदोंसे प्रकट कर रहे हैं। पहले अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें भी सञ्जयने अर्जुनके लिये 'कृपया परयाविष्टः' पदोंका प्रयोग किया है। 'अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्'--अर्जुन-जैसे महान् शूरवीरके भीतर भी कौटुम्बिक मोह छा गया और नेत्रोंमें आँसू भर आये! आँसू भी इतने ज्यादा भर आये कि नेत्रोंसे पूरी तरह देख भी नहीं सकते। 'विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः'--इस प्रकार कायरताके कारण विषाद करते हुए अर्जुनसे भगवान् मधुसूदनने ये (आगे दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें कहे जाने-वाले) वचन कहे। यहाँ 'विषीदन्तमुवाच' कहनेसे ही काम चल सकता था, 'इदं वाक्यम्' कहनेकी जरूरत ही नहीं थी; क्योंकि 'उवाच' क्रियाके अन्तर्गत ही 'वाक्यम्' पद आ जाता है। फिर भी 'वाक्यम्' पद कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्का यह वचन, यह वाणी बड़ी विलक्षण है। अर्जुनमें धर्मका बाना पहनकर जो कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आ गयी थी ,उसपर यह भगवद्वाणी सीधा आघात पहुँचानेवाली है। अर्जुनका युद्धसे उपराम होनेका जो निर्णय था उसमें खलबली मचा देनेवाली है। अर्जुनको अपने दोषका ज्ञान कराकर अपने कल्याणकी जिज्ञासा जाग्रत् करा देनेवाली है। इस गम्भीर अर्थवाली वाणीके प्रभावसे ही अर्जुन भगवान्का शिष्यत्व ग्रहण करके उनके शरण हो जाते हैं (2। 7)। सञ्जयके द्वारा 'मधुसूदनः' पद कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्ण मधु नामक दैत्यको मारनेवाले अर्थात् दुष्ट स्वभाववालोंका संहार करनेवाले हैं। इसलिये वे दुष्ट स्वभाववाले दुर्योधनादिका नाश करवाये बिना रहेंगे नहीं। सम्बन्ध--भगवान्ने अर्जुनके प्रति कौनसे वचन कहे--इसे आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं।
।।2.1।। द्वितीय अध्याय का प्रारम्भ संजय के कथन से होता है जिसमें वह चुने हुये शब्दों से अर्जुन की विषादमयी मानसिक स्थिति का स्पष्ट चित्रण करता है। अर्जुन का मन करुणा और विषाद से भर गया है। इस युक्ति से स्पष्ट होता है कि अर्जुन परिस्थितियों का स्वामी न होकर स्वयं उनका शिकार हो गया था। इस प्रकार एक दुर्बल व्यक्ति ही परिस्थितियों का शिकार बनकर जीवन संघर्ष के प्रत्येक अवसर पर असफल होता है। अर्जुन अपनी नैराश्यपूर्ण अवस्था में इस समय ऐसी ही बाह्य परिस्थितियों का शिकार हो गया था। अर्जुन की विषादावस्था का वर्णन करने के साथ ही संजय हमें यह भी संकेत करता है कि उसका आन्तरिक व्यक्तित्व भग्न हो गया था और उसके चरित्र में गहरी दरार पड़ गयी थी। अपने समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी होकर भी वह किसी सामान्य युवती के समान रुदन कर रहा थाइस प्रकार करुणा और शोक से अभिभूत एवं अश्रुरहित रोदन करते हुये अर्जुन से मधुसूदन (मधु नामक असुर का वध करने वाले) भगवान् श्रीकृष्ण ने निम्नलिखित वाक्य कहा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अश्रुरहित रोदन को आधुनिक मनोविज्ञान मानसिक उद्विग्नता की चरम स्थिति मानता है।
।।2.1।।अहिंसा परमो धर्मो भिक्षाशनं चेत्येवंलक्षणया बुद्ध्या युद्धवैमुख्यमर्जुनस्य श्रुत्वा स्वपुत्राणां राज्यैश्वर्यमप्रचलितमवधार्य स्वस्थहृदयं धृतराष्ट्रं दृष्ट्वा तस्य दुराशामपनेष्यामीति मनीषया संजयस्तं प्रत्युक्तवानित्याह संजय इति। परमेश्वरेण स्मार्यमाणोऽपि कृत्याकृत्ये सहसा नार्जुनः सस्मार विपर्ययप्रयुक्तस्य शोकस्य दृढतरमोहहेतुत्वात्तथापि तं भगवान्नोपेक्षितवानित्याह तं तथेति। तं प्रकृतं पार्थं तथा स्वजनमरणप्रसङ्गदर्शनेन कृपया करुणयाविष्टमधिष्ठितमश्रुभिः पूर्णे समाकुले चेक्षणे यस्य तमश्रुव्याप्ततरलाक्षं विषीदन्तं शोचन्तमिदं वक्ष्यमाणं वाक्यं सोपपत्तिकं वचनं मधुनामानमसुरं सूदितवानिति मधुसूदनो भोगवानुक्तवान्नतु यथोक्तमर्जुनमुपेक्षितवानित्यर्थः।
।।2.1।।एवं रथोपस्थ उपविष्टमर्जुनं भगवान्किमुक्तवानित्याकाङ्क्षायां संजय उवाच तमिति। यत्त्वहिंसा परमो धर्मो भिक्षाशनं चेत्येवं लक्षणया बुद्य्धा युद्धवैमुख्यामर्जुनस्य श्रुत्वा स्वपुत्राणां राज्यमप्रचलितमित्यवधार्य स्वस्थहृदयस्य धृतराष्ट्रस्य हर्षनिमित्तां ततः किं वृत्तिमित्याकाङ्क्षमपनिनीषुः संजय उवाचेति तत्तु पूर्वग्रन्थविरोधादुपेक्ष्यम्। तमर्जुनं तथा पूर्वोक्तेन प्रकारेण कृपया स्नेहजन्ययाऽऽविष्टं व्याप्तम्। अश्रुभिः पूर्णे आकुले दर्शनाक्षमे ईक्षणे नेत्रे यस्य तम्। विषादं बन्धुवियोगाशङ्कानिमित्तं शोकं प्राप्नुवन्तमिदं वक्ष्यमाणं वाक्यं वक्तुं योग्यं वचनामुवाच नतूपेक्षितवानित्यर्थः। मध्वादिदुष्टसूदनो भीमादिद्वारा दुर्योधनादिदुष्टसूदनायोवाचेति सूचयन्नाह मधुसूदन इति।
।।2.1।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
।।2.1।।अर्जुने युद्धादुपरते मत्पुत्रा निष्कण्टकं राज्यं प्राप्स्यन्तीत्याशावन्तं राजानं प्रति संजय उवाच तं तथेति। तमर्जुनम्। तथास्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव इत्युक्तप्रकारेण कृपया स्नेहेन न तु दयया परदुःखप्रहाणेच्छारूपया। तस्याः परदौर्बल्यनिश्चयोत्तरभाविन्याः अर्जुनेयदि वा नो जयेयुः इति स्वपराजयमाशङ्कमाने दुर्भणत्वात्यानेव हत्वा न जिजीविषामः इति स्नेहातिशयसूचकवाक्यशेषविरोधाच्च। आविष्टं व्याप्तम्। विषीदन्तंसीदन्ति मम गात्राणि इत्यादिना उक्तरूपं विषादं प्राप्नुवन्तम्। इदं वक्ष्यमाणं वाक्यं वचनीयं उवाच। मधुसूदन इति दुष्टहन्तृत्वादेवार्जुनं निमित्तीकृत्य त्वत्पुत्रानपि हनिष्यत्येवेति त्वया जयाशा न कार्येति भावः।
।।2.1।।संजय उवाच श्रीभगवानुवाच एवम् उपविष्टे पार्थे कुतः अयम् अस्थाने समुत्थितः शोक इति आक्षिप्य तम् इमं विषमस्थं शोकम् अविद्वत्सेवितं परलोकविरोधिनम् अकीर्तिकरम् अतिक्षुद्रं हृदयदौर्बल्यकृतं परित्यज्य युद्धाय उत्तिष्ठ इति श्रीभगवान् उवाच।
।।2.1।।ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायां संजय उवाच तं तथेति। अश्रुभिः पूर्णे आकुले ईक्षणे यस्य तम्। तथोक्तप्रकारेण विषीदन्तमर्जुनं प्रति मधुसूदन इदं वाक्यमुवाच।
।।2.1।।अथ शोकापनोदनविषयो द्वितीयोऽध्याय आरभ्यते। सञ्जयवाक्याविच्छेदेऽपिसञ्जय उवाच इति निर्देशोऽध्यायान्तरारम्भरूपतयाऽन्योक्तिशङ्कापरिहाराय।तं तथा इत्यादि श्लोकत्रयं व्याख्याति एवमिति।विषीदन्तम् इत्यन्तस्य पूर्वाध्यायोक्तानुवादत्वं सूचयितुंएवमुपविष्टे पार्थे इत्युक्तम्।तथा इति अस्थान इत्यर्थः। कृपा च आन्तरो विषादः ततः अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं बाह्यशोकेनाप्याविष्टमित्यर्थः। विषीदन्तं पूर्वाध्यायोक्तरीत्या विषादं प्राप्योविष्टम्। मधुसूदनशब्देन शोकमूलरजस्तमोनिबर्हणत्वं सूचितम्।अस्थाने इति विषमशब्दोपचरितार्थः। कश्मलमिह मूर्च्छाकल्पः शोकःशोकसंविग्नमानसः 1।47 इति प्रकृतत्वात्। प्रख्यातवंशवीर्यश्रुतादिसूचकाः अर्जुनपार्थपरन्तपेति शब्दाः कौन्तेयत्वात्त्वयि आक्षेपकाकुगर्भा इत्यभिप्रायेणआक्षिप्य इत्युक्तम्।कुतः शब्दश्च हेत्वाभासस्य हेतुतां प्रक्षिपन् धिक्कारगर्भः। परान् तापयतीति परन्तपः। क्लैब्यमिह कातर्यम् तत्हृदयदौर्बल्यशब्देन विवृतम्। पूर्वश्लोकस्थविशेषणानामप्यत्र कातर्यत्याज्यताहेतुत्वादर्थतस्तान्यप्यत्र सङ्गमयति तमिमं विषमस्थमित्यादिना। अतत्त्वेभ्यः आरात् दूरात् याता बुद्धिर्येषां ते आर्याः विद्वांसः तदन्ये तु अनार्याः।अस्वर्ग्यम् इत्यत्राविशेषात् स्वर्गशब्दः परलोकमात्रोपलक्षकः। नञश्चात्र विरोधिपरतया स्वर्ग्यशब्दनिर्दिष्टस्वर्गहेतुविरोधित्वेऽर्थतस्तत्फलविरोधात्परलोकविरोधिनमित्युक्तम्। क्षुद्रशब्दस्यान्न सङ्कोचकाभावेनापेक्षिकक्षुद्रविषयत्वायोगात् महत्तरस्यार्जुनस्य तथाविधावस्थापर्यालोचनाच्च काष्ठाप्राप्तं क्षुद्रत्वं विवक्षितमिति दर्शयितुंअतिक्षुद्रम् इत्युक्तम्। कार्ये कारणोपचार इति वा कारणत्यागस्य कार्यत्यागार्थतया पूर्वोत्तरश्लोकफलितार्थविवक्षया वाहृदयदौर्बल्यकृतम् इत्युक्तम् अदृढहृदयत्वकृतमित्यर्थः।परन्तप इत्यनेन ज्ञापितं प्राकरणिकमर्थमध्याहृत्योक्तंयुद्धायोत्तिष्ठेति।
।।2.1।।No commentary.
।।2.1।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
।।2.1।।अहिंसा परमो धर्मो भिक्षाशनं चेत्येवंलक्षणया बुद्ध्या युद्धवैमुख्यमर्जनस्य श्रुत्वा स्वपुत्राणां राज्यमप्रचलितमवधार्य स्वस्थहृदयस्य धृतराष्ट्रस्य हर्षनिमित्तां ततः किंवृत्तमित्याकाङ्क्षामपनिनीषुः संजयस्तं प्रत्युक्तवानित्याह वैशम्पायनः। कृपा ममैत इति व्यामोहनिमित्तः स्नेहविशेषः। तया स्वभावसिद्धया आविष्टं व्याप्तम्। अर्जुनस्य कर्मत्वं कृपायाश्च कर्तृत्वं वदता तस्या आगन्तुकत्वं व्युदस्तम्। अतएव विषीदन्तं स्नेहविषयीभूतस्वजनविच्छेदाशङ्कानिमित्तः शोकापरपर्यायश्चित्तव्याकुलीभावो विषादस्तं प्राप्नुवन्तम्। अत्र विषादस्य कर्मत्वेनार्जुनस्य कर्तृत्वेन च तस्यागन्तुकत्वं सूचितम्। अतएव कृपाविषादवशादश्रुभिः पूर्णे आकुले दर्शनाक्षमे चेक्षणे यस्य तम्। एवमश्रुपातव्याकुलीभावाख्यकार्यद्वयजनकतया परिपोषं गताभ्यां कृपाविषादाभ्यामुद्विग्नं तमर्जुनमिदं सोपपत्तिकं वक्ष्यमाणं वाक्यमुवाच नतूपेक्षितवान्। मधुसूदन इति स्वयं दुष्टनिग्रहकर्ताऽर्जुनं प्रत्यपि तथैव वक्ष्यतीति भावः।
।।2.1।।श्रीकृष्णाय नमः।।शोकसागरसम्मग्नं पार्थं स्वीयत्वभावतः। कृष्णः स्वसाङ्ख्ययोगाभ्यामुज्जहार दयापरः।।पूर्वाध्याये शोकसंविग्नमानसोऽर्जुनः सशरं चापमुत्सृज्योपाविशदित्युक्तम् ततः किं जातमित्याकांक्षायां सञ्जय आह तथेति। तमर्जुनमाविष्टं स्वस्मिन् अश्रुभिः पूर्णे आकुले ईक्षणे यस्य तं तथा विषीदन्तं पूर्वोक्तप्रकारेण खिद्यन्तं मधुसूदनः सर्वमारणसमर्थः कृपया इदं वाक्यमग्रे उच्यमानमुवाच।
2.1 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
।।2.1।।वैराग्यं प्रथमेऽध्याये पार्थदुःखमुदीरितम्। अधिकारी त्वतः सिद्धः साङ्ख्ययोगनिरूपणे।।1।।तौ विद्यापर्वरूपत्त्वाद्धरिवेशानुकारिणौ। आत्मस्वरूपविज्ञानस्थिरबुद्धिप्रयोजनौ।।2।।ततोंऽशत्वपरिस्फूर्त्या भवेदाश्रयणादरः। तदाश्रयवतः कार्यं तदाज्ञाधर्मपालनम्।।3।।अतस्तदाज्ञारूपेण युद्धादिकरणं मतम्। न पुष्टिमिश्रभक्तो हि साङ्ख्यमात्ररुचिर्भवेत्।।4।।मध्ये स्वधर्मवचनं यदुक्तं साङ्ख्ययोगयोः। तेन तद्धृदि पुष्टिस्थः प्रकारः सम्भविष्यति।।5।।द्वितीये पूर्वमध्याये विषादः साङ्ख्यमुच्यते। तत्र स्वधर्मो योगान्ते स्थिरबुद्धिप्रयोजनः।।6।।ततः किं कृतमित्यपेक्षायां पुनः सञ्जय उवाच तं तथेति।
Chapter 2, Verse 1