किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव। तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।11.46।।
kirīṭinaṁ gadinaṁ chakra-hastam ichchhāmi tvāṁ draṣhṭum ahaṁ tathaiva tenaiva rūpeṇa chatur-bhujena sahasra-bāho bhava viśhva-mūrte
kirīṭinam—wearing the crown; gadinam—carrying the mace; chakra-hastam—disc in hand; ichchhāmi—I wish; tvām—you; draṣhṭum—to see; aham—I; tathā eva—similarly; tena eva—in that; rūpeṇa—form; chatuḥ-bhujena—four-armed; sahasra-bāho—thousand-armed one; bhava—be; viśhwa-mūrte—universal form
I wish to see You ever as before, with crown and mace and discus in hand. Assume again that four-armed shape, O Thou the thousand-armed, of Universal Form!
I want to see You just as before, wearing a crown, wielding a mace, and holding a disc in hand. O You with a thousand arms, O You of Cosmic form, appear with that very form with four hands.
I desire to see You as before, crowned, bearing a mace, with the discus in hand, in Your former form only, having four arms, O thousand-armed, Cosmic Being.
I desire to see You in the same manner, wearing a crown, holding the club and the discus in Your hands; please be with the same form having four hands, O Thousand-armed One! O Universal Form!
I long to see Thee as Thou wert before, with the crown, the scepter, and the discus in Thy hands; in Thy other form, with Thy four hands, O Thou whose arms are countless and whose forms are infinite.
।।11.46।। मैं आपको वैसे ही किरीटधारी, गदाधारी और हाथमें चक्र लिये हुए देखना चाहता हूँ। इसलिये हे सहस्रबाहो ! हे विश्वमूर्ते ! आप उसी चतुर्भुजरूपसे हो जाइये।
।।11.46।। मैं आपको उसी प्रकार मुकुटधारी, गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूँ। हे विश्वमूर्ते! हे सहस्रबाहो! आप उस चतुर्भुजरूप के ही बन जाइए।।
11.46 किरीटिनम् wearing crown? गदिनम् bearing a mace? चक्रहस्तम् with a discus in the hand? इच्छामि (I) desire? त्वाम् Thee? द्रष्टुम् to see? अहम् I? तथैव as before? तेनैव that same? रूपेण of form? चतुर्भुजेन (by) fourarmed? सहस्रबाहो O thousandarmed? भव be? विश्वमूर्ते O Universal Form.Commentary Arjuna says O Lord in the Cosmic Form I do not know where to turn and to whom to address myself. I am frightened. I am longing to see Thee with conch? discus? mace and lotus. Withdraw Thy Cosmic Form. Assume that same fourarmed form as before.Spiritual aspirants are ofen impatient to have the highest spiritual experiences immediately they begin their Sadhana. This is wrong. They will not be able to withstand the great power that will,surge into them. Be patientO thousandarmed refers to the Cosmic Form.
।।11.46।। व्याख्या--'किरीटनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव--जिसमें आपने सिरपर दिव्य मुकुट तथा हाथोंमें गदा और चक्र धारण कर रखे हैं, उसी रूपको मैं देखना चाहता हूँ। 'तथैव' कहनेका तात्पर्य है कि मेरे द्वारा 'द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम्' (11। 3) ऐसी इच्छा प्रकट करनेसे आपने विराट्रूप दिखाया। अब मैं अपनी इच्छा बाकी क्यों रखूँ? अतः मैंने आपके विराट्रूपमें जैसा सौम्य चतुर्भुजरूप देखा है, वैसा-का-वैसा ही रूप मैं अब देखना चाहता हूँ -- 'इच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
।।11.46।। यहाँ अर्जुन अपनी इच्छा को स्पष्ट शब्दों में प्रदर्शित करता है कि? मैं आपको पूर्ववत् देखना चाहता हूँ। वह भगवान् के विराट् रूप को देखकर भयभीत हो गया है? जो उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के साथ अपने एकत्व को दर्शाने के लिए धारण किया था।वेदान्त द्वारा प्रतिपादित निर्गुण? निराकार तत्त्व या समष्टि के सिद्धांत का जब प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है? तो विरले लोगों में ही वह बौद्धिक धारणाशक्ति होती है कि वे उस सत्य को उसकी पूर्णता में समझकर उसका ध्यान कर सकते हैं। यदि कभी बुद्धि उसे धारण कर भी पाती है? तो प्राय भक्त का हृदय उसके साथ अधिक काल तक तादात्म्य नहीं बनाये रख पाता है। मन के स्तर पर सत्य को केवल रूपकों के द्वारा ही समझकर उसका आनन्द अनुभव किया जा सकता है? सीधे ही उसके पूर्ण वैभव के द्वारा कभी नहीं।इस श्लोक में अर्जुन भगवान् वासुदेव के सौम्य रूप को बताता है? जो भागवत के भगवान् विष्णु का पारम्परिक रूप है। सब पुराणों में ईश्वर का वर्णन रूपक की भाषा में करते हुए उसे चतुर्भुज के रूप में चितित्र किया गया है। शरीर शास्त्र के विद्यार्थियों को यह कोई प्रकृति की आसाधारण निर्मिति ही प्रतीत हो सकती है। हम भूल जाते हैं कि वास्तव में यह सत्य का केवल एक सांकेतिक रूपक है।भगवान् की ये चार भुजाएं अन्तकरण चतुष्टय अर्थात् मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं।पुराणों में ही चतुर्भुजधारी भगवान् का वर्ण नील कहा गया है तथा वे पीताम्बरधारी हैं अर्थात् वे पीत वस्त्र धरण किये हुए हैं। नीलवर्ण से अभिप्राय उनकी अनन्तता से है असीम वस्तु सदा नीलवर्ण प्रतीत होती है? जैसे ग्रीष्म ऋतु का निरभ्र आकाश अथवा गहरा सागर। पृथ्वी का वर्ण है पीत। इस प्रकार भगवान् विष्णु के रूप का अर्थ यह हुआ कि अनन्त परमात्मा परिच्छिन्नता को धारण कर अन्तकरण चतुष्टय के द्वारा जीवन का खेल खेलता है।यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि सभी धर्मों में ईश्वर का वर्णन एक ही प्रकार से किया गया है। वह परमेश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् है। ईश्वर के बाहुबल से ही मनुष्य सफलता प्राप्त करता है? इसलिए सर्वशक्तिमान् भगवान् का निर्देश चतुर्भुजधारी के रूप में ही किया जा सकता है। भगवान् विष्णु शंखचक्रगदापद्मधारी हैं। शंखनाद के द्वारा भगवान् सब को अपने समीप आने का आह्वान करते हैं। यदि मनुष्य अपने हृदय के श्रेष्ठ भावनारूपी शंखनाद को अनसुना कर देता है? तो दुख के रूप में उस पर गदा का आघात होता है। इतने पर भी यदि मनुष्य अपने में सुधार नहीं लाता है? तो अन्तिम परिणाम है चक्र के द्वारा शिरच्छेद अर्थात् परमपुरुषार्थ की अप्राप्ति रूप नाश। इसके विपरीत? यदि कोई मनुष्य दिव्य जीवन का आह्वान सुनकर उसका पूर्ण अनुकरण करता है? तो उसे पद्म अर्थात् कमल की प्राप्ति होती है। हिन्दू धर्म में कमल पुष्प आध्यात्मिक पूर्णता एव शान्ति का प्रतीत है। भारतीय संस्कृति में यह सुखसमृद्धि का भी प्रतीक है। पाश्चात्य देशों में शान्ति का प्रतीक शुभ्र कपोत माना जाता है।संक्षेप में? अर्जुन चाहता है कि भगवान् अपने सौम्यरूप और शान्तभाव में प्रकट हों। वेदान्त के प्रारम्भिक और नवदीक्षित विद्यार्थियों के लिए सतत सूक्ष्म दार्शनिक विचारों की गति बनाये रख पाना कठिन होता है। बुद्धि की ऐसी थकान भरी अवस्था में? उत्साही साधकों के लिए ऐसे विश्वसनीय विश्रामस्थल की आवश्यकता होती है? जहाँ विश्राम करके वे पुन नवचैतन्य से युक्त हो सकते हों। यह शान्ति की शय्या है भगवान् का सगुण? साकार और सौम्यरूप।अर्जुन को भयभीत देखकर? भगवान् अपने विराट रूप का उपसंहार करके मधुर वचनों में उसे आश्वस्त करते हुए कहते हैं
।।11.46।।तदेव दर्शयेत्युक्तं किं तदित्यपेक्षायामाह -- किरीटिनमिति। चक्रं हस्ते यस्य तमिति व्युत्पत्तिं गृहीत्वाह -- चक्रेति। मदीयेच्छा फलपर्यन्ता कर्तव्येत्याह -- यत इति। चतुर्भुजत्वे कथं सहस्रबाहुत्वं तत्राह -- वार्तमानिकेनेति। सति विश्वरूपे कथं पूर्वरूपभाक्त्वं तत्राह -- उपसंहृत्येति।
।।11.46।।तदेवेत्युक्तं विशदयति। किरीटवन्तं तथा गदावन्तं चक्रं सुदर्शनं हस्ते यस्य तादृशं त्वामहं द्रष्टुमिच्छामि तस्मान्मदिच्छानुसारेणैव हे सहस्त्रबाहो? हे विस्वमूर्ते? मदिच्छापरिसमाप्त्या पुनरपि विश्वमूर्तित्वं तिरोधाय तेनैव रुपेण वसुदेवपुत्रमूर्तिरुपेण सहस्त्रबाहुत्वं तिरोधाय चतुर्भुजेन तथैव पूर्वरुपेण प्रकटीभवेत्यर्थः।
।।11.46।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
।।11.46।।तदेव रुपमाह -- किरीटिनमिति। एतेनार्जुनस्य चक्रगदाकिरीटोपेतं चतुर्भुजं भगवतो रूपं धारणाविषय इति दर्शितम्। हे सहस्रबाहो हे विश्वमूर्ते सहस्रबाहुत्वादिकमुपसंहृत्य तेनैव रूपेण भव प्रकटो भव।
।।11.46।।तथा एव पूर्ववत् किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तं त्वां द्रष्टुम् इच्छामि? अतः तेन एव पूर्वसिद्धेन चतुर्भुजेन रूपेण युक्तो भव सहस्रबाहो विश्वमूर्ते इदानीं सहस्रबाहुत्वेन विश्वशरीरत्वेन दृश्यमानरूपः त्वं तेन एव रूपेण युक्तो भव इत्यर्थः।
।।11.46।। तदेव रूपं विशेषयन्नाह -- किरीटिनमिति। किरीटिनं गदावन्तं चक्रहस्तं च त्वां द्रष्टुमिच्छामि पूर्वं यथा दृष्टोऽस्मि तथैव। अतो हे सहस्रबाहो? विश्वमूर्ते? इदं विश्वरूपं संहृत्य तेनैव किरीटादियुक्तेन चतुर्भुजेन रूपेण भवाविर्भव। तदनेन श्रीकृष्णमर्जुनः पूर्वमपि किरीटादियुक्तमेव पश्यतीति गम्यते। यत्तु पूर्वमुक्तं विश्वरूपदर्शनेकिरीटिनं गदिनं चक्रिणं च पश्यामि इति तद्बहुकिरीटाद्यभिप्रायेण। यद्वा। एतावन्तं कालं यं त्वां किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च सुप्रसन्नमपश्यं तमेवेदानीं तेजोराशिं दुर्निरीक्ष्यं पश्यामीत्येवं तत्र बहुवचनव्यक्तिरित्यविरोधः।
।।11.46।।तथैव इत्यस्य पूर्वं जगदाश्रयमत्यद्भुतं रूपं द्रष्टुमिच्छन् तथैव पूर्वरूपं द्रष्टुमिच्छामीत्यर्थभ्रमं व्युदस्यन् अतीतावस्थाविशिष्टस्य कथं प्रदर्शनं इति शङ्कां चार्थात्परिहरन् अन्वयभेदेन तद्व्याचष्टे -- तथैव पूर्ववत्किरीटिनमिति। पूर्वदृष्टसजातीयमेव द्रष्टुमिच्छामीत्यर्थः।रूपेण इत्यत्र तृतीयायाः करणार्थत्वासम्भवात्रूपेण युक्तो भवेत्युक्तम्। सहस्रबाहूदरविश्वमूर्तिविशिष्टस्य चतुर्भुजरूपयुक्तत्वासम्भवं कालभेदेन परिहरतिइदानीमिति।
।।11.46।।No commentary.
।।11.46।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।11.46।।तदेव रूपं विवृणोति -- किरीटिनमिति। किरीटवन्तं गदावन्तं चक्रहस्तं च त्वा त्वां द्रष्टुमिच्छाम्यहं। तथैव पूर्ववदेव। अतस्तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन वसुदेवात्मजत्वेन भव। हे इदानीं सहस्रबाहो? हे विश्वमूर्ते? उपसंहृत्य विश्वरूपं पूर्वरूपेणैव प्रकटो भवेत्यर्थः। एतेन सर्वदा चतुर्भुजादिरूपमर्जुनेन भगवतो दृश्यत इत्युक्तम्।
।।11.46।।रूपं विशिनष्टि -- किरीटिनमिति। किरीटवन्तं गदावन्तं चक्रहस्तं त्वामहं तथैव पूर्ववदेव द्रष्टुमिच्छामि। अतो हे सहस्रबाहो अगणितक्रियाशक्तिमन् विश्वमूर्ते तेनैव चतुर्भुजेन रूपेण भव प्रकटो भवेत्यर्थः।
।।11.46।। --,किरीटिनं किरीटवन्तं तथा गदिनं गदावन्तं चक्रहस्तम् इच्छामि त्वां प्रार्थये त्वां द्रष्टुम् अहं तथैव? पूर्ववत् इत्यर्थः।।यतः एवम्? तस्मात् तेनैव रूपेण वसुदेवपुत्ररूपेण चतुर्भुजेन? सहस्रबाहो वार्तमानिकेन विश्वरूपेण? भव विश्वमूर्ते उपसंहृत्य विश्वरूपम्? तेनैव रूपेण भव इत्यर्थः।।अर्जुनं भीतम् उपलभ्य? उपसंहृत्य विश्वरूपम्? प्रियवचनेन आश्वासयन् श्रीभगवान् उवाच --,श्रीभगवानुवाच --,
।।11.46।।तदेव रूपं विशेषयन् भगवन्तं प्रार्थयते -- किरीटिनमिति। तदनेन श्रीकृष्णं अर्जुन एवमेव षड्गुणगणालङ्कृतं चतुर्भुजं पश्यति स्मेति गम्यते। द्विभुजं तु सदैवेति। न पुष्टिमिश्रमभक्तस्य जायते निर्भया रुचिः। स्वतः प्रवृत्तिजनिकाक्षरमात्रैकदर्शने। क्षराक्षरातीतहरे रसानन्दमहोदधेः। स्वरूपामृतमग्नानां नान्यत्र स्याद्रतिः क्वचित्। इत्यभिप्रायमाज्ञाय गोपानामिव तस्य च। आश्वासयन् भीतमेनमुवाच भगवान्पुनः।
Chapter 11, Verse 46