Chapter 1, Verse 46

Text

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः। धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।1.46।।

Transliteration

yadi mām apratīkāram aśhastraṁ śhastra-pāṇayaḥ dhārtarāṣhṭrā raṇe hanyus tan me kṣhemataraṁ bhavet

Word Meanings

yadi—if; mām—me; apratīkāram—unresisting; aśhastram—unarmed; śhastra-pāṇayaḥ—those with weapons in hand; dhārtarāṣhṭrāḥ—the sons of Dhritarashtra; raṇe—on the battlefield; hanyuḥ—shall kill; tat—that; me—to me; kṣhema-taram—better; bhavet—would be


Translations

In English by Swami Adidevananda

If the well-armed sons of Dhrtarastra should slay me in battle, unresisting and unarmed, that would be better for me.

In English by Swami Gambirananda

If, in this battle, the sons of Dhrtarastra, armed with weapons, kill me, who am non-resistant and unarmed, that will be more beneficial for me.

In English by Swami Sivananda

If the sons of Dhritarashtra, with weapons in hand, should slay me in battle, unresisting and unarmed, that would be better for me.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

It would be more beneficial for me if Dhrtarastra's men, with weapons in their hands, should slay me, unresisting and unarmed.

In English by Shri Purohit Swami

If, on the contrary, the sons of Dhritarashtra, with weapons in hand, should slay me, unarmed and unresisting, surely that would be better for my welfare!

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.46।। अगर ये हाथों में शस्त्र-अस्त्र लिये हुए धृतराष्ट्र के पक्षपाती लोग युद्धभूमि में सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मुझ को मार भी दें, तो वह मेरे लिये बड़ा ही हितकारक होगा।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।1.46।।यदि मुझ शस्त्ररहित और प्रतिकार न करने वाले को ये शस्त्रधारी कौरव रण में मारें,  तो भी वह मेरे लिये कल्याणकारक होगा।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

1.46 यदि if? माम् me? अप्रतीकारम् unresisting? अशस्त्रम् unarmed? शस्त्रपाणयः with weapons in hand? धार्तराष्ट्राः the sons of Dhritarashtra? रणे in the battle हन्युः should slay? तत् that? मे of me? क्षेमतरम् better? भवेत् would be.No Commentary.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 1.46।। व्याख्या--'यदि माम् ৷৷. क्षेमतरं भवेत्'--अर्जुन करते हैं कि अगर मैं युद्धसे सर्वथा निवृत्त हो जाऊँगा, तो शायद ये दुर्योधन आदि भी युद्धसे निवृत्त हो जायँगे। कारण कि हम कुछ चाहेंगे ही नहीं, लड़ेंगे भी नहीं, तो फिर ये लोग युद्ध करेंगे ही क्यों? परन्तु कदाचित जोशमें भरे हुए तथा हाथोंमें शस्त्र धारण किये हुए ये धृतराष्ट्रके पक्षपाती लोग 'सदाके लिये हमारे रास्तेका काँटा निकल जाय, वैरी समाप्त जो जाय'--ऐसा विचार करके सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मेरेको मार भी दें, तो उनका वह मारना मेरे लिये हितकारक ही होगा। कारण कि मैंने युद्धमें गुरुजनोंको मारकर बड़ा भारी पाप करनेका जो निश्चय किया था, उस निश्चयरूप पापका प्रायश्चित्त हो जायेगा, उस पापसे मैं शुद्ध हो जाऊँगा। तात्पर्य है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तो मैं भी पापसे बचूँगा और मेरे कुलका भी नाश नहीं होगा। [जो मनुष्य अपने लिये जिस किसी विषयका वर्णन करता है, उस विषयका उसके स्वयंपर असर पड़ता है। अर्जुनने भी जब शोकाविष्ट होकर अट्ठाईसवें श्लोकसे बोलना आरम्भ किया, तब वे उतने शोकाविष्ट नहीं थे, जितने वे अब शोकाविष्ट हैं। पहले अर्जुन युद्धसे उपरत नहीं हुए, पर शोकविष्ट होकर बोलते-बोलते अन्तमें वे युद्धसे उपरत हो जाते हैं और बाणसहित धनुषका त्याग करके बैठ जाते हैं। भगवान्ने यह सोचा कि अर्जुनके बोलनेका वेग निकल जाय तो मैं बोलूँ अर्थात् बोलनेसे अर्जुनका शोक बाहर आ जाय, भीतरमें कोई शोक बाकी न रहे, तभी मेरे वचनोंका उसपर असर होगा। अतः भगवान् बीचमें कुछ नहीं बोले।]  विशेष बात  अबतक अर्जुनने अपनेको धर्मात्मा मानकर युद्धसे निवृत्त होनेमें जितनी दलीलें, युक्तियाँ दी हैं, संसारमें रचे-पचे लोग अर्जुनकी उन दलीलोंको ही ठीक समझेंगे और आगे भगवान् अर्जुनको जो बातें समझायेंगे, उनको ठीक नहीं समझेंगे ! इसका कारण यह है कि जो मनुष्य जिस स्थितिमें हैं, उस स्थितिकी, उस श्रेणीकी बातको ही वे ठीक समझते हैं; उससे ऊँची श्रेणीकी बात वे समझ ही नहीं सकते। अर्जुनके भीतर कौटुम्बिक मोह है और उस मोहसे आविष्ट होकर ही वे धर्मकी, साधुताकी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कह रहे हैं। अतः जिन लोगोंके भीतर कौटुम्बिक मोह है, उन लोगोंको ही अर्जुनकी बातें ठीक लगेंगी। परन्तु भगवान्की दृष्टि जीवके कल्याणकी तरफ है कि उसका कल्याण कैसे हो? भगवान्की इस ऊँची श्रेणीकी दृष्टिको वे (लौकिक दृष्टिवाले) लोग समझ ही नहीं सकते। अतः वे भगवान्की बातोंको ठीक नहीं मानेंगे, प्रत्युत ऐसा मानेंगे कि अर्जुनके लिये युद्धरूपी पापसे बचना बहुत ठीक था, पर भगवान्ने उनको युद्धमें लगाकर ठीक नहीं किया ! वास्तवमें भगवान्ने अर्जुनसे युद्ध नहीं कराया है, प्रत्युत उनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है। युद्ध तो अर्जुनको कर्तव्यरूपसे स्वतः प्राप्त हुआ था। अतः युद्धका विचार तो अर्जुनका खुदका ही था; वे स्वयं ही युद्धमें प्रवृत्त हुए थे, तभी वे भगवान्को निमन्त्रण देकर लाये थे। परन्तु उस विचारको अपनी बुद्धिसे अनिष्टकारक समझकर वे युद्धसे विमुख हो रहे थे अर्थात् अपने कर्तव्यके पालनसे हट रहे थे। इसपर भगवान्ने कहा कि यह जो तू युद्ध नहीं करना चाहता, यह तेरा मोह है। अतः समयपर जो कर्तव्य स्वतः प्राप्त हुआ है, उसका त्याग करना उचित नहीं है। कोई बद्रीनारायण जा रहा था; परन्तु रास्तेमें उसे दिशाभ्रम हो गया अर्थात् उसने दक्षिणको उत्तर और उत्तरको दक्षिण समझ लिया। अतः वह बद्रीनारायणकी तरफ न चलकर उलटा चलने लग गया। सामनेसे उसको एक आदमी मिल गया। उस आदमीने पूछा कि 'भाई! कहाँ जा रहे हो?' वह बोला--'बद्रीनारायण'। वह आदमी बोला कि 'भाई! बद्रीनारायण इधर नहीं है, उधर है। आप तो उलटे जा रहे हैं!' अतः वह आदमी उसको बद्रीनारायण भेजनेवाला नहीं है; किन्तु उसको दिशाका ज्ञान कराकर ठीक रास्ता बतानेवाला है। ऐसे ही भगवान्ने अर्जुनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है, युद्ध नहीं कराया है। स्वजनोंको देखनेसे अर्जुनके मनमें यह बात आयी थी कि मैं युद्ध नहीं करूँगा--'न योत्स्ये'  (2। 9), पर भगवान्का उपदेश सुननेपर अर्जुनने ऐसा नहीं कहा कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, किन्तु ऐसा कहा कि मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा;-- 'करिष्ये वचनं तव'  (18। 73) अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करूँगा। अर्जुनके इन वचनोंसे यही सिद्ध होता है कि भगवान्ने अर्जुनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है। वास्तवमें युद्ध होना अवश्यम्भावी था; क्योंकि सबकी आयु समाप्त हो चुकी थी। इसको कोई भी टाल नहीं सकता था। स्वयं भगवान्ने विश्वरूपदर्शनके समय अर्जुनसे कहा है कि 'मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सबका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ। अतः तेरे युद्ध किये बिना भी ये विपक्षमें खड़े योद्धालोग बचेंगे नहीं' (11। 32)। इसलिये यह नरसंहार अवश्यम्भावी होनहार ही था। यह नरसंहार अर्जुन युद्ध न करते तो भी होता। अगर अर्जुन युद्ध नहीं करते, तो जिन्होंने माँकी आज्ञासे द्रौपदीके साथ अपने सहित पाँचों भाइयोंका विवाह करना स्वीकार कर लिया था, वे युधिष्ठिर तो माँकी युद्ध करनेकी आज्ञासे युद्ध अवश्य करते ही। भीमसेन भी युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते; क्योंकि उन्होंने कौरवोंको मारनेकी प्रतिज्ञा कर रखी थी। द्रौपदीने तो यहाँतक कह दिया था कि अगर मेरे पति (पाण्डव) कौरवोंसे युद्ध नहीं करेंगे तो, मेरे पिता (द्रुपद), भाई (धृष्टद्युम्न) और मेरे पाँचों पुत्र तथा अभिमन्यु कौरवोंसे युद्ध करेंगे  (टिप्पणी प0 33) । इस तरह ऐसे कई कारण थे, जिससे युद्धको टालना सम्भव नहीं था। होनहारको रोकना मनुष्यके हाथकी बात नहीं है; परन्तु अपने कर्तव्यका पालन करके मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है और कर्तव्यच्युत होकर अपना पतन कर सकता है। तात्पर्य है कि मनुष्य अपना इष्ट-अनिष्ट करनेमें स्वतन्त्र है। इसलिये भगवान्ने अर्जुनको कर्तव्यका ज्ञान कराकर मनुष्यमात्रको उपदेश दिया है कि उसे शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार अपने कर्तव्यके पालनमें तत्पर रहना चाहिये, उससे कभी च्युत नहीं होना चाहिये।  सम्बन्ध--  पूर्वश्लोकमें अर्जुनने अपनी दलीलोंका निर्णय सुना दिया। उसके बाद अर्जुनने क्या किया--इसको सञ्जय आगे के श्लोकमें बताते हैं।  

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।1.46।। यहाँ अर्जुन अपने अन्तिम निर्णय की घोषणा करता है। सब प्रकार से परिस्थिति पर विचार करने पर उसे यही उचित जान पड़ता है कि रणभूमि में वह किसी प्रकार का प्रतिकार न करे चाहें कौरव उसे शस्त्ररहित जानकर सैकड़ों बाणों से उसके सुन्दर शरीर को हरिण की तरह विद्ध कर दें।यहाँ अर्जुन द्वारा प्रयुक्त क्षेम शब्द विचारणीय है क्योंकि वह शब्द ही उसकी वास्तविक मनस्थिति का परिचायक है। क्षेम और मोक्ष शब्द के अर्थ क्रमश भौतिक उन्नति और आध्यात्मिक उन्नति हैं। यद्यपि अर्जुन ने अब तक जो भी तर्क प्रस्तुत किये उनमें आध्यात्मिक संस्कृति के पतन के भय को बड़े परिश्रम से सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया था परन्तु क्षेम शब्द से स्पष्ट हो जाता है कि वह वास्तव में शारीरिक सुरक्षा चाहता था जो युद्ध पलायन में संभव थी।संक्षेप में हम कह सकते हैं कि युद्ध में विजयरूपी फल में अत्यन्त आसक्ति और उसकी चिन्ता के कारण अर्जुन आत्मशक्ति खोकर एक उन्माद के मानसिक रोगी के समान विचित्र व्यवहार करने लगता है।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।1.46।।यथोक्तमर्जुनस्य वृत्तान्तं संजयो धृतराष्ट्रं राजानं प्रति प्रवेदितवांस्तमेव प्रवेदनप्रकारं दर्शयति  एवमिति।  प्रदर्शितेन प्रकारेण भगवन्तं प्रति विज्ञापनं कृत्वा शोकमोहाभ्यां परिभूतमानसः सन्नर्जुनः संख्ये युद्धमध्ये शरेण सहितं गाण्डीवं त्यक्त्वा न योत्स्येऽहमिति ब्रुवन्मध्ये रथस्य संन्यासमेव श्रेयस्करं मत्वोपविष्टवानित्यर्थः।इति परमहंसश्रीमदानन्दगिरिकृतटीकायां प्रथमोऽध्यायः।।1।।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।1.46।।ननु स्वरक्षणाय व्यापारमकुर्वाणं शस्त्रपरिग्रहरहितं त्वां धार्तराष्ट्रा रणे निहन्युरितिचेत्तत्राह  यदीति।  यत्तु ननु तव वैराग्येऽपि भीमसेनादीनां युद्धोत्सुकत्वात्तत्कृतो बन्धुवधो भविष्यत्येव त्वया पुनः किं कार्यमित्यत आह यदीति तदुपेक्ष्यम्। मूले शङ्कानुगुणस्योत्तरस्याभावात्। क्षेमतरं हिततरं पापानिष्पत्तेः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।1.46।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।1.46।।संख्ये संग्रामे।।।इति श्रीनैलकण्ठीये भगवद्गीतासु प्रथमोऽध्यायः।।1।।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।1.46।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।। 1.46।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 1.46।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।1.46।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।1.46।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।1.46।।ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायां संख्ये संग्रामे रथोपस्थे रथस्योपर्युपविशेश। पूर्वं युद्धार्थमवलोकनार्थं चोत्थितः सन् शोकेन संविग्नं पीडितं मानसं यस्य सः।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यविश्वेश्वरसरस्वतीपादशिष्यसूनुमधुसूदनसरस्वतीविरचितायांश्रीमद्भगवद्गीतागूढार्थदीपिकायां प्रथमोऽध्यायः।।1।।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।1.46।।ननु त्वं चेन्न हनिष्यसि तदैते त्वां हनिष्यन्त्येवेति चेत्तत्राह यदि मामिति। धार्त्तराष्ट्रा अन्धापत्यानि यदि वा अप्रतीकारमकृतप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्ररहितं मां शस्त्रपाणयः सन्तो हन्युः हनिष्यन्ति तन्मे क्षेमतरं भवेत् कल्याणरूपं भवेदित्यर्थः। पूर्वकृतव्यवसायप्रायश्चित्तरूपं भवेदित्यर्थः। अजिघांसन्तं मां हनिष्यन्ति चेत्तदा क्षेमरूपं भवेत् तव सन्निधौ मरणे च क्षेमतरं भवेदिति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

1.46 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।1.45 1.46।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.


Chapter 1, Verse 46