अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे। तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास।।11.45।।
adṛiṣhṭa-pūrvaṁ hṛiṣhito ’smi dṛiṣhṭvā bhayena cha pravyathitaṁ mano me tad eva me darśhaya deva rūpaṁ prasīda deveśha jagan-nivāsa
adṛiṣhṭa-pūrvam—that which has not been seen before; hṛiṣhitaḥ—great joy; asmi—I am; dṛiṣhṭvā—having seen; bhayena—with fear; cha—yet; pravyathitam—trembles; manaḥ—mind; me—my; tat—that; eva—certainly; me—to me; darśhaya—show; deva—Lord; rūpam—form; prasīda—please have mercy; deva-īśha—God of gods; jagat-nivāsa—abode of the universe
Seeing something never seen before, I am delighted. But my mind is also filled with awe. Show me, O Lord! Your other form. O Lord of the gods! Be gracious, O Abode of the universe!
I am delighted by seeing something I have not seen before, and my mind is stricken with fear. O Lord, show me that very form; O Supreme God, O Abode of the Universe, be gracious!
I am delighted, having seen something never seen before; yet my mind is distressed with fear. Show me that form only, O God; have mercy, O God of gods, O Abode of the universe.
I am thrilled by what I have not seen before; my mind is greatly distressed with fear; show me Your usual form, O God! Lord of gods! O Abode of the worlds!
I rejoice that I have seen what no man has ever seen before; yet, O Lord! I am overwhelmed with fear. Please take on the form I know. Be merciful, O Lord! You who are the home of the entire universe.
।।11.45।। मैंने ऐसा रुप पहले कभी नहीं देखा। इस रूपको देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और (साथ-ही-साथ) भयसे मेरा मन अत्यन्त व्यथित हो रहा है। अतः आप मुझे अपने उसी देवरूपको (सौम्य विष्णुरूपको) दिखाइये। हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये।
।।11.45।। मैं आपके इस अदृष्टपूर्व रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अतिव्याकुल भी हो रहा हैं। इसलिए हे देव! आप उस पूर्वकाल को ही मुझे दिखाइये। हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होइये।।
11.45 अदृष्टपूर्वम् what was never seen before? हृषितः delighted? अस्मि (I) am? दृष्ट्वा having seen? भयेन with fear? च and? प्रव्यथितम् is distressed? मनः mind? मे my? तत् that? एव only? मे to me? दर्शय show? देव O God? रूपम् form? प्रसीद have mercy? देवेश O Lord of the gods? जगन्निवास O Aboe of the universe.Commentary For an ordinary man the Cosmic Form (Vision) is overwhelming and terrifying but for a Yogi it is encouraging? strengthening and soulelevating.Arjuna says The Cosmic Form was never before seen by me. Show me only that form which Thou wearest as my friend.
।।11.45।। व्याख्या--[जैसे विराट्रूप दिखानेके लिये मैंने भगवान्से प्रार्थना की तो भगवान्ने मुझे विराट्रूप दिखा दिया, ऐसे ही देवरूप दिखानेके लिये प्रार्थना करनेपर भगवान् देवरूप दिखायेंगे ही -- ऐसी आशा होनेसे अर्जुन भगवान्से देवरूप दिखानेके लिये प्रार्थना करते हैं।]
।।11.45।। प्रत्येक भक्त अपने इष्ट देवता के रूप में भगवान् से प्रेम करता है। जब उस आकार के द्वारा वह भगवान् के अनन्त? परात्पर? निराकार स्वरूप का साक्षात्कार करता है? तब निसन्देह वह परमानन्द का अनुभव करता है? किन्तु उसी क्षण वह भय से भी अभिभूत हो जाता है। अध्यात्म साधना करने वाले साधकों का प्रारम्भिक अवस्था में यही अनुभव होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि? साधना के फलस्वरूप प्राप्त आन्तरिक शान्ति परमानन्द दायक होती है? परन्तु अचानक साधक के मन में विचित्र भय समा जाता है? जो उसे पुन देहभाव को प्राप्त कराकर मन के विक्षेपों का कारण बनता है।आत्मानुभव के उदय पर यह परिच्छिन्न जीव अपने बन्धनों से मुक्त होकर? अदृष्टपूर्व आनन्दलोक में प्रवेश करता है? जहाँ वह अपनी ही विशालता और प्रभाव का अनुभव कर प्रसन्न हो जाता है। इसी बात को अर्जुन दर्शाता है कि ऐसे रूप को देखकर? जो मैंने पूर्व कभी देखा नहीं था? मैं हर्षित हो रहा हूँ। परन्तु प्रारम्भिक प्रयत्नों में एक साधक में यह सार्मथ्य नहीं होती कि वह अपने मन को दीर्घकाल तक वृत्तिशून्य स्थिति में रख सके। ध्यान में निश्चल प्रतीत हो रहा उसका मन पुन जाग्रत होकर क्रियाशील हो जाता है। साधकों का यह अनुभव है कि ऐसे समय मन में सर्वप्रथम जो वृत्ति उठती है वह भय की ही होती है। निराकार अनुभव से भयभ्ाीत होकर मन पुन शरीर भाव में स्थित हो जाता है। ऐसे अवसरों पर भक्तजन प्रेम और भक्ति के साथ अपने साकार इष्टदेव को अपने चंचल मन्दस्मित के रूप में व्यक्त होने के लिए प्रार्थना करते हैं। वे अपने इष्टदेव को पुन सस्मित और कोमल तथा प्रेमपूर्ण दृष्टि और संगीतमय शब्दों के साथ देखना चाहते हैं।अर्जुन श्रीकृष्ण को जिस रूप में देखना चाहता था? उसका वर्णन अगले श्लोक में करता है
।।11.45।।हेतूक्तिपूर्वकं विश्वरूपोपसंहारं प्रार्थयते -- अदृष्टेति। हृषितो हृष्टस्तुष्ट इति यावत्। भयेन तद्धेतुविकृतदर्शनेनेत्यर्थः।
।।11.45।।एवमपराधक्षमां प्रार्थ्याभिलषितं प्रार्थयते -- अदृष्टेति द्वाभ्याम्। मयान्यैवी कदाचिदपि न दृष्टपूर्वं इदं तव विश्वरुपं दृष्ट्वा हृषितोस्मि हर्षं प्राप्तोस्मि। अदृष्टपूर्वत्वादेव भयेन च व्यथितं दुःखितं मे मनः। अतो यस्मिन्निदं विश्वरुपं त्वया प्रदर्शितं तदेव मुख्यरुपं मम प्रदर्शय। प्रदर्शनं चैतद्रूपाधिष्ठानत्वेन स्थितस्यैव प्रद्योतनमात्रं त्वया कर्तव्यमस्ति नतत्पाद्य प्रदर्शयितव्यमिति देवेति संबोधनस्य गूढाभिसंधिः। देवरुपं द्योतनात्मकं रुपमित्येकं वा पदं। तव देवेश त्वं जगन्निवास त्वं च मया प्रत्यक्षीकृतमतो मज्जिज्ञासासमाप्त्या मदर्थस्यैतद्रूपस्य तिरोधानमेवोचितमिति द्योतनार्थं संबोधनद्वयं हे देवेश हे जगन्निवासेति।
।।11.45।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
।।11.45।।एवं स्तुत्वा स्वेष्टं प्रार्थयते -- अदृष्टपूर्वमिति। हे देव? कदाचिदपि पूर्वं न दृष्टं तादृशमदृष्टपूर्वं तव रूपं दृष्ट्वा हृषित उत्फुल्लोऽस्मि। तथा विकरालरूपदर्शनजेन भयेन च मे मम मनः प्रव्यथितम्। अतस्तदेव धारणाविषयभूतं रूपं मे मह्यं दर्शय।
।।11.45।।अदृष्टपूर्वम् अत्यद्भुतम् अत्युग्रं च तव रूपं दृष्ट्वा हृषितः अस्मि प्रीतः अस्मि? भयेन प्रव्यथितं च मे मनः? अतः तद् एव तव सुप्रसन्नं रूपं मे दर्शय।प्रसीद देवेश जगन्निवास मयि प्रसादं कुरु देवानां ब्रह्मादीनाम् अपि ईश निखिलजगदाश्रयभूत।
।।11.45।।एवं क्षमापयित्वा प्रार्थयते -- अदृष्टपूर्वमिति द्वाभ्याम्। हे देव? पूर्वमदृष्टं तव रूपं दृष्ट्वा हृषितो हृष्टोऽस्मि। तथा भयेन च मे मनः प्रव्यथितं प्रचलितं। तस्मान्मम व्यथानिवृत्तये तदेव रूपं दर्शय। हे देवेश? हे जगन्निवास? प्रसन्नो भव।
।।11.45।।विचित्रस्याप्यदृष्टपूर्वस्यैवाश्चर्यविषयत्वदर्शनात्अदृष्टपूर्वम् इत्यनेन फलितमाह -- अत्यद्भुतमिति।भयेन च प्रव्यथितं मनो मे इत्यनेनाक्षिप्तंआख्याहि मे को भवानुग्ररूपः [11।31] इत्यत्रोक्तं विशेषणमाहअत्युग्रं चेति।भयेन च इत्यत्र चशब्दस्य निष्प्रयोजनत्वादुक्तव्यथाहेत्वन्तरसमुच्चयार्थत्वमयुक्तमित्युक्तप्रीतिसमुच्चयार्थत्वमभिप्रेत्य व्यवहितान्वयमाहप्रव्यथितं च मे मन इति। पूर्वार्धोक्तस्य व्यथासहितप्रीतिजनकत्वस्योत्तरार्धार्थहेतुत्वमभिप्रेत्याहअत इति। तच्छब्दस्य पूर्वप्रसिद्धाकारपरामर्शित्वेन तदभिप्रेतमाकारमाहसुप्रसन्नमिति। अनेन केवलप्रीतिहेतुत्वं सूचितम्। प्रपन्नस्य रक्षणमवश्यं कार्यमित्यभिप्रायेणमे दर्शयेत्युक्तम्।देवदेवेश इति सम्बोधनद्वयेन तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं दैवतानां परमं च दैवतम् [श्वे.उ.6।7] इति श्रुत्यर्थोऽभिप्रेत इत्याशयेन -- देवानां ब्रह्मादीनामपीशेत्युक्तम्। दृश्यमानरूपस्यतत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा [11।13] इति जगदाश्रयत्वेन दृश्यमानत्वात्जगन्निवास इत्यनेन तदुच्यत इत्यभिप्रयन्नाह -- जगदाश्रयभूतेति।
।।11.45।।No commentary.
।।11.45।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।11.45।।एवमपराधक्षमां प्रार्थ्य पुनः प्राग्रूपदर्शनं विश्वरूपोपसंहारेण प्रार्थयते द्वाभ्यां -- अदृष्टेत्यादिना। कदाप्यदृष्टपूर्वं पूर्वमदृष्टं विश्वरूपं दृष्ट्वा हृषितो हृष्टोऽस्मि। तद्विकृतरूपदर्शनजेन भयेन च प्रव्यथितं व्याकुलीकृतं मनो मे। अतस्तदेव प्राचीनमेव मम प्राणापेक्षयापि प्रियं रूपं मे दर्शय। हे देव हे देवेश? हे जगन्निवास? प्रसीद प्राग्रूपदर्शनरूपं प्रसादं मे कुरु।
।।11.45।।एवं क्षमाप्य विज्ञापयति -- अदृष्टपूर्वमिति द्वयेन। अदृष्टपूर्वं तव रूपं विश्वात्मकं अनेकलीलायुतं दृष्ट्वा हृषितोऽस्मि हर्षं प्राप्तोऽस्मि। च पुनः मे मनः भयेन प्रव्यथितं प्रकर्षेण व्यथां प्राप्तम्। अयं भावः -- द्रष्टुकामस्य तादृशं रूपं दर्शयित्वा पुरुषोत्तमदर्शनवतोऽन्यरूपदर्शनाभिलाषापराधिनः पुनः पुरुषोत्तमरूपं दर्शयिष्यति न वेति भयमभूत्? अतः प्रसादं प्रार्थयित्वा तद्दर्शनं प्रार्थयति। देवेश देवानामपीन्द्रादीनामीश नियामक जगन्निवास प्रसीद प्रसन्नो भव। प्रसन्नो भूत्वा हे देव सेवनार्थं तदेव पुरुषोत्तमरूपं दर्शय।
।।11.45।। --,अदृष्टपूर्वं न कदाचिदपि दृष्टपूर्वम् इदं विश्वरूपं तव मया अन्यैर्वा? तत् अहं दृष्ट्वा हृषितः अस्मि। भयेन च प्रव्यथितं मनः मे। अतः तदेव मे मम दर्शय हे देव रूपं यत् मत्सखम्। प्रसीद देवेश? जगन्निवास जगतो निवासो जगन्निवासः? हे जगन्निवास।।
।।11.45।।एवं क्षमापयित्वा गुणातिगं प्रति प्रार्थयते -- अदृष्टेति। वस्तुतस्तु त्वं गुणातीत इति भक्ताय तदेव गुणातीतं रूपं प्रदर्शय। इदं चादृष्टपूर्वं ते रूपं दृष्ट्वा? पूर्वं दृष्टः पश्चाल्लोकान् ग्रसमानं ज्ञात्वा मनो मे प्रव्यथितं यतः? अतस्तदेव चतुर्भुजं वा दृष्टपूर्वं रूपं मे प्रदर्शय। अस्माकं तु चतुर्भुजं मर्यादामयं शुद्धसत्त्वात्मकं ते रूपं श्रेष्ठं शान्तत्वादित्याशयेनाह तद्दर्शने प्रसीदेति। अनेनाक्षरब्रह्मोपासकेभ्यः शुद्धसत्त्वमयचतुर्भुजोपासकामर्यादया गुणज्ञाः उत्तमा इति लभ्यते।
Chapter 11, Verse 45