Chapter 11, Verse 42

Text

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु। एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।।11.42।।

Transliteration

yach chāvahāsārtham asat-kṛito ’si vihāra-śhayyāsana-bhojaneṣhu eko ’tha vāpy achyuta tat-samakṣhaṁ tat kṣhāmaye tvām aham aprameyam

Word Meanings

yat—whatever; cha—also; avahāsa-artham—humorously; asat-kṛitaḥ—disrespectfully; asi—you were; vihāra—while at play; śhayyā—while resting; āsana—while sitting; bhojaneṣhu—while eating; ekaḥ—(when) alone; athavā—or; api—even; achyuta—Krishna, the infallible one; tat-samakṣham—before others; tat—all that; kṣhāmaye—beg for forgiveness; tvām—from you; aham—I; aprameyam—immeasurable


Translations

In English by Swami Adidevananda

And whatever disrespect has been shown to You in jest, while playing, resting, sitting, or eating, whether alone or in the presence of others, O Acyuta—I implore You for forgiveness, You who are incomprehensible.

In English by Swami Gambirananda

And that You have been discourteously treated out of fun—while walking, while on a bed, while on a seat, while eating, in privacy, or, O Acyuta, even in public—for that, I beg pardon of You, the incomprehensible One.

In English by Swami Sivananda

In whatever way I may have insulted You for the sake of fun, while at play, reposing, sitting, or at meals, when alone (with You), O Krishna, or in company, that I implore You, immeasurable one, to forgive.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Whatever disrespect I have shown to You, making fun of You in the course of play, or while on the bed, or on the seat, or at meals, either alone or in the presence of respectable persons—for that, I beg pardon of You, the Unconceivable One, O Acyuta!

In English by Shri Purohit Swami

Whatever insults I have offered to You in jest, in sport, in repose, in conversation, or at a banquet, alone or in a crowd, I ask for Your forgiveness for them all, O You Who are without equal!

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।11.41 -- 11.42।। आपकी  महिमा और स्वरूपको न जानते हुए 'मेरे सखा हैं' ऐसा मानकर मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे भी हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) 'हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे !' इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत ! हँसी-दिल्लगीमें, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समयमें अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुम्बियों आदिके सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है, वह सब अप्रमेस्वरूप आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ ।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।11.42।। और, हे अच्युत! जो आप मेरे द्वारा हँसी के लिये बिहार, शय्या, आसन और भोजन के समय अकेले में अथवा अन्यों के समक्ष भी अपमानित किये गये हैं, उन सब के लिए अप्रमेय स्वरूप आप से मैं क्षमायाचना करता हूँ।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

11.42 यत् whatever? च and? अवहासार्थम् for the sake of fun? असत्कृतः disrespected? असि (Thou) art? विहारशय्यासनभोजनेषु while at play? on bed? while sitting or at meals? एकः (when) one? अथवा or? अपि even? अच्युत O Krishna? तत् so? समक्षम् in company? तत् that? क्षामये implore to forgive? त्वाम् Thee? अहम् I? अप्रमेयम् immeasurable.Commentary Arjuna? beholding the Cosmic Form of Lord Krishna? seeks forgiveness for his past familiar conduct. He says? I have been stupid. I have treated Thee with familiarity? not knowing Thy greatness. I have taken Thee as my friend on account of misconception. I have behaved badly with Thee. Thou art the origin of this universe and yet I have joked with Thee. I have taken undue liberties with Thee. Kindly forgive me? O Lord.Tat All those offences.Achyuta He who is unchanging.In company In the presence of others.Aprameyam Immeasurable. He Who has unthinkable glory and splendour.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।11.42।। व्याख्या--[जब अर्जुन विराट् भगवान्के अत्युग्र रूपको देखकर भयभीत होते हैं, तब वे भगवान्के कृष्णरूपको भूल जाते हैं और पूछ बैठते हैं कि उग्ररूपवाले आप कौन हैं परन्तु जब उनको भगवान् श्रीकृष्णकी स्मृति आती है कि वे ये ही हैं, तब भगवान्के प्रभाव आदिको देखकर उनको सखाभावसे किये हुए पुराने व्यवहारकी याद आ जाती है और उसके लिये वे भगवान्से क्षमा माँगते हैं।]   'सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति'--जो बड़े आदमी होते हैं, श्रेष्ठ पुरुष होते हैं, उनको साक्षात् नामसे नहीं पुकारा जाता। उनके लिये तो 'आप', महाराज आदि शब्दोंका प्रयोग होता है। परन्तु मैंने आपको कभी 'हे कृष्ण' कह दिया, कभी 'हे यादव' कह दिया और कभी हे सखे कह दिया। इसका कारण क्या था? 'अजानता महिमानं तवेदम्' (टिप्पणी प0 603.1) इसका कारण यह था कि मैंने आपकी ऐसी महिमाको और स्वरूपको जाना नहीं कि आप ऐसे विलक्षण हैं। आपके किसी एक अंशमें अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं--ऐसा मैं पहले नहीं जानता था। आपके प्रभावकी तरफ मेरी दृष्टि ही नहीं गयी। मैंने कभी सोचा-समझा ही नहीं कि आप कौन हैं और कैसे हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।11.42।। जब कोई सामान्य व्यक्ति अकस्मात् ही परमात्मा के महात्म्य का परिचय पाता है? तब उसके मन में जिन भावनाओं का निश्चित रूप से उदय होता है? उन्हें इन दो सुन्दर श्लोकों के द्वारा नाटकीय यथार्थता के साथ सामने लाया गया है। अब तक अर्जुन? भगवान् श्रीकृष्ण को एक बुद्धिमान् गोपाल से अधिक कुछ नहीं समझता था? जिसे उसने बड़ी उदारता से अपनी राजमैत्री का आश्रय लाभ दिया था। परन्तु? अब श्रीकृष्ण के अनन्तस्वरूप का वास्तविक परिचय पाकर अर्जुन में स्थित जीवभाव उनके समक्ष दृढ़ निष्ठा एवं सम्मान के साथ प्रणिपात करके उनसे दया और क्षमा की याचना करता है।इन दो श्लोकों में अत्यन्त घनिष्ठता का स्पर्श है। यहाँ बौद्धिक दार्शनिक चिन्तन का घनिष्ठ परिचय के भावुक पक्ष के साथ सुन्दर संयोग हुआ है। गीता का प्रयोजन ही यह है कि वेद प्रतिपादित सत्यों की सुमधुर ध्वनि का व्यावहारिक जगत् की सुखद लय के साथ मिलन कराया जाये। घनिष्ठ परिचय के इन भावुक स्पर्शों के द्वारा व्यासजी की कुशल लेखनी? वेदान्त के विचारोत्तेजक महान् सत्यों को? अचानक? अपने घर की बैठक में होने वाले वार्तालाप के परिचित वातावरण में ले आती है। एक घनिष्ठ मित्र के रूप में प्रमाद या प्रेमवश अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा को न जानते हुए उन्हें प्रिय नामों से सम्बोधित किया होगा? जिसके लिए उनसे अब्ा वह क्षमायाचना करता है।क्योंकि

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।11.42।।यदयुक्तमुक्तं तत्क्षन्तव्यमित्येव न किंतु यत्परीहासार्थं क्रीडादिषु त्वयि तिरस्करणं कृतं तदपि सोढव्यमित्याह -- यच्चेति। विहरणं क्रीडा व्यायामो वा। शयनं तल्पादिकमासनमास्थायिका सिंहासनादेरुपलक्षणम्। एतेषु विषयभूतेष्विति यावत्। एकशब्दो रहसि स्थितमेकाकिनं कथयतीत्याह -- परोक्षः सन्निति। प्रत्यक्षं परोक्षं वा तदसत्करणं परिभवनं यथा स्यात्तथा यन्मया त्वमसत्कृतोऽसि तत्सर्वमिति योजनामङ्गीकृत्याह -- तच्छब्द इति। क्षमा कारयितव्येत्यत्रापरिमितत्वं हेतुमाह -- अप्रमेयमिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।11.42।।यच्चावहासार्थं परिहासप्रयोजनायासत्कृतोऽसि परिभूतोऽसि। विहरणं विहारः क्रीडा पादव्यायमो वा? शयनं शय्या? आसनमास्थायिका सिंहासनादि? भोजनमदनमित्येतेषु विहारदिषु असत्करणं चोत्कृष्टेन सह निकृष्टस्य समानतया प्रवृत्तिः। एक परोक्षः रहसि सन्नसत्कृतोऽसि। अथवा समक्षं प्रत्यक्षमपि यत् असत्कृतोसि परोक्षं वा प्रत्यक्षं वा तदसत्करणं यन्मया परिभूतोऽसि तत्सर्वमपराधजाते त्वामहं क्षामये क्षमां कारये। पूर्वं मातुलोयं स्वसमानं ज्ञात्वाऽसत्कृत्येदानीमप्रमेयं बुद्ध्वा क्षामय इत्याशयेनाह -- अप्रमेयमिति। असत्कृतोऽहं क्षमां न करोमीति न वाच्यम्। यतोऽसत्करणएन स्वपदात्सर्वोत्तमात् सदैवाप्रच्युत इति ध्वनयन् संबोधयति -- हेऽच्युतेति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।11.42।।एकस्त्वमेव कारयिता? नान्योऽस्त्यथापि।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।11.42।।तथा यच्च अवहासार्थं विहारादिष्वसत्कृतोऽसि परिभूतोऽसि। एको वा सखीनां वियोगकाले वा तत्समक्षं सखिजनसमक्षं वाऽसत्कृतोऽसि तत्क्षामये क्षमापये। यतस्त्वमप्रमेयोऽचिन्त्यस्वभावः करुणापरः। यतः शत्रुभ्योऽपि शिशुपालादिभ्य उत्तमां गतिं दत्तवानसीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।11.42।। तव अनन्तवीर्यत्वामितविक्रमत्वसर्वान्तरात्मत्वस्रष्टृत्वादिको यो महिमा तम् इमम् अजानतया मया प्रमादात् मोहात् प्रणयेन चिरपरिचयेन वा सखा इतिमम वयस्यः इति मत्वा हे कृष्ण हे यादव हे सखे इति त्वयि प्रसभं विनयापेतं यद् उक्तं यत् च परिहासार्थं सर्वदा एव सत्कारार्हः त्वम् असत्कृतः असि? विहारशय्यासनभोजनेषु च सहकृतेषु एकान्ते वा समक्षं वा यद् असत्कृतः असि? तत् सर्वं त्वाम् अप्रमेयम् अहं क्षामये।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।11.42।।किंच -- यच्चेति। हे अच्युत? यच्च परिहासार्थं क्रीडादिषु तिरस्कृतोऽसि। एकः केवलः। सखीन्विना रहसि स्थित इत्यर्थः। अथवा तत्समक्षं तेषां परिहसतां सखीनां समक्षं पुरतोऽपि तत्सर्वमपराधजातं त्वामप्रमेयचिन्त्यप्रभावं क्षामये क्षमां कारयामि।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 11.42 इदंशब्दविशेषितमहिमशब्दः प्रकृतमहिमानुवादीत्यभिप्रयन्नाह -- अनन्तवीर्यत्वामितविक्रमत्वेत्यादि। प्रमादशब्दस्याज्ञानपरत्वेअजानता इत्यनेन पौनरुक्त्यात् सजातीयत्वभ्रमपरत्वमभिप्रेत्यप्रमादान्मोहादित्युक्तम्। सखेति बुद्धिहेतुत्वस्वारस्यात्प्रीतिवाचिनापि प्रणयशब्देन तदौपयिकचिरपरिचयोपचारो युक्त इत्याशयेनाहप्रणयेन चिरपरिचयेनेति सयुजा सखाया [ऋक्सं.2।3।17।5मुं.उ.3।1श्वे.उ.4।6] इति श्रुतिप्रतिपन्नसखित्वबुद्धेर्मोहादिजन्यत्वासम्भवेनसखेति मत्वा इत्येतल्लौकिकवयस्यत्वबुद्धिपरमित्याशयेनाहमम वयस्य इति मत्वेति।हे कृष्ण इत्यादिकं प्रसभोक्त्याकारसमर्पकमित्याशयेनान्वयं दर्शयन् प्रकृतोचितविनयाभावपरत्वमाहहे कृष्णेत्यादि।यच्च इत्यत्र चशब्दाभिप्रेतासत्कारबहुत्वसिद्ध्यर्थंयदसत्कृतोऽसि इत्यस्यावृत्त्या वाक्यभेदमङ्गीकृत्य अर्थमाहयच्च परिहासार्थमित्यादिना। तत एवतत्सर्वम् इति तस्य बहुत्वमुच्यते। परिहासार्थमप्यसत्कारो महद्विषयेऽपराध एवेत्यभिप्रायेण मध्यमपुरुषाक्षिप्तार्थमाहसर्वदैव सत्कारार्हस्त्वमिति। एकशब्दफलितोक्तिःएकान्त इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।11.42।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।11.42।।एकः परोक्ष इति क्लिष्टं व्याख्यानमिति ज्ञापयितुं तदर्थमन्वयं च दर्शयति -- एक इति। आद्याक्षरग्रहणेन एशब्दः एकस्य द्योतकः। कशब्दः कारयितृत्वद्योतकः। अन्तर्णीतण्यर्थात्करोतेर्डः। अथापि एवमसत्कारानर्होऽप्यसत्कृतोऽसि।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।11.42।।यच्चावहासार्थं परिहासार्थं विहारशय्यासनभोजनेषु विहारः क्रीडा व्यायामो वा? शय्या तूलिकाद्यास्तरणविशेषः? आसनं सिंहासनादि? भोजनं बहूनां पङ्क्तावशनं तेषु विषयभूतेषु असत्कृतोऽसि मया परिभूतोऽसि। एकः सखीन्विहाय रहसि स्थितो वा त्वं। अथवा तत्समक्षं तेषां सखीनां परिहसतां समक्षं वा। हे अच्युत सर्वदा निर्विकार? तत्सर्ववचनरूपमसत्करणरूपं चापराधजातं क्षामये क्षमयामि। त्वामप्रमेयं अचिन्त्यप्रभावं। अचिन्त्यप्रभावेन निर्विकारेण च परमकारुणिकेन भगवता त्वन्माहात्म्यानभिज्ञस्य ममापराधाः क्षन्तव्या इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।11.42।।च पुनः। सखेति मत्वा अवहासार्थं मिथ्यावादादिभिः एकः केवलो मां विहाय विहारादिकं करोषीत्यादिभिः। अथवा मत्समक्षं विहारे द्यूतमृगयादिषु स्वजनत्वमुद्भावयता? शय्यायां सहशयनेन? आसने सहोपवेशेन? भोजने सहभुञ्जता? इत्यादिषु यत् असत्कृतोऽसि अवमानितोऽसि हे अच्युत च्युतिरहित स्वाङ्गीकृतपरिपालक। अहं त्वामप्रमेयं प्रमातुमयोग्यं तत्सर्वं क्षामये क्षमां कारयामि अप्रमेयत्वेनाऽज्ञानजापराधनिवृत्तिः सूचिता।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।11.42।। --,यच्च अवहासार्थं परिहासप्रयोजनाय असत्कृतः परिभूतः असि भवसि क्व विहारशय्यासनभोजनेषु? विहरणं विहारः पादव्यायामः? शयनं शय्या? आसनम् आस्थायिका? भोजनम् अदनम्? इति एतेषु विहारशय्यासनभोजनेषु? एकः परोक्षः सन् असत्कृतः असि परिभूतः असि अथवापि हे अच्युत? तत् समक्षम्? तच्छब्दः क्रियाविशेषणार्थः? प्रत्यक्षं वा असत्कृतः असि तत् सर्वम् अपराधजातं क्षामये क्षमां कारये त्वाम् अहम् अप्रमेयं प्रमाणातीतम्।।यतः त्वम् --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।11.42।।किञ्च तामसकर्मसु मृगयाविहारादिषु स्थितं त्वां तमोगुणयुक्तं पूर्वं ज्ञात्वा मया यदसत्कृतोऽसि तदप्येकोऽहं त्वां साम्प्रतं क्षमां कारयामि।


Chapter 11, Verse 42