Chapter 11, Verse 38

Text

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।।11.38।।

Transliteration

tvam ādi-devaḥ puruṣhaḥ purāṇas tvam asya viśhvasya paraṁ nidhānam vettāsi vedyaṁ cha paraṁ cha dhāma tvayā tataṁ viśhvam ananta-rūpa

Word Meanings

tvam—you; ādi-devaḥ—the original Divine God; puruṣhaḥ—personality; purāṇaḥ—primeval; tvam—you; asya—of (this); viśhwasya—universe; param—Supreme; nidhānam—resting place; vettā—the knower; asi—you are; vedyam—the object of knowledge; cha—and; param—Supreme; cha—and; dhāma—Abode; tvayā—by you; tatam—pervaded; viśhwam—the universe; ananta-rūpa—posessor of infinite forms


Translations

In English by Swami Adidevananda

(a) You are the Primal God and the Ancient One. You are the Supreme resting place of the universe... (b)...You are the Knower and the object of knowledge, and the Supreme Abode. Through You, O infinite of form, is this universe pervaded.

In English by Swami Gambirananda

You are the primal Deity, the ancient Person; You are the supreme Refuge of this world. You are the knower and the object of knowledge, and the supreme Abode. O You of infinite forms, You pervade the Universe!

In English by Swami Sivananda

You are the primal God, the ancient Purusha, the supreme refuge of this universe, the knower, the knowable, and the supreme Abode. Through You, the universe is pervaded, O Being of infinite forms.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

You are the Primal God; You are the Ancient Soul; You are the transcendent place of rest for this universe; You are the knower and the knowable; You are the Highest Abode; and the universe with its infinite forms is pervaded by You.

In English by Shri Purohit Swami

You are the Primal God, the Ancient One, the Supreme Abode of this universe, the Knower, the Knowledge, and the Final Home. You fill everything. Your form is infinite.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।11.38।। आप ही आदिदेव और पुराणपुरुष हैं तथा आप ही इस संसारके परम आश्रय हैं। आप ही सबको जाननेवाले, जाननेयोग्य और परमधाम हैं। हे अनन्तरूप ! आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।11.38।। आप आदिदेव और पुराण (सनातन) पुरुष हैं। आप इस जगत् के परम आश्रय, ज्ञाता, ज्ञेय, (जानने योग्य) और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप आपसे ही यह विश्व व्याप्त है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

11.38 त्वम् Thou? आदिदेवः the primal God? पुरुषः Purusha? पुराणः the ancient? त्वम् Thou? अस्य of (this)? विश्वस्य of Universe? परम् the Supreme? निधानम् Refuge? वेत्ता Knower? असि (Thou) art? वेद्यम् to be known? च and? परम् the Supreme? च and? धाम abode? त्वया by Thee? ततम् is pervaded? विश्वम् the Universe? अनन्तरूप O Being of infinite forms.Commentary Primal God? because the Lord is the creator of the universe.Purusha? because the Lord lies in the body (Puri Sayanat).Nidhaanam That in which the world rests during the great deluge or cosmic dissolution.The pot comes out of the clay and gets merged in clay. Even so the world has come out of the Lord and gets dissolved or involved in the Lord. So the Lord is the material cause of the world. Therefore? He is the primal God and the supreme refuge also.Vetta Knower of the knowable things. As the Lord is omniscient? He knows all about the world? and He is the instrumental or the efficient cause of this world.Param Dhama Supreme Abode of Vishnu. Just as the rope (the substratum for the superimposed snake) pervades the snake? so also Brahman or Vishnu through His Nature as ExistenceKnowledgeBliss Absolute pervades the whole universe.Moreover --

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।11.38।। व्याख्या--'त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः'-- आप सम्पूर्ण देवताओंके आदिदेव हैं; क्योंकि सबसे पहले आप ही प्रकट होते हैं। आप पुराणपुरुष हैं; क्योंकि आप सदासे हैं और सदा ही रहनेवाले हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।11.38।। आदिदेव आत्मा ही आदिकर्ता है। चैतन्यस्वरूप आत्मा से ही सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई है। समष्टि मन और बुद्धि से अविच्छिन्न (मर्यादित? सीमित) आत्मा ही ब्रह्माजी कहलाता है।विश्व के परम आश्रय सम्पूर्ण विश्व परमात्मा में निवास करता है? इसलिए उसे यहाँ विश्व का परम आश्रय कहा गया है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है? विश्व शब्द से केवल स्थूल जगत् ही नहीं समझना चाहिए? वरन् पूर्व श्लोक में वर्णित सत् और असत् (व्यक्त और अव्यक्त) का सम्मिलित रूप ही विश्व कहलाता है।विश्व शब्द को इस प्रकार समझ लेने पर वेदान्त के विद्यार्थियों को इस जीवन का सम्पूर्ण अर्थ समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। हम शरीर? मन और बुद्धि की जड़ उपाधियों के द्वारा जगत् का अनुभव करते हैं। ये स्वत जड़ होने के कारण उनमें अपना चैतन्य नहीं है। आत्म चैतन्य के सम्बन्ध से ही वे चेतनवत् व्यवहार करने में सक्षम होती हैं।वस्तुत? इन जड़ पदार्थों अथवा उपाधियों की उत्पत्ति आत्मा से नहीं हो सकती? क्योंकि आत्मा अविकारी है। हम यह भी नहीं कह सकते कि जड़ जगत् की उत्पत्ति किसी अन्य स्वतन्त्र कारण से हुई है? क्योंकि आत्मा ही सर्वव्यापी? एकमेव अद्वितीय सत्य है। इसलिए? वेदान्त में कहा गया है कि यह विश्व परम सत्य ब्रह्म पर अध्यस्त (अध्यारोपित) है? जैसे भ्रान्तिकाल में प्रेत स्तम्भ में अध्यस्त होता है। इस प्रकार की भ्रान्ति में? वह स्तम्भ ही प्रेत और उसकी गति का तथा उससे उत्पन्न हुई प्रतिक्रियायों का विधान कहलायेगा। वस्तुत? स्तम्भ के अतिरिक्त भूत का कोई अस्तित्व या सत्यत्व नहीं है। इसी प्रकार यहाँ अर्जुन परमात्मा का निर्देश अत्यन्त सुन्दर प्रकार से विश्व के विधान कहकर करता है।आप ज्ञाता और ज्ञेय हैं चैतन्य ही वह तत्त्व है? जो हमारे अनुभवों को सत्यत्व प्रदान करता है। चैतन्य से प्रकाशित हुए बिना इस जड़ जगत् का ज्ञान सम्भव नहीं होता? इसलिए यहाँ चैतन्यस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को ज्ञाता कहा गया है। आत्म साक्षात्कार हेतु उपदिष्ट सभी साधनाओं की प्रक्रिया यह है कि इन्द्रियादि के द्वारा विचलित होने वाला मन का ध्यान बाह्य विषयों से निवृत्त कर उसे आत्मस्वरूप में स्थिर किया जाय। जब यह मन वृत्तिशून्य हो जाता है? तब शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा का साक्षात् अनुभवगम्य बोध होता है। इसलिए आत्मा को यहाँ वेद्य अर्थात् जानने योग्य तत्त्व कहा गया है।सम्पूर्ण विश्व आपके द्वारा व्याप्त है जैसे समस्त मिष्ठानों में मधुरता व्याप्त है या तरंगों में जल व्याप्त है? वैसे ही विश्व में परमात्मा व्याप्त है। अभी कहा गया था कि अधिष्ठान के अतिरिक्त अध्यस्त वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं होता। आत्मा ही वह अधिष्ठान है? जिस पर यह नानाविश्व सृष्टि की प्रतीति हो रही है। इसलिए यहाँ उचित ही कहा गया है कि आपके द्वारा यह विश्व व्याप्त है। यह केवल उपनिषद् प्रतिपादित उस सत्य की ही पुनरुक्ति है कि अनन्त ब्रह्म सबको व्याप्त करता है? परन्तु उसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता है।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।11.38।।संप्रति जगत्स्रष्टृत्वादिनापि तद्योग्यत्वमस्तीति स्तुतिद्वारा दर्शयति -- पुनरपीति। जगतः स्रष्टा पुरुषो हिरण्यगर्भ इति पक्षं प्रत्याह -- पुराण इति। स्रष्टृत्वं निमित्तमेवेति तटस्थेश्वरवादिनस्तान्प्रत्युक्तं -- त्वमेवेति। महाप्रलयादावित्यादिपदमवान्तरप्रलयार्थम्। ईश्वरस्योभयथा कारणत्वं सर्वज्ञत्वेन साधयति -- किञ्चेति। वेद्यवेदितृभावेनाद्वैतानुपपत्तिमाशङक्याह -- यच्चेति। मुक्त्यालम्बनस्य ब्रह्मणोऽर्थान्तरत्वमाशङ्कित्वोक्तं -- परं चेति। यत्परमं पदं तदपि च त्वमेवेति संबन्धः। तस्य पूर्णत्वमाह -- त्वयेति। व्याप्यव्यापकत्वेन भेदं शङ्कित्वा कल्पितत्वात्तस्य मैवमित्याह -- अनन्तेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।11.38।।पुनरपि स्तौति। त्वमादिदेवः ब्रह्मादिजनकत्वात्। भगवतस्ताटस्थ्यं वारयति। पुरि शयनात्पुरुष इति। पुरि विनाशान्नाशाशङ्कां वारयति। पुराणः चिरंतनः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानं महाप्रलयादौ सर्वं जगन्निधीयतेऽस्मिन्निति परं प्रकृष्टं निधानं लयस्थानमतो न कर्तृमात्रमपि तु प्रकृतिरपीति भावः। किंच वेत्तासि ज्ञातासि। सर्वस्यैव वेद्यंजातस्य भेदं वारयति। वेद्यं च यच्च ज्ञातुं योग्यं वस्तु तच्चासि। प्राप्यमपि परं त्वमेवेत्याह। परं च धाम परमं वैष्णवपदं मोक्षाख्यं सच मोक्षाख्यस्त्वं न क्वचिन्मेरुपृष्ठदौ तिष्ठसि किंतु त्वया परमधाम्ना ततं व्यापतं समस्तं विश्वं यतस्त्व रुपाणां कैवल्यादीनामन्तः परिच्छेदो न विद्यते इति हेऽनन्तरुप।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।11.37 -- 11.40।।कथं स्थाने इति तदाह -- कस्मादित्यादिना। पूर्णश्चासावात्मा चेति महात्मा। आत्मशब्दश्चोक्तो भारते -- यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह। यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति भण्यते इति। तत्परं सदसतः परम्।असच्च सच्चैव च यद्विश्वं सदसतः परम्। [म.भा.1।1।23] इति भारते।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।11.38।।पुनरपि स्तौति -- त्वमिति। आदिदेवो जगतः स्रष्टृत्वात्। पुरुषः सर्वशरीरशायी। पुराणः शरीरनाशादिनाप्यविनश्यन्। विश्वस्यास्य त्वं परं निधानं निधीयतेऽस्मिन्निति लयस्थानम्। सांख्यानां जडां प्रकृतिं वारयति। वेत्ता ज्ञाता। वेद्यं तद्दृश्यं च त्वमेव। परं वेत्तृवेद्याभ्यामन्यत् धाम चैतन्यम्। त्वया विश्वं ततं व्याप्तं स्वसत्तास्फूर्तिभ्याम्। हे अनन्तरूप त्रिविधपरिच्छेदशून्यस्वरूप।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।11.38।।त्वम् आदिदेवः पुरुषः पुराणः त्वम् अस्य विश्वस्य परं निधानम्? निधीयते त्वयि विश्वम् इति त्वम् अस्य विश्वस्य परं निधानम्? विश्वस्य शरीरभूतस्य आत्मतया परमाधारभूतः त्वम् एव इत्यर्थः।जगति सर्वो वेदिता वेद्यं च सर्वं त्वम् एव? एवं सर्वात्मतया अवस्थितः त्वम् एव परं च धाम स्थानं प्राप्यस्थानम् इत्यर्थः।त्वया ततं विश्वम् अनन्तरूप त्वया आत्मत्वेन विश्वं चिदचिन्मिश्रं जगत् ततं व्याप्तम्।अतस्त्वम् एव वाय्वादिशब्दवाच्य इति आह --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।11.38।।किंच -- त्वमिति। त्वमादिदेवो देवानामादिः। यतः पुराणोऽनादिः पुरुषवस्त्वम्। अतएव त्वमस्य विश्वस्य परं निधानं लयस्थानम्? तथा विश्वस्य वेत्ता वेदिता ज्ञाता च त्वम्? यच्च वेद्यं वस्तुजातं परं च धाम वैष्णवं पदं तदपि त्वमेवासि। अतएव हे अनन्तरूप? त्वयैव विश्वमिदं ततं व्याप्तम्। एतैश्च सप्तभिर्हेतुभिस्त्वमेव नमस्कार्य इति भावः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 11.38 कस्मात् इत्यादिकं पूर्वेण सङ्गमयति -- युक्ततामिति।ते इत्यस्य प्रथमाबहुवचनत्वभ्रमव्युदासायतुभ्यमित्युक्तिः। प्रणतिकर्तारस्त्वर्थसिद्धा अनुक्ता एवेति भावः। ब्रह्मशब्दस्यानेकार्थेषु प्रयोगादिह सर्वप्रणन्तव्यत्वोपयोगाय हिरण्यगर्भपदेन व्याख्या।आदिकर्त्रे इति सविशेषणनिर्देशेन व्यवच्छेद्यभूतनूतनहिरण्यगर्भकर्तृसम्भावनाभ्रमव्युदासायआदिभूतायेति व्यस्योक्तम्। कर्तृशब्देन निमित्तत्वस्योक्तत्वात् आदिशब्द उपादानत्वपरः? र्स्वस्य कारणान्तरनिषेधार्थौ वा। नमश्शब्दयोगवन्नमनमात्रयोगेऽपि चतुर्थी विद्यत इति ज्ञापनायनमस्कुर्युरित्युक्तम्।पञ्चशिखाय तथेश्वरकृष्णायैते नमस्यामः इत्यादिवत्।।त्वमक्षरम्[ [11।18] इति प्रागप्युक्तत्वादत्र त्वमक्षरम् इति तदतिरिक्तार्थपरत्वमुचितम्तत्परम् इत्यस्य सामर्थ्याच्चात्राक्षरसदसच्छब्दानामवरतत्त्वविषयत्वं न्याय्यम् तत्र च भावाभावशब्दाभिलप्यविकारयोगितया सदसच्छब्दयोरचित्परत्वं निर्विकारतयाऽक्षरशब्दस्य जीवात्मविषयत्वं चोचितमित्यभिप्रायेणाह -- न क्षरतीति। जीवस्वरूपस्य निर्विकारत्वे श्रुतिं दर्शयति -- न जायत इति। कार्यकारणयोरसच्छब्देन व्यपदेशः असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत [तै.उ.2।7।1] इत्यादिश्रुतिसिद्ध इत्यभिप्रायेण कार्यकारणभावकथनम्। एकस्मिन्नेव द्रव्ये सद सच्छब्दप्रयोगनिदानमाहनामरूपेति।अक्षरं सदसत् इति निर्दिष्टोभयपरामर्शी तच्छब्दः। विशेषकाभावात्तिलतैलदारु वह्न्यादिवत् परस्परमिलिततदुभयापेक्षया परत्वं च मुक्तात्मनः प्रसिद्धमितिसदसत्तत्परं यत् इत्यनूद्यत इत्यभिप्रायेण -- मुक्तात्मतत्त्वमित्युक्तम्। प्रकृतिपुरुषशरीरकत्वं मुक्तात्मनस्तादधीन्यं च कारणत्वसाधकमित्याह -- अत इति। सर्वतत्त्वात्मकत्वादित्यर्थः। जगन्निवासशब्देन जगन्निवासो यस्येति विग्रहः। अतो निधानशब्देनात्राधारत्वमेवानुक्तं विवक्षितमिति प्रदर्शनायाधिकरणव्युत्पत्तिं दर्शयतिनिधीयते त्वयीति। तेनत्वमक्षरम् इत्यादिसामानाधिकरण्यकारणं विश्वशरीरित्वं विवक्षितमित्याहविश्वस्य शरीरभूतस्येति। एतेन निधानशब्दस्यात्राव्यक्तपरत्वं कैश्चिदुक्तं निरस्तम्।वेत्तासि इत्यादौ परमात्मनो वेदितृत्वादिमात्रविधानेऽतिशयाभावात् कारणावस्थद्रव्यान्तर्यामित्वस्य चोक्तत्वात्? कार्यावस्थज्ञातृज्ञेयान्तर्यामित्वमेवात्र विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहजगति सर्वो वेदिता वेद्यं चेति। धामशब्दस्यानेकार्थस्यापि स्थाने प्रसिद्धिप्रकर्षात्स एवार्थ उचितः। स्थानं च प्राप्यमिति प्रसिद्धम्। अतः परत्वेन विशेषितप्राप्यत्वमेवात्र विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह -- प्राप्यस्थानमिति। यद्वा परमप्राप्यमिति भगवदसाधारणं स्थानं विवक्षितं स्यात् तेनापि पूर्ववत्सामानाधिकरण्यव्यपदेशः। आमनन्ति च तदप्राकृतस्थानम् अरश्च ह वै ण्यश्चार्णवौ ब्रह्मलोके तृतीयस्यामितो दिवि। तदैरंमदीयं सरस्तदश्वत्थः सोमसवनस्तदपराजिता पूर्ब्रह्मणः प्रभुविमितं हिरण्मयं [छा.उ.8।5।3] इति? तथा सहस्रस्थूणे विमिते दृढ उग्रे यत्र देवानामधिदेव आस्ते इति। सामान्यतो विशेषतश्च प्रवृत्तयोः पूर्वोत्तरसामानाधिकरण्योर्मध्यस्थेनत्वया ततम् इत्यादिना शरीरात्मभाव एव निबन्धनमिति स्पष्टमुच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- त्वयात्मत्वेनेति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।11.38।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।11.37 -- 11.40।।सर्वे नमस्यन्ति [11।36] इत्येतद्युक्तमिति स्वयमेवोक्त्वाकस्माच्च ते न नमेरन् इति विरुद्धं कथं पृच्छति इत्यत आक्षेप एवायमिति ज्ञापयन् तन्निवर्त्याशङ्काप्रदर्शनपूर्वकमवतारयति -- कथमिति। इति शङ्कायामिति शेषः तत्तस्या उत्तरम्। महात्मन्नक्षुद्रचित्तेत्यल्पार्थप्रतीतिनिरासार्थमाह -- पूर्णश्चेति। आत्मा जीव इति प्रतीतिं वारयितुमाह -- आत्मेति। उक्तो निरुक्तः। यद्यस्मात्। आप्नोतेर्मन्। पकारस्य च तकारः। आङ्पूर्वाद्दाञः स एव प्रत्ययः आकारलोपस्तत्वम्। आङ्पूर्वाददो मन्। तत्वं च। इह देहे। सन्ततो भावो नित्या सत्ता। आङ्पूर्वात्तनोतेर्ङ्मन्। सदसद्भावात्मकं विश्वं त्वमेवेति सत्तादिप्रदत्वादेवोच्यते। नत्वन्यथा? तथा सति उत्तरवाक्यविरोधात्? इति भावेन तत्पठित्वा सप्रमाणकं व्याचष्टे -- तत्परमिति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।11.38।।भक्त्युद्रेकात्पुनरपि स्तौति -- त्वमिति। त्वमादिदेवो जगतः सर्गहेतुत्वात् पुरुषः पूरयिता पुराणोऽनादिः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानं लयस्थानत्वात् निधीयते सर्वमस्मिन्निति। एवं सृष्टिप्रलयस्थानत्वेनोपादानत्वमुक्त्वा सर्वज्ञत्वेन प्रधानं व्यावर्तयन्निमित्ततामाह -- वेत्तेति। वेत्ता वेदिता। सर्वस्यापि द्वैतापत्तिं वारयति। यच्च वेद्यं तदपि त्वमेवासि। वेदनरूपे वेदितरि परमार्थसंबन्धाभावेन सर्वस्य वेद्यस्य कल्पितत्वात् अतएव परं च धाम यत्सच्चिदानन्दघनमविद्यातत्कार्यनिर्मुक्तं विष्णोः परमं पदं तदपि त्वमेवासि। त्वया सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च कारणेन ततं व्याप्तमिदं स्वतः सत्तास्फूर्तिशून्यं विश्वं कार्यं मायिकसंबन्धेनैव स्थितिकाले। हे अनन्तरूप अपरिच्छिन्नस्वरूप।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।11.38।।किञ्च -- त्वमादिदेव इति। त्वं देवानामादिः तथा त्वं ब्रह्मणोऽप्यसीत्यत आह -- पुरुषः। तत् त्वमक्षरेऽपि वर्तस इत्यतः पुराणः पुरुषोत्तम इत्यर्थः। पुरुषोत्तमधर्मानेवाह -- त्वमस्य परिदृश्यमानस्य विश्वस्य परमुत्कृष्टं आधिदैविकरूपेण स्वस्मिन् स्थानं स्वरतीच्छारूपं निधानं लयस्थानं परं विश्वस्य क्रीडाप्रकटितस्वरूपज्ञानेन सर्वत्र रमणकर्ता त्वमसि विश्वस्य विश्वस्मिन् वा। वेद्यं ज्ञेयं त्वं च त्वमेवेत्यर्थः। च पुनः परं धाम वैकुण्ठाख्यं तेजोरूपं पुरुषोत्तमगृहात्मकं वा त्वम्। हे अनन्तरूप इदं विश्वं त्वया ततं व्याप्तं त्वद्रूपमेवेत्यर्थः।अनन्तरूपमिति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।11.38।। --,त्वम् आदिदेवः? जगतः स्रष्ट्टत्वात्। पुरुषः? पुरि शयनात् पुराणः चिरंतनः त्वम् एव अस्य विश्वस्य परं प्रकृष्टं निधानं निधीयते अस्मिन् जगत् सर्वं महाप्रलयादौ इति। किञ्च? वेत्ता असि? वेदिता असि सर्वस्यैव वेद्यजातस्य। यत् च वेद्यं वेदनार्हं तच्च असि परं च धाम परमं पदं वैष्णवम्। त्वया ततं व्याप्तं विश्वं समस्तम्? हे अनन्तरूप अन्तो न विद्यते तव रूपाणाम्।।किञ्च --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।11.38।।त्वमिति। ज्ञानं वेत्तासि वेद्यं चेति विरुद्धधर्माश्रयत्वमक्षरत्वं च पुनः स्फोटयति -- परं धामेति।तद्धाम परमं मम [8।2115।6] इत्यनेनैकार्थ्यमेति।त्वया ततं विश्वं इति व्याख्यानभूतंमया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना [9।4] इत्यादेः।


Chapter 11, Verse 38