श्री भगवानुवाच कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।11.32।।
śhrī-bhagavān uvācha kālo ’smi loka-kṣhaya-kṛit pravṛiddho lokān samāhartum iha pravṛittaḥ ṛite ’pi tvāṁ na bhaviṣhyanti sarve ye ’vasthitāḥ pratyanīkeṣhu yodhāḥ
śhrī-bhagavān uvācha—the Supreme Lord said; kālaḥ—time; asmi—I am; loka-kṣhaya-kṛit—the source of destruction of the worlds; pravṛiddhaḥ—mighty; lokān—the worlds; samāhartum—annihilation; iha—this world; pravṛittaḥ—participation; ṛite—without; api—even; tvām—you; na bhaviṣhyanti—shall cease to exist; sarve—all; ye—who; avasthitāḥ—arrayed; prati-anīkeṣhu—in the opposing army; yodhāḥ—the warriors
The Lord said, "I am the world-destroying Time. Manifesting myself fully, I have begun to destroy the worlds here. Even without you, none of the warriors arrayed in the hostile ranks will survive."
The Blessed Lord said, "I am the world-destroying Time, grown in stature and now engaged in annihilating the creatures. Even without you, all the warriors arrayed in the confronting armies will cease to exist!"
The Blessed Lord said, "I am the full-grown, world-destroying Time, now engaged in destroying the worlds. Even without you, none of the warriors arrayed in the hostile armies will live."
The Bhagavat said, "I am Time, the world-destroyer, engaged here in withdrawing the worlds that are overgrown. Even without you (your fighting), all the warriors standing in the rival armies would cease to be."
Lord Shri Krishna replied: I have shown myself to you as the Destroyer who lays waste the world and whose purpose is destruction. In spite of your efforts, all these warriors gathered for battle shall not escape death.
।।11.32।। श्रीभगवान् बोले -- मैं सम्पूर्ण लोकोंका क्षय करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इन सब लोगोंका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ। तुम्हारे प्रतिपक्षमें जो योद्धालोग खड़े हैं, वे सब तुम्हारे युद्ध किये बिना भी नहीं रहेंगे।
।।11.32।। श्रीभगवान् ने कहा -- मैं लोकों का नाश करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ। इस समय, मैं इन लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हूँ। जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा हैं, वे सब तुम्हारे बिना भी नहीं रहेंगे।।
11.32 कालः time? अस्मि (I) am? लोकक्षयकृत् worlddestroying? प्रवृद्धः fullgrown? लोकान् the worlds? समाहर्तुम् to destroy? इह here? प्रवृत्तः engaged? ऋते without? अपि also? त्वाम् thee? न not? भविष्यन्ति shall live? सर्वे all? ये these? अवस्थिताः arrayed? प्रत्यनीकेषु in hostile armies? योधाः warriors.Commentary Even without thee Even if thou? O Arjuna? wouldst not fight? these warriors are doomed to die under My dispensation. I am the alldestroying Time. I have already slain them. You have seen them dying. Therefore thy instrumentality is not of much importance.Such being the case? therefore? stand up and obtain fame.
।।11.32।। व्याख्या --[भगवान्का विश्वरूप विचार करनेपर बहुत विलक्षण मालूम देता है; क्योंकि उसको देखनेमें अर्जुनकी दिव्यदृष्टि भी पूरी तरहसे काम नहीं कर रही है और वे विश्वरूपको कठिनतासे देखे जानेयोग्य बताते हैं --'दुर्निरीक्ष्यं समन्तात्' (11। 17)। यहाँ भी वे भगवान्से पूछ बैठते हैं कि उग्र रूपवाले आप कौन हैं? ऐसा मालूम देता है कि अगर अर्जुन भयभीत होकर ऐसा नहीं पूछते तो भगवान् और भी अधिक विलक्षणरूपसे प्रकट होते चले जाते। परन्तु अर्जुनके बीचमें ही पूछनेसे भगवान्ने और आगेका रूप दिखाना बन्द कर दिया और अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देने लगे।]
।।11.32।। किसी वस्तु की एक अवस्था का नाश किये बिना उसका नवनिर्मांण नहीं हो सकता। निरन्तर नाश की प्रक्रिया से ही जगत् का निर्माण होता है। बीते हुये काल के शवागर्त से ही वर्तमान आज की उत्पत्ति हुई है। इस रचनात्मक विनाश के पीछे जो शक्ति दृश्य रूप में कार्य कर रही है वही मूलभूत शक्ति है जो प्राणियों के जीवन के ऊपर शासन कर रही है। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ स्वयं का परिचय लोक संहारक महाकाल के रूप में कराते हैं। इस रूप को धारण करने का उनका प्रयोजन उस पीढ़ी को नष्ट करना है? जो अपने जीवन लक्ष्य के सम्बन्ध में विपरीत धारणाएं तथा दोषपूर्ण जीवन मूल्यों को रखने के कारण जीर्णशीर्ण हो गई है।भगवान् का लोकसंहारकारी भाव उनके लोककल्याणकारी भाव का विरोधी नहीं है। कभीकभी विनाश करने में दया ही होती है। एक टूटे हुए पुल को या जीर्ण बांध को अथवा प्राचीन इमारत को तोड़ना उक्त बात के उदाहरण हैं। उन्हें तोड़कर गिराना दया का ही एक कार्य है? जो कोई भी विचारशील शासन समाज के लिए कर सकता है। यही सिद्धांत यहाँ पर लागू होता है।इस उग्र रूप को धारण करने में भगवान् का उद्देश्य उन समस्त नकारात्मक शक्तियों का नाश करना है जो राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन को नष्ट करने पर तुली हुई हैं। भगवान् के इस कथन से अर्जुन के विजय की आशा विश्वास में परिवर्तित हो जाती है। परन्तु भगवान् इस बात को भी स्पष्ट कर देते हैं कि पुनर्निर्माण के इस कार्य को करने के लिए वे किसी एक व्यक्ति या समुदाय पर आश्रित नहीं है। इस कार्य को करने में एक अकेला काल ही समर्थ है। वही समाज में इस पुनरुत्थान और पुनर्जीवन को लायेगा। सार्वभौमिक पुनर्वास के इस अतिविशाल कार्य में व्यष्टि जीवमात्र भाग्य के प्राणी हैं। उनके होने या नहीं होने पर भी काल की योजना निश्चित ही काय्ार्ान्वित होकर रहेगी। राष्ट्र के लिए यह पुनर्जीवन आवश्यक है मानव के पुनर्वास की मांग जगत् की है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि? तुम्हारे बिना भी इन भौतिकवादी योद्धाओं में से कोई भी इस निश्चित विनाश में जीवित नहीं रह पायेगा।महाभारत की कथा के सन्दर्भ में? भगवान् के कथन का यह तात्पर्य स्पष्ट होता है कि कौरव सेना तो काल के द्वारा पहले ही मारी जा चुकी है? और पुनरुत्थान की सेना के साथ सहयोग करके अर्जुन? निश्चित सफलता का केवल साथ ही दे रहा है।इसलिए सर्वकालीन मनुष्य के प्रतिनिधि अर्जुन को यह उपदेश दिया जाता है कि वह निर्भय होकर अपने जीवन में कर्तव्य का पालन करे।
।।11.32।।स्वयं यदर्था च स्वप्रवृत्तिः तत्सर्वं भगवानुक्तवानित्याह -- श्रीभगवानिति। कालः क्रियाशक्त्युपहितः परमेश्वरः? अस्मिन्निति वर्तमानयुद्धोपलक्षितत्वं कालस्य विवक्षितम्। लोकसंहारार्थं त्वत्प्रवृत्तावपि नासावर्थवती प्रतिपक्षाणां भीष्मादीनां मत्प्रवृत्तिं विना संहर्तुमशक्यत्वादित्याशङ्क्याह -- ऋतेऽपीति।
।।11.32।।एवं पृष्टः श्रीभगवानुवाच। लोकक्षयं करोतीति लोकक्षयकृत्कालोऽस्मि। प्रवृद्धिं प्राप्तः। इहास्मिन्काले। नन्विहास्मिंल्लोके संग्रामे वेत्याचार्यैः कुतो न व्याख्यातमितिचेत् कालस्यैव प्रकृतत्वात् प्रधानत्वाच्च सर्वनाम्रश्च प्रधानपरामर्शित्वनियमात् लोकान्सहर्तुं प्रवृत्तः। किं सर्वे लोका न भविष्यन्तीत्यत आह। ये सैन्यं प्रत्यवस्थिता भीष्मद्रोणादयस्ते सर्वे न भविष्यन्ति। ननु मां युद्धकर्तारं विना कथं सर्वेषां नाश इतिचेत्तत्राह। ऋतेऽपि त्वां त्वां त्वयि त्यक्तयुद्धव्यापारे सत्यपि मया कालरुपेणावश्यं विनाशनीया इति भावः।
।।11.32।।कालशब्दो जगद्बन्धनच्छेदनज्ञानादिसर्वभगवद्धर्मवाची। कल बन्धने? कल च्छेदने? कल ज्ञाने?,कल कामधेनुरिति पठन्ति। प्रसिद्धश्च स शब्दो भगवति।नियतं कालपाशेन बद्धं शक्र विकत्थसे। अयं स पुरुषः श्यामो लोकस्य हरति प्रजाः। बद्ध्वा तिष्ठति मां रौद्रः पशुं रशनया यथा इति मोक्षधर्मे। विष्णुना बद्धो बलिर्वक्तिविष्णौ चाधीश्वरे (त्र्यधीश्वरे) चित्तं धारयन् (येत्) कालविग्रहे [11।15।15] इति भागवते। प्रवृद्धः परिपूर्णोऽनादिर्वा। ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् [ऋक्सं.8।8।49।1म.ना.6।1] इति हि श्रुतिः। एतत् (इदं) महद्भूतम् [बृ.उ.2।4।12] इति च।प्र विष्णुरस्तु तवसः स्तवीयांस्त्वेषं ह्यस्य स्थविरस्य नाम [ऋक्सं.5।6।25।3] इति च? न तु वर्धनम्।नासौ जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ इति हि भागवते।यस्य दिव्यं हि तद्रूपं हीयते वर्धते न च इति मोक्षधर्मे। न कर्मणा [बृ.उ.4।4।23] इति तु कर्मणाऽपि न? किमु स्वयं इति। लोकान्समाहर्तुमिह विशेषेण प्रवृत्तः। भ्रात्रादींश्च ऋते इत्यपिशब्दः। प्रत्यनीकत्वं तु परस्परतया। सर्वेऽपि न भविष्यन्ति? अक्षौहिण्यादिभेदेन बहुवचनं युक्तम्।
।।11.32।।एवमर्जुनेन प्रार्थितो भगवानुवाच -- काल इति। इहास्मिन्संग्रामे लोकान्समाहर्तुं भक्षितुं प्रवृत्तः प्रवृद्धो महान् लोकक्षयकृत् कालो नाम परमेश्वरोऽस्मि। यस्मादेवं तस्मात् ऋतेऽपि त्वा त्वां विनापि सर्वे न भविष्यन्ति मरिष्यन्ति। के ते सर्वे। ये प्रत्यनीकेषु शत्रुसैन्येषु योधाः शूरा भीष्मादयोऽवस्थितास्ते।
।।11.32।।श्री भगवानुवाच -- कलयति गणयति इति कालः? सर्वेषां धार्तराष्ट्रप्रमुखानां राजलोकानाम् आयुरवसानं गणयन् अहं तत्क्षयकृत् घोररूपेण प्रवृद्धो राजलोकान् समाहर्तुम् आभिमुख्येन संहर्तुम् इह प्रवृत्तः अस्मि। अतो मत्संकल्पाद् एव त्वाम् ऋते अपि त्वदुद्योगम् ऋतेऽपि एते धार्तराष्ट्रप्रमुखाः तव प्रत्यनीकेषु ये अवस्थिता योधाः? ते सर्वे न भविष्यन्ति विनङ्क्ष्यन्ति।
।।11.32।।एवं प्रार्थितः सन् श्रीभगवानुवाच -- कालोऽस्मीति त्रिभिः। लोकानां क्षयकर्ता प्रवृद्धोऽत्युग्रः कालोऽस्मि। लोकान्प्राणिनः संहर्तुमिह लोके प्रवृत्तोऽस्मि। अतः। ऋतेऽपि त्वामिति। त्वां हन्तारं विनापि न भविष्यन्ति न जीविष्यन्ति। यद्यपि त्वया न हन्तव्या एते तथापि मया कालात्मना ग्रस्ताः सन्तो मरिष्यन्त्येव। के ते। प्रत्यनीकेषु अनीकान्यनीकानि प्रति भीष्मद्रोणादीनां सर्वासु सेनासु ये योद्धारोऽवस्थितास्ते सर्वेऽपि।
।।11.32।।कालोऽस्मि इत्यादिश्लोकत्रयस्यार्थं सङ्कलय्यादौ सङ्गमयति -- आश्रितेत्यादिना।आश्रितवात्सल्यातिरेकेणेत्यनेन घोररूपाविष्कारानौचित्यं द्योत्यते।एवं कर्तुमनेनाभिप्रायेण इति निर्दिष्टयोर्निश्श्रेणिकाक्रमेणोत्तरं ददातिपार्थोद्योगेनेत्यादिना। कालशब्दस्यात्र कलामुहूर्तादिमयकालद्रव्यमात्रपरत्वे भगवता सामानाधिकरण्यायोगादिन्द्रप्राणाधिकरणन्यायेन तदन्तर्यामिविषयत्वं वा? आकाशप्राणाधिकरणन्यायेन यौगिकार्थत्वं वा? सृष्टिस्थितिकालव्यावृत्तसंहर्तृकालाभिमानित्वविशिष्टभगवत्स्वरूपानुसन्धानासाधारणं ध्येयविग्रहविशेषनिष्ठतापरत्वं वा स्वीकार्यम्। तत्र त्रिष्वपि कालशब्दस्य यौगिकोऽर्थः प्रतीयमानः प्रकृतापेक्षितत्वादपरित्याज्य इत्यभिप्रायेणाहकलयतीति। सम्बन्धाद्यर्थादपि गणनस्यात्र संहरणानुगुणत्वात्गणयतीत्युक्तम्। प्रकृतविशेषपरतया योजयतिसर्वेषामिति। लोकशब्दस्य राजलोकशब्देन व्याख्यानं पूर्ववत्।प्रवृद्धः इति रूपमहत्त्वं विवक्षितमित्याहघोररूपेण प्रवृद्ध इति। यद्वा ग्रसनोन्मुखावस्थ इति भावः।समाहर्तुम् इति पदेन समुदायकरणादिकं न विवक्षितम्? प्रस्तुतासङ्गतत्वात् नापि संहरणमात्रंलोकक्षयकृत् इत्यनेन पुनरुक्तिप्रसङ्गात् अतः संहरणमेव मध्यनिविष्टेनाप्युपसर्गान्तरेण विशेष्यत इत्याहआभिमुख्येनेति। अपरोक्षत इत्यर्थः। भृत्यैः शत्रुनिरसनवन्न परोक्षः संहारोऽयमिति भावः। आभिमुख्यमात्रमेव वा संहारहेतुरिति भावः।मनसैव जगत्सृष्टिं संहारं च करोति यः। तस्यारिपक्षक्षपणे कियानुद्यमविस्तरः [वि.पु.5।22।15] इत्याद्यनुसारेणाहअतो मत्सङ्कल्पादेवेति। निमित्तभूतव्याप्रियमाणाकारस्त्वमिति विवक्षित इत्यभिप्रायेणत्वदुद्योगमृतेऽपीत्युक्तम्।न भविष्यन्ति इत्युक्ते नोत्पत्स्यन्त इति प्रतीतिः स्यादिति। तद्व्यवच्छेदायोत्तरकालसत्तानिषेधपरतामाह -- विनङ्क्ष्यन्तीति।
।।11.32।।No commentary.
।।11.32।।एवं तर्हिकालोऽस्मि इत्युत्तरमयुक्तं धर्मानुक्तेरित्यत आह -- कालेति। धर्मविशिष्टभगवद्वाचीत्यर्थः। कुत एतत् इत्यत आह -- कलेति। यथा कामधेनुः सर्वार्थान् ददाति तथाऽयमपि धातुः सर्वार्थवाचीत्यर्थः। तथा चास्मादण् कर्तरि घञ् वा। जगदिति योग्यतया सम्बध्यते। भवत्वयं बन्धनादिधर्मवद्वाची? भगवद्वाची तु कुतः अन्यत्र रूढत्वादित्यत आह -- प्रसिद्धश्चेति। बद्धं मां प्रति विकत्थसे आत्मानं तु श्लाघसे। कः कालः। अयं कथम् श्यामः प्रजा हरति। बद्ध्वा तिष्ठति रौद्रश्चेति। अत्र कथं विष्णुवाचित्वनिश्चयः इत्यत आह -- विष्णुनेति। कालनामाविग्रहो यस्यासौ तथोक्तः। प्रवृद्ध इति कादाचित्की वृद्धिः प्रतीयतेऽत आह -- प्रवृद्ध इति। वृद्धिर्धात्वर्थः। सा च प्रशब्देन देशतः कालतश्च सदातनी विवक्षितेति भावः। अनादिरिति नित्यत्वस्याप्युपलक्षणम्। भूताधिकारे विहितस्य क्तस्य कुतः सार्वकालिकत्वं प्रयोगदर्शनादिति भावेनाह -- ऋतं चेति। इद्धाद्भूतमितिवदित्यर्थः।अत्रापि सार्वकालिकत्वानिश्चय इत्यतो भगवतो दीप्तेः सत्तायाश्च सदातनत्वे श्रुतिसद्भावादित्याह -- प्रविष्णुरिति। विष्णुः -- तवसो देशकालपरिच्छिन्नात् सूर्यादेस्तेजसः स्तवीयान् अतिशयिततेजोरूपो भवति? अत एव ह्यस्य स्थविरस्यानादिकालीनस्य त्वेषमिति नाम असाधारण्येन हि व्यपदेशा भवन्तीत्यर्थः। अस्त्वेवं तथापि प्रागल्पः सन्निदानीं वृद्धिङ्गत इत्यत्रार्थः किं न स्यात् इत्यत आह -- नत्विति। तुशब्दो विशेषणार्थः। विक्रियारूपं वर्धन प्रवृद्धशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं न भवति। भगवति भावविकाराणां प्रतिषिद्धत्वात्। भगवतो विक्रियारूपवृद्ध्यभावेऽपि तद्रूपस्य भवत्विति तत्राह -- यस्येति। ननु न कर्मणा वर्धते नो कनीयान् इति श्रुतौ कर्मनिमित्तवृद्धिप्रतिषेधनात् वृद्धिमात्रमस्तीति ज्ञायते? अन्यथा विशेषणवैयर्थ्यात्। तथा च सत्प्रतिपक्षमुक्तवाक्यमित्यत आह -- नेति।न कर्मणा इति विशेषनिषेधस्तु वृद्धिलक्षणविक्रियाकारणत्वेन सम्भावितेन कर्मणाऽपि यदा न वर्धते? तदा स्वयं कर्मण विना न वर्धत इति किमु वक्तव्यम् इति वृद्धिलक्षणविक्रियाकारणत्वमात्रनिषेधाय कैमुत्यप्रदर्शनार्थमित्यन्यथोपपन्नमित्यर्थः। ननु सर्वत्र भगवानेव लोकानां संहर्ता तस्मात्इह इति व्यर्थमित्यत आह -- लोकानिति। युगपद्बहून्प्रत्यक्षत एवेति विशेषेण युधिष्ठिरादीनामवशिष्टत्वात् कथंत्वामृते इत्येवोक्तं इत्यत आह -- भ्रात्रादींश्चेति। अपिशब्दो द्योतयतीति शेषः। अस्मत्प्रतिकूलेष्वनीकेषु अवस्थिता योधा न भविष्यन्तीत्युक्ते का पाण्डवादीनां प्राप्तिर्येनऋतेऽपि त्वा इत्युच्यत इत्यत आह -- प्रत्यनीकत्वमिति। सेनाद्वयस्यापीति शेषः। कुत एवं व्याख्यानं इत्यत आह -- सर्वेऽपीति। सेनाद्वयगता अपीत्यर्थः। प्रत्यनीकेष्विति बहुवचनं कथं इत्यत आह -- अक्षौहिणीति। भेदेन बहुत्वेन।
।।11.32।।एवमर्जुनेन प्रार्थितो य स्वयं यदर्था च स्वप्रवृत्तिस्तत्सर्वं त्रिभिः श्लोकैः श्रीभगवानुवाच -- कालोऽस्मीत्यादिना। कालः क्रियाशक्त्युपहितः सर्वस्य संहर्ता परमेश्वरोऽस्मि भवामीदानीं प्रवृद्धो वृद्धिं गतः। यदर्थं प्रवृत्तस्तच्छृणु। लोकान्दुर्योधनादीन्समाहर्तुं सम्यगाहर्तुं भक्षयितुं प्रवृत्तोऽहमिहास्मिन्काले। मत्प्रवृत्तिं विना कथमेवं स्यादिति चेन्नेत्याह -- ऋतेऽपीति। ऋतेऽपि त्वा त्वामर्जुनं योद्धारं विनापि त्वद्व्यापारं विनापि मद्व्यापारेणैव नभविष्यन्ति विनंक्ष्यन्ति। सर्वे भीष्मद्रोणकर्णप्रभृतयो योद्धुमनर्हत्वेन संभाविता अन्येऽपि येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु प्रतिपक्षसैन्येषु योधा योद्धारः सर्वेऽपि मया हतत्वादेव नभविष्यन्ति। तत्र तव व्यापारोऽकिंचित्कर इत्यर्थः।
।।11.32।।एवं विज्ञप्तः सन् श्रीभगवान् उवाच -- कालोऽस्मीति त्रयेण। लोकक्षयकृत् लोकानां विनाशकः प्रवृद्धः ऊर्जितः? लोकान् प्राणिनः? इह बाह्यतः समाहर्तुं संहर्तुं स्वलीनान् कर्तुं प्रवृत्तः कालोऽस्मि। यद्दशनान्तरेषु योधास्त्वया दृष्टास्तत्कालात्मकं मत्स्वरूपमिति भावः। त्वां द्रष्टारं मत्कृपापात्रं ऋते विना प्रत्यनीकेषु अनीकानि प्रत्यवस्थिताः ये योधास्ते सर्वेऽपि न भविष्यन्ति न स्थास्यन्तीति। यतोऽहं कालरूपः सर्वसंहारार्थं प्रवृत्तोऽस्मि। त्वां ऋते सर्वे न भविष्यन्तीत्युक्त्या त्वदर्थमेवैते मारिता इति ज्ञापितम्।
।।11.32।। --,कालः अस्मि लोकक्षयकृत् लोकानां क्षयं करोतीति लोकक्षयकृत् प्रवृद्धः वृद्धिं गतः। यदर्थं प्रवृद्धः तत् श्रृणु -- लोकान् समाहर्तुं संहर्तुम् इह अस्मिन् काले प्रवृत्तः। ऋतेऽपि विनापि त्वा त्वां न भविष्यन्ति भीष्मद्रोणकर्णप्रभृतयः सर्वे? येभ्यः तव आशङ्का? ये अवस्थिताः प्रत्यनीकेषु अनीकमनीकं प्रति प्रत्यनीकेषु प्रतिपक्षभूतेषु अनीकेषु योधाः योद्धारः।।यस्मात् एवम् --,
।।11.32।।एवं प्रार्थितः श्रीभगवानुवाच -- कालोऽस्मीति त्रिभिः। योऽधुनाऽऽविर्भूतः स कालोऽहम्। चतुर्धा ह्यहं अक्षरकालकर्मस्वभावभेदादित्यक्षरमपि लेलिहानत्वादिधर्मवत्त्वेन लिङ्गेन मां कालरूपमवेहि। यथोक्तं श्रीभागवते -- अन्तः पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः। समन्वेत्येष सत्त्वेन (सत्त्वानां) भगवानात्ममायया। तथावीर्याणि तस्याखिलदेहभाजामन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः। प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन् [भाग.10।1।7] कालरूपतयाऽसुरावेशिनां मृत्युहेतुरित्याह -- लोकानसुरावेशिन इह समाहर्त्तुं प्रवृत्त इति। अयमेव सङ्कर्षणभावः प्रदर्श्यते भगवता। संहारको हि सङ्कर्षणव्यूहः तत्केशस्य भगवत्स्वरूपेऽवतरणं भूमौ भारहरणार्थमिति भारते निरूप्यते। तथा च भूभारभूतानामेव संहारकः कालः प्रवृत्तोऽस्मि।ऋतेऽपि त्वां इत्युपलक्षणं मदनुगृहीतान्विना सर्वान्समाहर्तुं प्रवृत्तोऽस्मीत्यर्थः। त्वा हनननिमित्तभूतं विना न जीविष्यन्तीति वा सम्बन्धः। हे पार्थ त्वया न हन्तव्याश्चेन्मया कालरूपेण तु ग्रस्ताः तिरोभावं यास्यन्तीत्यभिप्रायेणन भविष्यन्ति इति प्रत्युक्तम्।
Chapter 11, Verse 32