Chapter 11, Verse 31

Text

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद। विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।11.31।।

Transliteration

ākhyāhi me ko bhavān ugra-rūpo namo ’stu te deva-vara prasīda vijñātum ichchhāmi bhavantam ādyaṁ na hi prajānāmi tava pravṛittim

Word Meanings

ākhyāhi—tell; me—me; kaḥ—who; bhavān—you; ugra-rūpaḥ—fierce form; namaḥ astu—I bow; te—to you; deva-vara—God of gods; prasīda—be merciful; vijñātum—to know; ichchhāmi—I wish; bhavantam—you; ādyam—the primeval; na—not; hi—because; prajānāmi—comprehend; tava—your; pravṛittim—workings


Translations

In English by Swami Adidevananda

Tell me, who are You with this terrible form? Salutations to You, O Supreme God. Be gracious to me. I desire to know You, the Primal One. I do not know Your activities.

In English by Swami Gambirananda

Tell me who You are, fierce in form. Salutations to You, O Supreme God; be gracious. I desire to fully know You, who are the Prime One. For I do not understand Your actions!

In English by Swami Sivananda

Tell me, who you are, so fierce of form. I offer my salutations to you, O God Supreme; have mercy on me. I desire to know you, the original Being. I do not indeed know your workings.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Please tell me who You are with a terrible form, O Best of gods! Salutations to You; please be merciful. I am desirous of knowing You, the Primal One, in detail, for I do not clearly comprehend Your actions.

In English by Shri Purohit Swami

Tell me then, who are You, who wears this dreadful form? I bow before You, O Mighty One! Have mercy, I pray, and let me see You as You were at first. I do not know what Your intentions are.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।11.31।। मुझे यह बताइये कि उग्ररूपवाले आप कौन हैं? हे देवताओंमें श्रेष्ठ ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइये। आदिरूप आपको मैं तत्त्वसे जानना चाहता हूँ; क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्तिको नहीं जानता।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।11.31।। (कृपया) मेरे प्रति कहिये, कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार है, आप प्रसन्न होइये। आदि स्वरूप आपको मैं (तत्त्व से) जानना चाहता हूँ, क्योंकि आपकी प्रवृत्ति (अर्थात् प्रयोजन को) को मैं नहीं समझ पा रहा हूँ।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

11.31 आख्याहि tell? मे me? कः who (art)? भवान् Thou? उग्ररूपः fierce in form? नमः salutation? अस्तु be? ते to Thee? देववर O God Supreme? प्रसीद have mercy? विज्ञातुम् to know? इच्छामि (I) wish? भवन्तम् Thee? आद्यम् the original Being? न not? हि indeed? प्रजानामि (I) know? तव Thy? प्रवृत्तिम् doing.No Commentary.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।11.31।। व्याख्या--'आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद'--आप देवरूपसे भी दीख रहे हैं और उग्ररूपसे भी दीख रहे हैं; तो वास्तवमें ऐसे रूपोंको धारण करनेवाले आप कौन हैं? 

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।11.31।। इस अवसर पर अर्जुन? भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति की पवित्रता एवं दिव्यता को समझ पाता है। उससे अनुप्रमाणित हुआ सम्मान के साथ नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम करता है? जिन्हें अब तक वह केवल वृन्दावन के गोपाल के रूप में ही पहचानता था। यद्यपि वह बुद्धिमान था? परन्तु उसके समक्ष उपस्थित हुआ यह दृश्य उसके लिए बहुत अधिक विशाल था। उसे पूर्णरूप से देखना और उसका विश्लेषण करके उसे आत्मसात् करना अत्यन्त कठिन था। अब केवल वह यही कर सकता है कि अपने आप को भगवान् के चरणों में समर्पित करके उन्हीं से विनती करे कि? आप मुझे बताइये कि आप कौन हैंअपनी जिज्ञासा को और अधिक ठोस आकार देकर अर्जुन सूचित करता है कि वह अपने प्रश्न का उत्तर शीघ्र ही चाहता है? मैं आपको जानना चाहता हूँ। यह सुविदित तथ्य है कि अध्यात्मशास्त्र के ग्रन्थों में सत्य के ज्ञान के लिए प्रखर जिज्ञासा को अत्यन्त महत्व का स्थान दिया गया है? क्योंकि वही वास्तव में साधकों की प्रेरणा होती है। परन्तु यहाँ अर्जुन का मन अपनी तात्कालिक समस्या या चुनौती के कारण व्याकुल था? इसलिये ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि वह? वास्तव में? इस दृश्य के वास्तविक दिव्य सत्य को जानना चाहता है। उसकी यह जिज्ञासा अपनी भावनाओं से अतिरंजित है और उसके साथ ही उसमें युद्ध परिणाम को जानने की व्याकुलता भी है। यह बात्ा उसके इन शब्दों में स्पष्ट होती है कि? मैं आपके प्रयोजन को नहीं जान पा रहा हूँ। उसकी जिज्ञासा का अभिप्राय यह है कि? इस भयंकर रूप को धारण करके अर्जुन को कौरवों का विनाश दिखाने में भगवान् का क्या उद्देश्य है जब वह किसी घटना के घटने की तीव्रता से कामना कर रहा है और उसके समक्ष ऐसे लक्षण उपस्थित होते हैं? जो युद्ध में उसकी निश्चित विजय की भविष्यवाणी कर रहे हैं?तो वह दूसरों से उसकी पुष्टि चाहता है। यहाँ अर्जुन उसी घटना को देख रहा है? जिसे वह घटित होते देखना चाहता है अत वह स्वयं भगवान् के मुख से ही उसकी पुष्टि चाहता है। इसलिये उसका यह प्रश्न है।सत्य की ही एक अभिव्यक्ति है विनाश। भगवान् उसी रूप में अपना परिचय कराते हुए घोषणा करते हैं कि

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।11.31।।भगवद्रूपस्यार्जुनेन दृष्टपूर्वत्वात्तस्य तस्मिन्न जिज्ञासेत्याशङ्क्याह -- यत इति। उपदेशं शुश्रूषमाणेनोपदेशकर्तुः प्रह्वीभवनं कर्तव्यमिति सूचयति -- नमोस्त्विति। क्रौर्यत्यागमर्थयते -- प्रसादमिति। त्वमेव मां जानीषे किमर्थमित्थमिदानीमर्थयसे मदीयां चेष्टां दृष्ट्वा तथैव प्रतिपद्यस्वेत्याशङ्क्याह -- न हीति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।11.31।।यतएवमुग्रस्वभावोऽत आख्याहि कथय को भवान् शुद्धसत्त्वप्रधानः सौम्यस्वभावस्त्वं विष्णुर्मया पूर्वं ज्ञात इदानीं तमःप्रधान उग्रस्वभाववान क इत्यर्थः। नाहमाज्ञां करोमि अपितु नम्रीभूय पृच्छामीत्याशयवान्नमस्करोति। ते तुभ्यं नमोऽस्तु हे देववर दवानां मुख्य? प्रसीद प्रसादं कुरु। देववरस्य तवैव प्रसादो ममापेक्षितो नतु देवानामिति संबोधनाशयः। भवन्तमाद्यं आदिकारणं विशेषेण ज्ञातुमिच्छामि। ननु स्वयमेव जानीहि किमर्थं पृच्छसीति तत्राह। हि यस्मात्त्वदीयां चेष्टां न जानामि।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।11.31।।धर्मान्तरज्ञानार्थमेव को भवानिति पृच्छति -- आख्याहीति। यथा कश्चित्कञ्चिन्नामादिकं जानन्नपि जातिज्ञानार्थं पृच्छति कस्त्वमिति। यदि त्वमेव न जानाति तर्हिविष्णो [11।30] इत्येव सम्बोधनं न स्यात्त्वमक्षरं [11।18] इत्यादि च।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।11.31।।एवं दीप्त्याकुलीभूतोऽर्जुनो भगवानयमिति विस्मृत्याह -- आख्याहीति। एवमुग्ररूपः क्रूरकर्मा भवान् कोऽसीत्याख्याहि अमुकोऽस्मीति कथय। प्रसीद शान्तो भव। त्वामहं विज्ञातुमिच्छामि। यतस्तव प्रवृत्तिं चेष्टां न जानामि।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।11.31।।अतिघोररूपः को भवान् किं कर्तुं प्रवृत्तः इति भवन्तं ज्ञातुम् इच्छामि। तव अभिप्रेतां प्रवृत्तिं न जानामि। एतद् आख्याहि मे नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद -- नमः ते अस्तु सर्वेश्वर एवं कर्तुम् अनेन अभिप्रायेण इदं संहर्तृरूपम् आविष्कृतम् इति उक्त्वा प्रसन्नरूपश्च भव।आश्रितवात्सल्यातिरेकेण विश्वैश्वर्यं दर्शयतो भवतो घोररूपाविष्कारे कः अभिप्रायः इति पृष्टो भगवान् पार्थसारथिः स्वाभिप्रायम् आह -- पार्थोद्योगेन विना अपि धार्तराष्ट्रप्रमुखम् अशेषं राजलोकं निहन्तुम् अहम् एव प्रवृत्तः? इति ज्ञापनाय मम घोररूपाविष्कारः? तज्ज्ञापनं च पार्थम् उद्योजयितुम् इति --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।11.31।।यत एवं तस्मात् -- आख्याहीति। भवानुग्ररूपः क इत्याख्याहि कथय। तुभ्यं नमोऽस्तु। हे देववर? प्रसीद प्रसन्नो भव। भवन्तमाद्यं पुरुषं विशेषेण ज्ञातुमिच्छामि। यतस्तव प्रवृत्तिं चेष्टां किमर्थमेवं प्रवृत्तोऽसीति न जानामि। एवंभूतस्य तव प्रवृत्तिं वार्तामपि न जानामीति वा।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।11.31।।एवमत्यन्तघोराकारदर्शनं सोढुमशक्तो धनञ्जयः स्वसर्वैश्वर्यप्रकाशनप्रवृत्तस्य तादृशघोररूपाविष्कारे तात्पर्यकथनं पुनः प्रसन्नरूपपरिग्रहार्थं प्रसादं चापेक्षतेआख्याहि इति श्लोकेन। भक्तस्य मे भयानकरूपप्रदर्शने कोऽभिप्रायः इत्यज्ञानात्प्रश्न इत्याहदर्शयेत्यादिना। उपदेशसाक्षात्काराभ्यां भगवतः प्रतिपन्नत्वात्को भवान् इति प्रश्नो न स्वरूपसंज्ञादिविषयः?नहि प्रजानामि तव प्रवृत्तिं इति प्रवृत्तिप्रश्नाभिप्रायेणाज्ञातांशश्चात्रैव निर्दिश्यत इति तद्विषयजिज्ञासयैवायं प्रश्नो युक्त इत्यभिप्रायेण -- किं कर्तुं प्रवृत्त इत्युक्तम्। कृष्णरूपप्रच्छन्नागतदैत्याभिव्यक्तस्वरूपान्तरादिशङ्कयाऽयं प्रश्न इति कैश्चिदुक्तमेतेन निरस्तम्। तदानीं परिदृश्यमानविग्रहादिप्रवृत्तिमात्रव्युदासायअभिप्रेतामित्युक्तम्। देववरशब्देन ब्रह्मरुद्राद्यपेक्षयाऽपि समुत्कृष्टत्वं वदताऽत्यन्तोत्कृष्टविषये स्वरसभावित्वं नमस्कारस्य द्योत्यत इत्यभिप्रायेणसर्वेश्वरशब्दः। यथोक्तमहिर्बुध्न्येननन्तव्यः परमः शेषी शेषा नन्तार ईरिताः। नन्तृनन्तव्यभावोऽयं न प्रयोजनपूर्वकः [अ.सं.52।7] इति। श्लोकस्य पिण्डितार्थमाहएवं कर्तुमिति।प्रसीद इत्यनेन फलितमुच्यतेप्रसन्नरूपश्चेति। एतदेव हि पश्चात्तदेव मे दर्शय रूपम् [11।45] इत्यादौ प्रपञ्चयिष्यते।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।11.31।।आख्याहि इति। तव प्रवृत्तिं न वेद्मि -- केनाशयेन ईदृशी इयमुग्रता इति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।11.31।।स्वरूपमेवाज्ञात्वा तद्धर्मान्वाऽयं पृच्छतीत्यन्यथा प्रतीतिनिरासायार्थमाह -- धर्मान्तरेति। तर्हि किं धर्मान्तरो भवान् इति प्रश्नेन भाव्यम्।को भवान् इति तु न युज्यत इत्यत आह -- यथेति। अन्येषां व्यवहारान्नाम प्रत्यक्षेण रूपादिकं च जानन्नपि जातिज्ञानार्थं यथा कश्चित्कञ्चित्कस्त्वमित्येवं पृच्छति? तथाऽर्जुनो भगवन्तं तद्धर्मांश्च जानन्नपि धर्मान्तरज्ञानार्थंको भवान् इत्येव पृच्छतीत्यर्थः। प्रश्नव्याख्यानस्य वर्तमानत्वाद्वर्तमाननिर्देशः। उग्रं रूपं दृष्ट्वा रुद्रो वा यमो वाऽयमिति स्वरूप एव सन्दिहानस्य प्रश्नः किं न स्यात् इत्यत आह -- यदीति। तत्स्वरूपमेवेत्यर्थः।भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो [11।33] इति। तर्हि ननु धर्मविषयोऽयं प्रश्नोऽस्तु? ततश्चान्तरशब्दो न युक्त इत्यत आह -- त्वमिति। यदि भगवद्धर्मान्न जानीयात्तर्हित्वमक्षरं परमं [11।18] इत्यादिवर्णनं न स्यात्। अतो भगवन्तं तद्धर्मांश्चाक्षरत्वादीन् ज्ञात्वा तदन्यधर्मज्ञानार्थमेव प्रश्न इत्येवमुक्तमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।11.31।।आख्याहीति। यस्मादेवं तस्मात् एवमुग्ररूपः क्रूराकारः को भवानित्याख्याहि कथय मे मह्यमत्यन्तानुग्राह्याय। अतएव नमोस्तु ते तुभ्यं सर्वगुरवे। हे देववर? प्रसीद प्रसादं क्रौर्यत्यागं कुरु। विज्ञातुं विशेषेण ज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं सर्वकारणम् न हि यस्मात्तव सखापि सन् प्रजानामि तव प्रवृत्तिं चेष्टाम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।11.31।।एवं समग्रजगत्तापनेन ममाऽपि सन्तापो भवत्यतो मयि प्रसन्नो भवेत्याह -- आख्याहीति। भवान् पूर्वरूपेण परिदृश्यमानः कः उग्ररूपः कः एतत् मे मह्यं हि निश्चयेन आख्याहि वद। तवाख्याने किं साधनं इत्यत आह। हे देववर देवश्रेष्ठ देवाः पूजनेन तुष्यन्ति? त्वं तु तेषामपि श्रेष्ठः प्रभुरतस्ते नमोऽस्तु।किमासनं ते गरुडासनाय इत्यादिवाक्यैस्तव प्रसादे नमस्कार एव साधनमित्यर्थः। अतः प्रसीद प्रसन्नो भव। ननु प्रसादे स्वरूपाख्यानं किम्प्रयोजनकं इत्यत आह -- विज्ञातुमिति। आद्यं पुरुषोत्तमं मूलभूतं भवन्तं विज्ञातुं विशेषेण सलीलं ज्ञातुमिच्छामि वाञ्छामि। यतस्तव प्रवृत्तिं अत्र प्राकट्यरूपां चेष्टां लीलां हि निश्चयेन न प्रजानामि स्वरूपज्ञाने सति तज्ज्ञानमपि भविष्यतीत्यर्थः। एवं सलीलं त्वज्ज्ञानेन भजनं करिष्याम्यतो विज्ञातुमिच्छामीति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।11.31।। --,आख्याहि कथय मे मह्यं कः भवान् उग्ररूपः क्रूराकारः? नमः अस्तु ते तुभ्यं हे देववर देवानां प्रधान? प्रसीद प्रसादं कुरु। विज्ञातुं विशेषेण ज्ञातुम् इच्छामि भवन्तम् आद्यम् आदौ भवम् आद्यम्? न हि यस्मात् प्रजानामि तव त्वदीयां प्रवृत्तिं चेष्टाम्।।श्रीभगवानुवाच --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।11.31।।अतस्त्वमाख्याहि। को भवानुग्ररूपो दृश्यसे हे देववर प्रसीदेति स्वस्य भीतत्वं सूचयति। एवं च त्वामाद्यं पुरुषं भयङ्कराकारेण वर्तमानं सर्वविलक्षणं विज्ञातुमिच्छामि यतस्तव प्रवृत्तिं च न जानामि ततो ब्रूहि।


Chapter 11, Verse 31