Chapter 11, Verse 27

Text

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि। केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः।।11.27।।

Transliteration

vaktrāṇi te tvaramāṇā viśanti daṁṣṭrā-karālāni bhayānakāni kecid vilagnā daśanāntareṣu sandṛśyante cūrṇitair uttamāṅgaiḥ

Word Meanings

vaktrāṇi—mouths; te—Your; tvaramāṇāḥ—fearful; viśanti—entering; daṁṣṭrā—teeth; karālāni—terrible; bhayānakāni—very fearful; kecit—some of them; vilagnāḥ—being attacked; daśanāntareṣu—between the teeth; sandṛśyante—being seen; cūrṇitaiḥ—smashed; uttama-aṅgaiḥ—by the head


Translations

In English by Swami Adidevananda

Hasten to enter Your fearful mouths with terrible fangs, crushing some of those caught between the teeth to powder.

In English by Swami Gambirananda

They rapidly enter into Your terrible mouths with cruel teeth! Some are seen sticking in the gaps between the teeth, with their heads crushed!

In English by Swami Sivananda

Some hurry into Your mouths with their terrible teeth, fearful to behold. Some are found stuck in the gaps between the teeth, their heads crushed to powder.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

They hurry into Your fearsome mouths, with tusks that terrify; some of them, stuck between Your teeth, are clearly visible with their heads crushed.

In English by Shri Purohit Swami

1 See them all rushing headlong into Thy mouths, with terrible tusks, horrible to behold. Some are mangled between Thy jaws, with their heads crushed to atoms.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।11.26 -- 11.27।। हमारे मुख्य  योद्धाओंके सहित भीष्म, द्रोण और वह कर्ण भी आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। राजाओंके समुदायोंके सहित धृतराष्ट्रके वे ही सब-के-सब पुत्र आपके विकराल दाढ़ोंके कारण भयंकर मुखोंमें बड़ी तेजीसे प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमेंसे कईएक तो चूर्ण हुए सिरोंसहित आपके दाँतोंके बीचमें फँसे हुए दीख रहे हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।11.27।। तीव्र वेग से आपके विकराल दाढ़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्णित शिरों सहित आपके दांतों के बीच में फँसे हुए दिख रहे हैं।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

11.27 वक्त्राणि mouths? ते Thy? त्वरमाणाः hurrying? विशन्ति enter? दंष्ट्राकरालानि terribletoothed? भयानकानि fearful to behold? केचित् some? विलग्नाः sticking? दशनान्तरेषु in the gaps between the teeth? संदृश्यन्ते are found? चूर्णितैः crushed to powder? उत्तमाङ्गैः with (their) heads.Commentary How do they enter into the mouth Arjuna continues

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।11.27।। व्याख्या--'भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः'--हमारे पक्षके धृष्टद्युम्न, विराट्, द्रुपद आदि जो मुख्य-मुख्य योद्धालोग हैं, वे सब-के-सब धर्मके पक्षमें हैं और केवल अपना कर्तव्य समझकर युद्ध करनेके लिये आये हैं। हमारे इन सेनापतियोंके साथ पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और वह प्रसिद्ध सूतपुत्र कर्ण आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। यहाँ भीष्म, द्रोण और कर्णका नाम लेनेका तात्पर्य है कि ये तीनों ही अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये युद्धमें आये थे (टिप्पणी प0 591)। 'अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः'-- दुर्योधनके पक्षमें जितने राजालोग हैं, जो युद्धमें दुर्योधनका प्रिय करना चाहते हैं (गीता 1। 23) अर्थात् दुर्योधनको हितकी सलाह नहीं दे रहे हैं, उन सभी,राजाओंके समूहोंके साथ धृतराष्ट्रके दुर्योधन, दुःशासन आदि सौ पुत्र विकराल दाढ़ोंके कारण अत्यन्त भयानक आपके मुखोंमें बड़ी तेजीसे प्रवेश कर रहे हैं -- 

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।11.27।। सत्य के अन्वेषण के अपने उद्देश्य के प्रति दृढ़ रहकर जो दर्शनशास्त्र? समष्टि को बिना किसी भय या पक्षपात के समझना चाहता है? वह प्रकृति के विनाशकारी पक्ष की उपेक्षा नहीं कर सकता। उपादान (कच्चे माल) के विनाश अर्थात् विकार के बिना किसी भी नवीन वस्तु का निर्माण नहीं हो सकता है। विश्व में जहाँ कहीं भी कोई अस्तित्व हैं वह परिवर्तन की पुनरावृत्ति मात्र है और इस परिवर्तन को निर्मित वस्तु की दृष्टि से देखने पर सृष्टि कहा जाता है और उपादान की दृष्टि से उसे ही विनाश कहते हैं।इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दू धर्म के साहसी आर्य ऋषियों ने परम सत्य के सौन्दर्य की स्तुति के समय? केवल उसे सर्वज्ञ सृष्टिकर्ता या सर्वशक्तिमान पालनकर्त्ता के रूप में ही नहीं देखा? वरन् समस्त नामरूपों के सर्व समर्थ संहारकर्त्ता के रूप में भी उसका दर्शन और स्तुतिगान किया है। जिन धार्मिक मतों में अभी तक जीवन का उसकी सम्पूर्णता में निरीक्षण और विश्लेषण नहीं किया गया है? उन्हें उपर्युक्त कथन भयंकर प्रतीत हो सकता है।अर्जुन के वचन अर्थपूर्ण हैं। वह विश्वरूप को समस्त नामरूपों को स्वाहा करते हुए नहीं देखता? बल्कि उन नामरूपों को शीघ्रता से विराट् पुरुष के मुख में प्रवेश करते हुए देखता है। समुद्र को यदि हम देखें तो ज्ञात होगा कि तरंगों को अपने में समा लेने के लिए समुद्र स्वस्थान से ऊपर नहीं उठता? किन्तु वे तरंगें ही क्षणभर की क्रीड़ा के पश्चात् स्वत ही शीघ्रता से समुद्र में लुप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार सत्य से व्यक्त हुई यह विविधता की सृष्टि सत्य की सतह पर अपनी क्रीड़ा के पश्चात् अवश्य ही? अपने प्रभवस्थान पूर्ण पुरुष में शीघ्र गति से लीन हो जायेगी।अर्जुन? प्रकृति के विनाशकारी तत्त्व के जम्हाई लेते मुख में भीष्मद्रोणादि कौरवपक्षीय योद्धागणों तथा स्वपक्ष के भी प्रमुख योद्धाओं को वेग से प्रवेश करते हुये देखता है। यह दृश्य न केवल अर्जुन को उसके साहस को तोड़ते हुए भयभीत ही करता है? अपितु उसे भविष्य में झांककर देखने का आत्मविश्वास भी प्रदान करता है। यद्यपि सैनिक संख्या तथा शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति की दृष्टि से कौरव अधिक शक्तिशाली थे? किन्तु उनका विनाश देखकर अर्जुन को धैर्य प्राप्त होता है। यह भावी घटनाओं का संकेत ही था। जब भगवान् विश्वरूप में प्रकट होते हैं? तब उस एकत्व की संकल्पना में न केवल आकाश (देश) संकुचित हो जाता है? बल्कि काल भी हमारे निरीक्षण का विषय बन जाता है।इसलिए? यदि अर्जुन ने उस विराट् रूप में? भूतकाल को वर्तमान से मिलकर भविष्य की ओर अग्रसर होते हुए देखा हो? तो इसमें कोई आश्चर्य़ नहीं है। सम्पूर्ण गीता ग्रन्थ में से प्रथम दो पृष्ठ पढ़ना अथवा उन्हें छोड़कर तीसरा पृष्ठ पढ़ना मेरी इच्छा पर निर्भर करता है। इसी प्रकार? जब अर्जुन के समक्ष सम्पूर्ण विश्वरूप ही उपस्थित था? तो वह एक दृष्टि में यत्रतत्रसर्वत्र देख सकता था और भूतवर्तमानभविष्य को भी। आधुनिक वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि वस्तुत देश काल एक ही हैं? और वे परस्पर की दृष्टि से व्यक्त होते हैं।सत्यनिष्ठ एवं सत्य के साधक पुरुषों को इस बात का भय नहीं होता कि उनका सत्यान्वेषण उन्हें कौनसे सत्य तक पहुँचायेगा। यदि वह सत्य भयंकर है? तो वे उसे भी स्वीकार करते हैं। यह जगत् दो विरुद्ध धर्मियों का एक मिश्रण है। इसमें सुरूपता और कुरूपता? शुभ और अशुभ? कोमल और कठोर तथा मधुर और कटु सब कुछ विद्यमान है। इन समस्त रूपों में परमात्मा ही व्यक्त हो रहा है। अत? यदि हम अपनी रुचि के अनुसार परमात्मा के केवल सुन्दर? शुभ? कोमल और मधुर भावों को ही स्वीकार करते हैं? तो ईश्वर की यह पूजा अथवा सत्य का यह मूल्यांकन पूर्ण नहीं कहा जा सकता। पूर्वाग्रहरहित और अनासक्त व्यक्ति को ईश्वर के कुरूप? अशुभ? कठोर और कटु भावों को मान्यता देनी ही होगी। वह दर्शनशास्त्र ही पूर्ण है? जो यह बोध कराए कि यद्यपि परमात्मा ही इन सब नाम? रूप और गुणों में व्यक्त हो रहा है? तथापि वह अपने पारमार्थिक स्वरूप से? इन सब गुणों से सर्वथा अतीत है।इसलिए? शुद्ध वैज्ञानिक पद्धति से अर्जुन को विश्वरूप का विस्तृत विवरण देना पड़ता है? फिर वह विवरण कितना ही भयंकर और रक्त को जमाने वाला ही क्यों न हो। निसन्देह गीता में वास्तविकता का बोध है। काल के मुख को यहाँ भयानक और विकराल दाढ़ों वाला कहकर उसका यथार्थ चित्रण किया गया है।वे किस प्रकार प्रवेश कर रहे हैं अर्जुन कहता है

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।11.27।।भगवद्रूपस्योग्रत्वे हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। प्रविष्टानां मध्ये केचिदिति संबन्धः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।11.27।।किंच तव मुखानि दंष्ट्राकरालानि अतएव भयंकराणि त्वरायुक्ता विशन्ति। तत्र प्रविष्टनां मध्ये किंचिद्दन्तान्तरेषु चूर्णितैः शिरोभिर्विलग्ना भक्षितमांसमिव संदृश्यन्ते उपलभ्यन्ते।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।11.27।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।11.27।।ते भीष्मादयः। उत्तमाङ्गैः शिरोभिः। अयं भावः -- धृतराष्ट्रस्य पुत्राः पापिष्ठाः भवन्तमेव त्रैलोक्यशरीरं विशन्ति। पापानुरूपं तस्य पायुस्थानस्थितान्नरकानेव गच्छन्तीति तत्र त्वां विशन्तीत्येवोक्तम्। भीष्मादयस्तु भक्ता यतोऽग्निर्ब्राह्मणा वेदाश्च प्रसूतास्तद्भगवतो मुखं प्रविशन्तीति वैषम्यगतिसूचनार्थं त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्रा विशन्ति भीष्मादयस्ते वक्त्राणि विशन्तीति विभागदर्शनं युक्तमिति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।11.27।।अमी धृतराष्ट्रस्य पुत्राः दुर्योधनादयः सर्वे भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रः कर्णश्च तत्पक्षीयैः अवनिपालसमूहैः सर्वैः अस्मदीयैः अपि कैश्चिद् योधमुख्यैः सह त्वरमाणा दंष्ट्राकरालनि भयानकानि तव वक्त्राणि विनाशाय विशन्ति। तत्र केचित् चूर्णितैः उत्तमाङ्गैः दशनान्तरेषु विलग्नाः संदृश्यन्ते।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।11.27।।वक्त्राणीति। एते सर्वे त्वरमाणा धावन्त इव दंष्ट्राभिः करालानि भयंकराणि वक्त्राणि विशन्ति। तेषां मध्ये केचिच्चूर्णीकृतैरुत्तमाङ्गैः शिरोभिरुपलक्षिता दन्तसंधिषु संश्लिष्टाः संदृश्यन्ते।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 11.27 अमी इत्यादिश्लोकपञ्चकार्थोत्थानहेतुं तस्य पूर्वेण सङ्गतिं चाह -- एवमिति। अवश्यम्भावितयास्वमनीषितमित्युक्तम्। स्वमनीषितभारावतरणज्ञापनाय भीषणरूपाविष्कारः तेन च युद्धप्रोत्साहनं सिध्येदिति भावः। वक्ष्यमाणमर्जुनादेरुपकरणमात्रत्वं तद्व्यापाराभावेऽपि शक्यत्वं चाभिप्रेत्यस्वेनैव करिष्यमाणमित्युक्तम्। तदानीं युद्धभूमौ स्थितानां वक्ष्यमाणभगवद्वक्त्रप्रवेशस्याघटिततया इन्द्रजालादिशङ्कां परिहरति -- स च पार्थ इति। भगवतः सर्वगोचरस्रष्ट्टत्वादिसाक्षात्कारे धार्तराष्ट्रादिकतिपयजन्तुसंहारो नात्यद्भुत इत्यभिप्रायेणाहतस्मिन्नेवेति।सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः [11।40] इति वक्ष्यमाणप्रकारेण सर्वशरीरतया सर्वभूतः सत्यसङ्कल्पो भगवानेव धार्तराष्ट्रादिविलयेऽपि सर्वविधं कारणम्? लौकिकातीन्द्रियेण रूपेण ग्रसन् भगवानेव प्रधानतमो हेतुः? दृष्टास्त्वर्जुनशरादयः काकतालीयवन्निमित्तमात्रमिति भावः।अनागतमपीत्यादि लौकिकं हि प्रत्यक्षं वर्तमाननियतमिति भावः।इदमिति -- धार्तराष्ट्रादिविशेषविषयमित्यर्थः। यद्वा वर्तिष्यमाणमपि साक्षात्काराद्वर्तमानवद्व्यपदिशतीति भावः। अस्मदीयैरिति पृथगभिधानादवनिपालसङ्घैरित्येतत्परपक्षविषयमिति व्यञ्जनायतत्पक्षीयैरित्युक्तम्। दुर्योधनादीनां सर्वेषामिव तत्पक्षीयाणामपि सर्वेषां वधस्य युद्धे करिष्यमाणत्वात्सर्वैरित्युक्तम्।अस्मदीयैरिति वचनात्स्वपक्षस्थानामपि वधः स्वेषां चावस्थानं विवक्षितम्। परेषु सर्वैरिति विशेषणात्स्वकीयेषु योधमुख्यैरित्युपादानाच्च पाण्डवपक्षीयाणां युद्धे निश्शेषवधाभावःकैश्चिदित्युक्तः। शीघ्रं संहरणस्य तत्तदपराधत्वरामूलत्वंत्वरमाणपदेन विवक्षितम्। यद्वा समरसंरम्भादिः सर्वोऽपि व्यापारस्तेषां स्ववधार्थ इति भावः।भयानकानि इति पृथगुक्तत्वात्करालशब्दोऽत्र सान्तरालत्वविकृतत्वपरः? दन्तुरत्वपरो वाकरालं दन्तुरे वक्रे इत्यादि।अमी च त्वा [11।21] इत्यत्र क्रियानिर्देशाभावेऽपिमा भवन्तमनलः पवनो वा इत्यादिष्विवाध्याहारेणैव क्रियान्वयो गुण एव। यद्वाविशन्ति इति वक्ष्यमाणपदमत्रापि पठितव्यम्।अथवादृष्ट्वा प्रव्यथितान्तरात्मानो धृतिं न विन्दन्ति इति वा विपरिणतानुषङ्गेण वाक्यसमाप्तिः न पुनः श्लोकद्वयमप्येकवाक्यतया विवक्षितम्? पूर्वश्लोके त्वेति कर्मतया निर्देशात्परत्रवक्त्राणि ते [11।27] इत्युक्तेःअमी सर्वे धृतराष्ट्रस्य पुत्राः इति भाष्याभिप्रेतः पाठः?दुर्योधनादयः सर्वे इत्युक्तेः अत एव हिविशन्ति इत्यनेनैकवाक्यतया व्याख्यातम् रक्षणार्थं भगवति प्रवेशव्युदासाय वक्ष्यमाणपरामर्शात्विनाशायेत्युक्तम्।तत्र धार्तराष्ट्रादिष्वित्यर्थः। यद्वा तेषु वक्त्रेष्वित्यर्थः। केचिद्विनाशाय विशन्ति केचित्तु विनष्टाः सन्दृश्यन्ते इत्युक्तं भवति।विद्ध्येनमिह वैरिणम् [3।37] इत्यस्यानन्तरं यादवप्रकाशीयैरिह केचित्पञ्चश्लोकान्पठन्तीति विलिख्य व्याख्यातम् -- अर्जुन उवाच -- भवत्येष कथं कृष्ण कथं चैष विवर्धते।किमात्मकः किमाचारस्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।।1।।भगवानुवाच -- एष सूक्ष्मः परः शत्रुर्देहिनामिन्द्रियैः सह।सुखं तत्र इवासीनो मोहयन्पार्थ तिष्ठति।।2।।कामक्रोधमयो घोरः स्तम्भहर्षसमुद्भवः।अहङ्कारोऽभिमानात्मा दुस्तरः पापकर्मभिः।।3।।हर्षमस्य निवर्त्यैष शोकमस्य ददाति च।भयं चास्य करोत्येष मोहयंश्च मुहुर्मुहुः।।4।।स एष कलुषी क्षुद्रश्छिद्रापेक्षी धनञ्जय।रजःप्रवर्तितो मोहान्मानुषाणामुपद्रवः।।5।।इति।अत्र च -- नानारूपैः पुरुषैर्वध्यमाना विशन्ति ते वक्त्रमचिन्त्यरूपम्।यौधिष्ठिरा धार्तराष्ट्राश्च योधाः शस्त्रैः कृत्ता विविधैः सर्व एव।।1।।दिव्यानि कर्माणि तवाद्भुतानि पूर्वाणि पूर्वेऽप्यृषयः स्तुवन्ति।नान्योऽस्ति कर्ता जगतस्त्वमेको धाता विधाता च विभुर्भुवश्च।।2।।तवाद्भुतं किं न भवेदसह्यं किं वा शक्यं परतः कीर्तयिष्ये।कर्तासि लोकस्य यतः स्वयं विभो त्वत्तः सर्वं त्वयि सर्वं त्वमेव।।3।।अत्यद्भुतं कर्म न दुष्करं ते कर्मोन्मानं न च विद्यते ते।न ते गुणानां परिमाणमस्ति न तेजसो नापि बलस्य नर्द्धेः।।4।। -- इति। अत्रदिव्यानि इत्यादयः श्लोका नारायणार्यैरपि लिखिताः।प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च [11।39] इत्यस्यानन्तरमन्यश्च श्लोकः -- अनादिमानप्रतिमप्रभावः सर्वेश्वरः सर्वमहाविभूतिः।न हि त्वदन्यः कश्चिदस्तीह देव लोकत्रये दृश्यतेऽचिन्त्यकर्मा इत्येते श्लोकाः सन्ति न वेति देवो जानाति। पूर्वव्याख्यातृभिरनुदाहृतत्वादध्ययनप्रसिद्ध्यभावाच्च भाष्यकारैरनादृताः। न च गीताशास्त्रस्य श्लोकसङ्ख्या व्यासादिभिरुक्ता। अर्वाचीनास्त्वविश्वसनीया इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।11.27।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।11.27।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।11.27।।वक्त्राणीति। अमी धृतराष्ट्रपुत्रप्रभृतयः सर्वेपि ते तव दंष्ट्राकरालानि भयानकानि वक्त्राणिव त्वरमाणा विशन्ति। तत्र च केचिच्चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः शिरोभिर्विशिष्टा दशनान्तरेषु विलग्ना विशेषेण संलग्ना दृश्यन्ते मया सम्यगसंदेहेन।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।11.27।।त्वरमाणा वेगवत्तराः दंष्ट्राकरालानि स्वतोऽपि भयानकानि वक्त्राणि विशन्ति प्रविशन्ति। प्रवेशानन्तरं दृष्टमाह। केचित् एके दशनान्तरेषु दन्तच्छिद्रेषु विलग्ना लम्बमानाः चूर्णितैः चूर्णीकृतैः उत्तमाङ्गैः सन्दृश्यन्ते।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।11.27।। --,वक्त्राणि मुखानि ते तव त्वरमाणाः त्वरायुक्ताः सन्तः विशन्ति? किंविशिष्टानि मुखानि दंष्ट्राकरालानि भयानकानि भयंकराणि। किञ्च? केचित् मुखानि प्रविष्टानां मध्ये विलग्नाः दशनान्तरेषु मांसमिव भक्षितं संदृश्यन्ते उपलभ्यन्ते चूर्णितैः चूर्णीकृतैः उत्तमाङ्गैः शिरोभिः।।कथं प्रविशन्ति मुखानि इत्याह --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।11.27।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.


Chapter 11, Verse 27