Chapter 11, Verse 21

Text

अमी हि त्वां सुरसङ्घाः विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति। स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः।।11.21।।

Transliteration

amī hi tvāṁ sura-saṅghā viśhanti kechid bhītāḥ prāñjalayo gṛiṇanti svastīty uktvā maharṣhi-siddha-saṅghāḥ stuvanti tvāṁ stutibhiḥ puṣhkalābhiḥ

Word Meanings

amī—these; hi—indeed; tvām—you; sura-saṅghāḥ—assembly of celestial gods; viśhanti—are entering; kechit—some; bhītāḥ—in fear; prāñjalayaḥ—with folded hands; gṛiṇanti—praise; svasti—auspicious; iti—thus; uktvā—reciting; mahā-ṛiṣhi—great sages; siddha-saṅghāḥ—perfect beings; stuvanti—are extolling; tvām—you; stutibhiḥ—with prayers; puṣhkalābhiḥ—hymns


Translations

In English by Swami Adidevananda

Verily, the hosts of Devas enter into You. Some, in fear, extol You with clasped hands, crying "Hail!" The bands of great seers and Siddhas praise You with meaningful hymns.

In English by Swami Gambirananda

Those very groups of gods enter into You; struck with fear, some extol You with joined palms. Groups of great sages and perfected beings praise You with elaborate hymns, saying, 'May it be well!'

In English by Swami Sivananda

Verily, these hosts of gods enter into Thee; some extol Thee with joined palms in fear, saying, 'May it be well!' Bands of great sages and perfected ones praise Thee with complete hymns.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

These hosts of gods enter into You; some, frightened, recite [hymns] with folded palms; simply crying 'Hail!', the hosts of great seers praise You with excellent praising hymns.

In English by Shri Purohit Swami

The troops of celestial beings enter into You, some invoking You in fear, with folded palms; the great seers and adepts sing hymns to Your glory, saying, "All hail!"

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।11.21।। वे ही देवताओंके समुदाय आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमेंसे कई तो भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नामों और गुणोंका कीर्तन कर रहे हैं। महर्षियों और सिद्धोंके समुदाय 'कल्याण हो ! मङ्गल हो !' ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रोंके द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।11.21।। ये समस्त देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आप की स्तुति करते हैं; महर्षि और सिद्धों के समुदाय 'कल्याण होवे' (स्वस्तिवाचन करते हुए) ऐसा कहकर, उत्तम (या सम्पूर्ण) स्रोतों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

11.21 अमी these? हि verily? त्वाम् Thee? सुरसङ्घाः hosts of gods? विशन्ति enter? केचित् some? भीताः in fear? प्राञ्जलयः with joined palms? गृणन्ति extol? स्वस्ति may it be well? इति thus? उक्त्वा having said? महर्षिसिद्धसङ्घाः bands of great Rishis and Siddhas? स्तुवन्ति paise? त्वाम् Thee? स्तुतिभिः with hymns? पुष्कलाभिः complete.Commentary Pushkalabhih means complete or wellworded praises or praises full of deep meanings.Great sages like Narada and perfected ones like Kapila praise Thee with inspiring hymns.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।11.21।। व्याख्या--'अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति'--जब अर्जुन स्वर्गमें गये थे, उस समय उनका जिन देवताओंसे परिचय हुआ था, उन्हीं देवताओंके लिये यहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि वे ही देवतालोग आपके स्वरूपमें प्रविष्ट होते हुए दीख रहे हैं। ये सभी देवता आपसे ही उत्पन्न होते हैं, आपमें ही स्थित रहते हैं और आपमें ही प्रविष्ट होते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।11.21।। अब तक अर्जुन ने विश्व रूप का जो वर्णन किया वह स्थिर था और एक साथ अद्भुत और उग्र भी था। यहाँ अर्जुन विश्वरूप में दिखाई दे रही गति और क्रिया का वर्णन करता है। ये सुरसंघ विराट् पुरुष में प्रवेश करके तिरोभूत हो रहे हैं।यदि सुधार के अयोग्य हुए कई लोग बलात् विश्वरूप की ओर खिंचे चले जाकर उसमें लुप्त हो जा रहे हों? और अन्य लोग प्रतीक्षा करते हुऐ इस प्रक्रिया को देख रहे हों? तो अवश्य ही वे भय से आतंकित हो जायेंगे। किसी निश्चित आपत्ति से आशंकित पुरुष? जब सुरक्षा का कोई उपाय नहीं देखता है? तब निराशा के उन क्षणों में वह सदा प्रार्थना की ओर प्रवृत्त होता है। इस मनोवैज्ञानिक सत्य को बड़ी ही सुन्दरता से यहाँ इन शब्दों में व्यक्त किया गया है कि कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपकी स्तुति करते हैं।और यही सब कुछ नहीं है। महर्षियों और सिद्ध पुरुषों ऋ़े समूह? अपने ज्ञान की परिपक्वता से प्राप्त दैवी और आन्तरिक शान्ति के कारण? इस विराट् के दर्शन से अविचलित रहकर इस विविध रूपमय विराट् पुरुष का उत्तम (बहुल) स्तोत्रों के द्वारा स्तुतिगान करते हैं। वे सदा स्वस्तिवाचन अर्थात् सब के कल्याण की कामना करते हैं। अपने पूर्ण ज्ञान के कारण वे जानते हैं कि ईश्वर इस प्रकार का अति उग्र भयंकर रूप केवल उसी समय धारण करता है जब वह विश्व का सम्पूर्ण पुनर्निर्माण करना चाहता है। सिद्ध पुरुष यह भी जानते हैं कि विनाश के द्वारा निर्माण करने की इस योजना में किसी प्रकार की हानि नहीं होती है। इसलिए? वे इस विनाश की प्रक्रिया का स्वागत करते हुये जगत के लिये स्वर्णयुग की कामना करते हैं? जो इस सम्पूर्ण विनाश के पश्चात् निश्चय ही आयेगा।इस श्लोक में जगत् के प्राणियों का वर्गीकरण तीन भागों में किया गया है उत्तम? मध्यम और अधम। अधम प्राणी ऐसे ही नष्ट हो जाते हैं। वे मृत्यु की प्रक्रिया के सर्वप्रथम शिकार होते हैं और दुर्भाग्य से उन्हें इस क्रिया का भान तक नहीं होता कि वे उसका किसी प्रकार से विरोध कर सकें। मध्यम प्रकार के लोग विचारपूर्वक इस क्षय और नाश की प्रक्रिया को देखते हैं और उसके प्रति जागरूक भी होते हैं। वे अपने भाग्य के विषय में सोचकर आशंकित हो जाते हैं। वे यह नहीं जानते कि विनाश से वस्तुत कोई हानि नहीं होती? और समस्त प्राणियों के अपरिहार्य अन्त से भयकम्पित हो जाते हैं।परन्तु इनसे भिन्न उत्तम पुरुषों का एक वर्ग और भी है? जिन्हें समष्टि के स्वरूप एवं व्यवहार अर्थात् कार्यप्रणाली का पूर्ण ज्ञान होता है। उन्हें इस बात का भय कभी स्पर्श नहीं करता कि दैनिक जीवन में होने वाली घटनाएं उनके साथ भी घट सकती हैं। समुद्र के स्वरूप को पहचानने वालों को तरंगों के नाश से चिन्तित होने का कारण नहीं रहता है। इसी प्रकार? जब सिद्ध पुरुष उस महान विनाश को देखते हैं? जो एक मरणासन्न संस्कृति के पुनर्निमाण के पूर्व होता है? तब वे सत्य की इस महान शक्ति को पहचान कर ईश्वर निर्मित भावी जगत् के लिए शान्ति और कल्याण की कामना करते हैं। जिस किसी भी दृष्टि से हम इस काव्य का अध्ययन करते हैं? हम पाते हैं कि स्वयं व्यासजी कितने महान् मनोवैज्ञानिक हैं और उन्होंने कितनी सुन्दरता से यहाँ मानवीय व्यवहार के ज्ञान को एकत्र किया है? जिससे कि मनुष्य शीघ्र विकास करके अपने पूर्णत्व के लक्ष्य तक पहुँच सके।इस दर्शनीय दृश्य को देखकर स्वर्ग के देवताओं की क्या प्रतिक्रया हुई अर्जुन उसे बताते हुए कहता है

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।11.21।।अमी हीत्यादि समनन्तरग्रन्थस्य तात्पर्यमाह -- अथेति। तं भगवन्तं पाण्डवजयमैकान्तिकं दर्शयन्तं पश्यन्नर्जुनो ब्रवीतीत्याह -- तं पश्यन्निति। विश्वरूपस्यैव प्रपञ्चनार्थमनन्तरग्रन्थजातमिति दर्शयति -- किञ्चेति। असुरसङ्घा इति पदं छित्त्वा भूभारभूता दुर्योधनादयस्त्वां विशन्तीत्यपि च वक्तव्यम्। उभयोरपि,सेनयोरवस्थितेषु योद्धुकामेष्ववान्तरविशेषमाह -- तत्रेति। समरभूमौ समागतानां द्रष्टुकामानां नारदप्रभृतीनां विश्वविनाशमाशङ्कमानानां तं परिजिहीर्षतां स्तुतिपदेषु भगवद्विषयेषु प्रवृत्तिप्रकारं दर्शयति -- युद्ध इति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।11.21।।इदानीं यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुरित्यर्जुनसंशयनिर्णयाय पाण्डवानां जयमैकान्तिकं दर्शयितुं प्रवृत्तं भूभारहरणार्थिनं भगवन्तं पश्यन्नाह। अमी हि यध्यमानाः भूभारहरणार्थं मनुष्यरुपेणावतीर्णा वस्वीदिदेवसङ्घास्त्वां प्रविशन्तीति त्वमिति पाठ आचार्यैर्व्याख्यात इति भाति। अन्यथा त्वा त्वामिति भाष्यपाठोऽपेक्षितः। असुरसङ्गा इति पदं च्छित्वा भूभारभूता दुर्योधनादयस्तवां विशन्तीत्यपि वक्तव्यमिति तट्टीकाकारोक्तिस्तु त्वेतिपाठे संगच्छत इति ज्ञेयम्। तत्र केचिद्भीताः पलायनेऽप्यशक्ताः सन्तः प्राञ्जलयः सन्तो गृणन्तः स्तुवन्ति। किंच युद्धदर्शनार्थमागता महर्षिसिद्धसङ्घा नारदातयो युद्धे प्रत्युपस्थिते तु जगत्क्षयहेतूत्पादादीनि उपलक्ष्य स्वस्तयस्तु जगत इत्युक्त्वा संपूर्णाभिः स्तुतिभूः स्तुवन्ति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।11.21।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।11.21।।व्यथामेवाह -- अमीति। हि यतः अमी त्वा त्वां असुरसङ्घा असुरांशा दुर्योधनादयस्त्वां पतङ्गाः पावकमिवादृष्टप्रेरिता विशन्ति मरणायेत्यर्थः। केचिद्भीताः प्राञ्जलयो बद्धाञ्जलयो गृणन्ति स्तुवन्ति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।11.21।।अमी सुरसंघाः उत्कृष्टाः त्वां विश्वाश्रयम् अवलोक्य हृष्टमनसः त्वत्समीपं विशन्ति। तेषु एव केचिद् अति उग्रम् अति अद्भुतं च तव आकारम् आलोक्य भीताः प्राञ्जलयः स्वज्ञानानुगुणं स्तुतिरूपाणि वाक्यानि गृणन्ति उच्चारयन्ति। अपरे महर्षिसंघाः सिद्धसंघाः चपरावरतत्त्वयाथात्म्यविदः स्वस्ति इति उक्त्वा पुष्कलाभिः भगवदनुरूपाभिः स्तुतिभिः स्तुवन्ति।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।11.21।। किंच -- अमी हीति। अमी सुरसङ्घा भीताः सन्तः त्वां विशन्ति शरणं प्रविशन्ति। तेषां मध्ये केचिदतिभीताः दूरत एव स्थित्वा कृतसंपुटकरयुगुलाः सन्तो गृणन्ति जयजय रक्षरक्षेति प्रार्थयन्ते। स्पष्टमन्यत्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।11.21।।अमी हि त्वा विशन्ति इत्यत्र न संहारादिकं विवक्षितं? स्तुत्यादिभिः सहपाठाद्धार्तराष्ट्रादिवदासन्नोपसहाराभावात् परोक्तस्यावतीर्णसुरसङ्घविषयत्वस्यवीक्षन्ते [11।22] इत्यादिभिर्विरोधाच्च अतोऽत्र समीपगमनरूपसेवाप्रकारोऽभिधीयत इत्यभिप्रायेणाह -- अमी सुरसङ्घा इत्यादिना।केचिद्गीताः इत्यनेन धार्ष्ट्यरहितानां पृथगभिधानादनेन वाक्येन अक्षोभ्याशया हर्षवन्तो विवक्षिता इति व्यञ्जनाय ब्रह्मादीनां सर्वेषां देवानां सेवार्थागमनं प्रथममुच्यते।उत्कृष्टा इति तु सुरशब्दव्यञ्जितोक्तिः। विनाशार्थप्रवेशव्यवच्छेदायहृष्टमनस इत्युक्तम्। वक्ष्यमाणवक्त्रप्रवेशव्यवच्छेदायाह -- त्वत्समीपमिति। केचित् इति पृथक्करणस्य समुदायविशेषसाकाङ्क्षत्वात्सुरसङ्घाः इति च प्रसक्तत्वाज्जात्यन्तरानवादाच्चतेष्वेवेत्युक्तम्।अत्युग्रमत्यद्भुतं चेति भीत्यादिहेतुभूतप्रकृताकारकथनम्।पुष्कलाभिः इति वक्ष्यमाणत्वादिह तदभावो विवक्षित इत्यभिप्रायेण -- स्वज्ञानानुगुणमित्युक्तम्।स्तुतिरूपाणीत्यादिनागृणन्ति इत्यस्यापेक्षितकर्माध्याहारः। श्रुत्यादिसिद्धस्तुतिपाठमात्रपरत्वायाह -- उच्चारयन्तीति। एतेनापिकेचित् इत्यस्य देवविशेषविषयत्वं सिद्धम् अन्येषां तु भूतानां पलायनस्य वक्ष्यमाणत्वात्।महर्षि -- इत्यादिना पृथग्व्यपदेशविशेषणादिफलितमपरशब्देन व्यञ्जितम्। महर्षिसङ्घाः भृग्वादिगणाः? सिद्धसङ्घाः सनकमुख्याः। महर्षित्वादिसूचितं पुषकलस्तुतिहेतुमाह -- परावरतत्त्वयाथात्म्यविद इति।जितं ते [भाग.3।13।344।24।33] इत्यादिवत् भक्तिपरवशानां मङ्गलाशासनं वा? सेव्यसन्दर्शनमात्रे सेवकस्य वक्तव्यः स्वस्तिशब्दः स्तुतिस्तु तदनन्तरं गुणप्रकर्षोक्तिः। अत एव गोब्राह्मणेभ्यो जगतो वा स्वस्तीति परोक्तं प्रकृतासङ्गतम्। अत्र स्तुतेः पौष्कल्यं प्रामाणिकसर्वेश्वरत्वादिकथनमित्यभिप्रायेणाह -- भगवदनुरूपाभिरिति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।11.21।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।11.21।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।11.21।।अधुना भूभारसंहारकारित्वमात्मनः प्रकटयन्तं भगवन्तं पश्यन्नाह -- अमी इति। अमी हि सुरसङ्गा वस्वादिदेवगणा भूभारावतारार्थं मनुष्यरूपेणावतीर्णा युध्यमानाः सन्तस्त्वा त्वां विशन्ति प्रविशन्तो दृश्यन्ते। एवमसुरसङ्घा इति पदच्छेदेन भूभारभूता दुर्योधनादयस्त्वां विशन्तीत्यपि वक्तव्यम्। एवमुभयोरपि सेनयोः केचिद्भीताः पलायनेऽप्यशक्ताः सन्तः प्राञ्जलयो गृणन्ति स्तुवन्ति त्वाम्। एवं प्रत्युपस्थिते युद्धे उत्पातादिनिमित्तान्युपलक्ष्य स्वस्त्यस्तु सर्वस्य जगत इत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा नारदप्रभृतयो युद्धदर्शनार्थमागता विश्वविनाशपरिहाराय स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिर्गुणोत्कर्षप्रतिपादिकाभिर्वाग्भिः पुष्कलाभिः परिपूर्णार्थाभिः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।11.21।।किञ्चअमी हीति। अमी सुरसङ्घाः देवसमूहाः त्वां त्वत्समीपे विशन्ति शरणमागच्छन्तीत्यर्थः। हीति युक्तमेव पुरुषोत्तमशरणागमनं देवानाम्। केचित् इतरे असुरा इत्यर्थः? भीताः सन्तः प्राञ्जलयो बद्धाञ्जलिपुटाः गृणन्ति? रक्षेति वदन्तीत्यर्थः। महर्षिसिद्धसङ्घाः महर्षीणां सिद्धानां च समूहाःस्वस्ति अस्माकमस्तु इत्युक्त्वा पुष्कलाभिः पूर्णाभिः स्तुतिभिस्त्वां स्तुवन्ति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।11.21।। --,अमी हि युध्यमाना योद्धारः त्वा त्वां सुरसंघाः ये अत्र भूभारावताराय अवतीर्णाः वस्वादिदेवसंघाः मनुष्यसंस्थानाः त्वां विशन्ति प्रविशन्तः दृश्यन्ते। तत्र केचित् भीताः प्राञ्जलयः सन्तो गृणन्ति स्तुवन्ति त्वाम् अन्ये पलायनेऽपि अशक्ताः सन्तः। युद्धे प्रत्युपस्थिते उत्पातादिनिमित्तानि उपलक्ष्य स्वस्ति अस्तु जगतः इति उक्त्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः महर्षीणां सिद्धानां च संघाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः संपूर्णाभिः।।किं चान्यत् --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।11.21।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.


Chapter 11, Verse 21