अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्। पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम् स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11.19।।
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् || 19||
anādi-madhyāntam ananta-vīryam ananta-bāhuṁ śhaśhi-sūrya-netram paśhyāmi tvāṁ dīpta-hutāśha-vaktraṁ sva-tejasā viśhvam idaṁ tapantam
I behold You as having no beginning, middle, or end; Your might is infinite. You are endowed with an innumerable number of arms. The sun and moon are Your eyes, and Your mouth emits burning fire. With Your own radiance, You are warning the entire universe.
I see You as having no beginning, middle, or end, possessing infinite valor, with innumerable arms, the sun and moon as eyes, a mouth like a blazing fire, and heating up this universe with Your own brilliance.
I see You without beginning, middle, or end, infinite in power, with endless arms, the sun and moon as Your eyes, the burning fire Your mouth, heating the entire universe with Your radiance.
I observe You with no beginning, no middle, and no end; having infinite creative power and infinite arms; with the moon and the sun as Your eyes and the blazing fire as Your mouth; and scorching this universe with Your radiance.
Without beginning, without middle, and without end, infinite in power, with arms all-embracing, the sun and moon as Your eyes, Your face beaming with the fire of sacrifice, flooding the whole universe with light.
।।11.19।। आपको मैं आदि, मध्य और अन्तसे रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओंवाले, चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोवाले, प्रज्वलित अग्निके समान मुखोंवाले और अपने तेजसे संसारको संतप्त करते हुए देख रहा हूँ।
।।11.19।। मैं आपको आदि, अन्त और मध्य से रहित तथा अनंत सार्मथ्य से युक्त और अनंत बाहुओं वाला तथा चन्द्रसूर्यरूपी नेत्रों वाला और दीप्त अग्निरूपी मुख वाला तथा अपने तेज से इस विश्व को तपाते हुए देखता हूँ।।
11.19 अनादिमध्यान्तम् without beginning? middle or end? अनन्तवीर्यम् infinite in power? अनन्तबाहुम् of endless arms? शशिसूर्यनेत्रम् Thy eyes as the sun and the moon? पश्यामि (I) see? त्वाम् Thee? दीप्तहुताशवक्त्रम् Thy mouth as the burning fire? स्वतेजसा with Thy radiance? विश्वम् the universe? इदम् this? तपन्तम् heating.Commentary Anantabahu Having endless arms. This denotes that the multiplicity of His limbs are endless.
।।11.19।। व्याख्या--'अनादिमध्यान्तम्'--आप आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं अर्थात् आपकी कोई सीमा नहीं है।सोलहवें श्लोकमें भी अर्जुनने कहा है कि मैं आपके आदि, मध्य और अन्तको नहीं देखता हूँ। वहाँ तो,देशकृत अनन्तताका वर्णन हुआ है और यहाँ कालकृत अनन्तताका वर्णन हुआ है। तात्पर्य है कि 'देशकृत' 'कालकृत' वस्तुकृत आदि किसी तरहसे भी आपकी सीमा नहीं है। सम्पूर्ण देश, काल आदि आपके अन्तर्गत हैं, फिर आप देश, काल आदिके अन्तर्गत कैसे आ सकते हैं? अर्थात् देश, काल आदि किसीके भी आधारपर आपको मापा नहीं जा सकता।
।।11.19।। अर्जुन की सूक्ष्म दृष्टि ने जैसा देखा और बुद्धि ने जैसा समझा? उसे वह जगत् की वस्तुओं की भाषा में वर्णन करने का प्रयत्न करता है। मैं आपको आदि? अन्त और मध्य से रहित? अनन्त सार्मथ्य से युक्त? अनन्त बाहुओं वाला देखता हूँ। व्यास के प्रभावशाली काव्य द्वारा चित्रित यह शब्दचित्र ऐसा आभास निर्माण करता है कि मानों इस कविता की विषयवस्तु बाह्यजगत् की कोई दृश्य वस्तु हैं। अनेक चित्रकार उसे कागज पर रंगों के द्वारा चित्रित करना चाहते हैं। परन्तु वेदान्त के बुद्धिमान् विद्यार्थी को उनका अज्ञान स्पष्ट दिखाई देता है। आदि? मध्य और अन्त रहित ऐसी अनन्त वस्तु कभी सीमित फलक वाले चित्र की मर्यादा में व्यक्त नहीं की जा सकती। परन्तु? अनन्तबाहु इस शब्द को सुनकर प्रेरित हुए चित्रकार उसे तत्काल चित्रित करने का प्रयत्न करते हैं। वस्तुत? कवि के इन्द्रियातीत अनुभव की दृष्टि के समक्ष जगत् की सभी दृश्यावलियों से सर्वथा भिन्न और अनुपम जो विराट् दृश्य उपस्थित है? वास्तव में उसे केवल गम्भीर अध्ययनकर्ता सूक्ष्मदर्शी विद्यार्थी ही समझ,सकते हैं।यहाँ अनन्तबाहु का अर्थ केवल यह है कि परमात्मा ही वह चेतन तत्त्व है? जो समस्त बाहुओं को कार्य करने और सफलता पाने की आवश्यक सार्मथ्य प्रदान करता है।जो प्रकाश तत्त्व बाह्य वस्तुओं को प्रकाशित करता है वही हमारे नेत्रों पर भी अनुग्रह करता हुआ उन्हें वस्तु के दर्शन करने की योग्यता प्रदान करता है। यहाँ किया गया वर्णन समष्टि की दृष्टि से है? क्योंकि जगत् में हम सूर्य या चन्द्रमा के प्रकाश में वस्तुओं को देखते हैं? उन्हें यहाँ वेदान्त की शास्त्रीय भाषा में विराटपुरुष के नेत्र कहा गया है। हुताशवक्त्रम् (दीप्त अग्निरूपी मुखवाला) हुताश का अर्थ है अग्नि। वाणी का अधिष्ठाता देवता अग्नि है। इसीलिए? सभी भाषाओं में इस प्रकार के वाक्प्रचार प्रसिद्ध हैं कि उनमें गरमागरम बहस हुई? उसके उस वाक्य ने चिनगारी का काम किया इत्यादि। मुख ही भक्षण का तथा वाणी का स्थान होने से यहाँ अग्नि को विराटपुरुष का मुख कहा गया है।अपने तेज से विश्व को तपाते हुए आत्मा चैतन्य स्वरूप ही हो सकता है? क्योंकि प्राणीमात्र के समस्त अनुभवों को सर्वदा चैतन्य ही प्रकाशित करता है। यह चैतन्य न केवल वस्तुओं को प्रकाशित करता है? वरन् सूर्य के द्वारा समस्त विश्व के जीवन के लिए आवश्यक उष्णता भी प्रदान करता है। इस कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि बाह्य जगत् का निरीक्षण और अध्ययन करने के पश्चात् ही हिन्दू ऋषियों ने अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी बनाया था। ऐसा प्रतीत होता है कि वे यह जानते थे कि किसी एक विशेष तापमान पर ही पृथ्वी पर जीवन संभव है उससे न्यून या अधिक तापमान होने पर जीवन लुप्त हो जायेगा।सत्य का यह प्रकाश उसका स्वस्वरूप है? और न कि किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया हुआ है। स्वतेजसा शब्द से यह बात स्पष्ट की गई है। उसी से जीवन धारण किया हुआ है।अर्जुन आगे कहता है
।।11.19।।भगवतो विश्वरूपाख्यं रूपमेव पुनर्विवृणोति -- किञ्चेति। हुतमश्नातीति हुताशो वह्निः।
।।11.19।।भगवतः परमरुपुषत्वं प्रकारान्तरेण निरुपयति -- अनादीति। आदिमध्यान्तवर्जितं अनन्ववीर्यं अपरिमितपराक्रमं यतोऽनन्ता बाहवो यस्य चन्द्रसूर्यौ नेत्रे दीप्तश्चासौ वह्निश्च वक्रं यस्य तम्। अतः स्वतेजसा इदं विश्वं संतापयन्तं त्वां पश्यामि।
।।11.19।।शशिसूर्यनेत्रं इत्यपिअहं क्रतुः [9।16] इत्यादिवत्। तदङ्गजाः सर्वसुरादयोऽपि तस्मात्तदङ्गेत्यृषिभिः स्तुतास्ते इत्यृग्वेदखिलेषु। चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत [ऋक्सं.8।4।19।3यजुस्सं.31।12] इति च। बहुरूपत्वाद्बह्वाश्रयत्वं तेषां युक्तम्।
।।11.19।।एतदेवाह -- अनादीति। देशतः कालतश्चादिमध्यान्तहीनत्वादनादिमध्यान्तम्। दीप्तो हुताशो वक्त्रे यस्येति भास्वरदन्तत्वं व्यज्यते। स्वतेजसा चैतन्यज्योतिषा इदं विश्वं विश्वरूपं तपन्तं प्रकाशयन्तम्। अनादित्वादिसर्वविशेषणविशिष्टं विश्वं तपिकर्मीभूतं तापयन्तं त्वां परज्योतीरूपं पश्यामि जानामि। चित्रपटस्थानीयं विश्वरूपं सकलकारकात्मकधीवासनोपेतं येन ज्योतिषा प्रकाशते तदेव त्वमसीति जानामीति भावः।
।।11.19।।अनादिमध्यान्तम् आदिमध्यान्तरहितम्? अनन्तवीर्यम् अनवधिकातिशयवीर्यम्? वीर्यशब्दः प्रदर्शनार्थः? अनवधिकातिशयज्ञानबलैश्वर्यशक्तितेजसां निधिम् इत्यर्थः। अनन्तबाहुम् असंख्येयबाहुम्? सोऽपि प्रदर्शनार्थः? अनन्तबाहूदरपादवक्त्रादिकम्? शशिसूर्यनेत्रं शशिवत् सूर्यवत् च प्रसादप्रतापयुक्तसर्वनेत्रम्? देवादीन् अनुकूलान् नमस्कारादि कुर्वाणान् प्रति प्रसादः? तद्विपरीतान् असुरराक्षसादीन् प्रति प्रतापःरक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः।। (गीता 11।36) इति हि वक्ष्यते।दीप्तहुताशवक्त्रं प्रदीप्तकालानलवत् संहारानुगुणवक्त्रम्? स्वतेजसा विश्वम् इदं तपन्तम् -- तेजः पराभिभवनसामर्थ्यम्? स्वकीयेन तेजसा विश्वम् इदं तपन्तं त्वां पश्यामि। एवंभूतं सर्वस्य स्रष्टारम्? सर्वस्य आधारभूतं सर्वस्य प्रशासितारम्? सर्वस्य संहर्तारम्? ज्ञानाद्यपरिमितगुणसागरम्? आदिमध्यान्तरहितम् एवंभूतदिव्यदेहं त्वां यथोपदेशं साक्षात्करोमि इत्यर्थः।एकस्मिन् दिव्यदेहे अनेकोदरादिकं कथम्इत्थम् उपपद्यतेएकस्मात् कटिप्रदेशाद् अनन्तपरिमाणाद् ऊर्ध्वम् उद्गता यथोदितदिव्योदरादयः? अधश्च यथोदितदिव्यपादाः? तत्र एकस्मिन् मुखे नेत्रद्वयम् इति च न विरोधः।एवंभूतं त्वां दृष्ट्वा देवादयः अहं च प्रव्यथिता भवामि इति आह --
।।11.19।। किंच -- अनादीति। अनादिमध्यान्तमुत्पत्तिस्थितिप्रलयरहितम्। अनन्तं वीर्यं प्रभावो यस्य तम्। अनन्तबाहुं अनन्ता बाहवो यस्य तम्। शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य तम् तादृशं त्वां पश्यामि। तथा दीप्तो हुताशोऽग्निर्वक्त्रेषु यस्य तम् स्वतेजसा इदं विश्वं तपन्तं संतापयन्तं पश्यामि।
।।11.19।।अनादिमध्यान्तम् इति नञस्तदन्यपरत्वेसर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन [10।32]अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च [10।20] इत्यादिभिर्विरुध्येत अतो निषेधपरतामाहआदिमध्यान्तरहितमिति।नान्तं न मध्यम् [11।16] इत्यादिकं स्वरूपविषयम् इदं तु विग्रहविषयमित्यपौनरुक्त्यम्। यद्वा उत्पत्तिस्थितिनाशरूपविकारनिषेधः क्वचित् अन्यत्र तत्तद्धेतुनिषेध इत्यादिरूपेण विभजनीयम्। अथवाऽत्र कालाभिमानिरूपदर्शनात्।अनादिर्भगवान्कालः [वि.पु.1।2।26] इत्यादिवत् कालाख्यविभूतिनित्यत्वविवक्षा। वीर्यस्यानन्त्यं नाम तारतम्यप्रयुक्तावच्छेदनिवृत्तिरित्यभिप्रायेणाह -- अनवधिकातिशयवीर्यमिति। निर्दिष्टमात्रपरत्वव्युदासाय सन्नियोगशिष्टानामन्यतरोक्तावितरदपि सिद्ध्यतीत्यभिप्रायेणाहवीर्यशब्दः प्रदर्शनार्थ इति।अनेकबाहुम् [11।16] इति बाहुनानात्वमात्रं पूर्वमुक्तम्अनन्तबाहुम् इति तु सङ्ख्यानिवृत्तिरुच्यत इत्यपौनरुक्त्यमित्यभिप्रायेणाहअसङ्ख्येयबाहुमिति।अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम् [11।16] इति पूर्वसमादिष्टसमुदाये कस्यचिदसङ्ख्येयत्वविधानमितरेषामपि प्रदर्शनार्थमित्यभिप्रायेणाहसोऽपीति।शशिसूर्यनेत्रम् इत्यत्र चन्द्रसूर्ययोरेव न नेत्रत्वरूपणम्? रूपणप्रकरणाद्यभावात्? अस्य च रूपस्यानन्तनयनविशिष्टत्वात् अतः साधर्म्यमेव विवक्षितम्। तत्रापि केषाञ्चिच्छशितुल्यत्वं केषाञ्चित्सूर्यतुल्यत्वमिति विभाजकाभावात्सर्वेषामुभयतुल्यत्वं विवक्षितमित्याहशशिवदिति। युगपत्प्रसादप्रतापयोर्विरुद्धयोर्विषयं व्यवस्थापयतिदेवादीनिति। तदेव वक्ष्यमाणेन स्थापयतिरक्षांसीति।दीप्तानलार्कद्युतिम् [11।16] इति प्रागभिधानेऽपि पुनःदीप्तहुताशवक्त्रम् इति विशेषतोऽभिधानं वक्त्रसाध्यजगद्ग्रसनाख्यविशेषतात्पर्येणेत्यभिप्रायेणाहप्रदीप्तकालानलवदिति।संहारानुगुणेति। साधर्म्यकथनम्। अत्रहुताश एव वक्त्रं इति परोक्तनिरसनायकालानलसन्निभानि [11।25] इति वक्ष्यमाणानुसन्धानेनकालानलवदित्युक्तम्। पावकश्च वसुगणेऽन्तर्भूतः पृथगुक्तः।विश्वमिदं तपन्तम् इति वचनादत्र तेजश्शब्देन अन्यानपेक्षत्वं न विवक्षितम्? प्रकृतानुपयोगात् अतस्तदुचितमर्थमाहतेजस इति। कालः पचति भूतानि इत्यादेः इदं निदानसूचनमित्यभिप्रायेणाहस्वकीयेनेति। पूर्वं श्रुतमनन्तरं दिव्यचक्षुषा साक्षात्कृतं सर्वमाकारं सङ्कलय्याहएवमिति। एकस्य देहस्य अनेकबाहुमुखादियोगः श्रुतपूर्वो दृष्टपूर्वश्च उदरादेरनेकत्वं तु कथं इति चोदयतिएकस्मिन्निति। परिहरतिइत्थमिति। श्रुतानुरूपं सर्वमुपपादनीयमिति भावः।एकस्मादित्यादि। अयमभिप्रायः -- अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम् इत्यवयवानेकत्वमात्रवचनाद्रूपमेकमिति गम्यते एकविग्रहविषयपूर्वापरपरामर्शाच्च। नचपश्य मे पार्थ रूपाणि [11।5] इत्युपक्रमादिहाष्यनेकविग्रहविषयमनेकोदरत्वादिकमिति वाच्यम्? तथा सतिअनेकविग्रहम् इत्येतावतो वक्तव्यत्वात्। नह्यनेकेषु शरीरेष्वनेकबाहूदरत्वादिकं विशेषतो वक्तव्यम् न च भगवच्छास्त्रे अनेकोदरादिमद्रूपं न दृष्टमिति वाच्यं? तस्य शास्त्रस्येदानीं निश्शेषप्रवृत्त्यभावात् नारदादिदृष्टरूपाण्यपि तत्रेदानीं न पश्यामः इतोऽन्यथापि श्रीविश्वरूपं नारदेन दृष्टम् ततोऽन्यदेव धृतराष्ट्रेण दृष्टम् अतो यथा संहिताभेदेन वराहनारसिंहादेरन्यथान्यथासन्निवेशवर्णभुजादिवैचित्र्यं? तद्वच्छ्रीविश्वरूपविग्रहेऽपि वचनबलादेव तथातथा वैचित्र्यमङ्गीकुर्मः अतः शाखामूलनानात्वेऽपि काण्डैक्याद्वृक्षैक्यवद्बाहूदरादिभेदेऽपि भेदोक्तिरहितकटिप्रदेशैक्यादिह रूपैक्यम् -- इति। एतच्च सर्वं यथोदितशब्देन सूचितम्।एकस्मिन्मुखे नेत्रद्वयमिति। एकैकस्मिन्नित्यर्थः।
।।11.19।।No commentary.
।।11.19।।शशिसूर्यनेत्रं इत्युक्तत्वात् कथं विश्वरूपशब्दस्यान्यथाव्याख्यानं इत्यत आह -- शशीति। इत्यादिवद्व्याख्येयम्। जन्यजनकभावेनाश्रयाश्रयिभावेन वाऽभेदोक्तिरित्यर्थः। कुत एतदित्यत आह -- तदङ्गजा इति। तदङ्गेत्यविभक्तिको निर्देशः सम्बुद्धिर्वा। अभेदे बाधकं चाह -- चन्द्रमा इति। चक्षोश्चक्षुषः। नन्वत्र चन्द्रमसो मनोजातत्वं तदाश्रयत्वं चोच्यते? गीतायां तु नेत्राश्रयत्वादि? तथाऽन्यत्रदंष्ट्राऽर्यमेन्दू इति? तत्कुतो न विरोधः इत्यत आह -- बह्विति।
।।11.19।।किंच -- अनादीति। आदिरुत्पत्तिर्मध्यं स्थितिरन्तो विनाशस्तद्रहितं अनादिमध्यान्तं। अनन्तं वीर्यं प्रभावो यस्य तं। अनन्ता बाहवो यस्य तं। उपलक्षणमेतन्मुखादीनामपि। शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य तं। दीप्तो हुताशो वक्त्रं यस्य? वक्त्रेषु यस्येति वा तं। स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तं संतापयन्तं त्वा त्वां पश्यामि।
।।11.19।।एवं पुरुषोत्तममुक्त्वा दृष्टं विश्वरूपमाह -- अनादीत्यादिना। अनादिमध्यान्तं न विद्यते आदिर्मध्यं अन्तश्च यस्य उत्पत्तिस्थितिप्रलयरहितम्? -- अनन्तं वीर्यं पराक्रमो यस्य तम्। अनन्तबाहुं अनन्ताः क्रियाशक्तयो यस्य? शशिसूर्यनेत्रं शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य? दीप्तहुताशवक्त्रं दीप्तो धूमादिरहितो हुताशः अग्निर्वक्त्रेषु यस्य तम्? स्वतेजसा इदं परिदृश्यमानं विश्वं तपन्तं तेजोयुक्तं त्वां पश्यामि।
।।11.19।। --,अनादिमध्यान्तम् आदिश्च मध्यं च अन्तश्च न विद्यते यस्य सः अयम् अनादिमध्यान्तः तं त्वां अनादिमध्यान्तम्? अनन्तवीर्यं न तव वीर्यस्य अन्तः अस्ति इति अनन्तवीर्यः तं त्वाम् अनन्तवीर्यम्? तथा अनन्तबाहुम् अनन्ताः बाहवः यस्य तव सः त्वम्? अनन्तबाहुः तं त्वाम् अनन्तबाहुम्? शशिसूर्यनेत्रं शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य तव सः त्वं शशिसूर्यनेत्रः तं त्वां शशिसूर्यनेत्रं चन्द्रादित्यनयनम्? पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं दीप्तश्च असौ हुताशश्च वक्त्रं यस्य तव सः त्वं दीप्तहुताशवक्त्रः तं त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्? स्वतेजसा विश्वम् इदं समस्तं तपन्तम्।।
।।11.19।।किञ्च अनादिमध्यान्तमिति। कालरूपमेतदाधिदैविकं तदाह -- शशिसूर्यनेत्रमिति। कालाभिमानिनौ शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य। तथा सायङ्कालाभिमानी दीप्तो हुताशश्च वक्त्रेषु यस्य तं त्वां पश्यामि।
Chapter 11, Verse 19