नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप। एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।10.40।।
nānto ’sti mama divyānāṁ vibhūtīnāṁ parantapa eṣha tūddeśhataḥ prokto vibhūter vistaro mayā
na—not; antaḥ—end; asti—is; mama—my; divyānām—divine; vibhūtīnām—manifestations; parantapa—Arjun, the conqueror of the enemies; eṣhaḥ—this; tu—but; uddeśhataḥ—just one portion; proktaḥ—declared; vibhūteḥ—of (my) glories; vistaraḥ—the breath of the topic; mayā—by me
There is no limit to My divine manifestations. Here, I have briefly described the extent of such manifestations.
O destroyer of enemies, there is no limit to My divine manifestations. This description of My manifestations, however, has been stated by Me as an illustration.
There is no end to My divine glories, O Arjuna, but this is a brief statement by Me of the particulars of My divine glory.
O scorcher of foes! There is no end to My extraordinary manifesting power. The above details of My manifesting power have been declared by Me only as examples.
O Arjuna! The aspects of My divine life are endless; I have mentioned only a few as an example.
।।10.40।। हे परंतप अर्जुन ! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियोंका जो विस्तार कहा है, यह तो केवल संक्षेपसे कहा है।
।।10.40।। हे परन्तप ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है; अपनी विभूतियों का यह विस्तार मैंने एक देश से अर्थात् संक्षेप में कहा है।।
10.40 न not? अन्तः end? अस्ति is? मम My? दिव्यानाम् of divine? विभूतीनाम् glories? परंतप O scorcher of foes? एषः this? तु indeed? उद्देशतः briefly? प्रोक्तः has been stated? विभूतेः of glory? विस्तरः particulars? मया by Me.Commentary It is impossible for anyone to describe or know the exact extent of the divine gloreis of the Lord. There is no limit to His powers or glories. What could be expressed of Him is nothing when compared to His infinte glories.Parantapa Scorcher of foes -- he who burns the internal enemies? lust? anger? greed? deluion? etc.
।।10.40।। व्याख्या--'मम दिव्यानां (टिप्पणी प0 568.2) विभूतीनाम्'--'दिव्य' शब्द अलौकिकता, विलक्षणताका द्योतक है। साधकका मन जहाँ चला जाय, वहीं भगवान्का चिन्तन करनेसे यह दिव्यता वहीं प्रकट हो जायगी; क्योंकि भगवान्के समान दिव्य कोई है ही नहीं। देवता जो दिव्य कहे जाते हैं, वे भी नित्य ही भगवान्के दर्शनकी इच्छा रखते हैं, --
।।10.40।। मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है अपनी विभूतियों के वर्णन के प्रारम्भ में ही भगवान् श्रीकृष्ण ने इस विशाल कार्य को सम्पन्न करने में भाषा की असमर्थता प्रकट की था। किन्तु? फिर भी? शिष्य के लिए केवल स्नेहवश भगवान् श्रीकृष्ण ने इस असम्भव कार्य को यथासम्भव सम्पन्न करने के लिए अपने हाथों में लिया। कोई भी घटकार किसी भी जिज्ञासु व्यक्ति को समस्त घटों में व्याप्त उनके सारतत्त्व मिट्टी को नहीं दर्शा सकता और न अन्त में यह कहकर स्वयं का अभिनन्दन कर सकता है कि उसने समस्त भूत? वर्तमान और भविष्य के घटों को बता दिया है। ऐसा करना न सम्भव है और न आवश्यक ही। योग्य अधिकारी पुरुष को कुछ वस्तुएं दिखाकर उनके स्ाारतत्त्व का ज्ञान करा दिया जाये? तो वह पुरुष उसी तत्त्व की अन्य वस्तुओं को देखकर उस तत्त्व को पहचान सकता है।इस अध्याय में? भगवान् ने अर्जुन को तथा उसके निमित्त से समस्त भावी पीढ़ियों के जिज्ञासुओं के लिए? इन 54 विभूतियों के द्वारा? असंख्य उपाधियों के आवरण या परिधान में गुप्त वास कर रहे? अनन्त परमात्मा की क्रीड़ा को दर्शाया है। जो साधक इन विभूतियों का ध्यान करके अपने मन को पूर्णत प्रशिक्षित कर लेगा? वह इस बहुविध सृष्टि के पीछे स्थित एक अनन्त परमात्मा को सरलता से सर्वत्र पहचानेगा।दृश्य जगत् की अनन्त विभूतियों के विस्तार का वर्णन करने में अपनी असमर्थता को व्यक्त करते हुए भगवान् कहते हैं? सूर्यस्थानीय मुझ स्वयंप्रकाश? स्वस्वरूप की पूर्णता में स्थित परमात्मा की असंख्य रश्मिरूपी विभूतियों का कोई अन्त नहीं है।यदि भगवान् श्रीकृष्ण इस असमर्थता को पहले से जानते थे? तो क्यों उन्होंने एक गुरु होने के नाते? व्यर्थ ही अपने शिष्य को अपनी विभूतियों के द्वारा स्वयं का दर्शन कराने का आश्वासन दिया यह ऐसा छल भगवान् ने क्यों किया दीर्घ काल तक शिष्य को थकाकर अन्त में उसे निराश करना क्या उचित है क्या यह सभी धार्मिक गुरुओं? ऋषियों और मुनियों का सामान्य स्वभाव ही हैआध्यात्मिक साधनाओं पर लगाये जाने वाले इन सभी आरोपों का केवल एक ही उत्तर है कि इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। शल्य चिकित्सा के विद्यार्थियों को? सर्वप्रथम एक सप्ताह के मृत देह पर शल्यक्रिया करने को कहा जाता है यह कोई असत्य नहीं है यह सत्य है कि कितनी ही कुशलता से शल्यक्रिया करने पर भी वह मृत रोगी पुनर्जीवित होने वाला नहीं है? परन्तु इस प्रकार के अभ्यास का प्रयोजन विद्यार्थी को उस अनुभव को कराना है? जो अपना स्वतन्त्र व्यवसाय करने के लिए जीवन में आवश्यक होता है। इसी प्रकार? भगवान् यहाँ अर्जुन को दृश्य के द्वारा अदृश्य का दर्शन करने की कला को सिखाने के लिए अपनी कुछ विशेष विभूतियों का वर्णन करते हैं।उनका यह उद्देश्य उनकी इस स्वीकारोक्ति में स्पष्ट होता है? किन्तु मैंने अपनी विभूतियों का विस्तार संक्षेप से कहा है। भगवान् द्वारा किया गया वर्णन पूर्ण नहीं कहा जा सकता। साधकों को प्रशिक्षित करने के लिए उन्होंने कुछ विशेष उदाहरण ही चुन कर दिये हैं। जिन्होंने इन विभूतियों पर उत्साहपूर्वक ध्यान किया है? वे अनित्य रूपों में क्रीड़ा कर रहे स्वयं प्रकाश स्वरूप को सरलता से पहचान सकते हैं।संक्षेप में? भगवान् के कथन का सार यह है कि
।।10.40।।दिव्यानां विभूतीनां परिमितत्वशङ्कां वारयति -- नेत्यादिना। तदेवोपपादयति -- नहीति। कथं तर्हि विभूतेर्विस्तरो दर्शितस्तत्राह -- एष त्विति।
।।10.40।।मम दिव्यानामन्तो नास्ति परमेश्वरविभूतीनामियत्तारहितानामियत्ता केनचिद्वक्तुं ज्ञातुं वा न शक्या। एष तद्देशत एकदेशेन विभूतीनां विस्तरो मया प्रोक्तः। उक्तविभूतिपरिचिन्तनेन परान् रागद्वेषादीन् शत्रून्तापयेति संबोधनाशयः।
।।10.40।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
।।10.40।।नान्तोऽस्तीति। उद्देशत एकदेशेन विभूतेर्विस्तरो विस्तारो मया प्रोक्तः।
।।10.40।।मम दिव्यानां कल्याणीनां विभूतीनाम् अन्तो न अस्ति। एष तु विभूतेः विस्तरो मया कैश्चिद् उपाधिभिः संक्षेपतः प्रोक्तः।
।।10.40।।प्रकरणार्थमुपसंहरति -- नान्त इति। अनन्तत्वाद्विभूतीनां ताः साकल्येन वक्तुं न शक्यन्ते? एष तु विभूतेर्विस्तर उद्देशतः संक्षेपतः प्रोक्तः।
।।10.40।।निश्शेषवचनाशक्यतां प्रागुक्तामेव स्मारयति -- नान्तोऽस्ति इति। दिव्यशब्देन देशविशेषवर्तित्वादिविवक्षायां पूर्वमनियतदेशवर्तिनामदिव्यानां प्रपञ्चनं विरुध्येतेत्यत उक्तंकल्याणीनामिति।विभूतीरात्मनः शुभाः [10।19] इति ह्युपक्रान्तम्। उद्देशतः एकदेशतः प्रयोजकाकारैः विभूत्युद्धारेणेत्यर्थः। तदभिप्रायेणाहकैश्चिदुपाधिभिः सङ्क्षेपत इति।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.40।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।10.40।।प्रकरणार्थमुपसंहरन् विभूतिं संक्षिपति -- हे परंतप परेषां शत्रूणां कामक्रोधलोभादीनां तापजनक? मम दिव्यानां विभूतीनामन्त इयत्ता नास्ति। अतः सर्वज्ञेनापि सा शक्यते ज्ञातुं वक्तुं वा। सन्मात्रविषयत्वात्सर्वज्ञतायाः। एष तु त्वां प्रत्युद्देशत एकदेशेन प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो विस्तारो मया।
।।10.40।।एवं विभूतिमुक्त्वोपसंहरति -- नान्तोऽस्तीति। मम स्वच्छन्दचारिणो दिव्यानां क्रीडात्मिकानां विभूतीनामन्तो नास्ति। परन्तपेति सम्बोधनं विश्वासार्थम्। नन्वन्ताभावे कथमेता एवोक्ताः इत्याकाङ्क्षायामाह -- एष इति। एष तूद्देशतः सङ्क्षेपतो विभूतेर्विस्तरो मया प्रोक्तः। प्रोक्तत्वेनान्येषामेतावज्ज्ञानेऽप्यसामर्थ्यं,द्योतितम्।
।।10.40।। --,न अन्तः अस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां विस्तराणां परंतप। न हि ईश्वरस्य सर्वात्मनः दिव्यानां विभूतीनाम् इयत्ता शक्या वक्तुं ज्ञातुं वा केनचित्। एष तु उद्देशतः एकदेशेन प्रोक्तः विभूतेः विस्तरः मया।।
।।10.40।।प्रकरणार्थमुपसंहरति -- नान्तोऽस्तीति। एता दिव्या मे विभूतयः प्राधान्यतः उक्तास्ता अप्यनन्ता इति। एष तूद्देशतः प्रोक्तः -- नाममात्रेण वस्तुसङ्कीर्त्तनमुद्देशः -- तस्मात्सङ्क्षेपत इत्यर्थः।
Chapter 10, Verse 40