अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः।।1.41।।
adharmābhibhavāt kṛiṣhṇa praduṣhyanti kula-striyaḥ strīṣhu duṣhṭāsu vārṣhṇeya jāyate varṇa-saṅkaraḥ
adharma—irreligion; abhibhavāt—preponderance; kṛiṣhṇa—Shree Krishna; praduṣhyanti—become immoral; kula-striyaḥ—women of the family; strīṣhu—of women; duṣhṭāsu—become immoral; vārṣhṇeya—descendant of Vrishni; jāyate—are born; varṇa-saṅkaraḥ—unwanted progeny
When lawlessness prevails, O Krsna, the women of the clan become corrupted; when women become corrupted, there arises an intermixing of classes.
O Krishna, when vice predominates, the women of the family become corrupt. O descendant of the Vrsnis, when women become corrupted, it results in the intermingling of castes.
O Krishna, by the prevalence of impiety, the women of the family become corrupt; and, when women are corrupted, O Varshenya (descendant of Vrishni), intermingling of castes arises.
O Krsna, due to the domination of impiety, the women of the family become corrupt. O member of the Vrsni-clan, when the women become corrupt, there arises the intermixture of castes.
When irreligion spreads, the women of the house start to stray; when they lose their purity, adulteration of the lineage follows.
।।1.41।। हे कृष्ण! अधर्म के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं; (और) हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं।
।।1.41।।हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं, और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।
1.41 अधर्माभिभवात् from the prevalence of impiety? कृष्ण O Krishna? प्रदुष्यन्ति become corrupt? कुलस्त्रियः the women of the family? स्त्रीषु in women? दुष्टासु (being) corrupt? वार्ष्णेय O Varshneya? जायते arises? वर्णसङ्करः casteadmixture.No Commentary.
।।1.41।। व्याख्या--'अधर्माभिभवात्कृष्ण ৷৷. प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः'-- धर्मका पालन करनेसे अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण शुद्ध होनेसे बुद्धि सात्त्विकी बन जाती है। सात्त्विकी बुद्धिमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इसका विवेक जाग्रत् रहता है। परन्तु जब कुलमें अधर्म बढ़ जाता है तब आचरण अशुद्ध होने लगते हैं जिससे अन्तःकरण अशुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण अशुद्ध होनेसे बुद्धि तामसी बन जाती है। बुद्धि तामसी होनेसे मनुष्य अकर्तव्यको कर्तव्य और कर्तव्यको अकर्तव्य मानने लग जाता है अर्थात् उसमें शास्त्रमर्यादासे उलटी बातें पैदा होने लग जाती हैं। इस विपरीत बुद्धिसे कुलकी स्त्रियाँ दूषित अर्थात् व्यभिचारिणी हो जाती हैं।
।।1.41।। अर्जुन अपने पूर्वकथित तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि अधर्म के बढ़ने पर समाज में धीरधीरे नैतिकता का पतन हो जायेगा और वर्णसंकर जातियाँ उत्पन्न होंगी।वर्ण एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ विकृत हो जाने से वह आज के शिक्षित लोगों की तीखी आलोचना का विषय बन गया है। उनकी आलोचना उचित है यदि उसका विकृत अर्थ स्वीकृत हो। परन्तु आज वर्ण के नाम पर देश में जो कुछ होते हुये हम देख रहे हैं वह हिन्दू जीवन पद्धति का पतित रूप है। प्राचीन काल में वर्ण विभाग का आधार समाज के व्यक्तियों की मानसिक व बौद्धिक क्षमता और पक्वता होती थी।बुद्धिमान तथा अध्ययन अध्यापन एवं अनुसंधान में रुचि रखने वाले लोग ब्राह्मण कहलाते थे क्षत्रिय वे थे जिनमें राजनीति द्वारा राष्ट्र का नेतृत्व करने की सार्मथ्य थी और जो अपने ऊपर इस कार्य का उत्तरदायित्व लेते थे कि राष्ट्र को आन्तरिक और बाह्य आक्रमणों से बचाकर राष्ट्र में शांति और समृद्धि लायें। कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज सेवा करने वालों को वैश्य कहते थे। वे लोग जो उपयुक्त कर्मों में से कोई भी कर्म नहीं कर सकते थे शूद्र कहे जाते थे। उनका कर्तव्य सेवा और श्रम करना था। हमारे आज के समाजसेवक और अधिकारी वर्ग कृषक और औद्योगिक कार्यकर्त्ता आदि सभी उपर्युक्त वर्ण व्यवस्था में आ जाते हैं।वर्णव्यवस्था को जब हम उसके व्यापक अर्थ में समझते हैं तब हमें आज भी वह अनेक संगठनों के रूप में दिखाई देती है। अत वर्णसंकर के विरोध का अर्थ इतना ही है कि एक विद्युत अभियन्ता शल्यकक्ष में चिकित्सक का काम करता हुआ समाज को खतरा सिद्ध होगा तो किसी चिकित्सक को जल विद्युत योजना का प्रशासनिक एवं योजना अधिकारी नियुक्त करने पर समाज की हानि होगीसमाज में नैतिक पतन होने पर अनियन्त्रित वासनाओं में डूबे युवक और युवतियाँ स्वच्छन्दता से परस्पर मिलते हैं। कामना के वश में वे सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का किंचित भी विचार नहीं करते। इसलिये अर्जुन को भय है कि वर्णसंकर के कारण समाज और संस्कृति का पतन होगा।
।।1.41।।वर्णसंकरस्य दोषपर्यवसायितामादर्शयति संकर इति। कुलक्षयकराणां दोषान्तरं समुच्चिनोति पतन्तीति। कुलक्षयकृतां पितरो निरयगामिनः संभवन्तीत्यत्र हेतुमाह लुप्तेति। पुत्रादीनां कर्तृ़णामभावाल्लुप्ता पिण्डस्योदकस्य च क्रिया येषां ते तथा। ततश्च प्रेतत्वपरावृत्तिकारणाभावान्नरकपतनमेवावश्यकमापतेदित्यर्थः।
।।1.41।।ततश्च किं स्यादत आह अधर्मेति। अधर्मेणाभिभवादधर्मबाहुल्यात्कुलस्त्रियः प्रकर्षेण दुष्यन्ति दुष्टा व्यभिचारिण्यो भवन्ति। कुलक्षयकारिपतितपतिसंबन्धादेव स्त्रीणां दुष्टत्वम्आ शुद्धेःसंप्रतीक्ष्यो हि महापातकदूषितः इत्यादिस्मृतेरित्यपि केचत्। तासु च दुष्टासु यत्स्यात्तदाह स्त्रीष्विति। स्त्रीषु दुष्टासु वर्णसंकारो जायते। सर्वानर्थमूलभूताधर्मसाधनाद्युद्धादस्मदपकर्षणमेव कर्तुमर्हसि नतु तत्र प्रवर्तनमिति सूचयन्नाह कृष्णेति। हे वृष्णिकुलोद्भव कुलमर्यादाभिज्ञस्त्वमेतकथं न जानासि ज्ञात्वा च किमर्थमुपेक्षस इति ध्वनयन्संबोधयति वार्ष्णेयेति।
।।1.41।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
।।1.41।।कथं तर्हि जामदग्न्येन रामेण क्षत्रियेषु हतेषु तत्स्त्रियः पुनःपुनर्ब्राह्मणेभ्यः पुत्रान् जनयामासुरित्युपाख्यायते कथं वा धृतराष्ट्रादीनामसंकरजत्वमित्याशङ्क्याह पतन्तीति। हि शब्दो वैदिकीं प्रसिद्धिं द्योतयति। सा हिन शेषो अग्ने अन्यजातमस्ति इति श्रुतिः। अन्यस्माज्जातं शेषोऽपत्यं नास्तीति तदर्थः।अन्योदर्यो मनसापि न मन्तव्यो ममायं पुत्रः इति यास्कवचनाच्च।ये यजामहे इति शास्त्रात् ये वयं स्मस्ते वयं यजामह इत्यर्थकाद्दृश्यमानस्य पित्रादेः संशयग्रस्तत्वादयं मम पितैवेति निश्चयस्य दुःसाध्यत्वात्। मन्त्रश्चयोऽहमस्मि स सन्यजे। ब्राह्मणेऽर्थवादश्चनचैतद्विद्मो ब्राह्मणाः स्मो वयमब्राह्मणा वा इति। तस्माद्बीजपतेरेव पिण्डादिप्राप्तिर्नतु क्षेत्रपतेरिति लुप्तपिण्डोदकक्रियत्वादवश्यं पितृ़णां पातो भवति। क्षेत्रजपुत्रस्मृतिस्तु इह लोके वंशस्थापनमात्रपरा नतु तेन क्षेत्रपतेः कश्चिदामुष्मिक उपकारोऽस्ति। उदाहृतश्रुतिविरोधात्। अयं च संकरोऽस्माभिः स्वयं कृतश्चेदवश्यमस्मान्बाधिष्यत एवेति भावः।
।।1.41।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.41।।प्रदुष्यन्ति इति कायिकदोषोक्तिः।
।।1.41।।प्रदुष्यन्ति इति कायिकदोषोक्तिः।
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.41।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
।।1.41।।कुलस्य संकरश्च कुलघ्नानां नरकायैव भवतीत्यन्वयः। न केवलं कुलघ्नानामेव नरकपातः किंतु तत्पितृ़णामपीत्याह पतन्तीति। हिशब्दोऽप्यर्थे हेतौ वा। पुत्रादीनां कर्तृ़णामभावाल्लुप्ता पिण्डस्योदकस्य च क्रिया येषां ते तथा कुलघ्नानां पितरः पतन्ति नरकायैवेत्यनुषङ्गः।
।।1.41।।तेनाग्रेऽपि कोऽपि तथा न भवतीत्याह अधर्माभिभवादिति। अधर्माभिभवादधर्मव्याप्ताः कुलस्त्रियः प्रदुष्यन्ति व्यभिचारादिदोषयुक्ता भवन्तीत्यर्थः। स्त्रीषु दुष्टासु जातासु वर्णसङ्करो जायते। वार्ष्णेयेति सम्बोधनेन सत्कुलोत्पन्नानां तथात्वं कुलेऽनुचितमिति ज्ञापितम्।
1.41 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
।।1.40 1.42।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
Chapter 1, Verse 41