Chapter 10, Verse 36

Text

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्। जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।10.36।।

Transliteration

dyūtaṁ chhalayatām asmi tejas tejasvinām aham jayo ’smi vyavasāyo ’smi sattvaṁ sattvavatām aham

Word Meanings

dyūtam—gambling; chhalayatām—of all cheats; asmi—I am; tejaḥ—the splendor; tejasvinām—of the splendid; aham—I; jayaḥ—victory; asmi—I am; vyavasāyaḥ—firm resolve; asmi—I am; sattvam—virtue; sattva-vatām—of the virtuous; aham—I


Translations

In English by Swami Adidevananda

Of the fraudulent, I am gambling; I am the brilliance of the brilliant; I am victory, I am effort; I am the magnanimity of the magnanimous.

In English by Swami Gambirananda

Of the fraudulent, I am the gambling; I am the irresistible end of the mighty. I am excellence, I am effort, I am the sattva quality of those possessed of sattva.

In English by Swami Sivananda

I am the gambling of the deceitful; I am the splendor of the splendid; I am victory; I am the resolve of the resolute; I am the goodness of the good.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

I am the destroyer of the fraudulent; I am the brilliance of the brilliant; I am the victory; I am the determination; I am the strength of the strong.

In English by Shri Purohit Swami

I am the gambler's cheat and the splendor of the splendid; I am victory; I am effort; and I am the purity of the pure.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।10.36।। छल करनेवालोंमें जूआ और तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ। जीतनेवालोंकी विजय, निश्चय करनेवालोंका निश्चय और सात्त्विक मनुष्योंका सात्त्विक भाव मैं हूँ।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।10.36।। मैं छल करने वालों में द्यूत हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ, मैं विजय हूँ; मैं व्यवसाय (उद्यमशीलता) हूँ और सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

10.36 द्यूतम् the gambling? छलयताम् of the fraudulent? अस्मि (I) am? तेजः splendour? तेजस्विनाम् of the splendid? अहम् I? जयः victory? अस्मि (I) am? व्यवसायः determination? अस्मि (I) am? सत्त्वम् the goodness? सत्त्ववताम् of the good? अहम् I.Commentary Of the methods of defrauding others I am gambling such as diceplay. Gambling is My manifestation. I am the power of the powerful. I am the victoyr of the victorious. I am the effort of those who make that effort.I am Sattva which assumes the forms of Dharma (virtue)? Jnana (knowledge)? Vairagya (dispassion)? and Aisvarya (wealth or lordship) in Sattvic persons.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।10.36।। व्याख्या--'द्यूतं छलयतामस्मि'--छल करके दूसरोंके राज्य, वैभव, धन, सम्पत्ति आदिका (सर्वस्वका) अपहरण करनेकी विशेष सामर्थ्य रखनेवाली जो विद्या है, उसको जूआ कहते हैं। इस जूएको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।  शङ्का--यहाँ भगवान्ने छल करनेवालोंमें जूएको अपनी विभूति बताया है तो फिर इसके खेलनमें क्या दोष है? अगर दोष नहीं है तो फिर शास्त्रोंने इसका निषेध क्यों किया है।  समाधान --'ऐसा करो और ऐसा मत करो'-- यह शास्त्रोंका विधि-निषेध कहलाता है। ऐसे विधि-निषेधका वर्णन यहाँ नहीं है। यहाँ तो विभूतियोंका वर्णन है। मैं आपका चिन्तन कहाँ-कहाँ करूँ?' -- अर्जुनके इस प्रश्नके अनुसार भगवान्ने विभूतियोंके रूपमें अपने चिन्तनकी बात ही बतायी है अर्थात् भगवान्का चिन्तन सुगमतासे हो जाय, इसका उपाय विभूतियोंके रूपमें बताया है। अतः जिस समुदायमें मनुष्य रहता है, उस समुदायमें जहाँ दृष्टि पड़े, वहाँ संसारको न देखकर भगवान्को ही देखे; क्योंकि भगवान् कहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् मेरेसे व्याप्त है अर्थात् इस जगत्में मैं ही व्याप्त हूँ, परिपूर्ण हूँ (गीता 9। 4)।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।10.36।। मैं द्यूत हूँ गीता का उपदेश अपने समय के एक क्षत्रिय राजा योद्धा अर्जुन को दिया गया था। इसका उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने? धर्मप्रचारक के महान् उत्साह के साथ? अर्जुन को उसके अपने ही धर्म का बोध कराने के लिए किया था इसलिए गीता का प्रयत्न हिन्दुओं को ही हिन्दू बनाने का है? उन्हें स्वधर्म का पुनर्बोध कराने का है। यह पुनर्बोध का कार्य तब तक सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता जब तक हमारे धर्मशास्त्रों का मर्म सामान्य जनता को उसकी ही भाषा में समझाया नहीं जाता। यहाँ दिया हुआ उदाहरण अर्जुन को तत्क्षण ही समझ में आने जैसा है। कारण यह है कि उसका सम्पूर्ण जीवन दुखों की एक शृंखला थी? जिसे उसे सहन करना पड़ा था? केवल अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर की द्यूत खेलने के व्यसन के कारण। कोई अन्य दृष्टान्त अर्जुन के लिए इतना सुबोध नहीं हो सकता था।आधुनिक पीढ़ी को सम्भवत यह उदाहरण इतना अधिक सुबोध न प्रतीत होता हो? क्योंकि अब द्यूत का खेल अधिक लोकप्रिय नहीं रहा है। किन्तु उसके स्थान पर अन्य उदाहरण सरलता से पहचाने जा सकते हैं।मैं तेजस्वियों का तेज हूँ विभूति के इस दृष्टान्त का उपयोग जो साधक ध्यानाभ्यास के लिए करना चाहेगा? उसे ज्ञात होगा कि यहाँ शास्त्र ने कुछ कहा ही नहीं है। तेजस्वी वस्तुओं का जो तेज है? उसमें उस वस्तु के गुण नहीं होते हैं। उस तेज में अपने स्वयं के गुण भी नहीं होते तेज केवल एक अनुभव है। इस अनुभव को सहज सुगम बनाने के लिए? मन उस वस्तु के परिमाण और वैभव को प्रकाशित करता है? परन्तु अनुभूति तेज में उस वस्तु के उपादान भूत पदार्थ के कुछ भी गुण नहीं होते। संक्षेप में जैसा कि श्रीरामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था निसन्देह सत्य एक प्रकाश है? परन्तु वह गुणरहित प्रकाश है।मैं विजय हूँ उद्यमशीलता हूँ और मैं साधुओं की साधुता हूँ जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है? यहाँ भी ये गुण मन की उस स्थिति या दशा को बताते हैं? जो इस प्रकार के निरन्तर चिन्तन से निर्मित होती है। जब उद्यमशीलता और साधुता जैसे गुणों को बनाये रखा जाता है? तब मन अत्यन्त शान्त और स्थिर हो जाता है जिसमें चैतन्य आत्मा का प्रतिबिम्वित वैभव इतना स्पष्टऔर तेजस्वी होता है कि मानो वही स्वयं सत्य है। अत पूर्वकथित गुणों की प्रत्यारोपण की भाषा में भगवान् कहते हैं कि ये गुण ही मैं हूँ? जबकि वस्तुत ये अन्तकरण के धर्म हैं।हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ अनेकता में एक परमात्मा की विद्यमानता दर्शाने के लिए जो 54 उदाहरण दिये गये हैं? वे सब एक निष्ठावान साधक को ध्यान के लिए बताये हुए अभ्यास हैं। यह कोई दृश्य पदार्थ का वर्णन नहीं समझना चाहिए। इन श्लोकों के तात्पर्यार्थ को जब तक साधक अपने निज के अनुभव से नहीं समझता? तब तक उसकी शिक्षा पूर्ण नहीं कही जा सकती।भगवान् और भी दृष्टान्त देते हुए कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।10.36।।द्यूतमुक्तलक्षणं सर्वस्वापहारकारणमन्यापदेशेन पराभिप्रेतं निघ्नतां स्वाभिप्रेतं वा संपादयतामित्याह -- छलस्येति। तेजोऽप्रतिहताज्ञा? उत्कर्षो जयः? व्यवसायः फलहेतुरुद्यमः? धर्मज्ञानवैराग्यादि सत्त्वकार्यं सत्त्वम्।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।10.36।।छलस्य परवञ्चनस्य कर्तृ़णां मध्ये द्यूतं अक्षदेवनादिरुपम्। जेतृ़णां जयस्य कर्तृ़णाम्। व्यवसायो निश्चयः फलहेतुरुद्यमो वा।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।10.36।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।10.36।।व्यवसायो निश्चय उद्यमो वा।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।10.36।।छलं कुर्वतां छलास्पदेषु अक्षादिलक्षणम् द्यूतम् अहम्। जेतृ़णां जयः अस्मि? व्यवसायिनां व्यवसायः,अस्मि? सत्त्वतां सत्त्वं महामनस्त्वम्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।10.36।। द्यूतमिति। छलयतामन्योन्यवञ्चनपराणां संबन्धि द्यूतमस्मि। तेजस्विनां प्रभावतां तेजः प्रभावोऽस्मि। जेतृ़णां जयोऽस्मि। व्यवसायिनामुद्यमवतां व्यवसाय उद्यमोऽस्मि। सत्त्ववतां सात्त्विकानां सत्त्वमहम्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।10.36।।छलयताम् इत्यत्रतत्करोति इति णिजित्यभिप्रायेणछलं कुर्वतामित्युक्तम्। अक्षसञ्चारादिमात्रेण जयपराजयारोपादिह च्छलत्ववाचोयुक्तिरित्यभिप्रायेणअक्षादिलक्षणमित्युक्तम्।तेजस्तेजस्विनाम् इत्यादिवत्दीव्यतां द्यूतमहम् इत्यनभिधानात्छलयताम् इति छलकरणमात्रवचनाच्च छलस्थानान्तरेभ्यः क्रयविक्रयऋणदायसंवित्सङ्गरादिभ्यो द्यूतस्यातिशयितत्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणछलास्पदेष्वित्युक्तम्। वञ्चनास्पदेष्वित्यर्थः। अक्षादीत्यादिशब्देन सजीवनिर्जीवसमस्तद्यूतवर्गसङ्ग्रहः। यद्वा निर्जीवमात्रग्रहणायअक्षादिलक्षणमित्युक्तम्। तस्य चातिशयितत्वमनायासेन धर्माविरोधेनाभ्युपगमादेव समस्तधनहरणादेःशक्यत्वात्। तेजस्विसत्त्ववच्छब्दयोः पूर्वोत्तरयोस्तेजस्सत्त्वाभ्यामवरुद्धत्वात्तत्र जयव्यवसायशब्दयोरन्वयानौचित्यात्तदुचितौ जेतृव्यवसायिशब्दौ पूर्वापरच्छाययार्थाक्षिप्तावित्यभिप्रायेणजेतृ़णां व्यवसायिनामिति चोक्तम्।द्रव्यासुव्यवसायेषु सत्त्वमस्त्री तु जन्तुषु [अमरः3।3।212] इत्यादिभिः सत्त्वशब्दस्यानेकार्थसिद्धेर्व्यवसायस्य चोक्तत्वात्सत्त्ववच्छब्दप्रसिद्ध्यनुरोधेनार्थविशेषं दर्शयतिसत्त्वं महामनस्त्वमिति। एतेन पराभिभवसामर्थ्यादिलक्षणात्तेजसोऽपि सत्त्वस्यात्र भेद उक्तः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।10.36।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।10.36।।छलयतां छलस्य परवञ्चनस्य कर्तृ़णां संबन्धि द्यूतमक्षदेवनादिलक्षणं सर्वस्वापहारकारणमहमस्मि। तेजस्विनामत्युग्रप्रभावानां संबन्धि तेजोऽप्रतिहताज्ञत्वमहमस्मि। जेतृ़णां पराजितापेक्षयोत्कर्षलक्षणो जयोऽस्मि। व्यवसायिनां व्यवसायः फलाव्यभिचार्युद्यमोऽहमस्मि। सत्त्ववतां सात्त्विकानां धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यलक्षणं सत्त्वकार्यमेवात्र सत्त्वमहम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।10.36।।द्यूतमिति। छलयतां वञ्चकानां मध्ये द्यूतमस्मि? येन क्रीडाक्षात्त्रादिधर्मज्ञानेन मोहितो जानन्नपि वञ्चति। तेजस्विनां प्रभावतां मध्ये तेजः प्रभा अहमस्मि। जयतां मध्ये जयोऽस्मि। व्यवसायिनामुद्यमवतां निश्चयवतां वा व्यवसायः उद्यमः निश्चयो वाऽस्मि। सत्त्ववतां सात्त्विकानां मध्ये सत्त्वमहम्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।10.36।। --,द्यूतम् अक्षदेवनादिलक्षणं छलयतां छलस्य कर्तृ़णाम् अस्मि। तेजस्विनां तेजः अहम्। जयः अस्मि जेतृ़णाम्? व्यवसायः अस्मि व्यवसायिनाम्? सत्त्वं सत्त्ववतां सात्त्विकानाम् अहम्।।

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।10.36।।द्यूतमिति। छलयतां सम्बन्धि धर्मद्यूतं छलमहम् यथा युधिष्ठिरे भगवत्सेवोपयोगिक्रीडासाधनेष्वक्षलक्षणेषु द्यूतं वा भगवद्विभूतिः। तत्र च तेजस्विनां मध्येऽहङ्काररूपं तेजो मद्विभूतिः। दासोऽस्मीति वा भागवतं वा तत् तत्र जयोऽपि चाहं रुक्मीकालिङ्गप्रसङ्गेऽक्षगोष्ठ्यां [भाग.10] बलभद्रनिष्ठः सत्यवागुदितो जयो मे विभूतिः। अन्योऽपि तथा भावनीयः व्यवसाय इत्यादिः।


Chapter 10, Verse 36