मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्। कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।10.34।।
mṛityuḥ sarva-haraśh chāham udbhavaśh cha bhaviṣhyatām kīrtiḥ śhrīr vāk cha nārīṇāṁ smṛitir medhā dhṛitiḥ kṣhamā
mṛityuḥ—death; sarva-haraḥ—all-devouring; cha—and; aham—I; udbhavaḥ—the origin; cha—and; bhaviṣhyatām—those things that are yet to be; kīrtiḥ—fame; śhrīḥ—prospective; vāk—fine speech; cha—and; nārīṇām—amongst feminine qualities; smṛitiḥ—memory; medhā—intelligence; dhṛitiḥ—courage; kṣhamā—forgiveness
I am also death, which snatches away all. I am the origin of all that will be born. Among women, I am fame, prosperity, speech, memory, intelligence, endurance, and forgiveness.
And I am Death, the destroyer of all; and the bestower of prosperity to those destined to be prosperous. Of the feminine [Narinam may mean 'of the feminine qualities'. According to Sridhara Swami and S., the words fame etc. signify the goddesses of the respective qualities. According to M.S. these seven goddesses are the wives of the god Dharma.-Tr.] (I am) fame, beauty, speech, memory, intelligence, fortitude, and forbearance.
And I am the all-devouring Death, and the source of prosperity for those who are to be prosperous; among the feminine qualities, I am fame, prosperity, speech, memory, intelligence, firmness, and forgiveness.
I am the Death that carries away all and also the Birth of all that are to be born; of the wives of men, I am Fame, Fortune, Speech, Memory, Wisdom, Constancy, and Patience.
I am all-devouring Death; I am the Origin of all that will happen; I am Fame, Fortune, Speech, Memory, Intellect, Constancy, and Forgiveness.
।।10.34।। सबका हरण करनेवाली मृत्यु और उत्पन्न होनेवालोंका उभ्दव मैं हूँ तथा स्त्री-जातिमें कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ।
।।10.34।। मैं सर्वभक्षक मृत्यु और भविष्य में होने वालों की उत्पत्ति का कारण हूँ; स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक (वाणी), स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ।।
10.34 मृत्युः death? सर्वहरः alldevouring? च and? अहम् I? उद्भवः the prosperity? च and? भविष्यताम् of those who are to be prosperous? कीर्तिः frame? श्रीः prosperity? वाक् speech? च and? नारीणाम् of the feminine? स्मृतिः the memory? मेधा intelligence? धृतिः firmness? क्षमा forgiveness.Commentary I am also the allsnatching death that destroys everything. Death is of two kinds? viz.? he who seizes wealth and he who seizes life. Of them he who seizes life is the allseizer and,hence he is called Sarvaharah. I am he.Or? there is another interpretation. I am the Supreme Lord Who is the allseizer? because I destroy everything at the time of the cosmic dissolution.I am the origin of all the beings to be born in the future. I am the prosperity and the means of achieving it of those who are fit to attain it.Beauty is Sri. Lustre is Sri. I am fame? the best of the feminine alities. People who have attained slight fame think that they have achieved great success in life and that they have become very big or great men. I am speech which adorns the throne of justice. I am memory which recalls objects and pleasures of the past.The power of the mind which enables one to hold the teachings of the scriptures is Medha. Firmness or Dhriti is the power to keep the body and the senses steady even amidst various kinds of sufferings. The power to keep oneself unattached even while doing actions is Dhriti. It also means courage. Kshama also means endurance.Fame? prosperity? memory? intelligence and firmness are the daughters of Daksha. They had been given in marriage to Dhrama and so they are all called Dharmapatnis.
।।10.34।। व्याख्या--'मृत्युः सर्वहरश्चाहम्'--मृत्युमें हरण करनेकी ऐसी विलक्षण सामर्थ्य है कि मृत्युके बाद यहाँकी स्मृतितक नहीं रहती, सब कुछ अपहृत हो जाता है। वास्तवमें यह सामर्थ्य मृत्युकी नहीं है, प्रत्युत परमात्माकी है।अगर सम्पूर्णका हरण करनेकी, विस्मृत करनेकी भगवत्प्रदत्त सामर्थ्य मृत्युमें न होती तो अपनेपनके सम्बन्धको लेकर जैसी चिन्ता इस जन्ममें मनुष्यको होती है, वैसी ही चिन्ता पिछले जन्मके सम्बन्धको लेकर भी होती। मनुष्य न जाने कितने जन्म ले चुका है। अगर उन जन्मोंकी याद रहती तो मनुष्यकी चिन्ताओंका, उसके मोहका कभी अन्त आता ही नहीं। परन्तु मृत्युके द्वारा विस्मृति होनेसे पूर्वजन्मोंके कुटुम्ब, सम्पत्ति आदिकी चिन्ता नहीं होती। इस तरह मृत्युमें जो चिन्ता, मोह मिटानेकी सामर्थ्य है, वह सब भगवान्की है।
।।10.34।। मैं सर्वभक्षक मृत्यु हूँ समानता की समर्थक मृत्यु? शासक के राजदण्ड और मुकुट को भी भिक्षु के भिक्षापात्र और दण्ड के स्तर तक ले आती है। प्रत्येक प्राणी केवल अपने जीवन काल में अनेक वस्तुओं और व्यक्तियों के संबंधों के द्वारा अपना एक भिन्न अस्तित्व बनाये रखता है। मृत्यु के पश्चात् विद्वान और मूढ़? पुण्यात्मा और पापात्मा? बलवान और दुर्बल? शासक और शासित ये सब धूलि में मिल जाते हैं? एक समानरूप बन जाते हैं जिनमें किसी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता।भविष्य में होने वालों का मैं उत्पत्ति कारण हूँ परमात्मा केवल सर्वभक्षक ही नहीं? सृष्टिकर्ता भी है। हम देख चुके हैं कि वस्तुत एक अवस्था के नाश के बिना अन्य अवस्था का जन्म नहीं हो सकता है। किसी पक्ष को ही देखना माने जीवन का एकांगी दर्शन करना ही हैं। वस्तु के नाश से शून्यता नहीं शेष रहती? वरन् अन्य वस्तु की उत्पत्ति होती है। समुद्र में उठती लहरों को अलगअलग देंखे ंतो सदा नाश ही होता दिखाई देगा? परन्तु एक के लय के साथ ही समुद्र में कितनी ही लहरें उत्पन्न होती रहती हैं? जिसका हमे ध्यान भी नहीं रहता है।इस सम्पूर्ण विवेचन का बल इसी पर है कि अनन्त परमात्मा अपने में ही रचना और संहार की क्रीड़ा निरन्तर कर रहा है जिस क्रीड़ा को हम विश्व कहते हैं।मैं स्त्रियों में कीर्ति? श्री? वाक्? स्मृति? मेधा? धृति और क्षमा हूँ ये सात देवताओं की स्त्रियां और स्त्रीवाचक नाम गुण के रूप में भी प्रसिद्ध हंै? इसलिए दोनों प्रकार से ही ये भगवान् की विभूतियां है? दार्शनिक दृष्टिकोण से इस कथन का अर्थ सब आलोचनाओं के परे है। यहाँ यह नहीं कहा गया है कि इन गुणों से सम्पन्न पुरुष दिव्य है। तात्पर्य यह है कि जिस किसी पुरुष में जिसका भूतकाल का जीवन कैसा भी हो जब कभी इनमें से किसी गुण के दर्शन होते हैं? तब हम उसके माध्यम से ईश्वर की विभूति के स्पष्ट दर्शन कर सकते हैं। गुण के प्रत्यारोपण की भाषा में भगवान् कहते हैं? स्त्रियों में मैं कीर्ति? श्री आदि गुण हूँ।अपने परिचय को और अधिक स्पष्ट करने के लिए अगले श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण चार और दृष्टान्त देते हैं
।।10.34।।सर्वहरशब्दस्य मुख्यमर्थान्तरमाह -- अथवेति। भाविकल्याणानामित्युक्तमेव स्पष्टयति -- उत्कर्षेति। कीर्तिर्धार्मिकत्वनिमित्ता ख्यातिः। श्रीर्लक्ष्मीः? कान्तिः शोभा? वाग्वाणी सर्वस्य प्रकाशिका? स्मृतिश्चिरानुभूतस्मरणशक्तिः? मेधा ग्रन्थधारणशक्तिः? धृतिर्धैर्यम्? क्षमा मानापमानयोरविकृतचित्तता। स्त्रीषु कीर्त्यादीनामुत्तमत्वमुपपादयति -- यासामिति।
।।10.34।।मृत्युः सर्वहरः प्राणहरस्तस्य सर्वहरत्वात्। धनादिहरस्तु न सर्वहरः। यद्वा प्रलयकाले सर्वहरः। यद्वा प्रलयकाले,सर्वहरः परमेश्वरुपो मृत्युहरम्। भविष्यतां भाविकल्याणानामुत्कर्षप्राप्तियोग्यानां मध्ये उत्कर्षाभ्युदयप्राप्तिहेतुरहम्। नारीणां कीर्त्यादयो नार्योऽहं यामामाभासमात्रेणापि लोकः कृतार्थमात्मानं मन्यते।
।।10.34।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
।।10.34।।सर्वहरः प्रलयकालिको मृत्युरस्मि। भविष्यतां भाविकल्याणानामुद्भव ऐश्वर्योत्कर्षोऽहम्। कीर्त्यादिसप्तकमप्यहं यासां संश्रयमात्रेण मनुष्येषु कृतार्थताबुद्धिर्भवति।
।।10.34।।सर्वप्राणहरः मृत्युः च अहम् उत्पत्स्यमानानाम् उद्भवाख्यं कर्म च अहम्? नारीणां श्रीः अहं कीर्तिः च अहं वाक् च अहं स्मृतिः च अहं मेधा च अहं धृतिः च अहं क्षमा च अहम्।
।।10.34।। मृत्युरिति। संहारकारिणां मध्ये सर्वहरो मृत्युरहम्। भविष्यतां भाविकल्याणानां प्राणिनामुद्भवोऽभ्युदयोऽहम्। नारीणां स्त्रीणां मध्ये कीर्त्याद्याः सप्त देवतारूपाः स्त्रियोऽहम्। यासामाभासमात्रयोगेन प्राणिनः श्लाघ्या भवन्ति ताः कीर्त्याद्याः स्त्रियो मद्विभूतयः।
।।10.34।।कर्मानुरूपदण्डकालावच्छेदाधिकृतयोर्यमकालाख्यपुरुषयोरुक्तत्वाद्यमादेशकारिप्राणहरणाधिकृतपुरुषविशेष इहमृत्युः सर्वहरः इत्युच्यत इति ज्ञापनायसर्वप्राणहर इत्युक्तम्।प्रलये सर्वसंहर्तेश्वर इह मृत्युः इति कैश्चिदुक्तं मन्दम्?भूतानामन्त एव च [10।20] इत्युक्तत्वात्। उद्भवसहपाठादत्र मृत्युशब्दो मरणपर इति केचित्। उद्भवशब्दः स्वरसत उत्पत्तिक्रियापरः। उद्भवस्थानादि निमित्तोपादानादिकं चात्र पृथगेव निर्दिष्टमिति क्रियापरत्वमेवोचितमित्यभिप्रायेणउद्भवाख्यं कर्मेत्युक्तम्। कीर्त्यादयो नेह गुणविशेषा विवक्षिताः तेषां पुरुषेष्वपि च उद्भूतत्वेननारीणाम् इति विशेषणायोगात्। न च नारीशब्दोऽत्र स्त्रीलिङ्गपदार्थमात्रपरः? मुख्यबाधाभावात्। अतो नारीविशेषनिर्धारणमेव क्रियते। तत्र च श्रिय एव सर्वनारीभ्योऽतिशयितत्वात्सैव प्रथमं वक्तव्याकीर्तिः श्रीः इति तु पाठक्रमोऽर्थक्रमेण बाध्यत इत्यभिप्रायेणश्रीरहं कीर्तिश्चाहमित्युक्तम्। एताश्च भगवदसाधारणशक्तयः। अन्यत्र तु तत्तदभिमानविशेषात्तत्तच्छब्दः।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.34।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।10.34।।संहारकारिणां मध्ये सर्वहरः सर्वसंहारकारी मृत्युरहम्। भविष्यतां भाविकल्याणानां य उद्भव उत्कर्षः स चाहमेव। नारीणां मध्ये कीर्तिः श्रीर्वाक् स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमेति च सप्त धर्मपत्न्योऽहमेव। तत्र कीर्तिर्धार्मिकत्वनिमित्ता प्रशस्तत्वेन नानादिग्देशीयलोकज्ञानविषयतारूपा ख्यातिः। श्रीर्धर्मार्थकामसंपत् शरीरशोभा वा कान्तिर्वा। वाक् सरस्वती सर्वस्यार्थस्य प्रकाशिका संस्कृता वाणी। चकारान्मूर्त्यादयोऽपि धर्मपत्न्यो गृह्यन्ते। स्मृतिश्चिरानुभूतार्थस्मरणशक्तिः। अनेकग्रन्थार्थधारणाशक्तिर्मेधा। धृतिरवसादेऽपि शरीरेन्द्रियसंघातोत्तम्भनशक्तिः। उच्छृङ्खलप्रवृत्तिकारणेन चापलप्राप्तौ तन्निवर्तनशक्तिर्वा। क्षमा हर्षविषादयोरविकृतचित्तता। यासामाभासमात्रसंबन्धेनापि जनः सर्वलोकादरणीयो भवति तासां,सर्वस्त्रीषूत्तमत्वमिति प्रसिद्धमेव।
।।10.34।।मृत्युरिति। संहारिणां मध्ये सर्वसंहारकोऽहम्। च पुनः मृत्युरपि। भविष्यतां निखिलानां प्राणिनां पदार्थानां उद्भवोऽभ्युदयः भाग्यरूपोऽहम्।कीर्तिरिति। कीर्तिः धर्मस्य स्त्री? श्रीः लक्ष्मीः? वाक् सरस्वती श्रीभागवतादिरूपा? स्मृतिर्भगवत्स्मरणात्मिका? मेधा बुद्धिः भगवद्गुणैकनिष्ठा? धृतिः आपत्सु धर्मैकनिष्ठता? क्षमा सर्वातिक्रमसहनरूपा? नारीणां मध्ये एता मद्विभूतिरूपाः।
।।10.34।। --,मृत्युः द्विविधः धनादिहरः प्राणहरश्च तत्र यः प्राणहरः? स सर्वहरः उच्यते सः अहम् इत्यर्थः। अथवा? परः ईश्वरः प्रलये सर्वहरणात् सर्वहरः? सः अहम्। उद्भवः उत्कर्षः अभ्युदयः तत्प्राप्तिहेतुश्च अहम्। केषाम् भविष्यतां भाविकल्याणानाम्? उत्कर्षप्राप्तियोग्यानाम् इत्यर्थः। कीर्तिः श्रीः वाक् च नारीणां स्मृतिः मेधा धृतिः क्षमा इत्येताः उत्तमाः स्त्रीणाम् अहम् अस्मि? यासाम् आभासमात्रसंबन्धेनापि लोकः कृतार्थमात्मानं मन्यते।।
।।10.34।।मृत्युरिति स्पष्टम्। भगवदीयविरोधिजनान् सर्वान् संहरति तथाभूतो मृत्युर्मद्विभूतिः। एवमुद्भवोऽपि। नारीणां मध्ये कीर्त्यादयः सप्ताहम्। अथवा कीर्त्तिर्वृषभानुपत्नी मद्विभूतिः। तत्र श्रीश्चाहम्। वाक्सरस्वतीयमवताररूपा चाहं श्रीपरिचारिका वा निर्दिष्टा।
Chapter 10, Verse 34