Chapter 10, Verse 13

Text

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा। असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।10.13।।

Transliteration

āhus tvām ṛiṣhayaḥ sarve devarṣhir nāradas tathā asito devalo vyāsaḥ svayaṁ chaiva bravīṣhi me

Word Meanings

āhuḥ—(they) declare; tvām—you; ṛiṣhayaḥ—sages; sarve—all; deva-ṛiṣhiḥ-nāradaḥ—devarṣhi Narad; tathā—also; asitaḥ—Asit; devalaḥ—Deval; vyāsaḥ—Vyās; svayam—personally; cha—and; eva—even; bravīṣhī—you are declaring; me—to me


Translations

In English by Swami Adidevananda

Arjuna said, "You are the Supreme Brahman, the Supreme Light, and the Supreme Sanctifier. All the seers proclaim You as the eternal, divine Person, the Primal Lord, the unborn, and all-pervading. So too do the divine sages Narada, Asita, Devala, and Vyasa proclaim. You Yourself also proclaim this."

In English by Swami Gambirananda

Arjuna said, "You are the supreme Brahman, the supreme Light, the supreme Sanctifier. All the sages, as well as the divine sage Narada, Asita, Devala, and Vyasa [Although Narada and the other sages are already mentioned by the words 'all the sages', they are still named separately due to their eminence. Asita is the father of Devala.] call You the eternal divine Person, the Primal God, the Birthless, the Omnipresent; and You Yourself indeed tell me this."

In English by Swami Sivananda

All the sages have thus declared Thee, as also the divine sage Narada; so also Asita, Devala, and Vyasa; and now Thou Thyself dost say so to me.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Arjuna said, "You are the Supreme Brahman, the Supreme Abode, and the Supreme Purifier. All the seers, as well as the divine seer Narada, Asita Devala, and Vyasa, describe You as the Eternal Divine Soul, the Unborn, and the All-Manifesting First-God. You too have said this to me."

In English by Shri Purohit Swami

So have said the seers, the divine sage Narada, Asita, Devala, and Vyasa; and Thou Thyself also sayest it.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।10.12 -- 10.13।। अर्जुन बोले -- परम ब्रह्म, परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं -- ऐसा सब-के-सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।10.13।। ऐसा आपको समस्त ऋषिजन कहते हैं;  वैसे ही देवर्षि नारद, असित, देवल ऋषि तथा व्यास और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

10.13 आहुः (they) declared? त्वाम् Thee? ऋषयः the Rishis? सर्वे all? देवर्षिः Devarshi? नारदः Narada? तथा also? असितः Asita? देवलः Devala? व्यासः Vyasa? स्वयम् Thyself? च and? एव even? ब्रवीषि (Thou) sayest? मे to me.Commentary Rishi is a holy sage of disciplined mind and senses.Devarshi A divine sage more highly evolved than a Rishi.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।10.13।। व्याख्या --'परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्'-- अपने सामने बैठे हुए भगवान्की स्तुति करते हुए अर्जुन कहते हैं कि मेरे पूछनेपर जिसको आपने परम ब्रह्म (गीता 8। 3) कहा है, वह परम ब्रह्म आप ही हैं। जिसमें सब संसार स्थित रहता है, वह परम धाम अर्थात् परम स्थान आप ही हैं (गीता 9। 18)। जिसको पवित्रोंमें भी पवित्र कहते हैं -- 'पवित्राणां पवित्रं यः' वह महान् पवित्र भी आप ही हैं। 'पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं ৷৷. स्वयं चैव ब्रवीषि मे'-- ग्रन्थोंमें ऋषियोंने, (टिप्पणी प0 549.1) देवर्षि नारदने (टिप्पणी प0 549.2), असित और उनके पुत्र देवल ऋषिने (टिप्पणी प0 549.3) तथा महर्षि व्यासजीने (टिप्पणी प0 549.4) आपको शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु कहा है।आत्माके रूपमें 'शाश्वत' (गीता 2। 20), सगुण-निराकारके रूपमें 'दिव्य पुरुष' (गीता 8। 10), देवताओँ और महर्षियों आदिके रूपमें 'आदिदेव' (गीता 10। 2), मूढ़लोग मेरेको अज नहीं जानते (गीता 7। 25) तथा असम्मूढ़लोग मेरेको अज जानते हैं (गीता 10। 3 ) -- इस रूपमें 'अज' और मैं अव्यक्तरूपसे सारे संसारमें व्यापक हूँ (गीता 9। 4) -- इस रूपमें 'विभु' स्वयं आपने मेरे प्रति कहा है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।10.13।। अर्जुन वैदिक साहित्य से परिचित था। वह यहाँ कहता है कि प्राचीन ऋषियों ने अनन्त सनातन सत्य को जिन शब्दों के द्वारा सूचित किया है? उससे वह परिचित है? जैसे परं ब्रह्म? परं धाम? परम पवित्र आदि। परन्तु उसने अब तक यही समझा था कि ये सब परम सत्य के गुण हैं। इसलिए? जब वह भगवान् को इन्हीं शब्दों का प्रयोग स्वयं के लिए करते हुए सुनता है? तब वह कुन्तीपुत्र आश्चर्यचकित रह जाता है। उसे समझ में नहीं आता कि वह अपने रथसारथि श्रीकृष्ण को विश्व के आदिकारण के रूप में किस प्रकार जानेव्यावहारिक बुद्धि का व्यक्ति होने के नाते अर्जुन को श्रीकृष्ण के स्वरूप को समझने के लिए अधिक तथ्यों की जानकारी की आवश्यकता थी। हम देखेंगे कि उसकी मांग को पूर्ण करने हेतु इसी अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने पर्याप्त सूचनाएं और तथ्य प्रस्तुत किये हैं। परन्तु? अर्जुन को सन्तुष्ट करने के स्थान पर वह जानकारी उसकी उत्सुकता को द्विगुणित कर देती है? और वह बाध्य होकर भगवान् से उनके विश्वरूप को दिखाने की मांग प्रस्तुत करता है भक्तवत्सल करुणासागर भगवान् श्रीकृष्ण अगले अध्याय में अपने विश्वरूप को दर्शाकर अर्जुन को कृतार्थ कर देते हैं।यद्यपि अर्जुन ने इसके पूर्व भी परम पुरुष आदि शब्दों को ऋषियों से सुना था? किन्तु उसे वे अर्थहीन और निष्प्रयोजन ही प्रतीत हुए थे। उसका आश्चर्य इन शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है कि? आप भी मेरे प्रति ऐसा ही कहते हैं। यहाँ उनके कुछ आश्चर्यचकित एवं भ्रमित होने का अवसर इसलिए था कि वह समझ नहीं पाया कि उसके समकालीन श्रीकृष्ण जो उसके समक्ष खड़े थे? जिन्हें वह कई वर्षों से जानता था और जो उसके सम्बन्धी भी थे किस प्रकार अनन्त? परम? जन्मरहित और सर्वव्यापी हो सकते हैं।अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण को अपने चर्म चक्षुओं से देखता है और इसलिए उसे उनका केवल शरीर ही दिखाई देता है। सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण स्वयं को आत्मस्वरूप में ही प्रकट करते हैं? और न कि समाज के एक सदस्य के रूप में। गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण परमात्मा हैं? वसुदेव के पुत्र या गोपियों के प्रियतम नहीं। श्रीकृष्ण को सदैव मित्र या प्रेमी अथवा एक विश्वसनीय बुद्धिमान्? कूटनीतिज्ञ के रूप में देखते रहने से अर्जुन आत्मस्वरूप श्रीकृष्ण को पहचान नहीं पाया। यही उसके आश्चर्य और भ्रम का कारण था।अगला श्लोक अर्जुन में स्थित एक जिज्ञासु साधक के भाव को स्पष्ट करता है --

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।10.13।।उक्तविशेषणं त्वामृषयः सर्वे यस्मादाहुस्तस्मात्तद्वचनात्तवोक्तं ब्रह्मत्वं युक्तमित्याह -- ईदृशमिति। ऋषिग्रहणेन गृहीतानामपि नारदादीनां विशिष्टत्वात्पृथग्ग्रहणम्। असितो देवलस्य पिता। किमन्यैस्त्वं स्वयमेवात्मानमुक्तरूपं मह्यमुक्तवानित्याह -- स्वयं चेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।10.13।।ईदृशं त्वामेव ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः सर्व आहुः। नारदादीनां श्रेष्ठ्यद्योतनार्थं पृथग्ग्रहणम्। किमन्यैरिति सूचयन्नाह -- स्वयं चैव ब्रवीषीति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्म परिपूर्णम्। अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म ৷৷. बृहद्बृहत्या बृंहयति [अ.शिर.4] इति च श्रुतिः। बृह बृहि वृद्धाविति पठन्ति।परमं यो महद्ब्रह्म [म.भा.13।149।9] इति च। विविधमासीदिति विभुः। तथा हि वारुणशाखायाम् -- विभु प्रभु प्रथमं मेहनावतः [ऋक्सं.2।7।2।5] इति स ह्येव प्रभावाद्विविधोऽभवत् इति। सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय [तै.उ.2।6] इत्यादेश्च।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।10.12 -- 10.13।।एवं एतां विभूतिं योगं चेत्यादिना विभूतिज्ञानस्य फलोदर्कं श्रुत्वा तत्प्राप्त्युत्सुकः प्रथमं स्तुत्या भगवन्तमावर्जयन्नर्जुन उवाच -- परमिति। परं ब्रह्म नत्वपरमुपास्यम्।तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते इति श्रुतेः। परं धाम ज्योतिः नत्वपरं वृत्तिरूपं ज्ञानम्। एतस्यह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव इति श्रुतेर्वृत्तिरूपत्वात्। परमं पवित्रं न तु तीर्थादिवदपरमं भवान्। तत्र मानमाह -- पुरुषमिति सार्धेन। पुरुषं देहान्तरस्थम्। शाश्वतं नित्यं। दिव्यं दिवि हार्दाकाशे आविर्भूतम्। आदिदेवं सूत्रात्मनोऽप्याद्यम्। अतएव अजं विभुं व्यापकम्। त्वां ऋषय आहुरिति संबन्धः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।10.13।।अर्जुन उवाच -- परं ब्रह्म परं धाम परमं पवित्रम् इति यं श्रुतयो वदन्ति स हि भवान्।यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते? येन जातानि जीवन्ति? यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति? तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्मेति (तै0 उ0 3।1)ब्रह्मविदाप्नोति परम् (तै0 उ0 2।1)स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति (मु0 उ0 3।2।9) इति।तथा परं धाम धामशब्दो ज्योतिर्वचनः परं ज्योतिःअथ यदतः परो दिव्यो ज्योतिर्दीप्यते (छा0 उ0 3।13।7)परं ज्योतिरूपसंपद्यस्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते (छा0 उ0 8।12।2)तद् देवा ज्योतिषां ज्योतिः (बृ0 उ0 4।4।16) इति।तथा च परमं पवित्रं परमं पावनं स्मर्तुःअशेषकल्मषाश्लेषकरं विनाशकरं च।यथा पुष्करपलाश आपो न श्िलष्यन्त एवमेवंविदि पापं कर्म न श्िलष्यते (छा0 उ0 4।14।3)तद्यथेषीकातूलमग्नौ प्रोतं प्रदूयेतैव्ँहास्य सर्वे पाप्मानः प्रदूयन्ते (छा0 उ0 5।24।3)।नारायणः परं ब्रह्म तत्त्वं नारायणः परः। नारायणः परं ज्योतिरात्मा नारायणः परः।। (महाभा0 9।4) इति हि श्रुतयो वदन्ति।ऋषयः च सर्वे परावरतत्त्वयाथात्म्यविदः त्वाम् एव शाश्वतं दिव्यं पुरुषम् आदिदेवम् अजं विभुम् आहुः। तथा एव देवर्षिः नारदः असितो देवलो व्यासः च।एष नारायणः श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः। नागपर्यङ्कमुत्सृज्य ह्यागतो मथुरां पुरीम्।।पुण्या द्वारवती तत्र यत्रास्ते मधुसूदनः। साक्षाद्देवः पुराणोऽसौ स हि धर्मः सनातनः।।ये च वेदविदो विप्रा चे चाध्यात्मविदो जनाः। ते वदन्ति महात्मानं कृष्णं धर्मं सनातनम्।।पवित्राणां हि गोविन्दः पवित्रं परमुच्यते। पुण्यानामपि पुण्योऽसौ मङ्गलानां च मङ्गलम्।।त्रैलोक्ये पुण्डरीकाक्षो देवदेवः सनातनः। आस्ते हरिरचिन्त्यात्मा तत्रैव मधुसूदनः।। (महा0 वन0 88।2428) तथायत्र नारायणो देवः परमात्मा सनातनः। तत्र कृत्स्नं जगत्पार्थ तीर्थान्यायतनानि च।।तत्पुण्यं तत्परं ब्रह्म तत्तीर्थं तत्तपोवनम्। ৷৷. तत्र देवर्षयः सिद्धाः सर्वे चैव तपोधनाः।।आदिदेवो महायोगी यत्रास्ते मधुसूदनः। पुण्यानामपि तत्पुण्यं माभूत्ते संशयोऽत्र वै।। (महा0 वन0 90।2832)कृष्ण एव हि लोकानामुत्पत्तिरपि चाप्ययः। कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम्।। (महा0 सभा0 38।23) इति।तथा स्वयम् एव ब्रवीषि चभूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (गीता 7।4) इत्यादिना?अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते (गीता 10।8) इत्यन्तेन।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।10.13।।के त इत्यत आह -- आहुरिति। ऋषयः भृग्वादयः सर्वे देवर्षिर्नारदः असितश्च देवलश्च व्यासश्च स्वयं त्वमेव साक्षान्मे मह्यं ब्रवीषि।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 10.13 परं ब्रह्म इत्यादेःअमृतम् [श्रुतिप्रदर्शनार्थं विषयमुपादाय शोधयति -- तथेत्यादिना। सामानाधिकरण्यप्रयोगाद्वस्त्वन्तरसामानाधिकरण्यसहपाठाभावाद्भगवतस्तत्तच्छ्रुतिप्रतिपादितपरत्वप्रकारव्यञ्जने तात्पर्याच्च अत्र धामशब्दस्य स्थानादिपरत्वमयुक्तमित्यभिप्रायेणाह -- धामशब्दो ज्योतिर्वचन इति।विष्णुसंज्ञं सर्वाधारं धाम इत्यादि धामशब्दप्रयोगेऽपिपरं धाम इति विशेषणादर्शनात्पर्यायान्वयमुखेन तत्प्रदर्शयतिपरं ज्योतिरिति।अथ यदतः इत्यादिवाक्येनाप्राकृतलोकादिविशिष्टत्वंपादोऽस्य सर्वा भूतानि [छां.उ.3।12।6] इत्यादिव्यपदेशवशसिद्धपुरुषसूक्तप्रकरणैकार्थ्याच्च समीहितमखिलं सिद्धम्परं ज्योतिरुपसम्पद्य इति वाक्येन मुक्तप्राप्यत्वादिकम्?परं ज्योतिः इति विशिष्टप्रयोगश्च सिद्धः। तं (तत्) देवा ज्योतिषां ज्योतिः [बृ.उ.4।4।16] इत्यादिना देवोपास्यत्वमुखेन ज्योतिषां ज्योतिष्ट्वेन च परत्वमर्थलब्धम्। भगवदसाधारणं परमशब्दविशेषितं पावनत्वं दर्शयितुं पवित्रशब्दस्यात्र संज्ञात्वव्युदासायाहपरमं पावनमिति।विनाशकरमित्यत्र कल्मषशब्दो बुद्ध्या निष्कृष्यानुसन्धेयः। प्रदूयन्ते? नश्यन्तीत्यर्थः। सूत्रं च -- तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात् [ब्र.सू.4।1।13] इति। तत्त्वनिर्णयैकतत्परनारायणानुवाकवाक्येनापि परब्रह्मत्वादिकंभवान् इति निर्दिष्टदेवताविशेषस्यैव संवादयतिनारायणेति। अनयोर्वाक्ययोः प्रथमौ नारायणशब्दौ लुप्तविभक्तिकौ?तत्त्वं नारायणः परः इत्यादिसहपाठवशाद्व्यस्तत्वं प्रथमान्तत्वं च प्राप्तम्। तथैव सविभक्तिकतया श्रुत्यन्तरेऽधीयतेनारायणः परं ब्रह्म इत्यादि। एतेन पञ्चमीसमासतां वदन् भगवद्द्वेषी प्रत्युक्तः? सर्वश्रुतिस्मृतिसूत्रन्यायविरोधाच्च।इति हि श्रुतयोवदन्तीत्यत्रयतो वा इमानि इत्यादिकमखिलमन्वेतव्यम् मध्ये तत्तदर्थवैशद्यायावान्तरवाक्यम्।एवं श्रुतिसिद्धोऽर्थः स्मृतीतिहासपुराणायमानमहर्षिवचनाच्छ्रुतिवदन्यानपेक्षसर्वज्ञवचनाच्च सिद्ध इत्याह -- पुरुषम् इति सार्धेन। सर्वशब्देनाविगीतत्वं विवक्षितम्।परावरतत्त्वयाथात्म्यविद इति ऋषिशब्दाभिप्रेतोक्तिः। तेनाप्ततमत्वमुक्तं भवति।त्वाम् इत्येतद्ब्रह्मरुद्रादिविशेषान्तरव्युदासार्थमित्यभिप्रायेण -- त्वामेवेत्युक्तम्। यद्वा अवतीर्णं त्वामेवेत्यर्थः।शाश्वतं नित्यम्?दिव्यं परमव्योमनिलयम्?पुरुषं परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते [प्रश्नो.5।5] इत्यादिप्रतिपादितम्।शाश्वतं दिव्यं पुरुषम् इति व्युत्क्रमोपादानं दिवि वर्तमानस्य पुरुषस्य पुरुषसूक्तोदितामृतत्रिपाद्विभूतिविशिष्टवेषेण शाश्वतत्वमिह विवक्षितमिति व्यञ्जनार्थम्। आदिश्चासौ देवश्चेत्यादिदेवः जगत्कारणभूतः क्रीडारूपजगत्कारणव्यापारच्चेत्यर्थः। स्मरन्ति च -- क्रीडतो बालकस्येव [वि.पु.1।2।18]क्रीडा हरेरिदं सर्वंबालः क्रीडनकैरिव [म.भा.2।97।31] इति। सूत्रितं चलोकवत्तु लीलाकैवल्यम् [ब्र.सू.2।1।33] इति। एतेन ब्रह्मादीनामपि देवजात्यनुप्रविष्टानां परमपुरुषलीलोपकरणत्वं कार्यत्वं चोक्तं भवति। नारायणाद्ब्रह्मा जायते नारायणाद्रुद्रो जायते [ना.उ.1] एको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानः [महो.1।1] तस्माच्च देवा बहुधा सम्प्रसूताः साध्या मनुष्याः पशवो वयांसि [मुं.उ.2।1।7]एतौ द्वौ विबुधश्रेष्ठौ प्रसादक्रोध -- (जावुभौ) जौ स्मृतौ [म.भा.12।341।19]आवां तवाङ्गे सम्भृतौ [ह.वं.] इत्याद्याः। कारणवाक्यार्थ उक्तः? शोधकवाक्यार्थमुपलक्षयति -- अजमिति। कर्मकृतजन्मादिरहितमित्यर्थः। स्वरूपापेक्षया वा निर्विकारत्वमुच्यते। विभुम् आकाशवत्सर्व(गतं सुसूक्ष्मं)गतश्च नित्यः [शां.उ.2।1] इति प्रक्रियया व्याप्तं नियन्तारमिति वा। एतेन कारणत्वाद्यनुगुणव्याप्तिनियमनादिकमन्तर्यामिब्राह्मणादिसिद्धं स्मारितम्। एतैः पदैः एष सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः [सुबालो.7] इति श्रुतिः सूचिता। सर्व इति सामान्यतः सङ्ग्रहेऽप्याप्ततमत्वविवक्षया नारदादेः पृथगभिधानम्। देवर्षिशब्देन जात्यापि सत्त्वोत्तरत्वं प्रकाश्यते। तत्राप्यसौदेवर्षीणां च नारदः [10।26] इति प्रकृष्टः। असितः? देवलश्च तस्य पिता। व्यासश्चात्र भगवान् पाराशर्यः।आहुस्त्वामृषयः सर्वे इत्यादिकं संवादयति -- ये चेति। वेदविदः कर्मभागवेदिनः? अध्यात्मविदः वेदान्तार्थवेदिनः। कृष्णं महात्मानं सनातनं धर्मं वदन्तीत्यन्वयः। महात्मशब्देन सर्वातिशायि परमैश्वर्यादिकं विवक्षितम् महानात्मेति परमात्मत्वं वा? स वा एष महानज आत्मा [बृ.उ.4।4।22] इत्यादेः। यागदानादयो हि देशकालादिपरिमितफलदायिनः? स्वयं चानित्याः अयं तु नित्यनिरतिशयफलदायी? नित्यश्चेति सनातनशब्देन धर्मस्य विशेषणम्। पवित्रशब्दोऽत्र पापनिबर्हणपरः। पुण्यशब्दोऽभिमतफलविशेषसाधनपरः। मङ्गलशब्दश्च स्वसन्निधिमात्रेणातिसमृद्धिहेतुभूतकल्याणवस्तुपरः।त्रैलोक्यं पुण्डरीकाक्षः इति कार्यकरणभावेन शरीरात्मभावेन वा सामानाधिकरण्यम्। त्रयो लोकास्त्रैलोक्यम् -- बद्धमुक्तनित्या इत्यर्थः। यद्वोपलक्षणतया भूम्यन्तरिक्षादिकमुच्यते। पुण्डरीकाक्षशब्देन अन्तरादित्यविद्याप्रतिपादितविलक्षणविग्रहत्वं दर्शितम्।तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी [छां.उ.1।6।7] इत्यस्य च वाक्यस्य द्रविडभाष्योदितेषु षट्स्वर्थेषु सिद्धान्तत्वेन भाष्यकारपरिगृहीतास्त्रयोऽर्थाः। तथाहि वेदार्थसङ्ग्रहे दर्शितं -- गम्भीराम्भस्समुद्भूतसुमृष्टनालरविकरविकसितपुण्डरीकदलामलायतेक्षणः इति। इदं च वरदगुरुभिस्तत्त्वसारे दर्शितं प्रपञ्चितं च। नारायणशब्देन परतत्त्वनिर्णयैकपरनारायणानुवाकसूचनम्।श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः इत्याभ्यां ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ [यजुषि.आ.3।13।3] अम्भस्यपारे [म.ना.1।1] यमन्तस्समुद्रे [म.ना.1।3] इत्यादिकं स्मारितम्।उत्सृज्यागतः इत्यवतारमात्रत्वं विवक्षितम्। कृष्णावतारदशायामपि क्षीरार्णवगतनागपर्यङ्कशायिविग्रहस्य तत्रैव स्थितत्वात्।साक्षादिति -- न त्वौपचारिकः आत्मान्तरव्यवहितो वेत्यर्थः।तथेति -- प्रकरणान्तरत्वव्यत्यर्थम्।देवर्षिर्नारदस्तथा इति व्याख्येयविभागावगमात्तत्तदुक्तवाक्योपादानमपि तथाविभागेन कुर्मह इति च दर्शितम्।तत्र कृत्स्नम् इत्यादि नारायणस्यैव सर्वाश्रयत्वात्सर्वप्रकारातिशययोगित्वाद्वा।तत्पुण्यम् इत्यादिकं ब्रह्मशब्दानुरोधेन नारायणविषयं वा? प्रकरणविशेषेण तदाश्रितस्थानप्रशंसनं वा।स्वयमेवेति -- स्वतःसर्वज्ञो ब्रह्मादीनामपि गुरुस्त्वमेवेत्यर्थः।भूमिरापः [7।4] इत्यादिषु सर्वशेषित्वं सर्वकारणत्वं सर्वशरीरित्वमित्यादिकमुक्तम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।10.13।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्मविभुशब्दावैकार्थ्यपरिहाराय क्रमेण सप्रमाणकं व्याचष्टे -- ब्रह्मेति। परं वस्तु ब्रह्मेति कस्मादुच्यते बृहतिं पूर्णं भवति बृंहयति पूरयति चान्यान्। बृहतेर्मन्प्रत्ययोऽमागमश्च। ईश्वरो ब्रह्मणोऽन्यः स कथं परं ब्रह्मेत्युच्यते इत्यत उक्तम् -- परममिति। विविधमनेकरूपत्वेनाभवत्। मेहनावतः सेचकस्य भगवतः प्रथमं रूपं विभु प्रभु चेत्येतदनूद्य व्याख्यायते। प्राभवत्समर्थोऽभवदिति प्रभुः विविधोऽभवदिति विभुः। सोऽकामयत इति विविधभवने श्रुत्यन्तरम्। विप्रसम्भ्यो ड्वसंज्ञायाम् [अष्टा.3।2।180] इति च स्मृतिः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।10.13।।आहुः कथयन्ति त्वामनन्तमहिमानं ऋषयस्तत्त्वज्ञाननिष्ठाः सर्वे भृगुवसिष्ठादयः। तथा देवर्षिर्नारदः असितो देवलश्च धौम्यस्य ज्येष्ठो भ्राता व्यासश्च भगवान् कृष्णद्वैपायनः। एतेऽपि त्वां पूर्वोक्तविशेषणं मे मह्यमाहुः साक्षात्किमन्यैर्वक्तृभिः। स्वयमेव त्वं च मह्यं ब्रवीषि। अत्र ऋषित्वेऽपि साक्षाद्वक्तृ़णां नारदादीनामतिविशिष्टत्वात्पृथग्ग्रहणम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।10.13।।एवंविधं त्वां सर्वे वदन्तीत्यनेनावगतमित्याह -- आहुरिति। सर्वे ऋषयो भृग्वादयः? तथा देवर्षिः देवानामपि मन्त्रद्रष्टा नारदः सर्वमोक्षदः। असितः भगवद्धर्मरूपः। देवलः देवानुग्रहकृत्। व्यासः ज्ञानावतारः च पुनः स्वयमेव त्वमेव साक्षान्मे मह्यम्अहमादिर्हि देवानाम् [10।2] इत्यादिना ब्रवीषि। अतस्त्वां तथा जानामीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।10.13।। --,आहुः कथयन्ति त्वाम् ऋषयः वसिष्ठादयः सर्वे देवर्षिः नारदः तथा। असितः देवलोऽपि एवमेवाह? व्यासश्च? स्वयं चैव त्वं च ब्रवीषि मे।।

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।10.12 -- 10.14।।एवं सकलेतरविसजातीयं भगवतो योगप्रभावं तादृशविभूतिहेतुत्वं स्वानन्यजनकात्मत्वं च निशम्य तद्विस्तारं ज्ञातुकामो भगवन्तं स्तुवन् अर्जुन उवाच -- परं ब्रह्मेति सप्तभिः धर्मधर्म्यभिप्रायेण। इदं च सर्वं श्रुतेरिव प्रतिवाक्यभूतं भवान् परं ब्रह्मेत्यादि। त्वामेवाहुः सर्वे ऋषयः? तथा महाभगवदीयो मर्यादापुष्टिभक्तः देवर्षिर्नारदः आह असितो देवलो व्यासश्च -- एष नारायणः श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः। नागपर्यङ्कमुत्सृज्य ह्यागतो मधुरां पुरीम् [म.भा.3।88।24] इति भारते।कृष्ण एव हि भूतानामुत्पत्तिरपि चाव्ययः। कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम् इत्यादीनि भूयांसि महर्षिवचनानि श्रूयन्ते। भागवते [10।37।10] देवर्षिवचनं -- कृष्ण कृष्ण प्रमेयात्मन्योगेश जगदीश्वर इत्यादि। स्वयं च ब्रवीषिअहं सर्वस्य प्रभवः [10।8] इत्यादि। पुरुषोत्तम एव स्वमुखेन स्वस्वरूपं स्वमाहात्म्यं च वदति? नान्य इति। तदेतत्सर्वोक्तत्वात्सत्यमेव मन्ये यन्मां त्वं च वदसि। अतो भगवन् षडगुणपूण ज्ञानं त्वय्येव गुणः त्वद्दत्तमेवान्यत्रोद्भवतीति नान्ये देवा दानवाश्च ते व्यक्तिं अनन्यसाधारणं योगप्रभावं तत्तद्विभूतिरूपां व्यक्तिं च ते विदुः।


Chapter 10, Verse 13