तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।10.11।।
teṣhām evānukampārtham aham ajñāna-jaṁ tamaḥ nāśhayāmyātma-bhāva-stho jñāna-dīpena bhāsvatā
teṣhām—for them; eva—only; anukampā-artham—out of compassion; aham—I; ajñāna-jam—born of ignorance; tamaḥ—darkness; nāśhayāmi—destroy; ātma-bhāva—within their hearts; sthaḥ—dwelling; jñāna—of knowledge; dīpena—with the lamp; bhāsvatā—luminous
Out of compassion for them alone, I, abiding in their mental activity as its object, dispel the darkness born of ignorance with the brilliant lamp of knowledge.
Out of compassion for them alone, I, residing in their hearts, destroy the darkness born of ignorance with the luminous lamp of knowledge.
Out of mere compassion for them, I, dwelling within their selves, destroy the darkness born of ignorance with the luminous lamp of knowledge.
Out of compassion only towards these men, I, who remain as their very Self, destroy with the shining light of wisdom, their darkness born of ignorance.
By My grace, I live in their hearts, and I dispel the darkness of ignorance with the shining light of wisdom.
।।10.11।। उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप (होनेपन) में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ।
।।10.11।। उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ।।
10.11 तेषाम् for them? एव mere? अनुकम्पार्थम् out of compassion? अहम् I? अज्ञानजम् born of ignorance? तमः darkness? नाशयामि (I) destroy? आत्मभावस्थः dwelling within their self? ज्ञानदीपेन by the lamp of knowledge? भास्वता luminous.Commentary Luminous lamp of knowledge The Lord dwells in the heart of the devotees who constantly think of Him and destroys the veil or the darkness born of ignorance due to the absence of discrimination? by the luminous lamp of knowledge fed by the oil of pure devotion? fanned by the wind of profound meditation on Him? provided with the wick of right intuition? generated by the constant cultivation of celibacy? piety and other divine virtues held in the chambers of the heart free from worldliness? placed in the innermost recesses of the mind free from the wind of senseattractions (withdrawn from the objects of the senses) and untainted by likes and dislikes? and shining with the light of knowledge of the Self caused by the constant practice of meditation.The lamp is not in need of an instrument or means or any sort of practice for the removal of darkness. The generation of the light itself is ite sufficient to remove the darkness. As soon as the darkness is removed by the light? the pot? the chair and the other articles are seen. Even so the dawn of knowledge of the Self itself is ite sufficient to remove ignorance. No other Karma or,practice is necessary. After the ignorance is removed by the knowledge of the Self? Brahman alone shines in Its pristine glory.
।।10.11।। व्याख्या--'तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः'--उन भक्तोंके हृदयमें कुछ भी सांसारिक इच्छा नहीं, होती। इतना ही नहीं, उनके भीतर मुझे छोड़कर मुक्तितककी भी इच्छा नहीं होती (टिप्पणी प0 547)। अभिप्राय है कि वे न तो सांसारिक चीजें चाहते हैं और न पारमार्थिक चीजें (मुक्ति, तत्त्वबोध आदि) ही चाहते हैं। वे तो केवल प्रेमसे मेरा भजन ही करते हैं। उनके इस निष्कामभाव और प्रेमपूर्वक भजन करनेको देखकर मेरा हृदय द्रवित हो जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा उनकी कुछ सेवा बन जाय, वे मेरेसे कुछ ले लें। परन्तु वे मेरेसे कुछ लेते नहीं तो द्रवित हृदय होनेके कारण केवल उनपर कृपा करनेके लिये कृपा-परवश होकर मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको दूर कर देता हूँ। मेरे द्रवित हृदय होनेका कारण यह है कि मेरे भक्तोंमें किसी प्रकारकी किञ्चिन्मात्र भी कमी न रहे।
।।10.11।। कभीकभी कोई वस्तु विद्यमान होते हुए भी हमारी दृष्टि के लिए आच्छादित रहती है? क्योंकि उसे देखने के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। ध्वनि सुनने के लिए उसमें आवश्यक स्पन्दन होने चाहिए तथा यह भी आवश्यक है कि वे ध्वनि तरंगे हमारे कानों तक पहुँचे। इसी प्रकार? अपेक्षित प्रकाश के अभाव में वस्तु के समक्ष होने पर भी उसका नेत्रों द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता।यदि हम अन्धकार में मेज पर पड़ी अपना कुंजी (चाभी) को टटोलकर खोज रहे हों और उसी समय कोई व्यक्ति स्विच दबाकर कमरे को प्रकाशित कर देता है? तो हमें अपनी कुंजी दिखाई पड़ती है। हम कह सकते हैं कि उस व्यक्ति के इस दयापूर्ण कार्य ने हमें कुंजी की प्राप्ति करायी? परन्तु यह कहना सर्वथा असंगत होगा कि प्रकाश ने उस कुंजी को उत्पन्न किया।इस दृष्टान्त के द्वारा वेदान्त में यह ज्ञान कराया जाता है कि आत्मा तो सदा हमारे हृदय में ही विद्यमान है? किन्तु प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण यथार्थ अनुभव के लिए उपलब्ध नहीं है। उन प्रतिकूल तत्त्वों की निवृत्ति होने पर वह आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप से अनुभव किया जा सकता है। आत्मा को आच्छादित करने वाला वह आवरण है अज्ञानजनित अंधकार। स्मरण रहे कि इस अज्ञान अवस्था में भी आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप से विद्यमान रहता है? परन्तु हमारे साक्षात् अनुभव के लिए उपलब्ध नहीं होता। जो साधक बुद्धियोग में दृढ़ स्थिति प्राप्त कर लेते हैं? वे आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान के पात्र बन जाते हैं।बुद्धियोग की साधना अवस्था में ध्याता और ध्येय में भेद होता है? जिसे सविकल्प समाधि कहते हैं। इस श्लोक में यह कहा गया है कि इस सविकल्प अवस्था से वह साधक? मानो किसी ईश्वरीय कृपा से पूर्ण निर्विकल्प समाधि की स्थिति में स्थानान्तरित किया जाता है। वस्तुत? सविकल्प समाधि की स्थिति तक ही साधक अपने पुरुषार्थ के द्वारा पहुँच सकता है। यह बुद्धियोग भी मानो किसी अन्य स्थान से प्राप्त होता है? तात्पर्य यह है कि वह कोई सावधानीपूर्वक किये गये किसी प्रयत्न का फल नहीं? वरन् सहज स्वाभाविक आंशिक दैवी प्रेरणा है। अहंकार और शुद्ध आत्मा के मध्य का सघन कुहासा जब विरल हो जाता है? तब इस दैवी प्रेरणा का अनुभव होता है। जब यह कोहरा पूर्णतया नष्ट हो जाता है? तब पूर्ण आत्म साक्षात्कार अपने स्वयंप्रकाश स्वरूप में होता है।एक अन्धेरे कमरे में मेज पर रेडियम के डायल की एक घड़ी रखी हुई है? जिस पर कागज? पुस्तक आदि पड़े हुए होने से वह दिखाई नहीं देती। जब कोई व्यक्ति अन्धेरे में ही उसे खोजता हुआ उन कागजों को हटा देता है? तो वह घड़ी स्वयं ही चमकती हुई दिखाई पड़ती है। उसकी चमक ही उसकी परिचायक होती है। सनातन सत्य भी अज्ञान से आवृत्त हुआ अभाव रूप प्रतीत हो सकता है? किन्तु अज्ञान की निवृत्ति होने पर? वह स्वयं अपने प्रकाश से ही प्रकाशित होता है? और उसे जानने के लिए अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती।जब अज्ञान का अन्धकार? प्रकाशमय ज्ञान के दीपक से नष्ट हो जाता है तब आत्मा अपने एकमेव अद्वितीय? सर्वव्यापी और परिपूर्ण स्वरूप में स्वत प्रकट होता है। अपने भक्तों के हृदय में स्थित स्वयं भगवान् इस आत्मा के प्रकटीकरण की क्रिया को उनके ऊपर अनुग्रह करने के भाव से सम्पन्न करते हैं? किन्तु वास्तविकता यह है कि यह अनुग्रह स्वयं के ऊपर ही है। जब मैं चलतेचलते थक जाता हूँ तब मैं किसी स्थान पर बैठ जाता हूँ केवल अपने ही प्रति अनुकम्पा के कारण।इस अनुकम्पा के लिए उचित मूल्य चुकाये बिना साधक को सीधे ही इसकी प्राप्ति नहीं हो सकती। दिन के समय? मेरे कमरे की खिड़कियां खोल देने पर? सूर्य प्रकाश अनुकम्पावशात् मेरे लिए कमरे को प्रकाशित करता है। जैसा कि हम जानते हैं कि जब तक वे खिड़कियां खुली रहती हैं? तब तक सूर्य को यह स्वतन्त्रता नहीं है कि वह अपनी दया का द्वार बन्द कर ले। उसी प्रकार उसकी दया तब तक प्रकट भी नहीं होगी? जब तक मैं अपने कमरे की खिड़कियां नहीं खोल देता हूँ। संक्षेपत? सूर्य प्रकाश का आह्वान उसी क्षण होता है? जब उसके मार्ग का अवरोधक दूर हो जाता है।इसी प्रकार? प्रारम्भिक साधनाओं के अभ्यास से साधक बुद्धियोग का पात्र बनता है। तत्पश्चात् इसके निरन्तर प्रयत्नपूर्वक किये गये अभ्यास से वह अज्ञान तथा तज्जनित विक्षेपों के आवरण को सर्वथा नष्ट कर देता है। तत्काल ही आत्मा अपने स्वयं के प्रकाश में ही प्रकाश स्वरूप से प्रकाशित होता है। मेघों को चीरकर जाती हुई विद्युत् को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती।जीवन के सर्वोच्च व्यवसाय अथवा लक्ष्य चित्तशुद्धि और आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति के लिए दिये गये उपदेश का खण्ड यहाँ पर समाप्त हो जाता है? तथापि अर्जुन को इससे सन्तोष नहीं होता? और इसलिए वह अपनी शंका को व्यक्त करते हुए भगवान् से सहायता के लिए अनुरोध करता है? जिससे कि साक्षात् अनुभव के द्वारा वह स्वयं सत्य की पुष्टि कर सके।भगवान् के मुख से उनकी विभूति और योग के विषय में श्रवण कर? अर्जुन अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है --
।।10.11।।भगवत्प्राप्तेर्बुद्धिसाध्यत्वे सत्यनित्यत्वापत्तेस्त्वमापे भक्तेभ्यो बुद्धियोगं ददासीत्ययुक्तमिति शङ्कते -- किमर्थमिति। तेषां बुद्धियोगं किमर्थं ददासीति संबन्धः। भगवत्प्राप्तिप्रतिबन्धकनाशको बुद्धियोगस्तेन नास्ति तत्प्राप्तेरनित्यत्वमित्याशङ्क्याह -- कस्येति। भक्तानां तत्प्राप्तिप्रतिबन्धकं विविच्य दर्शयति -- इत्याकाङ्क्षायामिति। अविवेको नामाज्ञानं ततो जातं मिथ्याज्ञानं तदुभयमेकीकृत्य तमो विवक्ष्यते। नच तन्नाशकत्वं जडस्य कस्यचित्तदन्तर्भूतस्य युक्तं तेनाहं नाशयामीत्युक्तम्। केवलचैतन्यस्य जडबुद्धिवृत्तेरिवाज्ञानाद्यनाशकत्वमाशङ्क्य विशिनष्टि -- आत्मेति। तस्याशयस्तन्निष्ठो वृत्तिविशेषः। वाक्योत्थबुद्धिवृत्त्यभिव्यक्तश्चिदात्मा सहायसामर्थ्यादज्ञानादिनिवृत्तिहेतुरित्यर्थः। बुद्धीद्धबोधस्याज्ञानादिनिवर्तकत्वमुक्त्वा बोधेद्धबुद्धेस्तन्निवर्तकत्वमिति पक्षान्तरमाह -- ज्ञानेति। देहाद्यव्यक्तान्तानात्मवर्गातिरिक्तवस्तुगोचरत्वमाह -- विवेकेति। भगवति सदा विहितया भक्त्या तस्य प्रसादोऽनुग्रहः स एव स्नेहस्तेनासेचनद्वाराऽस्योत्पत्तिमाह -- भक्तीति। मय्येव भावनायामभिनिवेशो वातस्तेन प्रेरितोऽयं जायते? नहि वातप्रेरणमन्तरणादौ दीपस्योत्पत्तिरित्याह -- मद्भावनेति। ब्रह्मचर्यमष्टाङ्गमादिशब्देन शमादिग्रहः। तेन हेतुनाहितसंस्कारवती या प्रज्ञा तथाविधवर्तिनिष्ठश्चायं नहि वर्त्यतिरेकेण दीपो निर्वर्त्यते तदा -- ब्रह्मचर्येति। न चाधारादृते दीपस्योत्पत्तिरदृष्टत्वादित्याह -- विरक्तेति। यद्विषयेभ्यो व्यावृत्तं चित्तं रागाद्यकलुषितं तदेव निवातमपवारकं तत्र स्थितत्वमस्य दर्शयति -- विषयेति। भास्वतेति विशेषणं विशदयति -- नित्येति। सदातनं चित्तैकाग्र्यं तत्पूर्वकं ध्यानं तेन जनितं सम्यग्दर्शनं फलं तदेव भास्तद्वता तत्पर्यन्तेनेत्यर्थः। तेनाज्ञाने सकार्ये निवृत्ते भगवद्भावः स्वयमेव प्रकाशीभवतीति मत्वा व्याख्यातमेव पदमनुवदति -- ज्ञानेति।
।।10.11।।मत्प्राप्तिबन्धकनाशकं बुद्धियोगं ददामीत्याशयेनाह। तेषामेव मच्चित्तत्वादिप्रकारैर्भजतामनुकम्पार्थ दयाहेतोरहमज्ञानजं मूलाज्ञानाज्जातं मिथ्याप्रत्ययलक्षणं तमो मोहाबन्धकारं ज्ञानदीपेन नाशयामि। अचेतनस्य नाशकत्वासंभवादहमित्युक्तं निखिलभ्रामधिष्ठानत्वेनाखिलभासकल्य केवलचैतन्यस्यापि तदसंभवात्। आत्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वतेत्युक्तं। आत्मनो भावोऽन्तःकरणाशयस्तस्मिन्नवस्थितः तत्त्वमस्यादिमहावाक्योत्यान्तःकरणवृत्त्यभिव्यक्तः सन् तेनैव वृत्तिज्ञानदीपेन भक्त्यादिना भास्वता देदीप्यमानेन समूलाज्ञानं मत्प्राप्तिप्रतिबन्धकं मिथ्याप्रत्यवलक्षणं तमो नाशयामीत्यर्थः।
।।10.11।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
।।10.11।।किं च तेषां भक्तानामुपर्यनुकम्पार्थं न स्वप्रयोजनसिद्ध्यर्थं राजवत्। बुद्धियोगप्रदानेनाज्ञानजमविवेकादुत्थितं मिथ्याप्रत्ययलक्षणं मोहान्धकारं तमोनामकं सर्वानर्थनिदानमूलाज्ञाननाशेन नाशयामि। आत्मभावस्थ आत्मनो भावोऽन्तःकरणगृहं तत्स्थः। ज्ञानरूपेण दीपेन। भास्वता प्रबलेन। अयं भावः -- तत्त्वमसीति वाक्यजा ब्रह्माकारान्तःकरणवृत्तिः स्वोत्पत्तये श्रवणमननध्यानानि शमादीनि कर्माणि चापेक्षते। यथा दीपः स्वोत्पत्तये तैलवर्त्यग्न्यादीन्। उत्पन्ना तु तमोनाशेन स्वविषयप्रकाशनार्थं प्रत्ययावृत्तिलक्षणं प्रसंख्यानं च कर्मभिरुपकारं वा नापेक्षते। नहि ज्ञाते घटे तदाकारप्रत्ययावृत्तिर्वा कर्मापेक्षा वा तज्ज्ञानदार्ढ्यायापेक्षते। प्रमाणव्याप्तिमात्रसापेक्षत्वात् ज्ञानस्य। तस्माद्ये उत्पन्नज्ञानानामपि प्रसंख्यानापेक्षां कर्मभिरुपकारापेक्षां च वदन्ति ते बलादेव मोक्षस्य कृतकतामनित्यतां च प्रार्थयन्त इति दिक्।
।।10.11।।तेषाम् एव अनुग्रहार्थम् अहम् आत्मभावस्थः तेषां मनोवृत्तौ विषयतया अवस्थितो मदीयान् कल्याणगुणगणान् च आविष्कुर्वन् मद्विषयज्ञानाख्येन भास्वता दीपेन ज्ञानविरोधिप्राचीनकर्मरूपाज्ञानजं मद्व्यतिरिक्तविषयप्रावण्यरूपं पूर्वाभ्यस्तं तमः नाशयामि।एवं सकलेतरविसजातीयं भगवदसाधारणं श्रृण्वतां निरतिशयानन्दजनकं कल्याणगुणगणयोगं तदैश्वर्यविततिं च श्रुत्वा तद्विस्तारं श्रोतुकामः अर्जुन उवाच --
।।10.11।।बुद्धियोगं दत्त्वा च तस्यानुभवपर्यन्तं तमापाद्याविद्याकृतं संसारं नाशयामीत्याह -- तेषामिति। तेषामनुकम्पार्थमनुग्रहार्थमेवाज्ञानाज्जातं तमः संसाराख्यं नाशयामि। कुत्र वा स्थितः सन्केन साधनेन तमो नाशयसीत्यत,आह। आत्मभावस्थः बुद्धिवृत्तौ स्थितः सन् भास्वता विस्फुरता ज्ञानलक्षणेन दीपेन नाशयामि।
।।10.11।।उक्तबुद्धियोगोत्पत्तिप्रतिबन्धनिरसनंतेषामेव इति श्लोकेनोच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- किञ्चेति।अनुकम्पाशब्देनात्र अनिष्टनिवृत्तिपूर्वकेष्टप्राप्तिहेतुःमदनुग्रहाय [11।1] इति वक्ष्यमाणप्रसादविशेषो विवक्षितः। सहजकारुण्यमात्रपरत्वेऽर्थशब्दस्य व्यर्थत्वादित्यभिप्रायेणोक्तं -- अनुग्रहार्थमिति। अत्र चाहंशब्देनानुग्रहौपयिकज्ञानशक्तिकरुणादिव्यमङ्गलविग्रहादिविशिष्टस्वरूपं विवक्षितम्।मनोवृत्ताविति -- आत्मभावशब्दस्यात्रात्मत्वस्वस्वभावादिपरत्वेऽधिकप्रयोजनं नास्ति मनोवृत्तिविषयत्वं तु बुद्धियोगस्यात्यन्तोपयुक्तमिति भावः। व्याप्तस्येश्वरस्य कीदृशीयमपूर्वा स्थितिः इत्यत्रोक्तं -- विषयतयेति। दीपतया रूपितस्य ज्ञानस्य भास्वरत्वं परितः प्रकाशनम्? तच्च प्रकारविशेषप्रकाशनं भवितुमर्हति। तथाविधविशदानुभवादज्ञाननिवृत्तिः? शब्दादिप्राकृतगुणप्रावण्यनिवृत्तिश्चेत्यभिप्रायेणाह -- मदीयान्कल्याणगुणगणांश्चाविष्कुर्वन्निति। हेतुकार्यभावेन व्यपदेशादज्ञानतमश्शब्दयोरत्रार्थान्तरं वाच्यम् कर्मणि च ज्ञानविरोधित्वेनाज्ञानशब्दः यथोक्तम् -- अविद्या कर्मसंज्ञाऽन्या [वि.पु.6।61] इति। कर्मजन्यं भगवत्साक्षात्काररूपप्रकाशप्रतिबन्धकं च तमोऽर्थस्वभावाद्विषयान्तरप्रावण्यमेव। निरतिशयभोग्यभगवज्ज्ञानस्य भोग्यान्तरप्रावण्यनिवर्तकत्वं युक्तं?तवामृतस्यन्दिनि पादपङ्कजे निवेशितात्मा कथमन्यदिच्छति। स्थितेऽरविन्दे मकरन्दनिर्भरे मधुव्रतो नेक्षुरकं हि वीक्षते [स्तो.र.] इत्यादिन्यायात् तदेतदभिप्रेत्योक्तंज्ञानविरोधीत्यादि। तमश्शब्देन तमोवृत्तिलक्षणादिपक्षोऽप्यनेन निरस्तः। यद्यपि विषयप्रावण्यनिवृत्तिपूर्वकं भजनं? तथापि,संस्कारशेषादनुवृत्तं सूक्ष्मं प्रावण्यमिह भजनविनाश्यतयोक्तमिति नान्योन्याश्रयः।
।।10.6 -- 10.11।।महर्षय इत्यादि भास्वता इत्यन्तम्। परस्परबोधनया अन्योन्यबोधस्फारसंक्रमणात् सर्व एव हि प्रमातारः एक ईश्वर इति विततव्याप्त्या (S??N वितत्य व्याप्त्या) सुखेनैव सर्वशक्तिकसर्वगतस्वात्मरूपताधिगमेन (S -- ताधिशयनेन अधिगमेन) माहेश्वर्यमेषामिति भावः (After इति भावः ?N add तेषां सततयुक्तानाम् इत्यतः प्रभृति अध्यायान्ता टीका उट्टङ्किता युगपद्धि वेद्या। ,तेषामेव अनु च अर्जुनप्रश्नपद्यानि षट् उल्लिखति। श्रीभगवान् अथवा बहुना इति पर्यन्तानि पद्यानि 23,वक्ति।। These sentences are obviously of some copyist. It is to be noted however that the Mss. generally contain seven (not six) verses of Arjuna and then 24 (not 23) verses of the hagavan) ।
।।10.11।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।10.11।।दीयमानस्य बुद्धियोगस्यात्मप्राप्तौ फले मध्यवर्तिनं व्यापारमाह -- तेषामेव कथं श्रेयः स्यादित्यनुग्रहार्थं आत्मभावस्थ आत्माकारान्तःकरणवृत्तौ विषयत्वेन स्थितोऽहं स्वप्रकाशचैतन्यानन्दाद्वयलक्षण आत्मा तेनैव मद्विषयान्तःकरणपरिणामरूपेण ज्ञानदीपेन दीपसदृशेन ज्ञानेन भास्वता चिदाभासयुक्तेनाप्रतिबद्धेनाज्ञानजमज्ञानोपादानकं तमो मिथ्याप्रत्ययलक्षणं स्वविषयावरणमन्धकारं तदुपादानाऽज्ञाननाशेन नाशयामि। सर्वभ्रमोपादानस्याज्ञानस्य,ज्ञाननिवर्त्यत्वादुपादाननाशनिवर्त्यत्वाच्चोपादेयस्य। यथा दीपेनान्धकारे निवर्तनीये दीपोत्पत्तिमन्तरेण न कर्मणोऽभ्यासस्य वापेक्षा विद्यमानस्यैव च वस्तुनोऽभिव्यक्तिस्ततो नानुत्पन्नस्य कस्यचिदुत्पत्तिस्तथा ज्ञानेनाज्ञाने निवर्तनीये न ज्ञानोत्पत्तिमन्तरेणान्यस्य कर्मणोऽभ्यासस्य वापेक्षा विद्यमानस्यैव च ब्रह्मभावस्य मोक्षस्याभिव्यक्तिस्ततो नानुत्पन्नस्योत्पत्तिर्येन क्षयित्वं कर्मादिसापेक्षत्वं वा भवेदिति रूपकालंकारेण सूचितोऽर्थः। भास्वतेत्यनेन तीव्रपवनादेरिवासंभवनादेः प्रतिबन्धकस्याभावः सूचितः। ज्ञानस्य च दीपसाधर्म्यं स्वविषयावरणनिवर्तकत्वं स्वव्यवहारेण सजातीयपरानपेक्षत्वं स्वोत्पत्त्यतिरिक्तसहकार्यनपेक्षत्वमित्यादिरूपकबीजं द्रष्टव्यम्।
।।10.11।।नन्वन्यबोधने तेषामज्ञत्वाद्बहुकालव्यासङ्गेन सेवावियोगक्लेशः स्यादिति कथं बोधनं स्यात् इत्याशङ्क्याहतेषामेवेति। तेषामेव भक्तानामेव अनुकम्पार्थं मत्सेवाविप्रयोगक्लेशाभावार्थम्? आत्मभावस्थेषु तेषु स्वीयत्वभावयुक्तोऽहमन्येषामज्ञानजं तमः संसारात्मकं भास्वता स्फुरद्रूपेण ज्ञानदीपेन नाशयामि। ततः संसाराज्ञानविमुक्तानां शीघ्रं स्वरूपबोधात् पुनः परस्परं मद्गुणकथनेन परमानन्द एव भवति? न तु क्लेश इति भावः।
।।10.11।। --,तेषामेव कथं नु नाम श्रेयः स्यात् इति अनुकम्पार्थं दयाहेतोः अहम् अज्ञानजम् अविवेकतः जातं मिथ्याप्रत्ययलक्षणं मोहान्धकारं तमः नाशयामि? आत्मभावस्थः आत्मनः भावः अन्तःकरणाशयः तस्मिन्नेव स्थितः सन् ज्ञानदीपेन विवेकप्रत्ययरूपेण भक्तिप्रसादस्नेहाभिषिक्तेन मद्भावनाभिनिवेशवातेरितेन ब्रह्मचर्यादिसाधनसंस्कारवत्प्रज्ञावर्तिना विरक्तान्तःकरणाधारेण विषयव्यावृत्तचित्तरागद्वेषाकलुषितनिवातापवरकस्थेन नित्यप्रवृत्तैकाग्र्यध्यानजनितसम्यग्दर्शनभास्वता ज्ञानदीपेनेत्यर्थः।।यथोक्तां भगवतः विभूतिं योगं च श्रुत्वा अर्जन उवाच --,अर्जन उवाच --,
।।10.11।।आत्मज्ञानमपि तेषां मयैव सम्पाद्यते इत्याह -- तेषामेवानुकम्पार्थमिति।जनो वै लोक एतस्मिन्नविद्याकामकर्मभिः। उच्चावचासु गतिषु वेद स्वां गतिं भ्रमन्। इति सञ्चिन्त्य भगवान्महाकारुणिको विभुः। तेषामन्तरात्मत्वं अङ्गीकृत्य स्थितो भास्वता ज्ञानदर्पणेनात्मविषयकसाक्षात्कारेणोभयाज्ञानजं तमो देहाध्यासादिना विषयप्रावण्यरूपं पूर्वाभ्यस्तं सर्वं नाशयामि। एवं च भगवदीयानां निजानामहमेव सर्वयोगक्षेमसाधको नान्य इति द्योत्यते।
Chapter 10, Verse 11