Chapter 10, Verse 6

Text

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।10.6।।

Transliteration

maharṣhayaḥ sapta pūrve chatvāro manavas tathā mad-bhāvā mānasā jātā yeṣhāṁ loka imāḥ prajāḥ

Word Meanings

mahā-ṛiṣhayaḥ—the great Sages; sapta—seven; pūrve—before; chatvāraḥ—four; manavaḥ—Manus; tathā—also; mat bhāvāḥ—are born from me; mānasāḥ—mind; jātāḥ—born; yeṣhām—from them; loke—in the world; imāḥ—all these; prajāḥ—people


Translations

In English by Swami Adidevananda

The seven great seers of yore, as well as the four Manus, all possessing My mental disposition, were born from My mind. All these creatures of the world are descended from them.

In English by Swami Gambirananda

The seven great sages, as well as the four Manus of ancient days, from whom all these creatures in the world have descended, had their thoughts fixed on Me, and they were born from My mind.

In English by Swami Sivananda

The seven great sages, the ancient four, and the Manus, possessing powers like Mine (due to their minds being fixed on Me), were born from My mind; from them, these creatures have been born in this world.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

The ancient Seven Great Sages and also the Four Manus, from whom these creatures in this world are offspring—they have been born from My mental dispositions.

In English by Shri Purohit Swami

The seven Great Seers, the progenitors of mankind, the Ancient Four, and the Lawgivers were born of My will and come forth directly from Me. The race of mankind has sprung from them. (Mareechi, Atri, Angira, Pulah, Kratu, Pulastya, Vahishta; the Masters: Sanak, Sanandan, Sanatan, Sanatkumar.)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।10.6।। सात महर्षि और उनसे भी पूर्वमें होनेवाले चार सनकादि तथा चौदह मनु -- ये सब-के-सब मेरे मनसे पैदा हुए हैं और मेरेमें भाव (श्रद्धाभक्ति) रखनेवाले हैं, जिनकी संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।10.6।। सात महर्षिजन, पूर्वकाल के चार (सनकादि) तथा (चौदह) मनु ये मेरे प्रभाव वाले मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार (लोक) में यह प्रजा है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

10.6 महर्षयः the great Rishis? सप्त seven? पूर्वे ancient? चत्वारः four? मनवः Manus? तथा also? मद्भावाः possessed of powers like Me? मानसाः from mind? जाताः born? येषाम् from whom? लोके in world? इमाः these? प्रजाः creatures. Commentary In the beginning I was alone and from Me came the mind and from the mind were produced the seven sages (such as Bhrigu? Vasishtha and others)? the ancient four Kumaras (Sanaka? Sanandana? Sanatkumara and Sanatsujata)? as well as the four Manus of the past ages known as Savarnis? all of whom directed their thoughts to Me exclusively and were therefore endowed with divine powers and supreme wisdom.The four Kumaras (chaste? ascetic youths) declined to marry and create offspring. They preferred to remain perpetual celibates and to practise BrahmaVichara or profound meditation on Brahman or the Absolute.They were all created by Me? by mind alone. They were all mindborn sons of Brahma. They were not born from the womb like ordinary mortals. Manavah? men? the present inhabitants of this world? are the sons of Manu. The Manus are the mindborn sons of God. These creatures which consist of the moving and the unmoving beings are born of the seven great sages and the four Manus. The great sages were original teaches of BrahmaVidya or the ancient wisdom of the Upanishads. The Manus were the rulers of men. They framed the code or rules of conduct or the laws of Dharma for the guidance and uplift of humanity.The seven great sages represent the seven planes also. In the macrocosm? Mahat or cosmic Buddhi? Ahamkara or the cosmic egoism and the five Tanmatras or the five rootelements of which the five great elements? viz.? earth? water? fire? air and ether are the gross forms? represent the seven great sages. This gross universe with the moving and the unmoving beings and the subtle inner world have come out of the above seven principles. In mythology or the Puranic terminology these seven principles have been symbolised and give human names. Bhrigu? Marichi? Atri? Pulastya? Pulaha? Kratu and Vasishtha are the seven great sages.In the microcosm? Manas (mind)? Buddhi (intellect)? Chitta (subconsciousness) and Ahamkara (egoism) have been symbolised as the four Manus and given human names. The first group forms the base of the macrocosm. The second group forms the base of the microcosm (individuals). These two groups constitute this vast universe of sentient life.Madbhava with their being in Me? of My nature.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।10.6।। व्याख्या --[पीछेके दो श्लोकोंमें भगवान्ने प्राणियोंके भाव-रूपसे बीस विभूतियाँ बतायीं। अब इस श्लोकमें व्यक्ति-रूपसे पचीस विभूतियाँ बता रहे हैं, जो कि प्राणियोंमें विशेष प्रभावशाली और जगत्के कारण हैं।] 'महर्षयः सप्त'-- जो दीर्घ आयुवाले; मन्त्रोंको प्रकट करनेवाले; ऐश्वर्यवान्; दिव्य दृष्टिवाले; गुण, विद्या; आदिसे वृद्ध धर्मका साक्षात् करनेवाले; और गोत्रोंके प्रवर्तक हैं -- ऐसे सातों गुणोंसे युक्त ऋषि सप्तर्षि कहे जाते हैं (टिप्पणी प0 540.1)। मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ -- ये सातों ऋषि उपर्युक्त सातों ही गुणोंसे युक्त हैं। ये सातों ही वेदवेत्ता हैं, वेदोंके आचार्य माने गये हैं, प्रवृत्ति-धर्मका संचालन करनेवाले हैं और प्रजापतिके कार्यमें नियुक्त किये गये हैं (टिप्पणी प0 540.2)। इन्हीं सात ऋषियोंको यहाँ 'महर्षि' कहा गया है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।10.6।। इस अध्याय के दूसरे श्लोक में जिस सिद्धांत का संकेत मात्र किया गया है कि किस प्रकार सप्तर्षि? सनकादि चार कुमार और चौदह मनु? परमेश्वर के मन से उत्पन्न हुए हैं। ये सभी मिलकर जगत् के उपादान और निमित्त कारण हैं? क्योंकि यहाँ कहा गया है? इनसे यह सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न हुई है।सप्तर्षि जिन्हें पुराणों में मानवीय रूप में चित्रित किया गया है? वे सप्तर्षि अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से महत् तत्त्व? अहंकार और पंच तन्मात्राएं हैं। इन सब के संयुक्त रूप को ही जगत् कहते हैं।व्यक्तिगत दृष्टि से? सप्तर्षियों के रूपक का आशय समझना बहुत सरल है। हम जानते हैं कि जब हमारे मन में कोई संकल्प उठता है? तब वह स्वयं हमें किसी भी प्रकार से विचलित करने में समर्थ नहीं होता। परन्तु? किसी एक विषय के प्रति जब यह संकल्प केन्द्रीभूत होकर कामना का रूप ले लेता है? तब कामना में परिणित वही संकल्प अत्यन्त शक्तिशाली बनकर हमारी शान्ति और सन्तुलन को नष्ट कर देता है। ये संकल्प ही बाहर प्रक्षेपित होकर पंच विषयों का ग्रहण और उनके प्रति हमारी प्रतिक्रियायें व्यक्त कराते हैं। यह संकल्पधारा और इसका प्रक्षेपण ये दोनों मिलकर हमारे सुखदुख पूर्ण यशअपयश तथा प्रयत्न और प्राप्ति के छोटे से जगत् के निमित्त और उपादान कारण बन जाते हैं।पूर्वकाल के चार (सनकादि) और मनु श्री शंकराचार्य अपने भाष्य में इस प्रकार पदच्छेद करते हैं कि पूर्वकाल सम्बन्धी और चार मनु। यहाँ इसका आध्यात्मिक विश्लेषण करना उचित है जिसके लिए हमें दूसरी पंक्ति में आधार भी मिलता है। भगवान् कहते हैं? ये सब मेरे मन से अर्थात् संकल्प से ही प्रकट हुए हैं।पुराणों में ऐसा वर्णन किया गया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ही सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी से चार मानस पुत्र सनत्कुमार? सनक? सनातन और सनन्दन का जन्म हुआ। हममें से प्रत्येक (व्यष्टि) व्यक्ति में निहित सृजन शक्ति अथवा सृजन की प्रवृत्ति के माध्यम से व्यक्त चैतन्य ही व्यष्टि सृष्टि का निर्माता है। यह सृजन की प्रवृत्ति अन्तकरण के चार भागों में व्यक्त होती है तभी किसी प्रकार का निर्माण कार्य होता है। वे चार भाग हैं संकल्प (मन)? निश्चय (बुद्धि)? पूर्वज्ञान का स्मरण (चित्त) और कर्तृत्वाभिमान (अहंकार)। मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार इन चारों को उपर्युक्त चार मानस पुत्रों के द्वारा इंगित किया गया है।इस प्रकार एक ही श्लोक में समष्टि और व्यष्टि की सृष्टि के कारण बताए गए हैं। समष्टि सृष्टि की उत्पत्ति एवं स्थिति के लिए महत् तत्त्व? अहंकार और पंच तन्मात्राएं कारण हैं? जबकि व्यष्टि सृष्टि का निर्माण मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार की क्रियाओं से होता है।संक्षेप में? सप्तर्षि समष्टि सृष्टि के तथा चार मानस पुत्र व्यष्टि सृष्टि के निमित्त और उपादान कारण हैं।व्यष्टि और समष्टि की दृष्टि से? सृष्टि के अभिप्राय को समझने की क्या आवश्यकता है सुनो --

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।10.6।।न केवलं भगवतः सर्वप्रकृतित्वमेव किंतु सर्वज्ञत्वसर्वेश्वरत्वरूपमधिष्ठातृत्वमपीत्याह -- किञ्चेति। आद्या भृग्वादयो वसिष्ठान्ताः सर्वज्ञा विद्यासंप्रदायप्रवर्तकाः। तथेति मनूनामपि पूर्वत्वेनाद्यत्वमनुकृष्यते। के ते मनवस्तत्राह -- सावर्णा इतीति। प्रसिद्धाः पुराणेषु प्रजानां पालकाः स्वयमीश्वराश्चेति शेषः। महर्षीणां मनूनां च तुल्यं विशेषणं -- ते चेति। मयि सर्वज्ञे सर्वेश्वरे गता भावना येषां ते तथा। भावनाफलमाह -- वैष्णवेनेति। वैष्णव्या शक्त्याधिष्ठितत्वेन ज्ञानैश्वर्यवन्त इत्यर्थः। तेषां जन्मनो वैशिष्ट्यमाचष्टे -- मानसा इति। मन्वादीनेव विशिनष्टि -- येषामिति। विद्यया जन्मना च संततिभूता मन्वादीनामस्मिंल्लोके सर्वाः प्रजा इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।10.6।।स्वसामर्थ्यंयुक्तानां स्वेनोत्पादितानां भृग्वादीनामपि लोकेश्वरत्वं प्रसिद्धं किं वक्त्वयं मम लोकमहेश्वरत्वमित्याह -- महर्षय इति। महर्षयः सप्त भृग्वादयः पूर्वेऽतीतकालसंबन्धिनोभृगु मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुं। वसिष्ठं च महातेजाः सोऽसृजन्मनसा सुतान् इत्युक्ताःचत्वारो मनवस्तथा? सावर्णिस्तु मनुर्योऽसौ मैत्रेय भविता ततः। नवमो दक्ष्सावर्णिर्मैत्रेय भविता मनुः। एकादशश्र्च भविता धर्मसावर्णिको मनुः। रुद्रपुत्रस्तु सावर्णो भविता द्वादशो मनुः।। इति विष्णुपुराणादौ सावर्णा इति प्रसिद्धाः। महर्षयः सप्त भृग्वादयः। तेभ्योऽपि पूर्वे प्रथमाश्चत्वारः सन्काद्या महर्षयः मनवस्तथा स्वयंभुवाद्याश्चतुर्दशेति वा। अस्मिन्पक्षे सनकाद्याश्र्चतुर्दशेत्यध्याहारदोषमभिप्रेत्याचार्यैरयं पक्षो न प्रदर्शितः। ते च मद्भावा मद्भतभावना मयि परमात्मनि भावना येषामतो वैष्णवेन सामर्थ्येन युक्ता मानसा मया मनसैवोत्पादिताः सन्तो जाताः उत्पन्ना यथायथं योनितोऽयोनितश्च येषां महर्षीणां मनूनां च लोके इमा विद्यया च जन्मना च सन्ततिभूताः प्रजाः स्थावरजंगमलक्षणाः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।10.6।।पूर्वे सप्तर्षयः -- मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। वसिष्ठश्च महातेजाः इति मोक्षधर्मोक्ताः [म.भा.12।335।28]। ते हि सर्वपुराणेषु उच्यन्ते। चत्वारः प्रथमाः स्वायम्भुवाद्याः तेषां हीमाः प्रजाः -- नहि भविष्यतामिमाः प्रजा इति युक्तं -- विभागः प्राधान्यं च प्राथमिकत्वादेव भवति। गौतमखिलेषु चोक्तम् -- स्वायम्भुवं रोचिषं च रैवतं च तथोत्तमम्। वेद यः स प्रजावान् इति। पूर्वेभ्यो ह्युत्तरा जायन्त इत्येषां प्राधान्यम्। अजातेषु च ज्यैष्ठ्यम्।तामसस्य भगवदवतारत्वादनुक्तिः। तच्च भागवते प्रसिद्धम्। मानसत्वं च सर्वेषां मनूनामुक्तं भागवते ()ततो मनून्ससर्जान्ते मनसा लोकभावनान् [ ] इति। अन्यपुत्रत्वं त्वपरित्यज्यापि शरीरं तद्भवति। प्रमाणं चोभयविधवाक्यान्यथाऽनुपपत्तिरेव। पूर्व इति विशेषणाच्चैतत्सिद्धिः। मत्तो भावो येषां ते मद्भावाः। ये ते ब्रह्मणो मानसा जातास्ते मत्त एव जाता इति भावः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।10.6।।एतदेव शिष्टाचारप्रदर्शनेन द्रढयति -- महर्षय इति। सप्त भृग्वाद्याश्चत्वारः सनकादयश्च पूर्वे प्रसिद्धा महर्षय इति संबन्धः। तथा मनवश्चतुदर्श प्रसिद्धाः। ते सर्वे मानसा हिरण्यगर्भरूपस्य मम मनस एवोद्भूता अयोनिजा जाता उत्पन्नाः। इमाः प्रजाश्चतुर्विधा अयं लोकश्च तदाधारभूतः तदुभयं येषां यत्संबन्धि संततिर्येषां संततिरित्यर्थः। यद्ववा येषामिति षष्ठी पञ्चम्यर्थे। येभ्य इमाः प्रजा अयं लोकश्च जाता इत्यर्थः। तेऽपि मद्भावा मय्येव भावो मनो येषां ते। प्रसिद्धमहिमानोऽप्येते यतो मामेवोपासतेऽतस्त्वमपि मामुपास्वेति भावः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।10.6।।पूर्वे सप्त महर्षयः अतीतमन्वन्तरे ये भृग्वादयः सप्त महर्षयो नित्यसृष्टिप्रवर्तनाय ब्रह्मणो मनसः संभवाः नित्यस्थितिप्रवर्तनाय ये च सावर्णिका नाम चत्वारो मनवः स्थिताः येषां संतानमये लोके जाता इमाः सर्वाः प्रजाः? प्रतिक्षणम् आप्रलयाद् अपत्यानाम् उत्पादकाः पालकाश्च भवन्ति? ते भृग्वादयो मनवः च मद्भावाः? मम यो भावः स एव येषां भावः ते मद्भावाः? मन्मते स्थिताः मत्संकल्पानुवर्तिन इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।10.6।।किंच -- महर्षय इति। सप्त महर्षयोभृग्वादयः सप्त ब्राह्मणा इत्येते पुराणे निश्चयं गता इत्यादि पुराणप्रसिद्धाः। तेभ्योऽपि पूर्वेऽन्ये चत्वारो महर्षयः सनकादयः? तथा मनवः स्वायंभुवादयः मद्भावा मदीयो भावः प्रभावो येषु ते हिरण्यगर्भात्मनो ममैव मनसः संकल्पमात्राज्जाताः। प्रभावमेवाह -- येषामिति। येषां भृग्वादीनां च सनकादीनां चेमा ब्राह्मणाद्या लोके वर्धमाना यथायथं पुत्रपौत्रादिरूपाः शिष्यादिरूपाश्च प्रजा जाता वर्तन्ते।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।10.6।।सृष्टिस्थितिहेतुतया प्रसिद्धेषु महत्स्वपि हेतुभूतेषु स्वतन्त्रत्वशङ्का न कार्या? अन्यसङ्कल्पप्रसूतेष्वपि मत्सङ्कल्पमूलत्वमनुसन्धेयमित्यस्योदाहरणतयामहर्षयः इत्युच्यत इत्यभिप्रायेणाहसर्वस्येति।येषां लोक इमाः प्रजाः इत्येतदभिप्रेतकथनंसर्वस्य भूतजातस्येत्यादि।सृष्टिस्थित्योरिति महर्षिषु मनुषु च क्रमादन्वेतव्यम्। सप्तर्षीणां पूर्वत्वविशेषणविवक्षितमाहअतीतमन्वन्तर इति।भृग्वादय इति -- महर्षीणां भृगुरहम् [10।25] इति तत्प्रधानत्वं हि वक्ष्यते -- सप्त ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः [म.भा.12।208।5] इत्यादिस्मारणाय सप्तशब्दः। आर्षेयवरणे वरणीयानां गोत्राणां प्रवर्तयितार इत्यभिप्रायेणाहनित्यसृष्टिप्रवर्तनायेति।ब्रह्मणो मनसः सम्भवा इति। सौबाले [1] -- स मानसान् सप्त पुत्रानसृजत् इत्यादि। नैमित्तिकसृष्ट्यादिव्यवच्छेदाय नित्यशब्दः। ननु ब्रह्मदिवसे चतुर्दश मनवः क्रमादधिकुर्वन्ति? एकस्मिन् मन्वन्तरे एक एव तत्कथं चत्वार इत्यत्राहये च सावर्णिका नामेति।ब्रह्मसावर्णो? रुद्रसावर्णो? धर्मसावर्णो? दक्षसावर्णः इति दक्षस्य दुहितरि तैश्चतुर्भिर्मानसा जनिताः।मद्भावाः इत्येतावदत्र विधेयम् अन्यत्सर्वं पुराणादिप्रसिद्धमनूद्यते इति ज्ञापनाय यच्छब्दः।सन्तानमय इति।जनो लोकः प्रोक्तः इति पाठाल्लोकोऽत्र सन्तानः।येषां ৷৷. लोके जाताः -- यत्पुत्रपौत्रादिभ्यो जाता इत्यर्थः।इमाः इति निर्देशः कालान्तरवर्तिनित्यसृष्टेरपि सङ्ग्राहकः? न तु व्युदासकः ईश्वरस्य तत्राप्यापरोक्ष्यादित्यभिप्रायेणाहप्रतिक्षणमाप्रलयादिति।उत्पादकाः पालकाश्चेति महर्षीणां मनूनां च यथाक्रमं निर्देशः।उत्पादिकाः इत्यादिस्त्रीलिङ्गपाठे तु तत्तत्प्रजाभिर्यथासम्भवमन्वयः।मम यो भावः स एव येषां भाव इति भावसामानाधिकरण्ये फलितोक्तिरियम्? मध्यमपदलोपी वा समासः। राज्ञो भाव एव किङ्करस्य भाव इतिवदभिप्रायसाम्यापेक्षयाऽयं व्यपदेश इति दर्शयतिमन्मते स्थिता इति। स्वाच्छन्द्यादभिप्रायसाम्यं भृत्यादिवद्बुद्धिपूर्वानुवर्तनमात्रं च व्युदस्यति -- मत्सङ्कल्पानुवर्तिन इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।10.6 -- 10.11।।महर्षय इत्यादि भास्वता इत्यन्तम्। परस्परबोधनया अन्योन्यबोधस्फारसंक्रमणात् सर्व एव हि प्रमातारः एक ईश्वर इति विततव्याप्त्या (S??N वितत्य व्याप्त्या) सुखेनैव सर्वशक्तिकसर्वगतस्वात्मरूपताधिगमेन (S -- ताधिशयनेन अधिगमेन) माहेश्वर्यमेषामिति भावः (After इति भावः ?N add तेषां सततयुक्तानाम् इत्यतः प्रभृति अध्यायान्ता टीका उट्टङ्किता युगपद्धि वेद्या। तेषामेव अनु च अर्जुनप्रश्नपद्यानि षट् उल्लिखति। श्रीभगवान् अथवा बहुना इति पर्यन्तानि पद्यानि 23 वक्ति।। These sentences are obviously of some copyist. It is to be noted however,that the Mss. generally contain seven (not six) verses of Arjuna and then 24 (not 23) verses of the hagavan) ।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।10.6।।महर्षयः सप्त भृग्वादय इति शङ्करः? तदसत् पूर्व इति विशेषणेन प्रथममन्वन्तरस्थानामेव ग्रहणस्योचितत्वात् मोक्षधर्मसंवादाच्चेति भावेनाह -- पूर्व इति। इतोऽपि मरीच्यादय एवेत्याह -- ते हीति। निरुपपदेन सप्तर्षिशब्देनेति शेषः।पूर्वे इत्यस्योत्तरत्र सम्बन्धेऽपि एतत्सिद्धमिति भावेनानेकप्रमाणोपन्यासः। ब्रह्मसावर्ण्यो रुद्रसावर्ण्यो दक्षसावर्ण्यो धर्मसावर्ण्य इति भविष्यन्तश्चत्वारो मनव इत्यन्ये? तदसदिति भावेनाह -- चत्वार इति। स्वायम्भुवस्वारोचिषरैवतोत्तमाः। प्रथमातिक्रमे कारणाभावादिति भावः। किञ्चयेषां लोक इमाः,प्रजाः इति विशेषणमेष्वेव सम्भवति? नेतरेष्वतोऽप्येवमित्याह -- तेषां हीति। इमा वर्तमानाः प्रजा अपत्यानि। ननु चतुर्दशमनवस्तेषु चतुर्णां यत्पृथक्करणं तत्र कारणेन भाव्यम्। अस्ति च तत्परोक्तेषु संज्ञासाम्यम् न तु स्वायम्भुवादिषु अतः कथमेतत् इत्यत आह -- विभाग इति। प्राधान्यादेवेति शेषः संज्ञासाम्यस्याप्रयोजकत्वात्। अन्यथा मेरुसावर्णेरपि ग्रहणप्रसङ्गादिति भावः। अस्त्वेवं प्राधान्यं च परोक्तानामेवेत्यत आह -- प्राधान्यं चेति। स्वायम्भुवादीनामिति शेषः। किञ्च श्रुतौ स्वायम्भुवादीनामेव पृथक्करणात्त एवात्रेत्याह -- गौतमेति। पृथक्करणे न फलमिति शेषः। प्राथमिकत्वादेव प्राधान्यं भवतीत्युक्तं तत्कथं इत्यत आह -- पूर्वेभ्यो हीति। तत्सन्ततावित्यर्थः। तेषां पूर्वेषां उत्तरान्प्रति। तत्सन्ततावजातान् प्रति प्रथमानां कथं प्राधान्यं इत्यत आह -- अजातेष्विति। विषयसप्तमीयम्। ज्यैष्ठ्यं प्रथमानां प्राधान्यमित्यर्थः। इदमुक्तं भवति -- प्रधानगुणभावो हि सति सम्बन्धे भवति। अयुगपद्भाविषु चैतेषु प्रथमानामेव प्राधान्यं? उत्तरेषगुणत्वमुक्तविधया सम्भवति। न त्वन्यथा कथमपीति। प्रथमाश्चेद्गृह्यन्ते तदा चतुर्थस्तामसो गीताभिप्रेततया कुतो न व्याख्यायते इत्यत आह -- तामसस्येति। अनुक्तिरव्याख्यानं भगवति चमद्भावा मानसा जाताः इति विशेषणासम्भवादिति भावः। तामसस्य भगवदवतारत्वं कुतः इत्यत आह -- तच्चेति।चतुर्थ उत्तमभ्राता मनुर्नाम्ना च तामसः। [भाग.8।1।27] हरिरित्याहृतो येन गजेन्द्रो मोचितो ग्रहात् [भाग.8।1।30] इत्यादिना। ननु यदि विशेषणासम्भवात्प्रथमप्राप्तातिक्रमेण तत्सम्भवतां ग्रहणम्। तर्हिमानसा जाताः इति विशेषणासम्भवादेतान्परित्यज्य ब्रह्मसावर्ण्यादय एव ग्राह्यास्तेषु तत्सम्भवादिति भास्करः तत्राह -- मानसत्वं चेति। चतुर्णां दक्षदुहितरि किल भावो युगपदासीदित्येवंविधं मानसत्वं न सर्वेषामिति चेत्? न अत्रार्थे तद्धितोत्पत्तेरस्मरणात्। ननु ब्रह्मपुत्राः सन्तु मानसाः? न तु तदा ते मनवः? किन्तु मच्छरीरं परित्यज्य प्रियव्रतादिपुत्रा जातास्तदैव? अतो मनुषु मानसत्वमसम्भाव्यमित्यत आह -- अन्येति। तन्मानसं शरीरं अपरित्यज्य स्थितानामप्यन्यपुत्रत्वं सम्भवतीति योजना। द्वितीये शरीरे जाते तत्पूर्वशरीरेणैक्यमापद्यत इति सम्प्रदायविदः। किमत्र प्रमाणं इत्यत आह -- प्रमाणं चेति। मनूनामेव ब्रह्ममानसपुत्रत्ववाक्यं प्रियव्रतादिपुत्रत्ववाक्यं चेत्युभयविधवाक्यम्। उपचारत्वकल्पना क्लिष्टैव। किञ्चपूर्वे इति विशेषणं पूर्वेणैव सम्बध्यते? परेणैव वोभाभ्यामपीति त्रयः पक्षाः? पक्षत्रयेऽपि चत्वारो मनवः प्रथमा एवेति सिध्यति आद्ये सप्तर्षीणां प्रथमत्वेन तत्साहचर्यात्? द्वितीयतृतीययोर्वचनादेवेति भावेनाह -- पूर्व इति। मयि भावो येषामिति व्याख्यानं प्रकृतासङ्गतं कारणत्वस्यात्र प्रकृतत्वादिति भावेनाह -- मत्त इति। भावो जन्म। ननुमानसा जाताः इत्यनेन भगवतस्तत्कारणत्वमुच्यते? मैवम्ततो मनून् इति वचनस्य सत्वेन ब्रह्मणो मानसा जाता इति व्याख्येयत्वात्? तर्हि कथं न व्याहतिः इत्यत आह -- ये त इति। मत्त एव ब्रह्मान्तर्यामिणः। ब्रह्मा तु द्वारमात्रमिति भावः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।10.6।।इतश्चैतदेवमाह -- महर्षयो वेदतदर्थद्रष्टारः सर्वज्ञा विद्यासंप्रदायप्रवर्तका भृग्वाद्याः सप्त पूर्वे सर्गाद्यकालाविर्भूताः। तथाच पुराणंभृगुं मरिचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्। वसिष्ठं च महातेजाः सोऽसृजन्मनसा सुतान्। सप्त ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः इति। तथा चत्वारो मनवः सावर्णा इति प्रसिद्धाः। अथवा महर्षयः सप्त भृग्वाद्याः?तेऽभ्योऽपि पूर्वे प्रथमाश्चत्वारः सनकाद्या महर्षयो? मनवस्तथा स्वायंभुवाद्याश्चतुर्दश मयि परमेश्वरे भावो भावना येषां ते मद्भावा मच्चिन्तनपराः। मद्भावनावशादाविर्भूतमदीयज्ञानैश्वर्यशक्तय इत्यर्थः। मानसाः मनःसंकल्पादेवोत्पन्ना नतु योनिजाः। अतो विशुद्धजन्मत्वेन सर्वप्राणिश्रेष्ठा मत्तएव हिरण्यगर्भात्मनो जाताः सर्गाद्यकाले प्रादुर्भूताः। येषां महर्षीणां सप्तानां,भृग्वादीनां चतुर्णां च सनकादीनां मनूनां च चतुर्दशानां अस्िमँल्लोके जन्मना च विद्यया च सन्ततिभूता इमा ब्राह्मणाद्याः सर्वाः प्रजाः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।10.6।।ननु कृष्यादिप्रयुक्तधर्माचरणादिभिः सर्वेषां तत्तत्फलरूपा भावा भवन्ति? तत्कथं भवत एव इत्याकाङ्क्षायामाह -- महर्षय इति। महर्षयः सप्त भृग्वादयः? ततः पूर्वे अन्ये चत्वारो महर्षयः? तथा स्वायम्भुवादयो मनवः? हिरण्यगर्भात्मनो मम मानसा मद्भावा मदीयोऽनुभावो मत्क्रीडार्थरूपो येषु तादृशा जाताः। येषां लोके इमाः प्रजास्तदुक्तप्रवर्तमाना भवन्तीत्यर्थः। अतोऽपि मत्त एव भवन्तीति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।10.6।। --,महर्षयः सप्त भृग्वादयः पूर्वे अतीतकालसंबन्धिनः? चत्वारः मनवः तथा सावर्णा इति प्रसिद्धाः? ते च मद्भावाः मद्गतभावनाः वैष्णवेन सामर्थ्येन उपेताः? मानसाः मनसैव उत्पादिताः मया जाताः उत्पन्नाः? येषां मनूनां महर्षीणां च सृष्टिः लोके इमाः स्थावरजङ्गमलक्षणाः प्रजाः।।

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।10.6।।एवं जातस्य गुणसर्गस्य हेतुरहमज एक इत्युक्त्वाअहमादिर्हि देवानां [10।2] इति व्याचष्टे -- महर्षय इति। गुणसंसर्गिण एते पूर्वे भृग्वादयःसप्त ब्रह्माण्ड इत्येते पुराणे निश्चयं गताः [म.भा.12।208।5],इत्यादिपुराणप्रसिद्धाः। मानसाः तथा चतुर्दशसु मनुषु पूर्वे प्रथमाश्चत्वारो मनवः स्वायम्भुवस्वारोचिषोत्तमतामसाख्या इत्येते नित्यसर्गप्रवर्त्तनार्था मद्भावा जाताः? मत्त एवेत्यनुवर्त्तनीयम्। एतेन कारणभूतसर्वर्षिमनुदेवानामादिभूततयाऽनादित्वं स्वस्योक्तम्। एतेषां तु बुद्ध्यादिवन्न प्राकृतभावत्वमेव? किन्तु मद्भावत्वमिति। तदाह -- मद्भावा इति। मम भावः सामर्थ्यं तेजोभावो वा येषु ते तथा? एते मानसा भावाश्चेतनाः मत् मत्तो जाता इति वा? अथवा बुद्ध्यादयो येषां लोक इमाः प्रजास्ते महर्षिमन्वादयश्चेत्येते सर्वे भावा मत् मत्तो मानसा जाताःइच्छामात्रेण मनसा प्रवाहं सृष्टवान् हरिः इति भगवन्मुखोक्तेः सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय [तै.उ.2।6।1] इति असतोऽधिमनो यस्य मनः प्रजापतिमसृजत? प्रजापतिः प्रजा असृजत? तद्वा इदं मय्येव परमं प्रतिष्ठितम्। मनसो ह्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते? मनसो वशे सर्वमिदं बभूव? कामस्तदग्रे समवर्त्तताधीः इत्यादिश्रुतेश्च।


Chapter 10, Verse 6