Chapter 10, Verse 5

Text

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।10.5।।

Transliteration

ahiṁsā samatā tuṣṭis tapo dānaṁ yaśo 'yaśaḥ bhavanti bhāvā bhūtānāṁ matta eva pṛthag-vidhāḥ

Word Meanings

ahiṁsā—nonviolence; samatā—equilibrium; tuṣṭiḥ—satisfaction; tapaḥ—penance; dānam—charity; yaśaḥ—fame; ayaśaḥ—infamy; bhavanti—become; bhāvāḥ—natures; bhūtānām—of living entities; mattaḥ—from Me; eva—certainly; pṛthakvidhāḥ—differently arranged.


Translations

In English by Swami Adidevananda

Non-violence, reality, cheerfulness, austerity, beneficence, fame, and infamy—these different qualities of beings arise from Me alone.

In English by Swami Gambirananda

Non-injury, equanimity, satisfaction, austerity, charity, fame, and infamy—these different dispositions of beings spring from Me alone.

In English by Swami Sivananda

Non-injury, equanimity, contentment, austerity, beneficence, fame, and ill-fame—these different qualities of beings arise from Me alone.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

[Also], non-injury, equanimity, contentment, austerity, charity, repute, and ill-repute—all these diverse dispositions of beings emanate from none other than Me.

In English by Shri Purohit Swami

Harmlessness, equanimity, contentment, austerity, beneficence, fame, and failure—all these characteristics of beings spring from Me alone.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।10.4 -- 10.5।। बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, भव, अभाव, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश -- प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके और अलग-अलग (बीस) भाव मेरेसे ही होते हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।10.5।। अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान. यश और अपयश ऐसे ये प्राणियों के नानाविध भाव मुझ से ही प्रकट होते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

10.5 अहिंसा noninjury? समता eanimity? तुष्टिः contentment? तपः austerity? दानम् beneficence? यशः fame? अयशः illfame? भवन्ति arise? भावाः alities? भूतानाम् of beings? मत्तः from Me? एव alone? पृथग्विधाः of different kinds. Commentary Ahimsa is noninjury to living beings in thought? word and deed. Samata is that state wherein there is neither Raga (like) nor Dvesha (dislike)? when one gets pleasant or unpleasant objects. There is neither exhilaration when one gets pleasant or favourable objects nor depressions when one gets unpleasant or unfavourable objects. Tushtih is satisfaction or contentment. The man of contentment is satisfied with whatever object he gets through Prarabdha. He is satisfied with his present acisitions. He is free from greed and so he has peace of mind. Contentment makes a man very rich. It annihilates greed. Greed makes even a rich man a beggar of beggars. A greedy man is ever restless. Tapas is restraint of the senses? with bodily mortification through the practice of fasting and slow reduction of food. The strength of the body and the senses is reduced through fasting.Danam is beneficence. It is sharing of ones own things with others according to ones own means? or distribution of rice? gold? cloth? etc.? to a worthy person? in a fit place and time? especially to one who can do nothign in return.Yasas is fame due to Dharma or virtuous actions.Ayasah is illfame or disgrace due to Adharma or sinful actions.All these different kinds of alities of living beings arise from Me alone? the great Lord of the worlds? according to their respective Karmas.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।10.5।। व्याख्या--'बुद्धिः'--उद्देश्यको लेकर निश्चय करनेवाली वृत्तिका नाम बुद्धि है।'ज्ञानम्'--सार-असार, ग्राह्य-अग्राह्य, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, उचित-अनुचित, कर्तव्यअकर्तव्य --ऐसा जो विवेक अर्थात् अलगअलग जानकारी है, उसका नाम 'ज्ञान' है। यह ज्ञान (विवेक) मानवमात्रको भगवान्से मिला है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।10.5।। प्रस्तुत प्रकरण के विचार को ही आगे बढ़ाते हुए कि परमात्मा ही सम्पूर्ण विश्व का उपादान और निमित्त कारण है? भगवान् श्रीकृष्ण इन दो श्लोकों में उन विविध गुणों को गिनाते हैं? जो मनुष्य के मन और बुद्धि में व्यक्त होते हैं।साधारणत? सृष्टि शब्द से केवल हम भौतिक जगत् ही समझते हैं। परन्तु उपर्युक्त समस्त गुण उसके व्यापक एवं सर्वग्राहक अर्थ को सूचित करते हैं। उनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि जगत् शब्द के अर्थ में हमारे मानसिक और बौद्धिक जीवन भी सम्मिलित हैं।पुन सभी मनुष्यों और प्राणियों का वर्गीकरण इन्हीं गुणों के आधार पर किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण या स्वभाव के वशीभूत है। यथा मन तथा मनुष्य। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ केवल शुभ दैवी गुणों का ही गणना की गई है। संस्कृत व्याख्याकारों की पारम्परिक शैली का अनुकरण करते हुए? श्लोक में प्रयुक्त च शब्द की व्याख्या यह की जा सकती है कि उसके द्वारा विरोधी अशुभ गुणों को भी यहाँ सूचित किया गया है। तथापि भगवान् केवल शुभ गुणों को ही स्पष्टत बताते हैं? क्योंकि जिस व्यक्ति में इन गुणों का अधिकता होती है? उसमें आत्मा की शुद्धता एवं दिव्यता के दर्शन होते हैं।इन विभिन्न प्रकार की भावनाओं एवं विचारों से प्रेरित होकर प्रत्येक व्यक्ति अपनेअपने संस्कारों के अनुसार कर्म में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार यहाँ विविध प्रकार के जीवन दृष्टिगोचर होते है। ये समस्त गुण? मुझसे ही प्रकट होते हैं। स्तम्भ में प्रतीत हुआ प्रेत चाहे प्रेम से मन्दस्मित करे या क्रोध से खिसियाये अथवा प्रतिशोध की भावना से धमकाये? उसका मन्द स्मित या धमकाना इत्यादि गुणों का केवल एक अधिष्ठान है स्तम्भ। आत्मचैतन्य के बिना बुद्धि? ज्ञान आदि गुणों का न अस्तित्व है और न भान।इन गुणों के द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों का तथा उनके अनुभवों का प्राय पूर्ण वर्गीकरण किया गया है। इसलिए जैसा कि शंकराचार्य कहते हैं? ये दो श्लोक आत्मा का सर्वलोकमहेश्वर होना सिद्ध करते हैं।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।10.5।।यथाशक्तीति। पात्रे श्रद्धया स्वशक्तिमनतिक्रम्यार्थानां देशकालानुगुण्येन प्रतिपादनमित्यर्थः। उक्तानां बुद्ध्यादीनां साश्रयाणामीश्वरादुत्पत्तिं प्रतिजानीते -- भवन्तीति। नानाविधत्वे हेतुमाह -- स्वकर्मेति। कथंचिदपि तेषामात्मातिरेकेणाभावान्मत्त एवेत्युक्तम्।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।10.5।।अहिंसा प्राणिनामपीडा। समता समचित्तता। तुष्टिः संतोषोऽलंबुद्धिः। इन्द्रियसंयमपुरःसरं शास्त्रीयं देहपीडनं तपः। देशकालानुरोधेन शक्तिमतिक्रम्य श्रद्धयापात्रेऽर्थानामर्पणं दानम्। धर्मनिदाना कीर्तियेशः। अधर्मनिदानाऽपकीर्तिरपयशः। एते यथोक्ता भावाः पृथग्विधा नानाप्रकारा भूतानां स्वकर्मानुसारेण मत्तएवेश्वराद्भवन्ति। अतोऽहमेव सर्वलोकमहेश्वरः सर्वैर्भोगमोक्षार्थं शरणीकरणीय इति भावः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।10.5।।तुष्टिरलम्बुद्धिः।अलम्बुद्धिस्तथा तुष्टिः इत्यभिधानात्।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।10.5।।अहिंसा प्राणिनामपीडा। समता मित्रामित्रादौ समचित्तता। तुष्टिः संतोषो लब्धे पर्याप्तबुद्धिः। तप इन्द्रियसंयमपूर्वकं शरीरपीडनम्। दानं यथाशक्ति संविभागः। यशो धर्मनिमित्ता कीर्तिः। अयशोऽधर्मनिमित्ता अकीर्तिः। एते बुद्ध्यादयो विंशतिर्भावा मत्त एव प्राणिनां भवन्ति। पृथग्विधाः प्रत्येकं नानाप्रकाराः। तत उत्तमगुणलाभायाहमेव त्वया शरणीकरणीय इति भावः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।10.5।।बुद्धिः मनसो निरूपणसामर्थ्यम्? ज्ञानं चिदचिद्वस्तुविशेषविषयः निश्चयः। असंमोहः पूर्वगृहीताद् रजतादेः विसजातीये शुक्तिकादिवस्तुनि सजातीयताबुद्धिनिवृत्तिः। क्षमा मनोविकारहेतौ सति अपि अविकृतमनस्त्वम्। सत्यं यथादृष्टविषयं भूतहितरूपं वचनम्? तद्नुगणा मनोवृत्तिः इह अभिप्रेता? मनोवृत्तिप्रकरणात्। दमः बाह्यकरणानाम् अनर्थविषयेभ्यो नियमनम्। शमः अन्तःकरणस्य तथा नियमनम्। सुखम् आत्मानुकूलानुभवः। दुःखं प्रतिकूलानुभवः। भवो भवनम् अनुकूलानुभवहेतुकं मनसो भवनम्। अभावः,प्रतिकूलानुभवहेतुको मनसः अवसादः। भयम् आगामिनो दुःखस्य हेतुदर्शनजं दुःखम्? तन्निवृत्तिः अभयम्। अहिंसा परदुःखाहेतुत्वम्। समता आत्मनि सुहृत्सु विपक्षेषु च अर्थानर्थयोः सममतित्वम्। तुष्टिः सर्वेषु आत्मसु दृष्टेषु तोषस्वभावत्वम्। तपः शीस्त्रीयो भोगसंकोचरूपः कायक्लेशः। दानं स्वकीयभोग्यानां परस्मै प्रतिपादनम्। यशो गुणवत्ताप्रथा? अयशः नैर्गुण्यप्रथा? कीर्त्यकीर्त्यनुगुणमनोवृत्तिविशेषौ तथा उक्तौ? मनोवृत्तिप्रकरणात्। तपोदाने च तथा। एवमाद्याः सर्वेषां भूतानां भावाः प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतवो मनोवृत्तयो मत्त एव मत्संकल्पायत्ताः भवन्ति।सर्वस्य भूतजातस्य सृष्टिस्थित्योः प्रवर्तयितारः च मत्संकल्पायत्तप्रवृत्तय इत्याह --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।10.5।।किंच -- अहिंसेति। अहिंसा परपीडानिवृत्तिः? समता रागद्वेषादिराहित्यं? मित्रामित्रतुल्यता च? तुष्टिर्दैवलब्धेन संतोषः? तपः शारीरादि वक्ष्यमाणम्? दानं न्यायार्जितधनादेः सत्पात्रार्पणम्? यशः सत्कीर्तिः? अयशोऽपकीर्तिः? एते बुद्धिर्ज्ञानमित्यादयस्तद्विपरीताश्चाबुद्ध्यादयो नानाविधा भावाः प्राणिनां मत्तः सकाशादेव भवन्ति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 10.5 भक्त्युत्पत्तिविवृद्ध्यर्था [गी.सं.14] इत्यत्र विवक्षितं विवृण्वन्नुक्तेन तत्फलितेन च वक्ष्यमाणप्रकरणस्य च सङ्गतिमाह -- एवमिति। बुद्धिज्ञानशब्दयोः पौनरुक्त्यपरिहारायबुद्धिमत्त्वाज्जानाति इति प्रयोगानुसारेण शक्तिलक्षणया बुध्यतेऽनयेति तद्व्युत्पत्त्या वा हेतुकार्यपरतया व्याख्यातिबुद्धिर्मनसो निरूपणसामर्थ्यमिति। असम्मोहासक्त्या तद्धेतुभूतं ज्ञानमिह विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहज्ञानं चिदचिद्वस्तुविशेषविषयो निश्चय इति। बुद्धिज्ञानशब्दयोरध्यवसायमोक्षधीविषयत्वेन व्याख्यानं शब्दद्वयसङ्कोचादिप्रसङ्गादनादृतम्। विजातीये सजातीयताबुद्धिः सम्मोहः तदुदाहरति -- पूर्वेति।पूर्वगृहीतात्? आपणादिनिष्ठतयाऽनुभूतादित्यर्थः। इदं च स्मर्यमाणाध्यासोदाहरणम्। न कोपाख्यविकाराभावमात्रेण सुषुप्त्यादिषु क्षमाशब्दः? अपितु कोपहेतुषु सत्सु तदभावे तत्प्रयोग इत्यभिप्रायेणाह मनोविकारेति। क्रोधहेतावाक्रोशताडनादौ सत्यपीत्यर्थः।ननु कथं हेतौ सति तत्कार्यनिवृत्तिः तथात्वे तस्य हेतुत्वमेव हीयेत उच्यते -- नह्यवश्यं हेतौ सति कार्येण भवितव्यमिति नियमः अपितु प्रतिबन्धकरहितायां सामग्र्यां सत्याम् अन्यथा प्रत्येकं हेतूनां प्रतिबद्धानां च तत्तत्कार्यजनकत्वे कार्यस्य सदातनत्वसार्वत्रिकत्वप्रसङ्गात्? नित्यविभोश्च कारणस्य सद्भावात् तर्हि कः क्षमाया विस्मयः इति चेद्यथा मणिमन्त्रादिभिः स्फोटसामग्री स्तभ्यते तथा प्रबलविवेकाख्यप्रतिबन्धकेन कोपसामग्र्या दुर्निवारायाः स्तम्भनादिति भावः। वस्तुसत्यत्वस्य यथार्थदर्शनमप्यपेक्षितम्? तथापि यथादृष्टवचनमात्रे वक्तुर्नापराधः? भ्रमस्य दैवागतत्वादित्यभिप्रायेणयथादृष्टविषयमित्येतावदुक्तम्। परमार्थत्वेऽपि परानर्थहेतोःसत्यं भूतहितं प्रोक्तम् इत्यादिभिः सत्यत्वप्रतिक्षेपात्भूतहितरूपेति विशेषितम्। भावशब्दस्य मनोवृत्तौ प्रसिद्धिप्रकर्षबलमग्र्यप्रायनयं चाभिप्रेत्य सत्यशब्दस्यात्र लाक्षणिकत्वमाहतदनुगुणेति। शमदमशब्दयोरेकैकस्योभयनियमनाभिधानसामर्थ्येऽपि पौनरुक्त्यपरिहाराय विषयभेदे वक्तव्ये नियमनक्रमेण दमशमयोर्बाह्यान्तरकरणविषयत्वोक्तिः। शास्त्रीयेभ्यो नियमनस्य निषिद्धत्वात्अनर्थविषयेभ्य इत्युक्तम्।तथेति अनर्थविषयेभ्य एव।अनुकूलत्वमात्रं प्रतिकूलत्वमात्रमेव च सुखदुःखयोर्लक्षणम् तथापि मनोवृत्तिरूपत्वसिद्ध्यर्थमनुभवशब्दः। सुखदुःखभयाभयमध्यपतितत्वात्भवोऽभावः इत्यत्रापि परस्परविरुद्धार्थविषयत्वं सम्भवदपरित्याज्यम् ततश्च भावाभावशब्दयोः प्रत्ययभेदमात्रमेव? न त्वर्थभेदः तत्र चाभाव इत्येव पदच्छेदः तयोरपि मनोवृत्तिरूपत्वं वक्तव्यम् प्रस्तुतयोरेव च सुखदुःखयोस्तद्धेतुत्वमुचितम् अत एवभवो भव्यता? भावोऽभिप्रायः इत्यादि परव्याख्यानं मन्दम् तदेतदखिलमभिप्रेत्याहअनुकूलेति।भवनमिति उद्धर्षोऽत्र विवक्षितः अवसादप्रतियोगित्वात्। अनवसादानुद्धर्षो हि सहोक्तौ वाक्यकारेणतल्लब्धिर्विवेकविमोकाभ्यासक्रियाकव्याणानवसादानुद्धर्षेभ्यः [बो.वृ.] इति। सुखदुःखशब्दाभ्यां पौनरुक्त्यव्युदासाय भयाभयशब्दयोस्तद्विशेषविषयतां दर्शयति -- आगामिन इति। आगामिप्रत्यवायोत्प्रेक्षा भयमिति लक्षणेऽपि तस्यैव ज्ञानविशेषस्य प्रतिकूलरूपत्वाद्दुःखत्वम् नह्यन्यो दुःखाख्यो गुणोऽस्मद्दर्शने।परदुःखाहेतुत्वमित्यत्र दुःखशब्देनाहितं विवक्षितम्? चिकित्सादौ हितरूपदुःखकरणस्य हिंसात्वाभावात्? प्रपञ्चितं चैतत्प्रागेव। अभयाहिंसयोरभावरूपयोरपि भावान्तरत्ववेषेण मनोवृत्तिरूपत्वं भाव्यम्। समत्वप्रकारेषु बहुषु सत्स्वपि हिंसानिषेधप्रसङ्गाद्धिंसाविषयभूतशत्रुस्मृतिर्जाता ततश्च द्वेषाद्यभावेन शत्रुमित्रादिसाम्यं प्रदेशान्तरप्रपञ्चितमिह विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहआत्मनीति।न चलति निजवर्णधर्मतो यः सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे। न हरति नच हन्ति किञ्चिदुच्चैः सितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम् [वि.पु.3।7।20] इति भगवत्पराशरवचनमिह तत्तत्पदैः स्मारितम्।अर्थानर्थयोरिति -- आत्मार्थपरार्थयोरात्मानर्थपरानर्थयोश्चेत्यादि भाव्यम्।तुष्टेः समतासहपाठात् शत्रूणां समृद्धिमतामपि सङ्ग्रहाय सर्वशब्दः। सर्वत्र सन्तोष एव ह्यात्मनः स्वारसिकः प्राप्तः? प्रातिकूल्यभावनाद्युपाध्यधीनं हि वैरादिकमित्यभिप्रायेणसन्तोषस्वभावत्वमित्युक्तम्। इदं च मैत्र्यादिषु चतुर्षु मुदिताख्यचित्तपरिकर्म। बाह्यागमादिमूलक्लेशस्य तपस्त्वव्यवच्छेदायोक्तंशास्त्रीय इति। शास्त्रधिस्यैव भोगसङ्कोचस्य व्याध्यादिवशादक्लेशात्मकत्वे तपस्त्वं नास्तीति व्यञ्जनायकायक्लेश इत्युक्तम्। दाने परकीयानां स्वकीयानामपि हेयभूतानां व्यवच्छेदायस्वकीयभोग्यानामित्युक्तम्।परस्मै प्रतिपादनं परस्वत्वापादनमित्यर्थः। अयशश्शब्दै नञो विरोधिपरत्वं प्रयोगप्रकर्षसिद्धमाह -- नैर्गुण्यप्रथेति। सदोषत्वप्रथेत्यर्थः। प्रथात्वमात्रमुभयसाधारणम् अतो गुणवत्त्वनैर्गुण्याभ्यां विशेषणम्।एतच्चेत्यादिकं पूर्ववत्। सिंहावलोकितकेनाह -- तपोदाने च तथेति मनोवृत्तिविशेषावित्यर्थः। उक्तमात्रव्युदासायोपलक्षणतामभिप्रेत्याहएवमाद्या इति। अभिप्रायेऽपि भावशब्दप्रयोगादत्र भावशब्दस्य मनोवृत्तिविषयता। सर्वेषां कर्तृकरणादीनां प्रवृत्तेः स्वाधीनत्वेऽपि मनोवृत्त्युदाहरणं प्राकरणिकभक्तिरूपमनोवृत्तेरपि स्वसङ्कल्पमूलत्वज्ञापनार्थम्। प्रवृत्तिनिवृत्त्योः स्वाधीनत्वे कैमुत्यार्थमाहप्रवृत्तिनिवृत्तिहेतव इति।मत्त एव इत्यत्र परोक्तसन्निधिमात्रादिव्युदासाय पञ्चम्यवगतं हेतुत्वं व्यापारमुखेनेत्याहमत्सङ्कल्पेति। पृथग्विधानां परस्परविरुद्धानामप्यहमेको हेतुरित्येवकाराभिप्रायः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।10.5।।सुखशब्दागतार्थतया तुष्टिशब्दं सप्रमाणकं व्याचष्टे -- तुष्टिरिति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।10.5।।अहिंसा प्राणिनां पीडाया निवृत्तिः। समता चित्तस्य रागद्वेषादिरहितावस्था। तुष्टिर्भोग्येष्वेतावताऽलमिति बुद्धिः। तपः शास्त्रीयमार्गेण कायेन्द्रियशोषणम्। दानं देशे काले श्रद्धया,यथाशक्त्यर्थानां सत्पात्रे समर्पणम्। यशो धर्मनिमित्ता लोकश्लाघारूपा प्रसिद्धिः। अयशस्त्वधर्मनिमित्ता लोकनिन्दारूपा प्रसिद्धिः। एते बुद्ध्यादयो भावाः कार्यविशेषाः सकारणकाः पृथग्विधा धर्माधर्मादिसाधनवैचित्र्येण नानाविधा भूतानां सर्वेषां प्राणिनां मत्तः परमेश्वरादेव भवन्ति नान्यस्मात्। तस्मात्किं वाच्यं मम लोकमहेश्वरत्वमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।10.5।।अहिंसा दयात्मिका? समता सर्वत्र मद्भावः? तुष्टिः सदा मद्भावसन्तोषः? तपो मदर्थक्लेशसहनं? दानं मदुपदेशादीनां? यशो मत्सेवकत्वेन सत्कीर्तिः? अयशो दुष्टत्वादिलक्षणात्मिकाऽपकीर्तिः। भूतानां एते भावाः पृथग्विधाः भिन्नाः मत्कृपाविशिष्टमज्ज्ञानवतां बुद्ध्यादयः सर्वे भवन्ति। अन्येषाप्नयशस्सहितदुःखादिचतुष्टया भावा भवन्तीति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।10.5।। --,अहिंसा अपीडा प्राणिनाम्। समता समचित्तता। तुष्टिः संतोषः पर्याप्तबुद्धिर्लाभेषु। तपः इन्द्रियसंयमपूर्वकं शरीरपीडनम्। दानं यथाशक्ति संविभागः। यशः धर्मनिमित्ता कीर्तिः। अयशस्तु अधर्मनिमित्ता अकीर्तिः। भवन्ति भावाः यथोक्ताः बुद्ध्यादयः भूतानां प्राणिनां मत्तः एव ईश्वरात् पृथग्विधाः नानाविधाः स्वकर्मानुरूपेण।।किञ्च --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।10.4 -- 10.5।।किञ्च अचिन्त्यैश्वर्ययोगकल्याणगुणान्मत्त एव बुद्धिर्ज्ञानं च भवति। ज्ञानमित्युपलक्षणं सर्वस्य सदसद्गुणसर्गस्यमत्तः सर्वं प्रवर्त्तते [10।8] इति वाक्यात्। तथाहि बुद्धिरित्यादि। बुद्धिः तत्त्वतोऽध्यवसायरूपा? ज्ञानमुपदेशजन्यम्?असम्मूढः [10।3] इत्यत्रोक्तोऽसम्मोहोऽपि मत्त एव भवति। क्षमा सहिष्णुता सत्यं प्रमाणेनावबुद्धस्यार्थस्य तथैव भाषणम्? दमो बाह्येन्द्रियाणां स्वविषयेभ्यो निवृत्तिः? शमोऽन्तःकरणस्य? सुखमात्मानुकूलानुभवः? दुःखं तद्विपरीतं च मत्त एव भवति। मार्गत्रयाधिष्ठाताऽहं यथामार्गानुसरणं तत्तदधिकृताय तथैव दुःखं सुखं प्रयच्छामीति भावः। एवं भवः उद्भवः? अभावस्तद्विपरीतः? भयमभयं च दानं यशः अयशश्चेति विंशद्भावास्तत्तन्मार्गरतानां प्राणिनां यथासर्गं पृथग्विधा मत्त एव भवन्तिरूपनामविभेदेन जगत् क्रीडति यो यतः इति निबन्धोक्तेः। अनेन स्वस्य मुख्यं कर्तृत्वं सर्वकारणत्वं चोक्तम्। प्रकृत्यादेस्तु करणत्वमेव? न कारणत्वं साधकतमत्त्वादिति स्वयोगमहिमोक्तः।


Chapter 10, Verse 5