Chapter 9, Verse 23

Text

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।।

Transliteration

ye ’pyanya-devatā-bhaktā yajante śhraddhayānvitāḥ te ’pi mām eva kaunteya yajantyavidhi-pūrvakam

Word Meanings

ye—those who; api—although; anya—other; devatā—celestial gods; bhaktāḥ—devotees; yajante—worship; śhraddhayā anvitāḥ—faithfully; te—they; api—also; mām—me; eva—only; kaunteya—Arjun, the son of Kunti; yajanti—worship; avidhi-pūrvakam—by the wrong method


Translations

In English by Swami Adidevananda

Even those who are devoted to other divinities with faith in their hearts, worship Me alone, O Arjuna, though not in accordance with the Sastras.

In English by Swami Gambirananda

Even those who, being devoted to other deities and endowed with faith, worship them, they also, O son of Kunti, worship Me alone, though following the wrong method.

In English by Swami Sivananda

Even those devotees who, endowed with faith, worship other gods, worship Me alone, O Arjuna, but by the wrong method.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

O son of Kunti! Even those who are devotees of other gods and worship them with faith, worship Me alone, but following non-injunctive practices.

In English by Shri Purohit Swami

Even those who worship the lesser powers, if they do so with faith, they are thereby worshipping Me, though not in the correct manner.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।9.23।। हे कुन्तीनन्दन! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी करते हैं मेरा ही पूजन, पर करते है अविधिपूर्वक  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।9.23।। हे कौन्तेय ! श्रद्धा से युक्त जो भक्त अन्य देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझे ही अविधिपूर्वक पूजते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

9.23 ये who? अपि even? अन्यदेवताः other gods? भक्ताः devotees? यजन्ते worship? श्रद्धया with faith? अन्विताः endowed? ते they? अपि also? माम् Me? एव alone? कौन्तेय O Kaunteya? यजन्ति worship? अविधिपूर्वकम् by the wrong method.Commentary They worship Me in ignorance. Their mode of worship is contrary to the ancient,rule. Hence they return to this world.People worship Agni? Indra? Surya? Varuna? the Vasus? etc. Even they attain Me? because I am everywhere. But their devotion is not pure. It is vicarious. Water should be given to the root and not to the branches. If the root is satisfied? the whole tree must be and is satisfied. Even so? if I (the root of this world and all the gods) am satisfied? all the gods must be and are satisfied. Though the messages from the five organs of knowledge reach the one consciousness? will it be right and useful to place a sweetmeat in the ear and a flower in the eyes The function of eating must be done by the mouth alone and the function of smelling by the nose alone. Therefore I should be worshipped in My own nature. They should know Me as the Self in all beings. They should recognise Me in other worship. I am the root. I am the source of all the gods and of this whole world. (Cf.IV.11VII.20)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।9.23।।   व्याख्या--'येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः' -- देवताओंके जिन भक्तोंको 'सब कुछ मैं ही हूँ' ('सदसच्चाहम्' 9। 19) -- यह समझमें नहीं आया है और जिनकी श्रद्धा अन्य देवताओंपर है, वे उन देवताओंका ही श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं। वे देवताओंको मेरेसे अलग और बड़ा मानकर अपनी-अपनी,श्रद्धाभक्तिके अनुसार अपनेअपने इष्ट देवताके नियमोंको धारण करते हैं। इन देवताओंकी कृपासे ही हमें सब कुछ मिल जायगा-- ऐसा समझकर नित्य-निरन्तर देवताओंकी ही सेवा-पूजामें लगे रहते हैं। 'तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्' -- देवताओंका पूजन करनेवाले भी वास्तवमें मेरा ही पूजन करते हैं, क्योंकि तत्त्वसे मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं। मेरेसे अलग उन देवताओंकी सत्ता ही नहीं है। वे मेरे ही स्वरूप हैं। अतः उनके द्वारा किया गया देवताओंका पूजन भी वास्तवमें मेरा ही पूजन है, पर है अविधिपूर्वक। अविधि-पूर्वक कहनेका मतलब यह नहीं है कि पूजन-सामग्री कैसी होनी चाहिये? उनके मन्त्र कैसे होने चाहिये? उनका पूजन कैसे होना चाहिये? आदि-आदि विधियोंका उनको ज्ञान नहीं है। इसका मतलब है -- मेरेको उन देवताओंसे अलग मानना। जैसे कामनाके कारण ज्ञान हरा जानेसे वे देवताओंके शरण होते हैं (गीता 7। 20), ऐसे ही यहाँ मेरेसे देवताओंकी अलग (स्वतन्त्र) सत्ता मानकर जो देवताओंका पूजन करना है, यही अविधिपूर्वक पूजन करना है। इस श्लोकका निष्कर्ष यह निकला कि (1) अपनेमें किसी प्रकारकी किञ्चिन्मात्र भी कामना न हो और उपास्यमें भगवद्बुद्धि हो, तो अपनी-अपनी रुचिके अनुसार किसी भी प्राणीको, मनुष्यको और किसी भी देवताको अपना उपास्य मानकर उसकी पूजा की जाय, तो वह सब भगवान्का ही पूजन हो जायगा और उसका फल भगवानकी ही प्राप्ति होगा; और (2) अपनेमें किञ्चिन्मात्र भी कामना हो और उपास्यरूपमें साक्षात् भगवान् हों तो वह अर्थार्थी, आर्त आदि भक्तोंकी श्रेणीमें आ जायगा, जिनको भगवान्ने उदार कहा है (7। 18)। वास्तवमें सब कुछ भगवान् ही हैं। अतः जिस किसीकी उपासना की जाय, सेवा की जाय, हित किया जाय, वह प्रकारान्तरसे भगवान्की ही उपासना है। जैसे आकाशसे बरसा हुआ पानी नदी, नाला, झरना आदि बनकर अन्तमें समुद्रको ही प्राप्त होता है (क्योंकि वह जल समुद्रका ही है), ऐसे ही मनुष्य जिस किसीका भी पूजन करे, वह तत्त्वसे भगवान्का ही पूजन होता है (टिप्पणी प0 509)। परन्तु पूजकको लाभ तो अपनी-अपनी भावनाके अनुसार ही होता है।  सम्बन्ध --देवताओंका पूजन करनेवालोंका अविधिपूर्वक पूजन करना क्या है? इसपर कहते हैं --

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।9.23।। विश्व के सभी लोग एक ही पूजास्थल पर पूजा नहीं करते। न केवल शारीरिक दृष्टि से यह असम्भव है? वरन् मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी यह तर्कसंगत नहीं है? क्योंकि सब लोगों की अभिरुचियाँ भिन्नभिन्न होती हैं।भक्तगण जब भिन्नभिन्न देव स्थानों पर पूजा करते हैं? तब ये एक ही चेतन सत्य की आराधना करते हैं? जो इस परिवर्तनशील सृष्ट जगत् का अधिष्ठान है। जब वे विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं? तब भी वे उस एक सनातन सत्य का ही आह्वान करते हैं? जो उनके इष्ट देवता के रूप में व्यक्त हो रहा है। जब हम यह स्वीकार करते हैं कि अनन्त सत्य एकमेव अद्वितीय है? जो भूत? वर्तमान और भविष्य काल तीनों में एक समान रहता है? तब यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी ऋषिमुनियों? साधुसन्तों? पैगम्बरों और अवतारों की उपाधियों में व्यक्त होने वाला आत्मचैतन्य एक ही है।सहिष्णुता हिन्दू धर्म का प्राण है। हम पहले भी विचार कर चुके हैं कि परमार्थ सत्य को अनन्तस्वरूप में स्वीकार करने वाले अद्वैती किस प्रकार सहिष्णु होने के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकते हैं। असहिष्णुता उस धर्म में पायी जाती है? जिसमें किसी देवदूत विशेष को ही ईश्वर के रूप में स्वीकारा जाता है। हिन्दुओं में भी प्राय भिन्नभिन्न पंथों एवं सम्प्रदायों के मतावलम्बी निर्दयता की सीमा तक कट्टर पाये जाते हैं। असभ्यता के कुछ ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं? जिनमें एक भक्त की यह धारणा होती है कि अन्य लोगों के देवताओं की निन्दा करना? अपने इष्ट देवता की स्तुति और भक्ति करना है परन्तु इस प्रकार के मत विकृत? घृणित और अशिष्ट हैं? जिन्हें हिन्दू धर्मशास्त्र में कोई स्वीकृति नहीं है? और न ही ऋषियों द्वारा प्रवर्तित सांस्कृतिक परम्परा में उन्हें कोई स्थान प्राप्त है।उदार हृदय? करुणासागर? प्रेमस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण घोषणा करते हैं? ये भक्त भी वास्तव में मुझे ही पूजते हैं? यद्यपि वह पूजन अविधिपूर्वक है।बाह्य जगत् में व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से इस श्लोक का अभिप्राय यह है कि परमानन्दस्वरूप आत्मा की प्राप्ति को त्यागकर जो लोग सांसारिक विषयों की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करते हैं? वे भी आत्मकृपा का ही आह्वान करते हैं? परन्तु अविधिपूर्वक।अत्यन्त विषयोपभोगी पुरुष भी जब धन के अर्जन? रक्षण और व्यय की योजनाएं बनाता है? जिससे कि वह नित्य नवीन विषयों को प्राप्त कर उनको भोग सके? तब वह भी स्वयं में स्थित अव्यक्त क्षमताओं का ही आह्वान करता है। आत्मा के बिना कोई भी व्यक्ति न पापकर्म कर सकता है और न पुण्य कर्म। आत्महत्या जैसे कार्य में भी जीवनी शक्ति की आवश्यकता होती है? परन्तु शस्त्र उठाने में वह पुरुष आत्मचेतना का दुरुपयोग कर रहा होता है।इस सन्दर्भ में अविधिपूर्वक का अर्थ अज्ञानपूर्वक है? जिसका अन्तिम परिणाम दुख और विषाद् होता है? तथा साधक आत्मा के परम आनन्द से वंचित रह जाता है।इन भक्तों के पूजन को अविधिपूर्वक क्यों कहा गया है इसके उत्तर में कहते हैं --

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।9.23।।तत्तद्देवतात्मना परस्यैवात्मनः स्थित्यभ्युपगमाद्देवतान्तरपराणामपि भगवच्छरणत्वाविशेषात्तदेकनिष्ठत्वमकिंचित्करमिति मन्वानः शङ्कते -- नन्विति। उक्तमङ्गीकृत्य परिहरति -- सत्यमित्यादिना। देवतान्तरयाजिनां भगवद्याजिभ्यो विशेषमाह -- अविधीति। तद्व्याकरोति -- अविधिरिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।9.23।।नन्वन्या वासुदेवाभिन्ना इति ज्ञानाभावात्तेषां मद्भक्तेभ्यो विशेष इत्याह -- येऽपीति। येप्यन्यासु इन्द्रादिदेवतासु भक्ताः सन्तः श्रद्धया आस्तिक्यबुद्य्धा अन्विता युक्ता अन्यदेवतां यजन्ते पूजयन्ति तेऽपि वस्तुगत्या मामेव यजन्ति। यथा कुन्तीसुतोऽपि त्वं वस्तुवृत्त्यास्मत्पितामहौहित्र एवेति संबोधनाशयः। तथापि मद्भजने वासुदेवव्यतिरिक्तं वस्तु नास्तीत ज्ञानं विधिस्तदभावोऽविधिस्तत्पर्वकं यजन्त इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।9.23।।तर्हिअहं क्रतुः [9।16] इत्यादि असत्यमित्यत आह -- येऽपीति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।9.23।।अविधिपूर्वकं विधिरभेदबुद्धिस्तद्राहित्यादविधिपूर्वकत्वं तदीयभजनस्य।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।9.23।।ये अपि अन्यदेवताभक्ताः ये तु इन्द्रादिदेवताभक्ताः केवलत्रयीनिष्ठाः श्रद्धया अन्विताः इन्द्रादीन् यजन्ते? तेऽपि पूर्वोक्तेन न्यायेन सर्वस्य मच्छरीरतया मदात्मत्वेन इन्द्रादिशब्दानां च मद्वाचित्वाद् वस्तुतो माम् एव यजन्ते अपि तु अविधिपूर्वकं यजन्ते। इन्द्रादीनां देवतानां कर्मसु आराध्यतया अन्वयं यथा वेदान्तवाक्यानिचतुर्होतारो यत्र संपदं गच्छन्ति देवैः (तै0 आ0 4) इत्यादीनि विदधति? न तत्पूर्वकं यजन्ते।वेदान्तवाक्यजातं हि परमपुरुषशरीरतया अवस्थितानाम् इन्द्रादीनाम् आराध्यत्वं विदधद् आत्मभूतस्य परमपुरुषस्य एव साक्षाद् आराध्यत्वं विदधाति।चतुर्होतारः अग्निहोत्रदर्शपौर्णमासादीनि कर्माणि कुर्वाणा यत्र परमात्मनि आत्मतया अवस्थिते सति एव तच्छरीरभूतैः इन्द्रादिदेवैः संपदं गच्छन्ति? इन्द्रादिदेवानाम् आराधनानि एतानि कर्माणि मद्विषयाणि इति मां संपदं गच्छन्ति इत्यर्थः।अतः त्रैविद्या इन्द्रादिशरीरस्य परमपुरुषस्य आराधनानि एतानि कर्माणि? आराध्यः च स एव? इति न जानन्ति? ते च परिमितफलभागिनः च्यवनस्वभावाः च भवन्ति? तद् आह --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।9.23।।ननु च त्वद्व्यतिरेकेण वस्तुतो देवतान्तरस्याभावादिन्द्रादिसेविनोऽपि त्वद्भक्ता एवेति कथं ते गतागतं लभेरंस्तत्राह -- येऽपीति। श्रद्धयोपेता भक्ताः सन्तो येऽपि जना यज्ञेनान्यदेवता इन्द्रादिरूपा यजन्ते तेऽपि मामेव यजन्तीति सत्यम्? किंत्वविधिपूर्वकं मोक्षप्रापकं विधिं विना यजन्त्यतस्ते पुनरावर्तन्ते।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।9.23।।सर्वासामपि देवतानां भगवच्छरीरत्वात्त्रैविद्या माम् [20] इत्युक्तप्रकारेण वस्तुतः स्वसमाराधनमिति जानन् भवान् किं न केवलकर्मिणामपि मोक्षरूपयोगक्षेमं प्रयच्छतीत्यत्रोत्तरमुच्यतेये तु इत्यादिश्लोकद्वयेन। तुशब्दः शङ्कानिवृत्त्यर्थः।अन्यदेवताभक्ताः इत्येतत्समभिव्याहारफलितम्इन्द्रादीनिति।पूर्वोक्तेन न्यायेनेति -- मयि सर्वमिदं प्रोतं [7।7] इत्यादावस्मिन्नप्यध्यायेमया ततमिदं सर्वम् [9।4] इत्यादौ चेति भावः।मामेव यजन्ति इत्यन्तं शङ्कितानुवादरूपम् शेषं तु विधेयरूपमित्यभिप्रायेणाहअपित्विति। विधिः स्वज्ञानद्वारा यस्य पूर्वं कारणं? तद्विधिपूर्वम् तदन्यदविधिपूर्वकम्। कथमविधिपूर्वकत्वं विहितानामित्यत्राहइन्द्रादीनामिति।तत्पूर्वकमिति -- तथाविधविध्यनुसन्धानपूर्वकमित्यर्थः। यथा विदधतीत्युक्तं विवृणोतिवेदान्तेति। इन्द्रादीनामाराध्यत्वमात्रं कर्मभोगे प्रतिपादितम् तेषामेव यथावस्थितं स्वरूपं वेदान्तेष्विति न विरोधः।साक्षादिति निरुपाधिकमित्यर्थः? प्रधानतयेति वा। हविरुद्देश्यपरमपुरुषविशेषणतयेन्द्रादीनामुद्देश्यानुप्रवेशः यथा प्रतर्दनविद्यादिषूपास्यानुप्रवेश इति भावः।चतुर्होतारः इति उपात्तवाक्यस्य कथं प्रस्तुतार्थता तत्राहचतुर्होतार इति। उपलक्षणतामभिप्रेत्योक्तंअग्निहोत्रदर्शपूर्णमासादीनीति। अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा [यजुः3।10।2] इत्यादिप्रसिद्धः यत्रशब्दार्थ उच्यतेपरमात्मनीत्यादिना। यस्यादित्यः शरीरम् [बृ.उ.3।7।9] इत्यादिवाक्यानुसन्धानेनतच्छरीरभूतैरित्यादिकमुक्तम्। कर्मणां देवैः साध्या सम्पत् तदाराधनत्वरूपोऽतिशय एव स चान्ततः फलसाधनत्वप्रकारे पर्यवसित इत्यभिप्रायेणाहइन्द्रादिदेवतानामित्यादि।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।9.23 -- 9.25।।येऽपीत्यादि प्रयतात्मनः इत्यन्तम्। येऽपि नामधेयान्तरैरुपासते तेऽपि मामेवोपासते। न हि ब्रह्मव्यतिरेकि किञ्चिदुपास्यमस्ति। किन्तु अविधिना इति विशेषः। अविधिः अन्यो विधिः। नानाप्रकारैर्विधभिरहमेव परब्रह्मसत्तास्वभावो याज्य इति।न तु यथा अन्यैर्दर्शनान्तरदूषणसमुपार्जितमहापातकम (S? omit पातक -- ) -- लीमसैर्व्याख्यातम् अविधिना? दुष्टविधिना इति। एवं हि सति मामेव यजन्ते? सर्वयज्ञानाञ्चाहमेव भोक्ता इति दृश्यमानमेतदसमञ्जसीभवेत् इत्यलं कल्मषकलिलैस्साकं संलापेन।अस्मद्गुरवस्तु निरूपयन्ति -- अन्या स्वात्मव्यतिरिक्ता भेदवादनयेन ब्रह्मस्वभावहीनैव काचिद्देवता इति गृहीत्वा तामेव [ये] यजन्ते तेऽपि वस्तुतो मामेव स्वात्मरूपं यजन्ते? किं तु अविधिना दुष्टेन विधिना भेदग्रहणरूपेण,(S? भेदग्रहरूपेण) इति।अत एवाह -- न तु मां स्वात्मानं तत्त्वेन देवतारूपतया भोक्तृत्वेन जानन्ति? अतश्चलन्ति ते,(S? ? N च्यवन्ते) मद्रूपात्। किम् देवव्रतत्वेन देवान् यान्ति इत्यादि। एतदेव चलनमिति,(S??N च्यवन) यावत्। ये तु मत्स्वरूपमभेदेन (?N -- स्वरूपभेदे (दं) न विदुः? ते देवभूतपितृयागादिनाऽपि मामेव यजन्ते (N यजन्ति)। ते च मद्याजिनो मामेव गच्छन्ति (N यजन्ति) इत्युपसंहरिष्यति।ननु द्रव्यत्यागार्थमुद्दिष्टा देवता इत्युच्यते। तत् कथमनुद्दिश्यस्वात्मतत्त्वस्य याज्यत्वम् आदित्यः प्रायणीयश्चरुः इति विधिशेषभूतदेवता उद्देशात्मकविध्यन्तरभावितो (?N प्रभावितो) ह्यसौ उद्देशः (श्यः)। न च स्वात्मविषयो (S??N omit विषयो) विधिरस्ति इत्यभिप्रायेणाह -- अविधिपूर्वकं मामिति। स्वात्मव्यतिरिक्तायां देवतायामस्ति अपेक्ष्यो विधिः? अप्राप्तप्रापणरूपत्वात्। स्वात्मा तु परमेश्वरो न विधिपूर्वकः? विधिपरिप्रापितत्त्वाभावात् (S??N -- परिप्राप्यत्वाभावात्)। न हि तदनुद्देशेन किञ्चित्प्रवर्तते। तेन विधिपरिप्रापितेन्द्रादिदेवतोद्देशेषु सर्वेषु स (S omits सः) स्वात्मा विश्वावभासनस्वभावः तदुद्देश्यदेवतावभासभित्ति (?N substitutes -- भित्ति with मिति -- ) स्थानीयतयैव अहमहमिकया सततावभासमानः स्रक्सूत्रकल्पः सततोद्दिष्टः इति युक्तिसिद्धमेतत्? मामेव यजन्ति अविधिपूर्वकत्वात् [इति]। मुख्यभूतमत्प्राप्तिफलस्य तान्प्रति कर्त्रभिप्रायत्वं नास्ति? अपि तु परिमितदक्षिणास्थानीयेन्द्रादिपद ( -- येन्द्रपदातिमात्र N येन्द्रपदादि K (n) -- इन्द्रादिपदमात्र -- ) -- मात्रप्राप्तेरेव (? K (n) प्राप्तय एव N प्राप्त एव) याजकवच्चरितार्थत्वमेषाम् इति प्रथयितुं परस्मैपदम्। यदुक्तं मयैव -- वेदान् वेद न वेद शाम्भवपदं दूयेत निर्वेदवान् स्वर्गार्थी यजमानतां प्रतिजहज्जातो यजन् याजकः।सर्वाः कर्मरसप्रवाहविसराः (K प्रसराः) संवित्स्रवन्त्योऽखिलाः स्त्वामा (स्वात्मा) नन्दमहाम्बुधिं विदधते नाप्राप्य पूर्णां, स्थितिम्।।इतिएवं य उक्तक्रमेण वेत्ति तस्येन्द्रादिदेवतायागोऽपि परमेश्वरयाग इति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।9.23।।उक्तप्रश्नस्योत्तरं जातं? तत्किमुत्तरेणेत्यतः प्रश्नाभिसन्ध्युद्धाटनस्येदमुत्तरमित्याह -- तर्हीति। भगवद्भोगनिमित्तं हि फलं? स चेत्सर्वत्र समस्तदा सर्वेषां फलसाम्येन भाव्यम्। तदभावश्चेत्तर्हिअहं क्रतुः [9।16] इत्युक्तं सर्वत्र भगवतो भोक्तृत्वमप्यसत्यमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।9.23।।नन्वन्या अपि देवतास्त्वमेव तद्व्यतिरिक्तस्य वस्त्वन्तरस्याभावात् तथाच देवतान्तरभक्ता अपि त्वामेव भजन्त इति न कोपि विशेषः स्यात्। तेन गतागतं कामकामा वसुरुद्रादित्यादिभक्ता लभन्ते। अनन्याश्चिन्तयन्तो मां तु कृतकृत्या इति कथमुक्तं तत्राह -- येऽप्यन्येति। यथा मद्भक्ता मामेव यजन्ति तथा येऽन्यदेवतानां वस्वादीनां भक्ता यजन्ते ज्योतिष्टोमादिभिः श्रद्धया आस्तिक्यबुद्ध्या अन्विताः तेऽपि मद्भक्ता एव हे कौन्तेय? तत्तद्देवतारूपेण स्थितं मामेव यजन्ति पूजयन्ति। अविधिपूर्वकं अविधिरज्ञानं तत्पूर्वकं सर्वात्मत्वेन मामज्ञात्वा मद्भिन्नत्वेन वस्वादीन्कल्पयित्वा यजन्तीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।9.23।।नन्वन्यदेवभजनकर्त्तारोऽपि त्वदंशत्वात् त्वद्भजनमेव कुर्वन्तीति कथं न तेषु त्वत्कृपा तद्भजनं च कथं भोग एव क्षीयते इत्यत आह -- येऽपीति। येऽपि श्रद्धयाऽन्विताः श्रद्धायुक्तास्तदासक्तत्वधर्मयुक्ता अन्यदेवता यज्ञादिसाधनैस्तदधिष्ठातृरूपेण मदंशाज्ञानेन भजन्ति तेषु मदंशत्वात् मामेव भजन्ति? परन्तु मत्स्वरूपाज्ञानादविधिपूर्वकं भजन्ति? अतस्तेषां तद्भजनानुरूपं क्षयिष्ण्वेव फलं भवति अहं च न कृपां करोमीत्यर्थः। अत एव स्मृतिष्वविधिकरणनिषेधःविधिहीनं भावदुष्टं कृतमश्रद्धया च यत्। तद्धरन्त्यसुरास्तस्य सुमूढस्याऽकृतात्मनः इति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।9.23।। --,येऽपि अन्यदेवताभक्ताः अन्यासु देवतासु भक्ताः अन्यदेवताभक्ताः सन्तः यजन्ते पूजयन्ति श्रद्धया आस्तिक्यबुद्ध्या अन्विताः अनुगताः? तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्ति अविधिपूर्वकम् अविधिः अज्ञानं तत्पूर्वकं यजन्ते इत्यर्थः।।कस्मात् ते अविधिपूर्वकं यजन्ते इत्युच्यते यस्मात् --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।9.23।।ननु ब्रह्मवादे तव सर्वात्मत्वाद्देवान्तरभजनेऽपि त्वद्भजनमेव भवति? तर्हि किमिति ते गतागतं लभन्ते इति चेत्तत्राह -- येऽपीति। अन्यदेवताभक्ताःरविर्विनायकश्चण्डी ईशो विष्णुस्तु पञ्चमः। अनुक्रमेण पूज्यन्ते व्युत्क्रमे तु महद्भयम् इति श्रीमत्या प्रोक्तपञ्चायतनपूजापरा अपि श्रद्धया युक्ताः सन्तः पूजयन्ति तेऽपि रव्यादिषु मामेव ब्रह्म ध्यात्वा यजन्ति। यद्वा त्वर्थेऽपीति केचित्। तेऽपि मामेवेति। उक्तन्यायेन सर्वस्य मदङ्गभूतया मदात्मकत्वेनेन्द्रादिशब्दानां मद्वाच्यत्वाद्वस्तुतो मामेव यजन्ते। अपित्वविधिपूर्वकं तेषामात्मभूतमधिष्ठानताज्ञानपूर्वकं यजनं वेदे विहितम् इतरथा त्वविहितमित्यविधिपूर्वकं ते यजन्ते ततो गतागतं लभन्त इति भावः। अथवामूलं विष्णुर्हि देवानां [भाग.10।4।39] इति वाक्यात् मूलभूतं परित्यज्य शाखापत्रादौ सेचनवद्यजनमविहितमित्यनन्यत्वदर्ढ्यायैवमुच्यते। वेदवाक्यं हि चतुर्होतारो यत्र सम्पदं गच्छन्ति देवैः इतिरूपे मदात्मकविषयाणि देवाराधनानि स्पष्टमुक्तानीति युक्तमुक्तम् -- अविधिपूर्वकं ते यजन्ते इति।


Chapter 9, Verse 23