Chapter 9, Verse 18

Text

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।9.18।।

Transliteration

gatir bhartā prabhuḥ sākṣhī nivāsaḥ śharaṇaṁ suhṛit prabhavaḥ pralayaḥ sthānaṁ nidhānaṁ bījam avyayam

Word Meanings

gatiḥ—the supreme goal; bhartā—sustainer; prabhuḥ—master; sākṣhī—witness; nivāsaḥ—abode; śharaṇam—shelter; su-hṛit—friend; prabhavaḥ—the origin; pralayaḥ—dissolution; sthānam—store house; nidhānam—resting place; bījam—seed; avyayam—imperishable


Translations

In English by Swami Adidevananda

I am the goal, the supporter, the Lord, the witness, the abode, the refuge, and the friend. I am the origin, the dissolution, the basis for preservation, and the imperishable seed.

In English by Swami Gambirananda

I am the fruit of actions, the nourisher, the Lord, witness, abode, refuge, friend, origin, end, foundation, store, and the imperishable seed.

In English by Swami Sivananda

I am the goal, the supporter, the Lord, the witness, the abode, the shelter, the friend, the origin, the dissolution, the foundation, the treasure-house, and the imperishable seed.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

I am the method, the nourisher, the lord, the witness, the abode, the refuge, the good-hearted friend, the origin, the dissolution, the sustenance, the repository, and the imperishable seed of the world.

In English by Shri Purohit Swami

I am the goal, the sustainer, the Lord, the witness, the home, the shelter, the lover, and the origin; I am life and death; I am the fountain and the imperishable seed.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।9.16 -- 9.18।।  क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।9.18।। गति (लक्ष्य), भरण-पोषण करने वाला, प्रभु (स्वामी), साक्षी, निवास, शरणस्थान तथा मित्र और उत्पत्ति, प्रलयरूप तथा स्थान (आधार), निधान और अव्यय कारण भी मैं हूँ।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

9.18 गतिः the goal? भर्ता the supporter? प्रभुः the Lord? साक्षी the witness? निवासः the abode? शरणम् the shelter? सुहृत् the friend? प्रभवः the origin? प्रलयः the dissolution? स्थानम् the foundation? निधानम् the treasurehouse? बीजम् the seed? अव्ययम् imperishable.Commentary I am the goal? the fruit of action. He who nourishes and supports is the huand. I am the witness of the good and evil actions done by the Jivas (individuals). I am the abode wherein all living beings dwell. I am the shelter or refuge for the distressed. I relieve the sufferings of those who take shelter under Me. I am the friend? i.e.? I do good without expecting any return. I am the source of this universe. In Me the whole world is dissolved. I am the mainstay or the foundation of this world. I am the treasurehouse which living beings shall enjoy in the future. I am the imperishable see? i.e.? the cause of the origin of all beings. Therefore? take shelter under My feet.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।9.18।। व्याख्या--[अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वासके अनुसार किसीको भी साक्षात् परमात्माका स्वरूप मानकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय तो वास्तवमें यह सम्बन्ध सत्के साथ ही है। केवल अपने मन-बुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो। जैसे ज्ञानके द्वारा मनुष्य सब देश, काल, वस्तु व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्वको ही जानता है। परमात्माके सिवाय दूसरी किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया,आदिकी किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है -- इसमें उसको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ऐसे ही भगवान् विराट्रूपसे अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं अतः सब कुछ भगवान्हीभगवान् हैं -- इसमें अपनेको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होना चाहिये। कारण कि यह सब भगवान् कैसे हो सकते हैं यह संदेह साधकको वास्तविक तत्त्वसे, मुक्तिसे वञ्चित कर देता है और महान् आफतमें फँसा देता है। अतः यह बात दृढ़तासे मान लें कि कार्यकारणरूपे स्थूलसूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और माननेमें आता है, वह सब केवल भगवान् ही हैं। इसी कार्यकारणरूपसे भगवान्की सर्वव्यापकताका वर्णन सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है।]

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।9.18।। आत्मस्वरूप का वर्णन करने वाले प्रसंग का ही यहाँ विस्तार है। आत्मा अधिष्ठान है इस सम्पूर्ण दृश्यमान नानाविध जगत् का? जो हमें आत्मअज्ञान की दशा में प्रतीत हो रहा है। वास्तव में यह परम सत्य पर अध्यारोपित है। आत्मस्वरूप से तादात्म्य कर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं का वर्णन अनेक सांकेतिक शब्दों के द्वारा करते हैं। ऐसे इन सारगर्भित शब्दों से निर्मित मालारूपी यह एक अत्युत्तम श्लोक है? जिस पर सभी साधकों को मनन करना चाहिए।मैं गति हूँ पूर्णत्व के अनुभव में हमारी समस्त अपूर्णताएं नष्ट हो जाती हैं और उसके साथ ही अनादि काल से चली आ रही परम आनन्द की हमारी खोज भी समाप्त हो जाती है। रज्जु (रस्सी) में मिथ्या सर्प को देखकर भयभीत हुए पुरुष को सांत्वना और सन्तोष तभी मिलता है? जब रस्सी के ज्ञान से सर्प भ्रम की निवृत्ति हो जाती है। दुखपूर्ण प्रतीत होने वाले इस जगत् का अधिष्ठान आत्मा है। उस आत्मा का साक्षात्कार करने का अर्थ है समस्त श्वासरोधक बन्धनों के परे चले जाना। वह पारमार्थिक ज्ञान जिसे जानकर अन्य सब कुछ ज्ञात हो जाता है? उसे यहाँ आत्मा के रूप में दर्शाया गया है।मैं भर्ता हूँ जैसे रेगिस्तान उस मृगजल का आधार है धारण करने वाला है? जिसे एक प्यासा व्यक्ति भ्रान्ति से देखता है? वैसे ही? आत्मा सबको धारण करने वाला है। अपने सत्स्वरूप से वह इन्द्रियगोचर वस्तुओं को सत्ता प्रदान करता है? और समस्त परिवर्तनों के प्रवाह को एक धारा में बांधकर रखता है। इसके कारण ही अनुभवों की अखण्ड धारा रूप जीवन का हमें अनुभव होता है।मैं प्रभु हूँ यद्यपि समस्त कर्म उपाधियों के द्वारा किये जाते हैं? परन्तु वे स्वयं जड़ होने के कारण यह स्पष्ट होता है कि उन्हें चेतनता किसी अन्य से प्राप्त हुई है। वह चेतन तत्त्व आत्मा है। उसके अभाव में उपाधियाँ कर्म में असमर्थ होती है इसलिए यह आत्मा ही उनका प्रभु अर्थात् स्वामी है।मैं साक्षी हूँ यद्यपि आत्मा चैतन्य स्वरूप होने के कारण जड़ उपाधियों को चेतनता प्रदान करता है? तथापि वह स्वयं संसार के आभासिक और भ्रान्तिजन्य सुखों एवं दुखों के परे होता है। इस दृश्य जगत् को आत्मा से ही अस्तित्व प्राप्त हुआ है? परन्तु स्वयं आत्मा मात्र साक्षी है। साक्षी उसे कहते हैं जो किसी घटना को घटित होते हुए समीप से देखता है? परन्तु उसका घटना से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता। बिना किसी राग या द्वेष के वह उस घटना को देखता है। जब किसी व्यक्ति की उपस्थिति में कोई घटना स्वत हो जाती है? तब वह व्यक्ति उसका साक्षी कहलाता है। अनन्त आत्मा साक्षी है? क्योंकि वह स्वयं अलिप्त रहकर बुद्धि के अन्तपुर? मन की रंगभूमि? शरीर के आंगन और बाह्य जगत् के विस्तार को प्रकाशित करता है।मैं निवास हूँ समस्त चराचर जगत् का निवास स्थान आत्मा है। सड़क के किनारे खड़े किसी स्तम्भ पर किन्हीं यात्रियों ने दाँत निकाले हुए भूत को देखा? कुछ अन्य लोगों ने मन्दस्मिति भूत को देखा? तो दूसरों ने वही पर एक नग्न विकराल भूत को देखा? जिसका मुँह रक्त से सना हुआ था और आँखें चमक रही थीं? उसी प्रकार कुछ अन्य लोग भी थे? जिन्होंने आमन्त्रित करते हुए से श्वेत वस्त्र धारण किये हुए भूत को देखा? जो प्रेमपूर्वक उन्हें सही मार्ग दर्शा रहा था। एक ही स्तम्भ पर उन सभी लोगों ने अपनीअपनी भ्रामक कल्पनाओं का प्रक्षेपण किया था। स्वाभाविक है कि? वह स्थाणु उन समस्त प्रकार के भूतों का निवास कहलायेगा। इसी प्रकार जहाँ कहीं भी हमारी इन्द्रियों और मन को बहुविध दृश्यजगत् का आभास होता है? उन सबके लिए आत्मा ही अस्तित्व और सुरक्षा का निवास हैशरणम् मोह? शोक को जन्म देता है? जबकि ज्ञान आनन्द का जनक है। मोहजनित होने के कारण यह संसार दुखपूर्ण है। विक्षुब्ध संसार सागर की पर्वताकार उत्ताल तरंगों पर दुख पा रहे भ्रमित जीव के लिए जगत् के अधिष्ठान आत्मा का बोध शान्ति का शरण स्थल है। एक बार जब आत्मा शरीर? मन और बुद्धि के साथ तादात्म्य कर व्यष्टि जीव भाव को प्राप्त होकर बाह्य जगत् में क्रीड़ा करने जाता है? तब वह सागर तट की सुरक्षा से दूर तूफानी समुद्र में भटक जाता है। जीव की इस जर्जर नाव को जब सब ओर से भयभीत और प्रताड़ित किया जाता है? ऊपर घिरती हुई काली घटाएं? नीचे उछलता हुआ क्रुद्ध समुद्र? और चारों ओर भयंकर गर्जन करता हुआ तूफान तब नाविक के लिए केवल एक ही शरणस्थल रह जाता है? और वह शान्त पोतस्थान है आत्मा आत्मा का उपर्युक्त वर्णन सत्य के विषय में ऐसी धारणा को जन्म देता है मानो वह सत्य निष्ठुर है या एक अत्यन्त प्रतिष्ठित देवता है? या एक अप्राप्त पूर्णत्व है। अर्जुन जैसे भावुक साधकों के कोमल हृदय से इस प्रकार की धारणाओं को मिटा देने के लिए वह सनातन सत्य? मनुष्य के प्रिय मित्र श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं का परिचय देते हुए अब मानवोचित शब्दों का प्रयोग करते हैं।मैं मित्र हूँ अनन्त परमात्मा परिच्छिन्न जीव का मित्र है। उसकी यह मित्रता नमस्कार तक ही सीमित नहीं? वरन् उसकी आतुरता अपने मित्र की सुरक्षा और कल्याण के लिए होती है। प्रत्युपकार की अपेक्षा किये बिना मित्र पर उपकार करने वाला मनुष्य सुहृत् कहलाता है।मैं प्रभव? प्रलय? स्थान और निधान हूँ जैसे आभूषणों में स्वर्ण और घटों में मिट्टी है? वैसे ही आत्मा सम्पूर्ण विश्व में है। इसलिए सभी की उत्पत्ति? स्थिति और लय स्थान वही हो सकता है। इसी कारण से उसे यहाँ निधान कहा गया है? क्योंकि सभी नाम? रूप एवं गुण इसी में निहित रहते हैं।मैं अव्यय बीज हूँ सामान्य बीज अंकुरित होकर और वृक्ष को जन्म देकर स्वयं नष्ट हो जाते हैं? परन्तु यह बीज सामान्य से सर्वथा भिन्न है। आत्मा निसन्देह ही इस संसार वृक्ष का बीज है? परन्तु इस वृक्ष की उत्पत्ति में स्वयं आत्मा परिणाम को नहीं प्राप्त होता? क्योंकि वह अव्यय स्वरूप है। यह धारणा कि सनातन सत्य परिणाम को प्राप्त होकर यह सृष्ट जगत् बन गया है? मनुष्य की तर्क बुद्धि को एक कलंक है और वेदान्त ऐसी दोषपूर्ण अयुक्तिक धारणा को अस्वीकार करता है? परन्तु द्वैतवादी इस सिद्धांत का समर्थन करते हैं? अन्यथा उनके तर्कों का महल ही धराशायी होकर चूरचूर हो जायेगा? जैसे शरद ऋतु के आकाश में निर्मित मेघों का किला छन्नभिन्न हो जाता है।जैसा कि पहले बताया जा चुका है? यह श्लोक सरल किन्तु सारगर्भित शब्दों से पूर्ण है? जिसमें प्रत्येक शब्द साधक के मनन के लिए छायावृत मार्ग है? जिस पर आनन्दपूर्वक टहलते हुए सत्य के द्वार तक पहुँचा जा सकता है।भगवान् आगे कहते हैं --

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।9.18।।भगवतः सर्वात्मकत्वे हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। गम्यत इति प्रकृतिविलयान्तं कर्मफलं गतिरित्याह -- कर्मेति। पोष्टा कर्मफलस्य प्रदाता। कार्यकरणप्रपञ्चस्याधिष्ठानमित्याह -- निवास इति। शीर्यते दुःखमस्मिन्निति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- शरणमिति। प्रभवत्यस्माज्जगदिति व्युत्पत्तिमादायोक्तम् -- उत्पत्तिरिति। कारणस्य कथमव्ययत्वमित्याशङ्क्याह -- यावदिति। कारणमन्तरेणापि कार्यं कदाचिदुदेष्यति किं कारणेनेत्याशङ्क्याह -- नहीति। मा भूत्तर्हि संसारदशायामेव कदाचित्कार्योत्पत्तिरित्याशङ्क्याह -- नित्यं चेति। कारणव्यक्तेर्नाशमङ्गीकृत्य तदन्यतमव्यक्तिशून्यत्वं पूर्वकालस्य नास्तीति सिद्धवत्कृत्य विशिनष्टि -- बीजेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।9.18।।किंच गतिः कर्मणः साक्षात्परंपरया च फलं स्वर्गादि। भर्ता कर्मफलप्रदानेन पोषणकर्ता। प्रभुः सर्वस्य नियन्ता स्वामीतियावत्। साक्षी प्राणिनां शुभाशुभयोः पक्षपातविनिर्मुक्तमनुद्रष्टा। निवसन्ति प्राणिनोऽस्मिन्निवासः। प्राणिवासस्थानमित्यर्थः। निवसन्ति भोगाय प्राणिनेऽस्मिन्निति निवासो भोगस्थानमिति वा। शीर्यते दुःखखस्मिन्निति शरणमार्तानां मत्प्रपन्नानां पीडाहारः। सुहृत्प्रत्युपकारनिरपेक्षः सन्नुपकारकर्ता। प्रभवनमिति प्रभव उत्पत्तिः। प्रलीयते विश्वमस्मिन्निति प्रलयः। यद्वा प्रकर्षेण भवत्यनेनेति प्रभवः स्त्रष्टा। प्रलीयतेऽनेनेति प्रलयः संहर्ता। भाष्यस्योपलक्षणार्थत्वादविरोधः। तिष्ठत्यस्मिन्स्थितिकाले विश्वमिति स्थानम्। निधीयते निक्षिप्यते कालान्तरोपभोग्यं प्राणिनां कर्मफलमस्मिन्निति निधानं शङ्खपद्मदिनिधिर्वा। भाष्यं तूपलक्षणार्थमित्युक्तमेव। बीजं प्ररोहधार्मिणां वस्तूनां प्ररोहकारणम्। अव्ययं यावत्संसारभावित्वात्। नह्यबीजं किंचित्प्ररोहति। प्ररोहदर्शनाद्वीजसंततेर्नित्यत्वमिति गम्यते। अव्ययमविनाशि नतु व्रीह्यदिबीजवद्विनश्वरमिति वा। आचार्यैस्तु बीजशब्देन जगद्वीजस्य ब्रह्मण उपादाने तु अव्यपदस्योपपन्नत्वेन सुगमत्वात्। ब्रह्मणः परमकारणतया उक्त्वाच्चायं पक्ष उपेक्षिति इति ध्येयम्। गत्यादिकं सर्वमहमेवेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।9.18।।गम्यते मुमुक्षुभिरिति गतिः। तथा हि सामवेदे वासिष्ठशाखायाम् अथ कस्मादुच्यते गतिरिति ब्रह्मैव गतिरिति तद्धि गम्यते पापविमुक्तैः इति। साक्षादीक्षत इति साक्षी। तथाहि बाष्कलशाखायाम् स साक्षादिदमद्राक्षीद्यदद्राक्षीत्तत्साक्षिणः साक्षित्वम् इति। शरणमाश्रयः संसारभीतस्य।परं परायणं इत्याद्युक्तम्। नारायणं महाज्ञेयं विश्वात्मानं परायणम् [म.ना.उ.9।3] इति च। संहारकाले प्रकृत्या जगदत्र निधीयत इति निधानम्। तथा हि ऋग्वेदखिलेषु अपश्यमप्यये मायया विश्वकर्मण्यदो जगन्निहितं शुभ्रचक्षुः इति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।9.18।।गतिर्मुक्तिप्राप्यं स्थानम्। भर्ता कर्मफलदानेन पोषकः। प्रभुः अन्तर्यामी। साक्षी कृताकृतावेक्षकः। निवसन्त्यस्मिन्निति निवास आश्रयो यजमानादिः। शरणं रक्षकः। सुहृदुपकारमनपेक्ष्योपकर्ता। प्रभव उत्पत्तिस्थानम्। प्रलयो लयस्थानम्। स्थानं स्थितिस्थानम्। निधानं कर्मफलसमर्पणस्थानम्। कालान्तरे फलप्रसवार्थं बीजं प्ररोहकारणं प्ररोहधर्मिणाम्। अव्ययं यावत्संसारभावित्वात्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।9.18।।गम्यत इति गतिः? तत्र तत्र प्राप्यस्थानम् इत्यर्थः। भर्ता धारयिता? प्रभुः शासिता? साक्षी साक्षाद् द्रष्टा? निवासः वासस्थानं च वेश्मादि? शरणम् इष्टस्य प्रापकतया अनिष्टस्य निवारणतया समाश्रयणीयः चेतनः शरणम्? स च अहम् एव सुहृत् हितैषी? प्रभवप्रलयस्थानं यस्य कस्य यत्र कुत्रचित् प्रभवप्रलययोः यत् स्थानं तद् अहम् एव। निधानं निधीयत इति निधानम् उत्पाद्यम् उपसंहार्यं च अहम् एव इत्यर्थः। अव्ययं बीजं तत्र तत्र व्ययरहितं यत् कारणं तद् अहम् एव।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।9.18।।किंच -- गतिरिति। गम्यत इति गतिः। फलम्? भर्ता पोषणकर्ता? प्रभुः नियन्ता? साक्षी शुभाशुभद्रष्टा? निवासः भोगस्थानम्? शरणं रक्षकः?सुहृद्धितकर्ता? प्रकर्षेण भवत्यनेनेति प्रभवः स्रष्टा? प्रलीयतेऽनेनेति प्रलयः संहर्ता? तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानमाधारः? निधीयतेऽस्मिन्निति निधानं लयस्थानम्? बीजं कारणम्? तथाप्यव्ययमविनाशि नतु व्रीह्यादिबीजवन्नश्वरमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।9.18।।गतिशब्दस्याग्र्यप्रायन्यायेन द्रव्यपरत्वौचित्यान्नात्र भावार्थपरत्वमित्यभिप्रायेण स्थानपरत्वमाह -- गम्यत इतीति। सर्वजनसाधारणेषु अर्थेषु निर्दिश्यमानेषु तन्मध्ये स्त्रीविशेषमात्रप्रतिसम्बन्धिपदार्थो न वक्तुमुचितः? धारणार्थत्वं च बिभर्तिधातोः प्रसिद्धमित्यभिप्रायेणाहभर्ता धारयितेति। प्रभुशब्दस्यात्र प्रभूततामात्रपरत्वेजगतः इत्यनेनान्वयो न स्यादित्यभिप्रायेणाहशासितेति।साक्षाद्द्रष्टेति -- साक्षाद्द्रष्टरि संज्ञायाम् [अष्टा.5।2।91] इति हि साक्षिशब्दोऽनुशिष्यते।वासस्थानमिति -- अत्र भावादिपरत्वानौचित्यादधिकरणार्थोऽयं घञिति भावः। गतिशब्देन पौनरुक्त्यनिरासायोक्तंवेश्मादीति। गतिशब्दस्तु स्वर्गपृथिव्यादिगन्तव्यदेशपर उक्तः? तत्तद्देशानुभाव्यभोग्यपरो वा। शरणशब्दस्यात्र निवासशब्दनिर्दिष्टगृहाद्यचेतनपरत्वव्युदासायाहइष्टस्येति। इष्टप्राप्त्यनिष्टनिवारणयोर्यथेच्छं प्रत्येकसमुदायाभ्यामन्वयः।शरणं गृहरक्षित्रोः [अमरः3।3।52] इति पाठादत्र रक्षितृपरः शरणशब्दः।हितैषीति -- शोभनहृदययुक्तो हि सुहृत्? शोभनत्वं च हृदयस्य हितगोचरत्वमिति भावः।यस्यकस्यचिदिति -- न केवलं ब्रह्मादेरव्यक्तादेर्वा यदुत्पत्तिप्रलयस्थानमित्यभिप्रायः।प्रभवः इति व्यस्तं परोक्तं पाठान्तरमप्रसिद्धेरनार्जवाच्चानादृतम्।प्रभवप्रलयस्थानम् इति प्रसक्तत्वात् तत्र यत्प्रभवति? यच्च प्रलीयते? तदत्र निधानशब्देन विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहनिधीयते इति निधानमिति। कर्मार्थोऽयं ल्युट्प्रत्ययः। एतेन निधानशब्दस्य प्रलयस्थानविशेषणत्वेन अव्याकृतपरत्वयोजना निरस्ता।प्रभवप्रलयस्थानं,इत्यस्योपादानविवक्षायां बीजशब्दः कारणमात्रपरः तस्योपादानपरत्वविवक्षायां बीजाधारक्षित्यादिदेशपरः पूर्व इत्यभिप्रायेणाहतत्रतत्रेति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।9.16 -- 9.19।।ननु कर्म तावत् कारककलापव्याप्तभेदोद्रेकि कथमभिन्नं भगवत्पदं प्रापयतीति उच्यते -- अहं क्रतुरिति अर्जुनेत्यनन्तम्। एकस्यैव निर्भागस्य ब्रह्मतत्त्वस्य परिकल्पित [भेदवत्] साधनाधीनं कर्म पुनरेकत्वं निर्वर्तयति क्रियायाः सर्वकारकात्मसाक्षात्कारेणावस्थाने भगवत्पदप्राप्तिं प्रत्यविदूरत्वात्। उक्तं च -- सेयं क्रियात्मिका शक्तिः शिवस्य पशुवर्तिनी।बन्धयित्री स्वमार्गस्था ज्ञाता सिद्ध्युपपादिका।। (Spk? III? 16)इति मयाप्युक्तम् -- उपक्रमे यैव बुद्धिर्भावाभावानुयायिनी।उपसंहृतिकाले सा भावाभावानुयायिनी।।इति।तत्र तत्र वितत्य विचारितचरमेतत् इतीहोपरम्यते (S omits इति)। तपाम्यहमित्यादि अद्वैतकथाप्रसङ्गेनोक्तम्।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।9.18।।गतिः कर्मफलमिति व्याख्यानं (शं.) अपाकर्तुमाह -- गम्यते इति। शरणमित्यतो भेदार्थमुक्तं मुमुक्षुभिरिति। अत एव गम्यत इत्यस्यावगम्यत इत्यर्थः। कुत एतत् इत्यत आह -- तथा हीति। किमुच्यत इत्यपि प्रश्नोऽध्याहार्यः। साक्षीत्यौदासीन्यं प्रतीयते? अत आह -- साक्षादिति। कुत एतदित्यत आह -- तथा हीति। यदद्राक्षीत्साक्षात्तत्साक्षिणः परमेश्वरस्य साक्षित्वं साक्षिशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम्। तदुक्तम्साक्षाद्द्रष्टरि संज्ञायाम् [अष्टा.5।2।91] इति। निवासशब्दागतार्थतया शरणशब्दार्थमाह -- शरणमिति। संसारभीतस्येति मुक्तोपलक्षणम्। विष्णोर्मुक्ताश्रयत्वे प्रमाणमाह -- परमिति। परायणं मुक्तानामाश्रयः। तथापि निधानमिति पुनरुक्तिरित्यत आह -- संहारेति। सर्वभूतानिप्रकृतिं यान्ति [3।33] इत्युक्तत्वात् कथं भगवति निधीयत इत्यत उक्तं प्रकृत्येति। प्रथमं प्रकृतिं यान्ति पश्चात्तत्र निधीयन्त इत्यर्थः। तत्कुतः इत्यत आह -- तथा हीति। विश्वकर्मणीश्वरे शुभ्रचक्षुः शुद्धदृष्टिरहम्।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।9.18।।किंच -- गम्यत इति गतिः कर्मफलंब्रह्मा विश्वसृजो धर्मो महानव्यक्तमेव च। उत्तमां सात्त्विकीमेतां गतिमाहुर्मनीषिणः इत्येवं मन्वाद्युक्तम्। भर्ता पोष्टा सुखसाधनस्यैव दाता। प्रभुः स्वामी मदीयोऽयमिति स्वीकर्ता। साक्षी सर्वप्राणिनां शुभाशुभद्रष्टा। निवसन्त्यस्मिन्निति निवासो भोगस्थानम्। शीर्यते दुःखमस्मिन्निति शरणम्। प्रपन्नानामार्तिहृत्। सुहृत् प्रत्युपकारानपेक्षः सन्नुपकारी। प्रभव उत्पत्तिः प्रलयो विनाशः स्थानं स्थितिः। यद्वा प्रकर्षेण भवन्त्यनेनेति प्रभवः स्रष्टा। प्रकर्षेण लीयन्तेनेनेति प्रलयः संहर्ता। तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानमाधारः। निधीयते निक्षिप्यते तत्कालभोगायोग्यतया कालान्तरोपभोग्यं वस्त्वस्मिन्निति निधानं सूक्ष्मरूपसर्ववस्त्वधिकरणं प्रलयस्थानमिति यावत्। शङ्खपद्मादिनिधिर्वा बीजमुत्पत्तिकारणम्। अव्ययमविनाशि। नतु व्रीह्यादिवद्विनश्वरं तेनानाद्यनन्तं यत्कारणं तदप्यहमेवेति पूर्वेणैव संबन्धः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।9.18।।गतिर्मोक्षादिफलरूपः। भर्त्ता पोषकः। प्रभुः समर्थः सर्वनियन्ता। साक्षी द्रष्टेत्यर्थः। निवासः स्थानं सर्वदेहस्वरूपात्मक इति। शरणं अभयदाता मृत्युप्रभृतिभय रक्षकः। सुहृत् अप्रार्थितहितकर्ता। प्रभवः प्रकर्षेण भवत्यस्मादिति जगत्स्रष्टा। प्रलयः प्रकर्षेण लीयतेऽस्मिन्निति लयस्थानम्। स्थानं तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानं सकलाधारः। निधानं निधीयते स्थाप्यतेऽनेनेति निधानं? रक्षक इत्यर्थः। अव्ययं बीजम्? अविनाशि बीजं मूलकारणमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।9.18।। --,गतिः कर्मफलम्? भर्ता पोष्टा? प्रभुः स्वामी? साक्षी प्राणिनां कृताकृतस्य? निवासः यस्मिन् प्राणिनो निवसन्ति? शरणम् आर्तानाम्? प्रपन्नानामार्तिहरः। सुहृत् प्रत्युपकारानपेक्षः सन् उपकारी? प्रभवः उत्पत्तिः जगतः? प्रलयः प्रलीयते अस्मिन् इति? तथा स्थानं तिष्ठति अस्मिन् इति? निधानं निक्षेपः कालान्तरोपभोग्यं प्राणिनाम्? बीजं प्ररोहकारणं प्ररोहधर्मिणाम्? अव्ययं यावत्संसारभावित्वात् अव्ययम्? न हि अबीजं किञ्चित् प्ररोहति नित्यं च प्ररोहदर्शनात् बीजसंततिः न व्येति इति गम्यते।।किञ्च --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।9.18।।किञ्च गतिः प्राप्यलोकादिरूपा ब्रह्मैव? तेन गन्तव्यमिति पूर्वसूत्रितत्वात्। भर्त्ता पोषकश्चाहम्। प्रभुः फलदश्च साक्षी कृताकृतावेक्षकत्वेन ब्रह्मरूपश्चाहम्। निवासो यागभूमिरहम्।शरणं गृहरक्षित्रोः [अमरः3।3।52] इति कोशात् यज्ञशाला चाहम्। सुहृत् यजमानस्य बन्धुवर्गः। प्रभवः फलस्योत्पादको देवतारूपः। प्रलयः पापानां नाशकश्च। स्थानं देशस्तीर्थक्षेत्रादिरूपः। निधानं निधीयतेऽस्मिन्निति यूपचमसादिपात्रमहं ब्रह्मैव। बीजं यवादि। अव्ययं पशुजातम्। नचाव्यपदेन कथं पशुबोध इति वाच्यम् अव्येतीत्यव्ययं इति व्युत्पत्त्याऽजादिबोधात् गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः [ऋक्सं.8।4।18।5यजुस्सं.31।8] इति श्रुतेश्च। अथवा ब्रह्मयज्ञे हि पूर्वमनुक्तत्वादालभनस्येत्यभिप्रायेण तथैव तदुक्तम्। अव्ययं बीजं अपूर्वाख्यमहमेव।


Chapter 9, Verse 18